कबिरा आप ठगाइए (मैत्रेयी पुष्पा– ‘वह सफर था कि मुकाम था’)

डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर वि.वि. सागर, मो. 9753207910


‘वह सफर था कि मुकाम था’ मैत्रेयी पुष्पा की लगभग ईमानदार संस्मरणात्मक आत्मकथा है जिसमें उन्होंने स्वयं का, राजेन्द्र यादव का, दोनों के आपसी सम्बन्धों का और तत्कालीन समाज के प्रबुद्ध वर्ग का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और सटीक, दो टूक, बेबाक, निर्भीक स्पष्टीकरण जैसी टिप्पणी की है। मैत्रेयी पुष्पा से एक बार झाँसी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित सेमीनार में 2016 में मिलना हुआ है। मिलना क्या हुआ, मतलब मैंने उन्हें निकट से देखा–एकाध संवाद हुआ। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मेरे कमरे के बगल में ही उनका कमरा था। सेमीनार के जिस सत्र में उन्हें व्याख्यान देना था वे उसी में उतनी ही देर के लिए उपस्थित रहीं। अपने उपन्यासों की रचना-प्रक्रिया के सम्बन्ध में ही बोलीं तथा सामने बैठे एक उम्रदराज़ साहित्यकार पर सीधा वार करते हुए कहा कि–“मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला, इन महाशय ने मुझे पुरस्कार न दिया जाए ऐसा फोन जिन्हें किया उन्होंने मुझे बताया।” मैत्रेयी जी ने यह भी कहा कि नयी पीढ़ी ऐसे दोहरे-चरित्र वालों से सचेत रहे। मुझे यह बेबाकी अच्छी लगी, क्योंकि ऐसे दोहरे चरित्रवालों के ही वार से घायल कतार को मैंने देखा-जाना-भोगा है। व्याख्यान के बाद मंचस्थ हुईं तो पानी की बोतल का ढक्कन उनकी लाख मशक्कत के बाद भी नहीं खुल रहा था यह देखकर सामने बैठी मैं उठकर गई और बोतल खोलकर उन्हें पकड़ा दिया, उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ मुझे देखा...बस...। सत्र की समाप्ति पर पत्रकारों के साथ बातचीत करते हुए चल दीं, पीछे विश्वविद्यालय के विद्यार्थी, शोधार्थी जो उनके साथ बात करना, फोटो खिंचवाना चाहते थे। वे उनके इस तरह चल देने से निराश हुए, मुझे भी अजीब-सी अनुभूति हुई...एक छवि बनी, अहंकारी और विशिष्टता बोध से भरी हुई स्त्री... सादगी-सम्पन्न महिला...नाटे कद की, जिनके व्यक्तित्व पर ग्रामीण सादगी की छाप है...। जब डाइनिंग टेबल पर भोजन के लिए बैठे तो संयोग से उनके बगल में खाली कुर्सी पर मुझे बैठने के लिए कहा गया। मैं बैठी... हमारी थालियाँ लगी हुई थीं, मगर वे बेचैन निगाहों से बार-बार इधर-उधर देखती हुई पहलू बदल रही थीं... मेरा नोटिस उन्होंने अन्त तक नहीं लिया, मुझे फलाँगती हुई उनकी नजरों का पीछा करते हुए मैंने पाया वे किसी को खोज रही हैं...। भोजन शुरू करते हुए भी बार-बार द्वार की ओर देखते हुए उन्होंने धीरे से कहा–यहाँ पर विवेक मिश्र को बैठना था, पता नहीं कहाँ गए... मुझे एक स्त्री साहित्यकार का यह व्यवहार अजीब लगा (क्षमा कीजिए) मैंने कहा– वो आ रहे हों तो मैं उठ जाऊँ, तो बोली– नहीं, नहीं...। भोजन में भटे को मसल कर, छौंककर सब्जीवाले मसाले डालकर बनाया गया स्वादिष्ट भर्ता था। उन्होंने खत्म होते भर्ते पर उँगली रखी और परोसने वाले को उस व्यंजन का नाम बताने से पहले भ्रम में पड़कर मेरी ओर देखा। मैंने कहा– भटे का भर्ता है और उन्होंने उस व्यक्ति से कहा यह लाओ...। मैंने मन-ही-मन आश्चर्य व्यक्त किया...‘चाक’ लिखने वाली साहित्यकार भटे का भर्ता नहीं पहचान पा रही हैं...धन्य है राजधानी की महिमा...। मेरा भोजन हो चुका था, उन्होंने भी भोजन समााप्त किया और तब तक हॉल में आ चुके विवेक मिश्र के पास लपककर ऐसे पहुँचीं जैसे मेलेे में भटकी किसी बच्ची को उसका संरक्षक मिल गया हो। वो दृश्य आज भी मेरे मनोमस्तिष्क में ताजा है। सेमीनार हाल में बनी छवि में इजाफा हुआ... सीमित दायरों में रहने वाली, उच्चशिक्षित बुद्धिजीवियों की महफिल में खुलकर मिलने-बोलने की आत्मविश्वास से भरी पहल करने में असमर्थ और असुरक्षा बोध से ग्रस्त...। एक बेहतरीन, दबंग, सशक्त लेखन करने वाली प्रौढ़ रचनात्मक कौशल से सम्पन्न जागरूक, सचेत उपन्यासकार-कथाकार मैत्रेयी पुष्पा...। इसलिए इस पुस्तक ‘वह सफर था...’ में राजेन्द्र यादव का कथन पढ़कर उपरोक्त स्मृतियाँ कौंध गईं–“यार मैत्रेयी, तुममें अहंकार भी कम नहीं। किसी को कुछ समझना ही नहीं चाहतीं।” (पृ. 73)


मैंने मैत्रेयी पुष्पा के सारे उपन्यास, कहानियाँ, आत्मकथाएँ पढ़ी हैं। राजेन्द्र यादव का पूरा कथा-साहित्य पढ़ा है। मन्नू भंडारी के उपन्यास और अन्त में ‘एक कहानी यह भी’ आत्मकथा पढ़ी। ‘एक कहानी यह भी’ पढ़कर यह धारणा पुष्ट हुई कि मन्नू जी में अध्यापक वाली गरिमा और बौद्धिकता है। सम्भ्रान्त स्त्री हैं मर्यादा का ध्यान रखते हुए दो टूक बात कहती हैं। रूढ़िवादी मूर्ख महिला नहीं हैं इसलिए स्त्रियोचित मर्यादा के साथ आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए उन्होंने कुंठित, ईर्ष्यालु, कुटिल और लम्पट कहे जाने वाले पति को घर से निकाल दिया। पति की अमानवीयता का यह उचित उत्तर था जिसके सम्बन्ध में मैत्रेयी जी ने दो वक्तव्य दिए हैं–क्या पति या पत्नी के नाम घर चढ़ा हो तो गुस्से में या अपमान से आहत होकर एक साथी को निकाल देना चाहिए, अपंग, अपाहिज पति को निकाल देना क्या ठीक है? और दूसरा–“स्त्री सशक्तीकरण का बिगुल आपकी (राजेन्द्र यादव) ओर से औरत के यौनिक स्तर पर बजा तो मन्नू जी की ओर से सम्पत्ति के अधिकार को सामने लेकर आया। राजेन्द्र जी के स्त्री-विमर्श पर मन्नू जी का स्त्री-विमर्श शिला सरीखा गिरा।” (पृ. 70) यहाँ स्त्री-विमर्श के पुरुष दृष्टिकोण पर मैत्रेयी जी ने बेहतरीन चोट की है...। स्त्रियाँ देह के स्तर पर ही स्वाधीनता क्यों चाहें? आर्थिक स्तर पर भी क्यों नहीं? ...खैर मन्नू जी की आत्मकथा को पढ़कर मन में उनके प्रति आदर भाव बढ़ा...पीड़ा हुई और सोचा की इतनी सुन्दर कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाला राजेन्द्र यादव इतना अमानवीय कैसे हो सकता है? धीरे-धीरे हंस के सम्पादकीय, साहित्य जगत की चर्चाओं के माध्यम से राजेन्द्र यादव के चरित्र का वह कृष्ण पक्ष सामने आया जिसकी चर्चा मैत्रेयी जी ने इस पुस्तक ‘वह सफर था...’ में की है। मैत्रेयी पुष्पा के सशक्त कथा-साहित्य को कथावस्तु भाषा-शैली, उद्देश्य, शिल्प-विधान के स्तरों पर परखने के बाद कह सकती हूँ कि उन्हें साहित्यिक जगत में प्रतिष्ठित होने के लिए किसी राजेन्द्र यादव की आवश्यकता नहीं थी। उनकी रचनाएँ अपने दम पर पाठकों का आह्वान करती हैं और उन्हें बाँध लेती है। बेशक वे ईमानदार अभिव्यक्ति से रचना में विश्वसनीयता पैदा करती हैं जो रचना के जीवन्त और यशस्वी होने के लिए अनिवार्य शर्त है। (कालजयी नहीं कहूँगी) हाँ... उनमें सुप्त आत्मविश्वास को जगाने और प्रेरित करने, ‘हंस’ का मंच उपलब्ध कराने के लिए राजेन्द्र यादव की भूमिका गुरु तुल्य मानी जा सकती है जैसा कि मैत्रेयी जी ने बार-बार लिखा है। फिर भी बात गले से नहीं उतरती... कारण राजेन्द्र यादव का मन्नू जी के लेखक व्यक्तित्व के प्रति संकीर्ण और ईर्ष्यालु दृष्टिकोण...शराबी, स्त्रीलोलुप, अपंगता और बेरोजगारी से कुंठित व्यक्तित्व। मैत्रेयी जी ने बार-बार इस पुस्तक में अपंग कहकर उन्हें ढाल दी है कि बैसाखी लेकर चलने वाला आदमी स्त्री को स्वयं नहीं घसीट सकता, स्त्रियाँ स्वयं अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और यशलिप्सा के चलते उनका शिकार बनने चली आती थीं। मृत्यु से पूर्व राजेन्द्र जी की शराब और स्त्री को लेकर बदपरहेजी को भी मैत्रेयी जी ने उनके शुभचिन्तकों (लाभार्थियों) के सिर मढ़ा है। क्या राजेन्द्र यादव इतने भोले-नादान थे कि अपना भला-बुरा नहीं समझते थे? मैत्रेयी जी जब लिखती हैं–“राजेन्द्र जी, आप तो हमारी सहेली हैं।” तो अच्छा लगता है। एक सहेली ही सहेली के सामने अपने अन्तर्मन को, इच्छाओं-कामनाओं, अच्छे-बुरे कृत्यों को बेधड़क नि:संकोच भाव से अनावृत्त कर सकती है जैसा कि राजेन्द्र यादव करते थे। लेकिन ‘गुरु’ शब्द में निहित गरिमा के योग्य राजेन्द्र यादव कदापि नहीं रहे। विभूति नारायण राय का वक्तव्य वाला मामला हो या अन्य ऐसे अवसर जहाँ उन्हें मैत्रेयी जी के साथ खड़े होना चाहिए था बल्कि मैत्रेयी जी ही नहीं तमाम स्त्रियों (जो कथाकार हैं) के साथ खड़ा होना चाहिए था, केवल ‘मैत्रेयी की सहेली’ होने के नाते नहीं बल्कि एक उम्रदराज जिम्मेदार भारतीय नागरिक होने के नाते, एक साहित्यकार होने के नाते, एक पति-पिता और मित्र होने के नाते...लेकिन उन्होंने यहाँ भी स्त्री को दोयम दर्जा दिया। स्त्रियों को कमअक्ल, पुरुषों की प्रेरणा और निर्देश पर चलने वाली अनुगामिनी। (माफीनामा लेकर बात खत्म करो) यह एक ऐसा अपमानजनक क्षण होगा, जिसे मैत्रेयी जी ने अनुभव किया और लिखा भी है, फिर भी वे अगर यह लिख सकीं कि–“मैं इस नतीजे पर पहुँची कि राजेन्द्र यादव आदर योग्य व्यक्ति नहीं हैं, बस उन्हें प्यार किया जा सकता है।” (पृ. 45) तो मानना होगा कि मैत्रेयी जी का यह आदर्श प्रेम है। प्रशंसनीय है। जो अन्धा-बहरा होकर अपने आराध्य में केवल भाव समर्पित निष्ठा रखता है। जो पीड़ा पाकर भी उनसे प्रेम करना नहीं छोड़ता...।


मुझे तो यह गुरु-शिष्य-द्रोणाचार्य-एकलव्य प्रतीक वाली अभिव्यक्ति लिजलिजी भावुकता पूर्ण अतिशयोक्ति ही लगती है। स्त्री होने के नाते मन्नू जी के प्रति राजेन्द्र जी के व्यवहार को स्मरण रखना हर उस स्त्री के लिए आवश्यक था जो उनके (राजेन्द्र जी) प्रभावशाली व्यक्तित्व की प्रशंसा करती है। प्रश्न यह भी कि यदि मैत्रेयी पुष्पा ‘डॉक्टरनी’ न होतीं तो क्या राजेन्द्र यादव उन्हें इतना ही मान देते? पत्नी के लेखकीय व्यक्तित्व को जो बर्दाश्त नहीं कर सका, वह अन्य स्त्रियों को लेखन की प्रेरणा और स्त्री-मुक्ति का उपदेश देता रहा–क्यों? ‘डॉक्टरनी’ तो लेखन में स्वयं समर्थ है लेकिन प्रेरक और सहेली बनकर यदि मुफ्त में गाड़ी और दवा-इलाज हासिल होता रहे तो सौदा बुरा नहीं है–क्या ऐसा नहीं है? क्योंकि यह कुटिलता न होती तो मन्नू जी से अलगाव के लिए तथा विभूति नारायण राय द्वारा प्रयुक्त गाली को सीधे मैत्रेयी जी से जोड़ने का क्या मतलब था? जीवन-भर कुंठा और आर्थिक अभाव से जूझते राजेन्द्र यादव को मैत्रेयी जी की रचनात्मक क्षमता का, सामर्थ्य का अनुमान नहीं रहा होगा...। सिर नीचा करके बात करने वाली आत्मविश्वास हीन स्त्री को जब उन्होंने कहा होगा–“सिर उठाकर बात करिए मैत्रेयी पुष्पा जी” तो उन्हें लगा होगा आत्मविश्वास जागने पर उठ खड़ी होगी चल पड़ेगी बस...लेकिन ये नहीं सोचा होगा कि यह सिर उठाते ही हाथ बढ़ाकर आसमान छू लेगी... कदम आगे बढ़ाएगी तो धरती नाप लेगी...। ईर्ष्या का जागना स्वाभाविक था...। मैत्रेयी जी लिखती हैं–“राजेन्द्र जी मैंने आपको विषपायी इनसान के रूप में ही देखा, नीलकंठी साहित्यकार।” (पृ. 29)। पढ़कर हँसी आई...यह वैसी ही हँसी थी जैसी अशोक वाजपेयी के विभूति नारायण राय वाले मामले में नामवर जी की प्रतिक्रिया पर दिए गए बयान को पढ़कर मैत्रेयी जी को आई थी– “भद्र और वरिष्ठ आलोचक...। इस सन्दर्भ में महिला आयोग और श्रीमती प्रतिभा पाटिल की प्रतिक्रिया भी जानी-पहचानी थी। शिवजी सृष्टि की रक्षा के लिए विषपान कर नीलकंठ बने। राजेन्द्र यादव को अगर गालियाँ, लांछन मिले (विष के रूप में आपके अनुसार) तो वे उसके हकदार थे और वे इतने चतुर, बुद्धिजंीवी, साहित्यकार तो थे ही कि जानते थे कि अपने आचरण के चलते मुझे ये गालियाँ और कलंक स्वीकार करके अपनी राह चलना होगा क्योंकि इसके अलावा और कोई चारा, कोई विकल्प उनके पास नहीं है। इसलिए नीलकंठी साहित्यकार जैसे विशेषण न केवल हास्यास्पद हैं बल्कि अतिशयोक्ति भी...। इस पुस्तक ‘वह सफर...’ के अन्तिम पन्ने पर लिखी इबारत–“राजेन्द्र जी अतीत होते जाते हैं कि महान होते जाते हैं।” मैत्रेयी पुष्पा के भक्ति भाव को दर्शाती पंक्ति है। वहीं गुरु पत्नी यानी मन्नू जी और प्रभा खेतान के सम्बन्ध में उनकी टिप्पणी दिलचस्प है–“मेरी समझ में इन महान लेखिकाओं का चलन हरगिज अपने उचित रूप में नहीं आया। ये तो अपनी जगह पर कब्जा करके दूसरे की जमीन पर सेंधमारी करने में जिन्दगी बिताती रहीं। मन्नू भंडारी पत्नी की गरिमा से सुशोभित पति की प्रेमिका को खदेड़ने की मुहिम में संलग्न तो प्रभा खेतान प्रेमिका के रूप में गर्व भरी स्त्री, मगर डॉ. साहब की पत्नी को पति के साथ बाहर निकलते देखकर जलकर खाक होने वाली...। दोनों ही अपने लिए लोगों की हमदर्दी बटोर-बटोरकर भी सन्तुष्ट न होने वाली रहीं। पाठकों के दिल में महान छवि की निर्मात्री क्या वाकई महानता से जिन्दगी के साथ पेश भी आईं” (पृ. 80)


मैत्रेयी जी यह “महानता से जिन्दगी के साथ पेश आना” क्या होता है? कैसे इसे परिभाषित करेंगे? क्या आपका यह वक्तव्य मानकर कि–“जिस सुख की कामना हमारी इन्द्रियाँ करती हैं, वह व्याभिचार नहीं, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” (पृ. 11)? जहाँ तक मेरा सोचना है कि यह वाक्य पशुओं पर लागू होता है मनुष्यों पर नहीं...। क्योंकि पशुओं के पास इन्द्रियों को वश में करने, रखने के लिए ईश्वर ने उन्हें विवेक, बुद्धि, चेतना नहीं दी... यह केवल मनुष्य को दी और इसी आधार पर हम मनुष्य और पशुओं में अन्तर स्पष्ट करते हैं। पशुओं का इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं, खाद्य-अखाद्य, उचित-अनुचित के भेद की बुद्धि-समझ नहीं... इसलिए जब कोई मनुष्य ऐसा आचरण करता है तो हम घृणा से, उपेक्षा और तिरस्कार से उसे ‘जानवर’ कहकर सम्बोधित करते हैं। आप बुद्धिजीवी साहित्यकार हैं यह सब जानती ही होंगी, इसलिए उपरोक्त वक्तव्य को तो आप “महानता से जिन्दगी के साथ पेश आना” नहीं कहेंगी। फिर उन्हें क्या करना चाहिए था? अपनी मासूम बड़ी होती बेटी के सामने पति की शराबखोरी, औरतखोरी को सहजता से लेकर गौरवान्वित होना चाहिए था? कार्यालय में बैठे पति को भोजन और शरीर परोसने वाली स्त्रियों को सम्मानित करना चाहिए था? या यह कि प्रतिशोध में या आत्मसन्तुष्टि के लिए अन्य उद्धारकों की शरण में चले जाना चाहिए था? और यह वाक्य “अपनी जगह पर कब्जा करके दूसरे की जमीन पर सेंधमारी करने में जिन्दगी बिताती रहीं” का क्या तात्पर्य है? राजेन्द्र यादव मन्नू जी के पति थे, अलग रहते हुए आपसी सम्बन्धों की अप्रत्यक्ष दृढ़ता को वह समय-समय पर सिद्ध करते रहे, अन्त में विरासत बेटी को सौंपकर भी यही सिद्ध किया। जो स्त्रियाँ मन्नू जी का स्थान लेने का प्रयत्न करती रहीं उन्होंने सेंधमारी की... चाहे वह स्वादिष्ट, उनका मनपसन्द भोजन लेकर पहुँचना हो या सशरीर दरस-परस का मामला हो, ताकि राजेन्द्र यादव को मन्नू भंडारी की कमी न खले, वे उन्हें भूल जाएँ, उनकी बुराइयाँ करें...। लेकिन राजेन्द्र यादव कुटिल अवसरवादी थे, वे संगी-साथियों से दवा-दारू, भोजन, संग-साथ प्राप्त करते रहे और मन्नू जी के प्रति आदर और प्रेम भी बना रहा... एक अपराध-बोध भी...। कौन पत्नी होगी जो अपने पति की प्रेमिकाओं को खदेड़ना नहीं चाहेगी... हर पत्नी अपने पतित पति को उचित मार्ग पर लाना चाहती है, प्रयत्न करती है...। हर स्त्री अपनी लज्जा के साथ पति की लज्जा और सम्मान को भी ढोती है। पति कुकर्म करे तो उसे अपने परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र में शर्मिन्दा होना पड़ता है। भारतीय गृहस्थ जीवन का तो यही दर्शन है। मन्नू जी ने किसी अन्य स्त्री के पति या प्रेमी पर डोरे डालने का प्रयास नहीं किया तो उनके सिर सेंधमारी का आरोप मढ़ना अनुचित है।


मैत्रेयी पुष्पा के इस वक्तव्य (उपरोक्त) से शुद्ध ईर्ष्या टपकती है। ऐसा लिखकर वे प्रौढ़ श्रेष्ठ साहित्यकार के उच्चासन से एक नहीं, दो-चार सीढ़ियाँ नीचे उतर आती हैं खालिस गृहस्थ महिला बनकर...। ‘पत्नी की गरिमा से सुशोभित’, ‘महान छवि की निर्मात्री’ जैसे पद ईर्ष्या से ही उत्पन्न होते हैं। मैं अब तक (अगस्त 2018) कुल तीन बार दिल्ली गई हूँ इसलिए कह सकती हूँ मैं दिल्ली और उसके साहित्य-जगत के आचरण को बहुत निकट से नहीं जानती लेकिन दूर रहकर भी पढ़कर-सुनकर जैसा जाना है उसके आधार पर ही मन्नू भंडारी हों या प्रभा खेतान या कोई अन्य स्त्री साहित्यकार... पत्नी... प्रेमिका...। भारतीय मन के साथ यही होता है कि मन्नू भंडारी के लिए राजेन्द्र यादव ही जिन्दगी थे और वे उनके साथ महानता से ही पेश आईं, उन्होंने अन्य पुरुष से प्रेम या विवाह नहीं किया...ना भावनात्मक शरण खोजी...। राजेन्द्र यादव भी जीवन-भर सबसे सेवा कार्य कराते रहे लेकिन विरासत अपनी बेटी को सौंप गए। यह भी उतना ही सत्य है कि मन्नू जी को सदैव आदर के साथ याद करते रहे, यही शायद उनके प्रेम करने का तरीका था। अपनी सुन्दर, एकनिष्ठ प्रेम करने वाली, आत्मनिर्भर, बुद्धिजीवी, उनसे श्रेष्ठ साहित्यकार बनने की क्षमता रखने वाली पत्नी के सामने उनकी अपंगता, बेरोजगारी, परजीवी वृत्ति उनके पौरुष को कुंठित करती रही होगी... उदार संरक्षक बनने के बजाय उनकी तामसिक प्रवृत्ति ने उन्हें स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और अमानवीय बना दिया और अलगाव हो गया लेकिन इतनी बुद्धि और चेतना तो उस पिता और पति के भीतर रही होगी कि वह जानते थे कि गलती और अपराध मेरा है, मैं उन पर बोझ हूँ कि अन्याय मैंने किया है...मन्नू जी की सहनशीलता के कायल तो रहे ही होंगे राजेन्द्र यादव, तभी तो सदैव दूर रहकर भी उनके पक्ष में खड़े रहे...। मैत्रेयी जी का व्यंग्यात्मक वक्तव्य इस बात की पुष्टि करता है–“चलो, आपने ही सिद्ध कर दिया कि आपकी पत्नी हम स्त्रियों से अलग है, तेजस्विनी सती के माफिक। एक सवाल फिर भी पूछूँगी कि आप सम्पादकों को अपनी स्त्री को पवित्रता की मूर्ति मानने का अभ्यास क्यों पड़ा रहता है जैसे वे चन्दन से नहाई हुई तुलसी हों।” (पृ. 105-106) मैत्रेयी पुष्पा की आवाज की व्यंग्यात्मक खीझ सुनाई देती है। विरासत बेटी को सौंपने की बात पर आश्वस्त होते हुए भी उनके कथन में एक अदृश्य ताना छिपा हुआ अनुभव होता है। हालॉकि मैत्रेयी जी ने यथार्थ को सशक्त रूप में अभिव्यक्ति दी है– “आप गृहस्थ ही नहीं, सद्‍गृहस्थ निकले। ऐसे सद्‍गृहस्थ जिसकी झोली बदनामियों और धिक्कारों से भरी थी मगर आपने उसी झोली में से परिवार के लिए हंस उतार दिया...बगुले देखते रह गए...। (पृ. 134)–“चाहे जितना जोगी-त्यागी हो, चाहे जितना सन्त-समदरसी हो और चाहे जितना परोपकारी हो, जब सम्पत्ति के हक-विरासत की बात आती है तो उसे अपने खून के रिश्ते याद आते हैं, उसके घुटने पेट को ही नबते हैं। वह दुनिया को छोड़ने-छोड़ने की घड़ी में अपनों का होकर ही मरता है। अगर एक वाक्य में कहूँ तो–“जीवन कितना भी भागा फिरे, मृत्यु अपनों के बीच सिमट आती है।” राजेन्द्र यादव अपनी जिन्दगी में अपने आस-पास जुटे गैरों को अपने तमाम काम बाँटते रहे, सेवा-सुश्रूषा पकड़ाते रहे...इस तरह चाकरी में संलग्न लोग सौंपे गए कार्यों को करते हुए अपना भाग्य सराहते रहे हैं...(बात वसीयत की आई)–राजेन्द्र जी ने भरपूर इंसाफ किया। चल-अचल सम्पत्ति और ‘हंस’ की विरासत बेटी के नाम चढ़वा दी। वे परिवार का निषेध करते-करते परिवारवाद के ही मुखिया बन गए।” (पृ. 144-145)।


‘पलाशवन के अहेरी’ (पृ. 7) से परिवारवाद के मुखिया बनने की उम्मीद मैत्रेयी जी ने नहीं की होगी...। हो सकता है यह घटना उन्हें निराशाजनक रूप से चौंका गई हो। यह परिवार के प्रति प्रेम-निष्ठा और समर्पण पर मुहर थी...। मैत्रेयी जी के लिखे अनुसार ही जो मन्नू जी राजेन्द्र यादव की पत्नी बनकर अमर हो गईं या राजेन्द्र यादव की पत्नी बनकर उनका नाम अमर हो गया, वह या प्रभा खेतान डॉक्टरनी को डॉ. साहब के साथ बारह निकलते देखकर जलकर खाक क्यों हो जाती थीं, यह समझ में नहीं आया? मन्नू जी और प्रभा खेतान की असन्तुष्टि किस तरह झलकती रही? मुझे लगता है आत्मविश्लेषण करने के लिए आत्मकथा एक अच्छा माध्यम है। अपना दृष्टिकोण, अपने कृत्य सामने आते हैं तो हमें अपने को ही सही-गलत ठहराने का पुन: विचार का अवसर मिलता है और सच मानिए इस उदारतापूर्ण किए गए पुन: आत्मविश्लेषण से व्यक्तित्व कुन्दन हो जाता है। मैत्रेयी जी के भीतर यह मन्थन चलता रहता है। कभी वे राजेन्द्र यादव के पक्ष में होती हैं तो कभी उनके पक्ष में होते हुए भी मन्नू भंडारी से सहानुभूति व्यक्त करती हैं–“मन्नू दी का गुस्सा जायज है। अगर कुछ नासमझी है तो यह कि एक मर्द से स्त्रीगत नैतिकता और शुचिता की उम्मीद पाल ली जबकि यह मर्द स्त्री से भी नैतिकता और शुचिता को छोड़ने का शपथ-पत्र भरवा रहा था।” (पृ. 70) राजेन्द्र यादव की इस चरित्रगत विशेषता को रेखांकित करते हुए उनकी बौद्धिकता पर प्रकाश डालने वाली एक टिप्पणी पर भी चर्चा करना अनिवार्य है जिसका उल्लेख किसी सन्दर्भ में मैत्रेयी जी ने किया है। राजेन्द्र यादव ने कहा–‘अनेक बार दोहराई गई बात को फिर से कहने का जोखिम उठाते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि रीतिकालीन सड़ायन्ध को दरकिनार करते हुए जिस तरह सन्त साहित्य में दलितों और स्त्रियों के लेखन में नयी ऊर्जा, तेवर और लगभग सांस्कृतिक क्रान्ति के दर्शन हुए थे, ठीक वही युग वापस लौट रहा है, हिन्दी के अपने भीतर और बाहर छनकर हिन्दी में...।” (पृ. 66)


विचित्र वक्तव्य है यह। यह विसंगत बयान राजेन्द्र यादव कैसे दे सकते हैं? विसंगत इस तरह कि–“रीतिकालीन सड़ायन्ध को दरकिनार करते हुए जिस तरह सन्त साहित्य” यह पद कैसे हो सकता है। पहले को दरकिनार कर दूसरा आता है और यहाँ यानी साहित्येतिहास में पहला सन्त साहित्य है। यह भक्तिकाल यानी मध्यकाल (1400-1900) के पूर्वार्द्ध में (1400-1700) के बीच लिखा गया। उत्तरार्ध (1700-1900) यानी रीतिकाल दूसरा है। सन्त साहित्य कहें या भक्ति साहित्य उसमें ‘दलित’ शब्द कहाँ से आया? कहाँ, किसने कह दिया? स्त्री-विमर्श की नयी ऊर्जा, तेवर, सांस्कृतिक क्रान्ति कहाँ से अलग-थलग पहचानी गई। मीराबाई ने बचपन से मन में जमे विश्वास के तहत कृष्ण को पति माना और उनके प्रति समर्पित रहीं। उनके लौकिक पति भी अपनी पत्नी के इस सात्त्विक बचपने को समझते थे। यह एक अलग भावधारा थी, प्रेमाभक्ति थी, क्रान्ति नहीं थी। भक्ति काल में चेतना के स्वर थे मगर मर्यादा और मानवता के साथ थे। ‘रीतिकालीन सड़ायन्ध’ पद वही लिख सकते हैं जिन्होंने रीतिकाल को डूबकर पढ़ा नहीं केवल अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुरूप चुनकर दो-चार दोहे बिहारी-ईसुरी, घनानन्द के पढ़ लिये और कह दिया अश्लील है। सड़ायन्ध वह होती है जो आधुनिक काल में स्वतन्त्र भारत में स्त्री-मुक्ति के नाम पर राजेन्द्र यादव ने फैलाई और उनके अनुगामी फैला रहे हैं। स्त्री-मुक्ति-चेतना और आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता के नाम पर भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन को कलंकित और विकृत कर रहे हैं, जो मानसिक रूप से पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति-साहित्य के गुलाम हैं। जो आत्मकेन्द्रित और अर्थकेन्द्रित हैं, देह-सुख में ही जीव का उद्धार देखते हैं, वे सड़ायन्ध फैला रहे हैं। इस 21वीं सदी में भारत की बहू-बेटियाँ जैसे वस्त्र धारण कर मुक्ति गान कर रही हैं वैसे वस्त्र रीतिकाल में भी नहीं पहने गए। रीतिकाल राजे-रजवाड़ों, विदेशी शासकों का युग था। अभाव, अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी थी। परिवार के लालन-पालन के लिए कवि दरबारी कवि होने का चयन कर लेते थे। राजा अपनी भोग-विलास की प्रवृत्ति के अनुरूप जैसा लिखवाना चाहता था, वैसा लिख देते थे। रोजी-रोटी कमाने के लिए भाट बना व्यक्ति निन्दा का पात्र नहीं होता, जबकि इस समय 21वीं सदी में भी शासकों के दरबार में भाटों का जमावड़ा रहता है, ऐसे भाटों का जो उच्च पद, यश और अधिक-से-अधिक धन कमाने की लिप्सा में डूबे हुए हैं। यह सड़ायन्ध है, इसे सड़ायन्ध कहते हैं। राजेन्द्र यादव ने जिन ‘ईसुरी’ को लम्पट कहा उन्हीं ईसुरी के अध्यात्म और दर्शन से भरे पद पढ़कर दिमाग की खिड़कियाँ खुल जाएँगी। पद्माकर, बिहारी, घनानन्द जैसे कवियों के दार्शनिक दोहों के लिए ‘गागर में सागर’ जैसी उपमाएँ दी जा सकती हैं आवश्यकता है इन्हें पूरी तरह पढ़ना...। गलत वक्तव्य से पीढ़ियाँ कैसे बर्बाद और गुमराह होती हैं इसका यह ज्वलन्त उदाहरण सिद्ध हुआ। राजेन्द्र यादव की गलत बयानी को सही मानकर मैत्रेयी जी ने कोट किया, अब अगली पीढ़ी जो राजेन्द्र यादव और मैत्रेयी जी की इस किताब को पढ़ेगी वह भी इस वक्तव्य को ही प्रामाणिक मानेगी क्योंकि नयी पीढ़ी की पुस्तकों को विस्तार से डूबकर पढ़ने में रुचि नहीं है न वे इसकी आवश्यकता अनुभव करते हैं। फिर दोनों प्रतिष्ठित लेखक हैं उनके लिखे पर सन्देह कैसा?


सुषम बेदी, रमणिका गुप्ता (कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथाएँ-बाप रे बाप)–इनमें खुले शब्दों में लाइव टेलीकास्ट जैसे अनुभवों को चित्रित किया गया है। यह कैसा साहित्य है? साहित्य की परिभाषा है–‘स वै हिताय’ यानी जो हित के साथ हो, लोक-कल्याण, लोक-मंगल के लिए हो...। आत्म-कथा साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा है। साहित्य में ग्राम्यत्व दोष अनुचित है। खुले शब्दों का प्रयोग ग्राम्यत्व दोष के तहत आता है। परिष्कृत और परिमार्जित भाषा में मर्यादा के रैपर में लपेटकर अनुभव प्रस्तुत क्यों नहीं किए जा सकते? अनावृत्त पंक्तियाँ किसका हित कर रही हैं? क्या यह सड़ायन्ध नहीं है? रीतिकालीन अभावग्रस्त अशिक्षित (गरीब, गँवार) व्यक्ति के लिए तो अश्लीलत्व दोष क्षम्य हो सकता है क्योंकि शिक्षा के अभाव में उसके संस्कार परिष्कृत नहीं थे लेकिन वर्तमान सम्भ्रान्त वर्ग द्वारा यह कार्य अक्षम्य दोष है। विभूति नारायण जी द्वारा प्रयुक्त शब्द ने कोहराम मचाया। बेशक वह गलत था। क्योंकि ऐसे शब्द प्रयोग की कल्पना किसी विश्वविद्यालय के कुलपति से हम नहीं कर सकते, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुलपति वे शैक्षणिक योग्यता के कारण नहीं बल्कि रसूख और राजनैतिक कृपालुओं के कारण बने। उसके पहले वे पुलिस विभाग में थे। पुलिसवालों को रोज ही अपराधियों से, कैदियों से दो-चार होता पड़ता है और वे गन्दे शब्दों और गालियों के अभ्यस्त हो जाते हैं। विभूति नारायण जी साहित्यकार भी हैं। लेकिन देखिए कि साहित्य सरस्वती और कुलपति जैसा उच्च शैक्षणिक पद भी उनके पुलिसिया संस्कारों को परिष्कृत नहीं कर सका...। उन्होंने यह बोलने से पहले सोचा ही नहीं होगा कि महिला साहित्यकारों के लिए बोला गया यह शब्द मेरे घर की महिलाओं–माँ-बहन-पत्नी-बेटी के मनोमस्तिष्क में मेरी कैसी छवि बनाएगा?


स्त्री-मुक्ति के नाम पर देह-मुक्ति का नारा ऐसा झुनझुना है जिसे पकड़ाकर पुरुष ने स्त्री को मदारी का बन्दर बना दिया, अब देख-देखकर मजे ले रहा है। इस दौर में शिक्षित होकर आत्मदृढ़ता के साथ अपने अस्तित्व की पहचान बनाने, पुरुष वर्चस्व वाले उच्च पदों को छीनकर उस पर आसीन होने वाली, हो सकने वाली स्त्रियाँ देहवाद में उलझ गई हैं। यह दु:खद है। निर्मला जैन भी एक स्त्री हैं। मनुष्य हैं, अध्यापक रही हैं, अभावों-दु:खों के तूफानों ने उन्हें भी घेरा है। उन्होंने जो आत्मकथा लिखी वह बेदाग है, तत्कालीन समय और समाज की झाँकी प्रस्तुत करती है। आत्मदृढ़ता के साथ दु:खों का सामना करने की प्रेरणा देती है। शिक्षा-जगत के महागुरुओं की पोल शालीनता से खोलती है क्योंकि वे साहित्य रचती हैं तो अपने जीवन का वही अनुभव, वैसी ही भाषा में सुनाती हैं जो आने वाली पीढ़ी के लिए चेतना का द्वार बने, प्रेरणा बने...। हर मनुष्य अपने समय-समाज-परिस्थिति, मन:स्थिति, भाग्य-कर्म के अनुसार पाता, भोगता है। समय परिवर्तित होता है और उसके साथ सब कुछ बदलता है लेकिन बदलाव का मूल और साधन तो मनुष्य ही है। अब निर्भर करता है मनुष्य पर कि वह पुरानी स्मृतियों और अनुभवों में से सद् का चयन करता है या असद् का...। खैर, प्रसंगवश निर्मला जी आ गईं–बात ‘वह सफर था’ की हो रही थी... तो कहना होगा कि वह सफर ही था मैत्रेयी जी... जिसमें राजेन्द्र यादव नामक एक मुसाफिर कुछ वर्षों के लिए आपकी सखी-सहयात्री बना, आपने उनके निर्देशों को उपदेश माना, प्रेरणा माना और उन्हें गुरु...। सारे दुर्गुणों सहित स्वीकार कर आपने उन्हें प्यार करने योग्य माना...करती रहीं और करती रहेंगी ऐसा आप लिखती हैं...उनकी की गई बेईमानी और विश्वासघात (विपक्ष में खड़े होना) ने भी आपका उनके प्रति विश्वास-प्रेम और मैत्री की भावना को नहीं डिगाया... आप उन्हें सहेली और गुरु ही मानती रहीं...अपने-आपको ठगती रहीं और प्रसन्न होती रहीं, आपका प्रेम और मैत्री, निष्ठा और समर्पित भक्ति भाव सराहनीय है। कबीर याद आ गए–


कबिरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय।


आप ठगे सुख ऊपजै और ठगे दुख होय।।





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