अभिनव इमरोज़ आवरण पृष्ठ 2


मैं शामिल हूँ....


मैं शामिल हूँ या न हूँ
मगर हूँ तो, इस कालखंड की चश्मदीदगवाह!
बरसों पहले वह गर्भवति जवान औरत
गिरी थी, मेरे उपन्यासों के पन्नों पर, खून से लतपथ!
ईरान की थी या फिर टर्की की
या थी अफ्रीका की या फिलस्तीन की या फिर हिन्दुस्तान की
क्या फर्क़ पड़ता है, वह कहाँ की थी।


वह लेखिका जो पूरे दिनों से थी
जो अपने देश के इतिहास को
शब्दों का जामा पहनाने के जुर्म में
लगाती रही चक्कर न्यायलय का
देती रही सफाई ऐतिहासिक घटनाओं की सच्चाई की
और लौटते हुए फिक्रमन्द रही, उस बच्चे के लिए
जो सुन रहा था किसी अभिमन्यू की तरह सारी कारगुजारियाँं


या फिर वह जो दबा न पाई अपनी आवाज़
और चली गई सलाख़ों के पीछे
गर्भ में पलते हुए एक नए चेहरे के साथ


यह तो चन्द हक़ीक़तें व चन्द फसाने हैं
जाने कितनों ने, तख़्त पलटे हैं हुकमरानों के
हर मोर्चो पर लड़ रही हैं यह औरतें
छोड़ कर अपनी जन्नतों की सरहदें
चिटखा देती हैं कभी अपने ही वजूद को
अपनी ही चीत्कारों और सिसकियों से
तोड़ देती हैं उन सारे प़ैमानों और बोतलों को
जिस में उतारी गई है वह बड़ी महारत से
दीवानी हो चुकी हैं सब की अब औरतें!


मैं शामिल हूँ या न हूँ
मगर हूँ तो इस कालखंड की चश्मदीद गवाह!



नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य