डैफोडिल


निशा चन्द्रा, अहमदाबाद, मो. 9662095464


मादक संगीत, झिलमिल करती हुई रोशनी, खनकते हुए गिलास और थिरकते हुए पाँवो के बीच, रुद्राक्ष ने, अचानक अपने आपको कुम्भ के मेले में पाया। थैंक गॉड! वहाँ उसे जेम्स मिल गया और अपने साथ यहाँ ले आया, नहीं तो आज वह हरिद्वार के किसी घाट पर, लंगोटी पहनकर, भस्म पुते शरीर के साथ धूनी रमा रहा होता। जिन्दगी में इतने सुख, रंगीनियां होती हैं, कभी नहीं जान पाता। जेम्स का यह डैफोडिल पब ! जेम्स को डैफोडिल के फूल बेहद पसन्द थे, इसलिए जब उसने यह पब खोला, तो इसका नाम, अपने प्रिय फूलों के नाम पर डैफोडिल ही रखा और इतना ही नहीं महंगा होने पर भी रोज शाम को, पब की प्रत्येक टेबल के गुलदस्ते में डैफोडिल का फूल लगाया जाता। जेम्स, रुद्राक्ष का पिता नहीं है, यह उसे कभी पता नहीं लगता यदि जेम्स स्वयं उसे न बताता। कुछ समय पहले जेम्स तो अल्लाह को प्यारा हो गया पर जाते-जाते यह पब उसके नाम कर गया। इतना ही नहीं, मरने से पहले उसे, उसके जीवन की सच्चाई भी बता गया।


'तुम मेरे अपने बेटे नहीं हो रुद्र। तुम्हे तो मैंने कुम्भ के मेले में पाया था। बहुत छोटे थे तुम, शायद दो-ढाई साल के। मैं अपने कैमरे से मेले में आये लोगों की तस्वीरे उतार रहा था, अचानक कैमरे के लैंस के सामने तुम आ गये। तुम शायद अपने माँबाप से बिछुड़ गये थे और रोये जा रहे थे। मैं उधर से जाने वाला ही था कि मैंने देखा, दो-तीन नागा साधु आये और तुम्हें उठा कर ले जाने लगे। बड़ी मुश्किल से, तुम्हें, उनसे छुड़ाकर ला पाया, फिर मैंने, पुलिस ने, तुम्हारे माँ-बाप को ढूँढने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनका कहीं पता नहीं लगा। पुलिस तुम्हें अनाथाश्रम भेज रही थी, पर इतने दिन में, मुझे तुमसे बहुत लगाव हो गया था, इसलिए कानूनी कारवाई करके तुम्हें अपने साथ बम्बई ले आया। आते-आते पुलिस को अपना पता भी दे दिया था, कि कभी कोई तुम्हें लेने आये तो ले जा सके, लेकिन आज तेईस साल बीत गये, कोई नहीं आया। मैंने तुम्हे अपने बच्चे की तरह पाला। तुम्हारे कारण मैंने शादी भी नहीं की। आज यह घर, यह पब, पैसा सब तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ, इन सब की हिफाजत करना।


रुद्राक्ष ने अपना वादा खूब अच्छे से निभाया और डैफोडिल पब को शहर का नामीगिरामी पब बना दिया। शाम होते ही, पब के ऊपर ऊँची पट्टी पर लिखे हुए डैफोडिल के सफेद अक्षर जैसे ही नियोन-आलोक में जगमगाते हैं, फिल्मी-हस्तियों, मशहूर बिजनैसमैन, उनके पुत्र-पुत्रियों, कलाकारों से अन्दर का माहौल जगमगा उठता है। उस झिलमिलाते हुए वातावरण में, अब न जाने क्यों, बार-बार उसे कुम्भ के मेले, उसमें खो गये अपने माँ-बाप की याद आती है। पता नहीं वह किस जाति का है? किस शहर में उसका जन्म हुआ था? उसके माँ बाप कौन हैं?


'रुद्र रुद्र, अरे कहा खो गया?'


'आने वाला उसका दोस्त अक्षय था।'


'कहीं नहीं। तू ऐसे क्यों हांफ रहा हैं?'


'पता है आज मुझे गौरी मिली थी।'


'कौन गौरी? गौरी खान !'


'गौरी खान नहीं, गौरी शर्मा, तेरी गौरी।'


उसे कैसे भूल सकता है रुद्राक्ष।


कॉलेज खत्म होने के बाद, तीन साल की फेलोशिप मिलने की खबर आई थी जर्मनी से। गौरी से तीन साल के लिए बिछुड़ना होगा। यहीं डैफोडिल में उससे अन्तिम मुलाकात हुई थी, तब गौरी ने कहा था, 'तुम आओ रुद्र। मेरी चाहत, मेरी खामोशी, मेरे सपने, मेरे आँसू, मेरी हँसी सब लेकर जाओ। सिर्फ अपने आपको मेरे भीतर छोड़कर जाना।'


'लेकिन तुम मुझे वचन दो, तीन साल मेरा इन्तजार करोगी। यहाँ ऐसे ही आती रहोगी। डैफोडिल में मुझे महसूस करोगी।'


'दिया वचन।'


वह नहीं आयी। एक दिन के लिए भी नहीं। अपना दिया वचन निभाने जेम्स से भी मिलने नहीं आयी।।


'कहाँ देखा तुमने उसे?'


'हरे-कृष्ण मन्दिर में। माथे पर लम्बा सा तिलक लगाये, बाल बिखेरे, भगवान के सामने अपनी मंडली के साथ नाच रही थी। मैंने उसे तीन-चार बार पुकारा, पर उसने मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया। तब मैंने उसके पास जाकर कहा, रुद्राक्ष वापिस आ गया है और तुम्हारा इन्तजार कर रहा है। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे पूछ रही हो, कौन रुद्राक्ष, और तुम कौन हो?


एक दिन यहीं इसी डैफोडिल पब में रुद्राक्ष की मुलाकात गौरी से हो गई थी। कोने की एक कुर्सी पर बैठी हुई वह कुछ सोच रही थी, जैसे ही रुद्राक्ष उसके पास से निकला गौरी ने उसे रोक कर कहा था,


'एक सिगरेट मिलेगी?'


रुद्राक्ष ने अपना सिगरेट-केस खोल कर, किसी नायिका की उँगलियों सी पतली सिगरेट उसके सामने कर दी थी।


'यह मेरा ब्रान्ड नहीं है।'


'कौन सी पीती हैं आप?'


'मैं सिर्फ विल्स पीती हूँ।'


'मैं सिर्फ गोल्डन पीता हूँ, ये चलेगी तो बोलो।'


'छोड़ो, व्हिसकी तो मिलेगी।'


'कौन सा ब्रान्ड?'


'कोन्याक'


'वह तो नहीं है, वोदका चलेगी?'


'इस पब का नाम डैफोडिल नहीं 'चलेगा-चलेगी पब' होना चाहिए था। ये नहीं है तो ये चलेगी, वो नहीं है तो वो चलेगा। इडियट।'


चलेगा-चलेगी वाली बात रुद्राक्ष को इतनी पसन्द आयी थी कि उसने तुरन्त गौरी की तरफ अपना हाथ बढ़ा कर कहा था,


'फ्रैंडस'


'मैं फ्रैंडस नहीं बनाती।'


रुद्राक्ष को अपना अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ और वह वहाँ से अपने केबिन में चला गया। रात के बारह बजे जब वह बाहर आया तो देखा वह नशे में धुत्त, अभी तक वहीं बैठी थी।


'अरे, तुम अभी तक गयी नहीं, और तुमने कितनी ज्यादा पी ली है, अब घर कैसे जाओगी?'


'इतनी पीने की मुझे आदत है और बाहर मेरा ड्राइवर खड़ा है, वह मुझे लेकर जायेगा। क्या तुम मेरा दोस्त बनना पसन्द करोगे?


'मैं दोस्त नहीं बनाता।'


'इतनी भी क्या नाराजगी रुद्र।'


'क्या? तुम मेरा नाम जानती हो?'


'तुम्हारा नाम जानना कौन सी बड़ी बात है। डैफोडिल के मालिक जेम्स और उसके बेटे रुद्राक्ष को कौन नहीं जानता?'


'अच्छा, अब अपना नाम तो बता दो।'


'गौरी, गौरी शर्मा, आर्किटेक्ट गौरी।'


'आर्किटेक्ट होकर तुम?'


'कला-प्रेमी ही नशे में रहते हैं।' कहकर वह फिर बहकने लगी थी। बस यहीं से शुरु हुई थी उसकी गौरी से दोस्ती। जो आगे चलकर प्यार में बदल गयी थी।


शहर के बहुत बड़े बिल्डर की बेटी थी गौरी।


'तुम्हें नहीं पता रुद्राक्ष, मैं कितने बड़े बिल्डर की बेटी हूँ। रात-दिन मेरा बाप ईट-पत्थर की इमारतें ही बनाने में लगा रहता है। सारी रात नहीं, सिर्फ दिन में। रात में तो वह जिस्म तराशता है।।


अब ये ही लत माँ को भी लग गयी है। रोज रात को दोंनो क्लब में जाने का कहकर एक ही कार में निकलते हैं, आते हैं दोनो अलग-अलग कार में। वैसे हमारी हाई-सोसायटी में यह आम बात है, हर घर में यही होता है।


'जानता हूँ, रात-दिन ऐसे ही नमूनों से तो मेरा पाला पड़ता है।'


'दोनों में से एक को भी मेरी परवाह नहीं है। छोटी थी, तब दोनों मुझे आया और नौकरों के भरोसे छोड़कर चले जाते थे और आया ! वह मुझे डरा-धमका कर अकेले कमरे में सुला देती थी, और स्वयं जाकर नौकरों के साथ अय्याशी करती थी। कुछ बड़ी हुई तो नौकर बात-बात पर मेरे शरीर के कुछ हिस्सों पर हाथ फिराने लगा। जब माँ को बताया तो उन्होंने मुझे ही डाँट दिया। बीड़ी, सिगरेट सब मैंने नौकरों के साथ ही पीनी सीखी। अब दोनों रोते हैं, पर अब मैं इतनी दूर निकल चुकी हूँ कि खुदा भी चाहे तो मुझे वापिस नहीं ला सकता।'


'खुदा को चैलेन्ज कर रही हो? शायद तुम्हें बदलने के लिए ही खुदा ने मुझे तुमसे मिलवाया है।'


'ठीक है, तुम भी ट्राय कर लो।'


वह उसे सुधार पाता, इस से पहले ही जर्मनी से बुलावा आ गया। ठीक ही कहा था उसने, शायद खुदा ने चाहा ही नहीं।।


दूसरे दिन, संध्या जब रात की तरफ अपने कदम बढ़ा रही थी, एक वेटर ने आकर रुद्राक्ष से कहा, कोई बाहर, उससे मिलना चाहता है। पब के लॉन में, हलकी, फीकी सी चाँदनी बिखर आई थी। चाँदनी के झिलमिलाते कण गौरी पर पड़ रहे थे। उसका सौन्दर्य भुतैला सा लग रहा था, जो एक साथ आकर्षित और आतंकित दोनों कर रहा था। साँप की आँख जैसा जादुई सम्मोहन था उसकी आँखों में।


'कहाँ चली गई थीं तुम गौरी? मैंने कितना तुम्हे ढूँढा और कहाँ-कहाँ नहीं। शहर के एक-एक होटल, बार, क्लब छान मारे, तुम कहीं नहीं मिली।'


'इस बार गलत जगह ढूंढ रहे थे तुम मुझे।'


'तुम्हारे घर भी गया था, वहाँ ताला लगा हुआ था।'


'मन्दिरों और मस्जिदों में ढूँढा होता तो शायद मिल जाती।'


रुद्राक्ष को लगा, यह पागल हो गयी है या फिर आज ज्यादा चढ़ा ली है।


'चलो, अन्दर बैठते हैं। आज कोन्याक है।'


'अब में गंगाजल पीती हूँ।'


'कहाँ थी तुम तीन साल से?'


'हरिद्वार।'


पूछने के साथ ही रुद्राक्ष ने सोचा कहीं उसकी जन्म कुंडली की रिसर्च करने तो नहीं चली गयी थी।


'मम्मी-पापा की अस्थियाँ लेकर गयी थी। तुम्हारे जर्मनी जाने के एक हफ्ते बाद ही उनकी एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी। उस दिन दोनों एक ही कार में वापिस आ रहे थे। अच्छी तरह दोनों साथ-साथ जी तो न सके पर मौत दोनों ने साथ-साथ स्वीकारी। तेरह दिन बाद उनकी अस्थियाँ लेकर हरिद्वार जा रही थी। बॉम्बे से दिल्ली तक प्लेन में, फिर टैक्सी में जाना था। प्लेन में बैठते ही मुझे मम्मी-पापा के साथ बिताये कुछ भूले-बिसरे पल याद आने लगे और मैं रोने लगी। मेरे पास जो व्यक्ति बैठा था, उसने मुझे रजनीश की एक किताब थमा दी। किताब बीच में से खोलकर मैं पढ़ने लगी। उसमें लिखा था,


'मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थी। एक अत्यन्त वृद्ध भिखारी, सड़क के किनारे बैठकर भीख माँगता था। उसका शरीर लकवाग्रस्त था, अन्धा और कोढ़ी भी था। उसके पास से जो भी गुजरता था, सब अपना मुंह दूसरी तरफ घुमा लेते थे। एक युवक रोज उधर से निकलता था और सोचता था, वृद्धावस्था के कारण जीर्ण, कुछ-कुछ मृतःप्राय इस भिखारी को भी जीवन से कितना मोह है कि भीख मागकर भी जीने की इच्छा रखता है। अंततः एक दिन उस युवक ने अपनी बात भिखारी के समक्ष रख दी। उसका प्रश्न सुनकर भिखारी हँसने लगा और बोला 'बेटा, यह प्रश्न मेरे मन को भी सताता रहता है। भगवान से भी पूछता हूँ पर वहाँ से भी कोई उत्तर नहीं मिलता। फिर सोचता हूँ, शायद परमात्मा ने मुझे इसलिए जीवित रखा है, जिससे दूसरे व्यक्ति जान सकें, कि कभी मैं भी उनके जैसा था और कभी वे भी मेरे जैसे हो सकते हैं।'


इसलिए कहता हूँ इस संसार में सौंदर्य, स्वास्थ्य, यौवन का अहं एक प्रवंचना से ज्यादा कुछ नहीं।'


'बस, वह एक वाक्य था, जिसने मेरी जिंदगी को बदलने में पहला पड़ाव डाला।' 'फिर, फिर क्या हुआ?'


'मैं अस्थियाँ जल में प्रवाहित कर रही थी। निजता का खालीपन पहली बार मैंने महसूस किया। अस्तित्व के नाम पर संज्ञाहीन जैसी स्थिति थी। गंगा की निश्छल धारा अविरत बहती जा रही थी। चारों तरफ हर-हर गंगे, जय-जय गंगे की सामूहिक अर्चना से धरती-आकाश कम्पित हो रहे थे। प्रकृति का सहज लयबद्ध नर्तन, दूर पहाड़ों से आता हुआ कोई विस्मृत फुहार का झोंका गंगा को और भी मोहक बना गया। एक विचित्र थिरकन, एक अपरिचित भावोद्वेग, आत्म-विस्मृत क्षण, पत्तों पर ध्यानमग्न ओस जैसे वायु के कम्पन से नीचे टपक पड़ी। वह क्षण था और गौरी बदल गयी। उसके बाद कितने ही दिन, महीनों में परिवर्तित हो गये। रामायण, गीता, वेद, पुराण सब पढ़ डाले पर फिर भी कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर पाने के लिए आज भी मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा सब जगह भटक रही हूँ पर कोई मेरे प्रश्नों की गुत्थी नहीं सुलझा पा रहा है।'


'क्या हैं तुम्हारे प्रश्न?'


'तुम दे सकोगे उत्तर?'


'नहीं, बस सुनना चाहता हूँ।'


तो सुनो, पाप क्या? और पुण्य की परिभाषा क्या है?'


'क्या ईश्वर है? यदि हाँ तो कैसा है? कभी दिखता क्यों नहीं?'


'पूर्वजन्म क्या है? पुनर्जन्म क्या है?'।


'गीता में भगवान कृष्णने कहा है 'गति पालन कर्ता, प्रभु, साक्षी, रक्षक, मित्र, उत्पन्न करने वाला, संहार कारक आधार और अविनाशी बीज मैं ही हूँ। मैं वर्षा रोकता हूँ, मैं ही वर्षा करता हूँ। मैं ही अमृत हूँ, मैं ही मृत्यु हूँ तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।'


'यदि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है तो हिटलर ने गैस-चेम्बर में, पचास लाख निर्दोष लोगों को मार दिया, क्या वह सब ईश्वर की इच्छा से हुआ?'


'रावण ने जो सीता का हरण किया या फिर धोबी ने सीता के उपर जो लांछन लगाया, वह भी ईश्वरइच्छा है, तो धोबी और रावण का क्या कसूर? लगता हैं, इन सारे प्रश्नों के उत्तर ढूँढती हुई पागल हो जाऊँगी, इसलिए अब यह सब भूल कर, हरिद्वार में रहकर जीवन बिताना चाहती हूँ चाहो तो तुम भी मेरे साथ चल सकते हो।'


'तुम्हें तो इतने सारे प्रश्नों ने बैचेन कर रखा है गौरी। मैं तो सिर्फ तीन प्रश्नों के बीच में ही हिचकोले खा रहा हूँ,


'मैं कौन हूँ?'


'मेरे माँ-बाप कौन हैं?'


'मैं किस जाति, किस शहर का हूँ।'


'मुझे उस रात की आज भी धुंधली सी याद है गौरी, जब तुमने खुदा को चेलेंज किया था। भगवान ने तुम्हारे चैलेंज को खूब स्वीकारा गौरी। मुद्दत बाद शायद मैं सब कुछ भूल जाऊँगा। जिन्दगी का रास्ता तय करते समय बहुत कुछ पीछे छूट जायेगा, पर डैफाडिल की यह रातें, जो तुम्हारे साथ बितायी हैं, मुझे हमेशा याद रहेंगी। स्मृतियों में वे जिप्सी स्मृतियाँ भी हैं, जिनका कोई ठिकाना नहीं, जो कुम्भ के मेले से शुरु होती हैं और वहीं खत्म हो जाती हैं।'


‘बाह्य संसार की तरफ से जब व्यक्ति पूरी तरह आँखे मूंद लेता है, तभी आन्तरिक सत्य का साक्षात्कार होता है रुद्र। अब मुझे ही देखो, मैं देह से अलग एकदम भिन्न अत्यंत सुंदर, उज्जवल, पवित्र और अव्यंग हूँ। अव्यंग का मतलब जानते हो? दोषरहित।'


वह जैसे शून्य में किसी चिरन्तन तत्त्व को ढूंढ रही थी।।


अचानक हवाएं जोर से चलीं, और आसमान काला हो गया। दूर समूचा शहर बारिश में भीग रहा था। 'चलूँ रुद्र, अब मुझे जाना ही होगा। बीच यात्रा में मुहब्बत से बचना चाहिए।'


वही महीन, खोयी सी मुस्कुराहट और उदास आँखें।


उसे गये हुए तीन महीने बीत गये। रुद्राक्ष ने बहुत अपने आपको रोकने की कोशिश की, पर सफल न हो सका। एक दिन उसने अक्षय को बुलाकर कहा,


'अक्षय, एक दिन जेम्स ने मुझे यह पब सौंप दिया था। जेम्स के इस सपने को मैं, तुम्हें सौंप रहा हूँ। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया? इन प्रश्नों के उत्तर शायद हरिद्वार में पा सकूँ। मैं जा रहा हूँ। तुम डैफोडिल की हिफाजत करना।'


आखिरी धूप के रेतीले कण डैफोडिल पर पड़ रहे हैं। हवा बासन्ती गंध से बोझिल है। यह आखिरी शाम के कुछ लम्हे हैं। पियानो का संगीत, भीड़ में नाचते हुए लोग, स्वप्निल आखे, सब एक नीले सागर की तरलता में डूब गयी हैं। आज लग रहा है, हमारे भीतर न जाने कितनी अस्पष्ट लालसाएँ, कितने धुंधले स्वप्न, किसी अनुकूल क्षण की प्रतीक्षा में दबे रहते हैं। लगता हैं, आज तक, चिरन्तन काल से शायद उसे उसी क्षण की प्रतीक्षा थी।


बाहर निकलकर उसने डैफोडिल्स के उन फूलों को स्पर्श किया, जिन्हें जेम्स ने लगाया था। फिर चल पड़ा अनन्त की उस राह पर, जहा डैफोडिल नाम का पब नहीं, बल्कि डैफोडिल नाम के हजारों फूल उसके रास्ते में बिछे पड़े थे। जहाँ गंगा की लहरों में उसके प्रश्नों का समाधान था, जहाँ उसकी गौरी थी, और शायद वह परम-धाम था जहाँ इन्सान की अन्तिम आवृत्ति पर परदा गिरता है।


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