वादी-ए-कश्मीर
दूसरों के कहने पर
यह वादी न उजाड़ो तुम।
देखो! आडू और खुबानी से,
शाखें, दरख्तों की झुकी जाती हैं।
जैसे, हामला दोशीजा अपने बेटे को
जन्म देने के इन्तजार में दिन गिनती हैं।
दूसरों के कहने पर
पानी की जगह खून से
मत सींचों, तुम।
इन सेब के दरख्तों को।
बन्द घरों के मुँह पर लटकते ताले,
कूच करते यह काफिले सारे,
तुम्हारे कारण ही भटक रहे हैं।
सोचो तो जरा?
दूसरों के कहने पर
क्यो सचमुच ही भूल चुके हो तुम।
अपनी जमीं पर रहना।
भूल गए उस बूढ़े चिनार के नीचे
उस मकतब को,
जहाँ सीखा था अलिफ से अल्लाह...
जो बड़ा रहीम और करीम है।
जिसने हमको और तुमको पैदा किया
सारी नियामतों से मालामाल किया।
अब इस बेगानगी का लबादा फेंको
उठो। उठो।
इन मेवों से दामन भर लो।
खुद खाओ और दूसरों को खिलाना सीखो।
अंगूर के दानों को दहन में रख
झेलम के आब को पीना सीखो।
लिख डालो दिल की तख्ती पर,
मुहब्बत की रोशनाई से।
बरसों की वह पुरानी इबारत
अमन का पैगाम, भाईचारे की ज़बान
जो सिखाते चले आए थे तुम्हारे बाबा के बाबा
उस पुश्तैनी विरासत को बिछाकर तुम!
पढ़ डालो दो वक़्त नमाज़ आज।
नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489