दर्द का दृष्टिकोण


आशुतोष आशु ‘निःशब्द’
सत्कीर्ति-निकेतन, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश,
मो. 9418049070


उसकी सकारात्मकता का दृष्टिकोण ग़ज़ब था। उसने कभी विभीषिका और भविष्य की तैयारी नहीं की। उसके मित्रों ने कल की चिंता में पैसा जोड़ा। वो जुड़ जाने पर ज़मीन ख़रीदी। फिर और पैसा जोड़ने में जुट गए। इधर ये केवल वर्तमान जोड़ रहा था। लोग आते और उसे ताना मारते—'कल का भरोसा नहीं; परिवार के लिए कुछ तो कर लो!' 


उसके मित्रों ने पाई-पाई जुटाकर घर बनाया। अपनी आमदनी के बड़े हिस्से पर क़र्ज़ लिया। उनका जीवन सुखी हो चुका था। घर के नाम पर एक प्रॉपर्टी जुड़ गई थी। 


लोगों ने उसे फिर ताना मारा—'तुम्हारे दोस्त कहाँ से कहाँ पहुँच गए! और तुम वहीं के वहीं!' 


वो अक्सर सोचता — ‘ज़मीन तो एक इंच भी नहीं खिसकी। उनकी दौड़ भी उन्हीं पचास किलोमीटर में सीमित है : दफ़्तर से घर और घर से दफ़्तर ; तो फिर कौन, कहाँ से, कहाँ तक पहुँचा?’


परन्तु उसकी सकारात्मकता इतनी प्रबल थी कि वो लोगों के ताने पी गया और उनपर मंथन करते हुए अपनी वर्तमान सोच के दायरे को विस्तृत… और विस्तृत करता चला गया। 


ऐसा भी नहीं कि वो बिलकुल नाकारा था, परन्तु अहं पुष्टि की अंधी दौड़ का हिस्सा बनना भी उसे गँवारा न था। यह भी नहीं कि उसके जीवन में कोई चिंता ही नहीं थी। वो भी दुश्वारियों से रोज़ दो-चार होता। परन्तु उसका जीवन केवल वर्तमान का युद्ध था। 


जीवन की गति सागर में उठती लहरों के समान है। निरंतर चलायमानता और उतार-चढ़ाव जीवन का सामान्य स्वभाव है। जब पूरा विश्व यह मान चुका था कि विज्ञान की प्रगतिशीलता ने मानवीय जीवन को नियंत्रित कर लिया है, तभी कहीं से एक महामारी ने अपने पाँव पसारे। धर्म, देश, रंग, पैसा और जातियों में बंटे मानवीय संसार में केवल महामारी समदर्शी निकली। 


महामारी की चुनौतियों से वो भी रोज़ जूझ रहा था। एक-एक दिन ठीक निकल जाने पर वो आकाश की ओर देखता और उस अदृश्य शक्ति का धन्यवाद करत कि तेरी असीम कृपा से अभी भी स्थिति नियंत्रित है। दिवंगतों की आत्मा की शांति प्रार्थनाएँ करता।


महामारी मानो सबको एक तराज़ू में तौलने को आतुर थी। अनेक देशों के सामूहिक बंद ने वैश्विक आर्थिकी के पहिये जाम कर दिए थे। प्रतिदिन लाखों के हिसाब से देश में लोग नौकरियाँ गँवा रहे थे। लोगों का दर्द देखकर उसका हृदय कराह उठता। प्रार्थना में हाथ जुड़ जाते और आँखें आकाश को एकटक निहारने लगतीं।


एक रोज़, जब वो इसी चिंता में व्यग्र बैठा था तो उसने देखा कि उसका मित्र चला आ रहा है। कंधे झुके हुए थे और चाल में ढीलापन किसी भयानक चिंता का अग्रिम संदेश सुना रहा था। दोनों मिले; बैठ कर बातों का सिलसिला शुरू हुआ। 


मित्र ने पूछा - ‘कैसा चल रहा है?’


उसने जवाब दिया - “जीएँगे तो और लड़ेंगे।”


‘तुझे तो किसी बात की परेशानी ही नहीं होती न!’, मित्र ने कहना शुरू किया—इस महामारी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। अच्छी भली ज़िंदगी चल रही थी। मेहनत से मैनेजर का पद पाया था नौकरी में। लाख रुपये से अधिक वेतन मिलता था। पैसे जोड़कर गाड़ी ख़रीदी। पिछले साल लोन लेकर घर भी ख़रीद लिया। चालीस हज़ार मासिक किश्त जाने के बाद भी घर का गुज़ारा अच्छे से चल रहा था। सोचा था जबतक बच्चा छोटा है, तबतक घरबार बनाने की ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाऊँ। बाद में कौन जाने उसकी पढ़ाई-लिखाई के लिए कितना खर्चा करना पड़े—मित्र का दर्द मानों उसके मन की मेंढ़ तोड़ने को व्याकुल हो रहा था। वो कहता चला गया—


पिछले तीन महीने से पग़ार कटौती पर चल रही थी। समझ पा रहे थे हम कि संकट का दौर है। कम्पनी के धंदे पर भी असर पड़ा है। इसलिए कुछ समय के लिए धीरज रखना आवश्यक है। आधी रह चुकी पग़ार में से लोन भी जा रहा था। परंतु खाने-पीने की व्यवस्था चल ही रही थी। 


‘परन्तु सरकार ने तो बैंकों को लोन किश्त अभीहाल लेने से मना किया है न’, उसने बीच में टोका।


तेरी तो दुनिया ही अलग है! सरकार ने केवल अपने हिस्से का ज़ुबानी जमाखर्च किया है। बैंक न भी ले किश्तें अभी, परन्तु लोन तो चुकाना ही पड़ेगा। उसकी अवधि बढ़ेगी, सो अलग! ऊपर से आज ऑफ़िस में नया सर्कुलर जारी हुआ है। कम्पनी ने छँटनी शुरू कर दी है। साथ ही बाकी कर्मचारियों की पग़ार में और भी कटौती की गई है। इस पग़ार में तो अब लोन की किश्त भी नहीं निकलेगी। बच्चे की स्कूल फ़ीस, घर का राशन और बिजली का बिल, कहाँ से दूँ ये सब? पत्नी की नौकरी पहले जा चुकी है—मित्र ने सारा रोष एक साँस में भरकर अपनी खीज बाहर निकाल दी—‘पर तुझे क्या? तू नहीं समझेगा! तूने तो कभी कल की चिंता की ही नहीं।’


उसने भी चुपचाप हामी भरते हुए मौन सहमति में सर हिला दिया; हाथ जुड़े थे और उसकी नज़रें आकाश को ताक रहीं थीं।   


 


 


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