झूठ सच


राजनारायण बिसारिया, वसंतकुंज, नई दिल्ली, मो. 9810276440


 


इस बार भाई राजनारायण बिसारिया को मैंने उनके जन्मदिन 8 अगस्त के तीन दिन पहले ही उन्हें अग्रिम बधाई दी। मेरे पूछने पर कि इन दिनों क्या लिख रहे हैं? उन्होंने बताया 92 वर्ष में प्रवेश पर एक कविता लिखना शुरु की है। ‘‘वह अभिनव इमरोज़ की हो गई’’, मैंने कहा।


ग़ज़ल की चार कसी हुई पंक्तियों से उठाई गयी यह रचना बिसारिया जी के अनूठे शैली-शिल्प की प्रामाणिकता की एक उम्दा मिसाल है। उन्हीं के शब्दों में ‘मेरी अधिकांश कविताएँ छन्द मुक्त है। उनमें छन्दों की आत्मा, उनकी लय तो है, उनकी व्याकरणिक मात्राओं एवं शास्त्रीय परिमाण की परिधि का कोई बन्धन नहीं है।’


श्री बिसारिया के व्यक्तित्व की तरह उनकी रचनाएँ उन्मुक्त होकर अपनी पूरी बात कहती हैं, कुछ भी अधूरा नहीं छोड़तीं। उनका तर्जे बयाँ और शब्द विन्यास सरलता और सुगमता में मैंने बेजोड़ पाया है।


अपनी इस रचना की अंतिम पंक्तियों में बिसारिया जी ने एक चमत्कारी रूपक रचा है जो बिजली के प्लग की याद दिलाता है- अर्थ (धरती) निगेटिविटी (निषेध) और पाॅजिटिव (निर्माण)। उनके अनुसार निर्माण-रत मनुष्य ही सर्वोपरि है। उसकी ऊर्जस्विता ही रोशनी बिछाती है।


-संपादक देवेंद्र कुमार बहल


झूठ सच


अपने भीतर मुझे बुराई लगती है


उम्र बानवे वर्ष चुराई लगती है,


जिसे धधकती आग समझता था अपनी


राख, कभी की बुझी-बुझाई लगती है!


1


मेरे दाँत


और आँखों के पर्दे नक़ली


कान मशीनी, आसपास के पुर्ज़े ढीले


रक्त-चाप, मधुमेह, पार्किंसन


दर्दीली रीढ़, थायराॅइड फिर मेरा


रफू-रफू दिल


मुझे ज़िन्दगी दूध-मलाई लगती है।


2


मैंने बचपन से अपने को


अपने दर्पण में पाया है,


अब मैं वहाँ नहीं हूँ


मेरी जगह किसी का कार्टून है


देख देखकर ख़ूब हँसाई लगती है!


3


आप गये तो फिर आयेगी


फिर मेरा सिर खायेगी


आफत, जो मेरी बुलवाई लगती है!


4


मेरे जैसे सभी भद्रजन


अब कुछ भी सोचते नहीं हैं,


सोच, सोचने का कोई प्रतिफलन


नहीं अब,


टकसालों में ढली-ढलाई लगती है!


5


कल मुझको उठने में


थोड़ा दर्द हुआ बाएँ घुटने में,


थोड़ा यानी रत्ती माशा


मैंने उसमें अपनी आह कराह


पाँच सौ ग्राम मिलाई लगती है।


मिश्रण सबने चखा-चखाया


तब फिर तिल से ताड़ बनाई


अपनी दर्द शिकायत मैंने


दर्ज कराई लगती है!


6


शाम हड्डियों के विख्यात


डाॅक्टर जी ने मेरी ‘नभ-रेखा’ पर आकर


मुझ से पूछा-


‘बतलाएँ तकलीफ कहाँ है


मैंने कहा-यहाँ पर... जी हाँ यही


यहीं पर है सुश्री तकलीफ पधारी


अभी विराजी बरामदे में


कुछ थोड़ा विश्राम कर रही!


नहीं ट्रेन से नहीं, कार से नहीं


पार से सजी धजी वह


अपने निजी प्लेन से ही आई लगती है।


7


फोन कट गया


या फिर काटा गया, मुझे क्या?


मेरा ध्यान इधर है


अपनी नयी अतिथि पर,


इसकी झमक-झम्म झल-मल


तशरीफ-टोकरी


उपहारों से लदी लदाई लगती है।


8


मैंने फिर जल्दी ही जाना


उसका है मनतव्य सताना।


अब वह शरणागत है मेरी


मेरे पैताने चुप बैठी!


बैठी बैठी बेचारी तकलीफ


रातदिन मेरे दोनों पैर


दबाया करती है।


पैर दबाई ठकुर-सुहाई लगती है।


9


मुझे सफलता या असफलता


दोनों ही बेमानी हैं


कोशिश ही मुझको भरपाई लगती है।


10


मैंने नहीं देवता पूजे


पूजा वह इन्सान रहा


जिसके पैर जमे धती पर,


बाएँ हाथ निषेध


दाहिने में जिसके निर्माण रहा!


उसकी बिजली ने


सारी रोशनी बिछाई लगती है।


अपने मन में मुझे बुराई लगती है


मुझे ज़िदगी दूध-मलाई लगती है।


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य