कोरोना महामारी: मजदूरों पर भारी

 राकेश गौड़, नई दिल्ली, मो.: 9818974184


कोरोना महामारी के चलते लॉकडाऊन के कई दौर होने के बाद जब सरकार ने अनलॉक-1 की घोषणा की तो बड़ी बड़ी कम्पनी और उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की वापसी शुरू हो गयी। उन्हीं दिनों यह खबर भी आयी कि हैदराबाद की एक कम्पनी ने तो अपने अधूरे प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए अपने गृह राज्य लौट गए प्रवासी श्रमिकों को विमान द्वारा बिहार से वापस बुलाया। यह कैसी त्रासदी है कि लॉकडाउन होते ही सरकारी निर्देश के बावजूद सभी नियोक्ताओं ने अपने कर्मचारियों व श्रमिकों को वेतन व अन्य सुविधाएँ देने से इंकार कर दिया और भुखमरी के कगार पर आ गए लाखों लोग पैदल, बस या ट्रेन द्वारा दूर सैकड़ों मील अपने अपने घर लौटने लगे। उस समय अगर इन्हीं उद्योगपतियों, फैक्ट्री मालिकों और ठेकेदारों ने उनके घर वापस भेजने की व्यवस्था ही कर दी होती तो ऐसे हालात पैदा नहीं होते. यह स्वार्थ और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है कि जिन श्रमिकों से आपने पल्ला झाड़ कर उनके हाल पर छोड़ दिया था उन्हीं को अब विमान द्वारा वापस बुलाया जा रहा था।

कोरोना महामारी के चलते शुरू के दो तीन महीनों में भारत के विभिन्न राज्यों से लाखों मजदूर अपने गृह राज्यों को पलायन कर गए। सूटकेस पर बेटे को लिटा कर रेहड़ी की तरह खींच कर ले जाती माँ, कन्धों पर माँ को ले जाते हुए बेटा, दो बच्चों की उंगली गली पकड़े हुए सैंकड़ो मील का रास्ता तय करती गर्भवती महिला, अपने पिता को साइकिल पर बैठा कर 1200 किलोमीटर का सफर तय करने वाली बहादुर बेटी-ज्योति कुमारी की तस्वीर जैसी सैंकड़ो तस्वीरें और मार्मिक समाचार सालों हमेँ विचलित करते रहेंगे। पूरा विश्व पिछले पांच-छह महीने से कोरोना महामारी से जूझ रहा है। विदेश से आयी इस महामारी ने भारत में भी आतंक मचा रखा है। लॉकडाउन के कारण लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए। सरकार ने इनके राशन आदि की व्यवस्था की और मुफ्त खाना बांटने का प्रबंध भी किया. मजदूरों के लिए राहत राशि भी कुछ राज्यों ने घोषित की लेकिन सरकार की लचर नीति, केंद्र व राज्य सरकारों के टकराव और अन्य राजनीतिक-आर्थिक कारणों के चलते दिल्ली, मुंबई व बंगलौर जैसे महानगरों में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से आकर बसे मजदूरों का भारी संख्या में पलायन हुआ। आज़ादी मिलने के बाद बंटवारे के समय भारत पाकिस्तान से लाखों लोगो ने पलायन किया था मगर उस समय परिस्थितियां बिलकुल अलग थी और पलायन का कारण भी राजनीतिक था लेकिन कोरोना महामारी के कारण हुआ यह पलायन प्रवासी मज़दूरों का इतिहास का सबसे बड़ा पलायन बन गया और छोड़ गया हज़ारों दर्द भरी दास्तानें।

यह सच है कि सम्पूर्ण विश्व में कोई भी देश इस महामारी से मुकाबले के लिए तैयार नहीं था क्योंकि इस वायरस के बारे में या इसके इलाज के बारे में किसी को ज्ञात नहीं था और न ही इसकी भीषणता का कोई अंदाज़ा था। साथ ही यह भी सच है कि पश्चिम के विकसित देशों में सामजिक सुरक्षा के उचित प्रावधानों के कारण वहां मजदूरों का पलायन इतनी भारी संख्या में नहीं हुआ क्योंकि वहाँ जो मजदूर जहाँ काम कर रहे थे, वहीँ पर उनको बिना काम के भी वेतन दिया गया और बेरोजगारों को भत्ते के साथ-साथ अन्य सुविधाएं भी दी गयी हैं। दूसरी ओर भारत के विभिन्न राज्यों में प्रवासी मजदूरों की भारी संख्या और उनके लिए पर्याप्त क़ानून न होना और जो कानून हैं भी, उनके सुचारु रूप से लागू न किये जाने और अन्य राजनीतिक-आर्थिक कारणों के चलते ऐसा माहौल बन गया कि भारी संख्या में मजदूर अपने अपने गृह राज्यों की ओर पलायन करने लगे। हमारे देश में अफ़वाहें भी बड़ी तेज़ी से फ़ैलती हैं। दिल्ली में अफ़वाह फैली कि आनंद विहार टर्मिनल से बसें चल रही हैं जो मज़दूरों को उत्तर प्रदेश व बिहार आदि राज्यों में उनके घर पहुंचाएँगी जबकि सरकार की ओर से ऐसी कोई तैयारी नहीं थी। भीड़ में सोशल डिस्टेन्सिंग की तो धज्जियाँ उड़ाई ही गयी, पुलिस को भी क़ानून व्यवस्था सम्भालने में काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी। जब मज़दूरों को लगा कि बस या ट्रेन की व्यवस्था नहीं हो पा रही है तो वे पैदल, साइकिल या रिक्शा आदि से जी अपने घरों की ओर निकल पड़े। राज्य सरकारों द्वारा अन्य राज्यों के साथ समन्वय के अभाव और बस और ट्रेनों की व्यवस्था न होने के कारण अंतर्राज्यीय सीमाओं पर पुलिस की ज़्यादतियों की घटनाएँ भी सामने आने लगी। पैदल लम्बा सफर तय कर रहे मजदूर भूख प्यास से परेशान देखे गए। सरकारी तंत्र की पोल खुल गयी। कुछ स्वैच्छिक संगठनों व आम नागरिकों ने भी अपने सीमित साधनों से मजदूरों की मदद करने का प्रयत्न किया लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर प्रवासी मजदूरों के इस पलायन को लेकर केंद्र व राज्य सरकारों का कुप्रबंधन, ओछी राजनीति और विफलता साफ़ दिखाई दी। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि लगभग 5-6 लाख प्रवासी बंद के दौरान पैदल अपने गांवों में पहुंच गए जबकि लाखों अन्य श्रमिकों को बस व ट्रेनों से उनके घर पहुँचाया गया। हालांकि ट्रक, टेम्पो आदि में छुपकर अपनी जान जोखिम में डाल कर कितने प्रवासी अपने गृह राज्यों में गए इसके कोई आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं।

यह सारा दुखद घटनाक्रम हमें देश की श्रम नीति, विशेषकर असंगठित श्रमिकों व प्रवासी श्रमिकों के लिए बने कानूनों पर विचार करने व प्रवासी श्रमिकों के पलायन के कारणों की विवेचना के लिए मजबूर करता है। यदि हम अब भी नहीं जागे तो भविष्य में इससे भी बुरे हालातों के लिए तैयार रहना होगा। हमारे देश में श्रम नीति व श्रम कल्याण को लेकर में लगभग 260 क़ानून पारित हुए हैं। यह बात दीगर है कि इनमें से गिने चुने क़ानून ही आधे अधूरे लागू किए गए हैं। वर्ष 2019 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश में प्रवासी श्रमिकों सहित, लगभग 93 % श्रमिक असंगठित कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र में कार्य करते हैं जबकि अधिकतर श्रम कानून संगठित क्षेत्र में कार्य कर रहे श्रमिकों पर लागू होते हैं। असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रहे श्रमिकों के लिए केंद्र सरकार ने कुछ कानून लागू किये हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि केंद्र व राज्य सरकारें इन कानूनों को लागू करने में पूरी तरह विफल रही हैं। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों के लिए लागू प्रमुख कानून हैं - समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948, अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार का विनियमन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1979 भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (रोजगार और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1996, असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 आदि। कोरोना महामारी के प्रकोप के कारण पैदा हुई स्थिति से पहले ही अगर अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार का विनियमन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1979, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (रोजगार और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1996 और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 को ही सुचारु रूप से लागू किया गया होता तो लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों की यह दुर्दशा नहीं हुई होती।

असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों की योजनाओं के अंतर्गत असंगठित क्षेत्र को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है। यह राज्य स्तर पर बोर्ड के गठन के लिए और जिला प्रशासन द्वारा रिकॉर्ड रखने के लिए और श्रमिकों के लिए सुविधा केंद्र की स्थापना के वित्तीय सहायता लिए प्रदान करता है। यह बड़ा ही दुखद है कि लगभग बारह वर्ष पूर्व लागू किये गए इस कानून को लागू करने की दिशा में केंद्र व किसी भी राज्य सरकार ने कोई गंभीर कदम नहीं उठाया है। इस कारण न तो केंद्रीय स्तर पर श्रमिकों का डाटा बैंक बनाने की प्रक्रिया पूरी हुई और न ही श्रमिक सुविधा केंद्र आदि बनाने की दिशा में कोई कार्य हुआ। यदि आज राज्य सरकारों के पास श्रमिकों का रिकॉर्ड होता और विभिन्न राज्यों की सरकारें आपसी सहयोग व तालमेल से काम करती तो उन्हें उनके गृह राज्यों में भेजने का काम व्यवस्थित ढ़ंग से किया जा सकता था।

इसी प्रकार अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार का विनियमन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1979 को लागू हुए 40 वर्ष हो गए हैं मगर जमीनी स्तर पर इस कानून को लागू करने के लिए न तो केंद्र सरकार और न ही अधिकतर राज्य सरकारों ने कोई गंभीरता दिखाई। इस अधिनियम के अंतर्गत अंतर-राज्य प्रवासी कामगारों को रोजगार देने के लिए नियोक्ता को केंद्र सरकार या राज्य सरकारों के तहत नियुक्त पंजीकृत अधिकारियों से पंजीकरण करवाना होगा। इसी तरह, प्रत्येक ठेकेदार जो अंतर-राज्य प्रवासी काम करने वालों को भर्ती करना या नियुक्त करना चाहता है, उसे संबंधित राज्य के उस निर्दिष्ट प्राधिकारी से लाइसेंस प्राप्त करने की आवश्यकता होगी। यदि इस अधिनियम के प्रावधानों को ठीक से लागू किया गया होता तो प्रत्येक राज्य के पास प्रवासी मजदूरों का रिकार्ड होता व उनके लिए राशन व रहने के व्यवस्था और उनके गृह राज्य में भेजने का काम आसान होता।

अप्रवासी श्रमिकों में भारी संख्या भवन निर्माण संबंधी कार्य से जुड़े श्रमिकों की है, जो किसी एक ठेकेदार या निर्माण कंपनी से जुड़े हैं और अपने काम के सिलसिले में वे एक राज्य से दूसरे राज्य में भी चले जाते हैं। भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक (रोजगार और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1996 के अंतर्गत यह प्रावधान है कि प्रत्येक राज्य एक बोर्ड की स्थापना करेगा जिसमें श्रमिकों का पंजीकरण होगा और ठेकेदार/ निर्माण कंपनियां इस बोर्ड के सेस फण्ड में अपने प्रत्येक प्रोजेक्ट की स्वीकृति के बाद एक निश्चित राशि जमा करेंगे। बोर्ड पंजीकृत सदस्यों के लिए विभिन्न कल्याण योजनाएं जैसे सदस्य या उसके बच्चों के विवाह के लिए अनुदान, उच्च शिक्षा के लिए अनुदान, प्रसूति लाभ व दुर्घटना सहायता राशि आदि लागू करेंगे। इस बोर्ड के प्रावधानों में यह खामी कि यदि कोई मजदूर कार्य करने के लिए किसी पडोसी राज्य में चला जाता है तो उसे उसी राज्य के बोर्ड की सदस्यता लेनी होगी और पहले राज्य के बोर्ड की सदस्यता रद्द करवानी पड़ेगी। लगभग सभी राज्यों में जहां बोर्ड ने करोड़ों रूपये सेस फण्ड के रूप में एकत्र किये हैं वहीँ निर्माण श्रमिकों के पंजीकरण व कल्याण योजनाएं बना कर कल्याण राशि स्वीकृत करने की दिशा में कर्नाटक, महाराष्ट्र व दिल्ली आदि राज्यों को छोड़ कर किसी और राज्य ने कोई विशेष प्रयास नहीं किये हैं।

इस संदर्भ में दिल्ली के भवन और अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड का ज़िक्र करना भी आवश्यक है। लगभग 23 वर्ष पूर्व लागू इस अधिनियम के अंतर्गत दिल्ली में स्थापित बोर्ड ने वर्ष 2000 के आसपास काम करना प्रारम्भ किया और वर्ष 2013 तक इसमें लगभग 1800 करोड़ सेस फण्ड एकत्र हो गया था और कुछ लाख श्रमिकों का पंजीकरण भी किया गया था। इसके बावजूद श्रमिक कल्याण योजनाएं बनाने और लागू करने की दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं किया गया। वर्ष 2015 में आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद श्रम मंत्री ने इस बोर्ड की कार्य प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन किये और श्रमिकों के लिए कई नयी योजनाएं बनाकर लागू करवाई और श्रमिकों का पंजीकरण भी बड़े स्तर पर करवाया गया ताकि अधिक से अधिक श्रमिकों को इसका लाभ मिल सके। जैसे ही बोर्ड के काम ने गति पकड़ी विरोधी दल के एक यूनियन नेता ने बोर्ड के कार्य में धांधलियों और भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज करा दी। बस फिर क्या था, जांच के नाम पर बोर्ड का सारा काम ठप्प हो गया। एक ओर जहाँ जांच के बाद कुछ पंजीकरण रद्द किये गए वहीँ नए पंजीकरण व नवीनीकरण व अनुदान राशि स्वीकृत करने का काम भी ठप्प हो गया। इसके चलते कोरोना महामारी के कारण बेरोजगार हो गए लाखों श्रमिक अनुदान राशि पाने से वंचित रह गए। कोरोना महामारी फैलने के बाद बोर्ड का कार्य दुबारा जोर शोर से शुरू किया गया। अभी तक लगभग 39000 पंजीकृत श्रमिकों को 5000 रुपये की दर से राहत राशि मिली है जबकि 3 -4 लाख श्रमिकों तक यह राहत पहुंचनी चाहिए थी। सरकार के निर्देशों पर बोर्ड अब नवीनीकरण व नए पंजीकरण करने की कवायद कर रहा है और राहत राशि जारी करने पर भी विचार हो रहा है पर श्रमिकों को लाभ कब मिलेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। अन्य राज्यों में भी इस बोर्ड की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है।

बड़े ही आश्चर्य का विषय है आज जब न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण आर्थिक मंदी से जूझ रहा है और लाखों श्रमिकों और उद्योगों, वाणिज्यिक संस्थान व ठेकेदारों का भविष्य अन्धकार में है, पिछले दिनों कुछ राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों के अनुपालन में महत्वपूर्ण बदलाव करने का फैसला किया है। सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तनों की घोषणा भाजपा शासित राज्यों - हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात द्वारा की गई थी, लेकिन कई अन्य राज्यों, कांग्रेस शासित राजस्थान और पंजाब, शिव सेना-कांग्रेस शासित महाराष्ट्र के साथ-साथ बीजेडी शासित ओडिशा ने भी कुछ छोटे छोटे बदलाव किए हैं। सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश ने तो राज्य के सभी श्रम कानूनों को लागू करने की बाध्यता को अगले तीन वर्षों के लिए निलंबित कर दिया है।

कहा जा रहा है कि ये परिवर्तन संबंधित राज्यों में आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए किये गए हैं। इस संबंध में कानूनी दृष्टिकोण की बात छोड़ दें तो भी यह ध्यान रखना होगा कि श्रम विषय समवर्ती सूची में आता है और केंद्र द्वारा लागू किये गए कई कानून हैं जिनकी अवहेलना कोई राज्य नहीं कर सकता है। श्रम के क्षेत्र काफी समय से लंबित इन सुधार्रों की बात तो कई अर्थशास्त्री वर्षों से कर रहे हैं लेकिन ऐसे कठिन समय में इन्हें लागू करना और श्रम कानूनों का निलंबन मजदूरों के हित में होगा या गलत समय पर उठाया गया प्रतिगामी कदम सिद्ध होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

यह भी एक कटु सत्य है कि देश में बहुत सारे श्रम कानून हैं, जो जटिल होने के कारण प्रभावी रूप से लागू भी नहीं किये जा सके और इसी कारण और मजदूरों के शोषण को बढ़ावा मिला। अगर श्रम कानून कम और आसान हों तो श्रमिकों को बेहतर वेतन और सामाजिक सुरक्षा लाभ मिल सकता है। गत वर्षों में सरकार ने एक अच्छी पहल की है जिसके अंतर्गत इन क़ानूनों की समीक्षा करके ग़ैरज़रूरी और अप्रासांगिक क़ानूनों को रद्द किया जा रहा है और क़ानूनों की संख्या भी घटाई जा रही है। श्रम मंत्रालय श्रम कानूनों की संख्या लगभग 260 से घटाकर 44 श्रम कानूनों को चार संहिताओं (कोड) में समाहित करने की दिशा में काम कर रहा है मगर लाल फ़ीताशाही और राजनैतिक कारणों के चलते यह प्रक्रिया भी काफ़ी लम्बी हो गयी है।

इसके अतिरिक्त गत तीन वर्षों से श्रम मंत्रालय असंगठित और संगठित क्षेत्र के प्रत्येक श्रमिक को एक विशिष्ट पहचान संख्या (यूनीक आई डी ) आबंटित करने के लिए एक योजना बना रहा है। विशिष्ट पहचान संख्या मिलने के बाद लगभग 40 करोड़ श्रमिकों को विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत लाभ प्राप्त करना आसान हो जाएगा। प्रवासी श्रमिक भी किसी भी राज्य में जाकर काम कर सकेंगे और विशिष्ट पहचान संख्या के द्वारा सभी लाभ प्राप्त करते रहेंगे। यदि ऐसा होता है तो उन्हें ई पी एफ , ई एस आई आदि योजनाओं में नियोक्ता या कार्य स्थल बदलने पर हर बार पंजीकरण कराने की आवश्यकता नहीं होगी। कोरोना महामारी ने एक बार फिर समाज के इस वंचित वर्ग की दुर्दशा को फिर उजागर कर दिया है लेकिन सरकार की उदासीन नीति, इच्छा शक्ति का अभाव और केंद्र व राज्यों के टकराव को देखते हुए तो यही लगता है कि श्रम कानूनों में सुधार और विशिष्ट पहचान संख्या आबंटित करने की कवायद में अभी कई वर्ष और लग जाएंगे और कोरोना महामारी के चलते चरमरा गयी अर्थव्यवस्था में श्रमिक वर्ग की हालत बद से बदतर होती जायेगी।



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