महादेवी की अंतर्वेदना

डाॅ. आरती स्मित, नई दिल्ली, मो. 8376836119


रचनाकाल : 2010


"अन्याय के प्रति मैं स्वभाव से असहिष्णु हूँ, अत: इन निबंधों में  उग्रता की गंध स्वाभाविक है परंतु ध्वंस के लिए ध्वंस का सिद्धांत मेरा कभी नहीं रहा। मैं तो सृजन के उन प्रकाश-तत्वों के प्रति निष्ठावान हूँ जिनकी उपस्थिति में विकृति अंधकार के समान विलीन हो जाती है ...... वास्तव में अंधकार स्वयं कुछ न होकर आलोक का अभाव है, इसी से तो छोटे से छोटा दीपक भी उसकी सघनता नष्ट कर देने में समर्थ है।"


निबंध संग्रह श्रृंखला की कड़ियाँ  की भूमिका में अभिव्यक्त महादेवी के ये कथन सजग  स्त्री चेतना का प्रमाण देते है  जबकि  महान आलोचक नंददुलारे वाजपेयी की दृष्टि में महादेवी का  अनुभूति जगत इतना सीमित और वायवी है कि वह सामाजिक जीवन की अनुभूतियों तक अपना विस्तार नहीं कर पाता। अन्य समीक्षकों ने भी महादेवी की विरह वेदना सुनकर कभी मीरा को याद किया कभी उसका नवीन रूप होने की दुहाई दी,। 'मैं नीर भरी दुख की बदली' ' बिरह का जलजात जीवन ' आदि उद्धृत करते हुए महादेवी को वेदना की साकार मूर्ति बना दिया। किंतु पद्य के साथ-- साथ महादेवी के गद्य से परिचित पाठकों को क्या यह सोचकर हैरत नहीं हो रही होगी कि अपने रेखाचित्रों के माध्यम से पशु-पक्षी और उपेक्षित वर्ग के व्यक्तियों को नायकत्व प्रदान करने का साहस उस समय केवल महादेवी ने किया, फिर उनकी रचनाओं में छलक पड़ती वेदना और करुणा महादेवी की वैयक्तिक संपत्ति है।


अंतर्वेदना, जिसकी कचोट को अनुभव किया जाना एक बात है और हू-ब-हू व्यक्त कर पाना दूसरी बात। अंतर्वेदना को यथावत अभिव्यक्ति का जामा पहना पाना संभव भी नहीं। महादेवी की कविता में छलकती अंतर्वेदना उनके स्वत्व को उजागर करती है या समाज को । उनके निकटतम व्यक्तियों के अनुसार 'महादेवी ठठाकर हँसती थीं’  फिर उनके पद्य वेदना से पूरित क्यों? संभवत: छायावाद ने स्त्रियों की सामाजिक दुर्दयनीय स्थितियों से उभरी वेदना को कवयित्री की वैयक्तिक वेदना बना दिया ,जैसे कि प्रसाद रचित आँसू और निराला रचित  सरोज स्मृति। श्रृंखला की कड़ियाँ की भूमिका में महादेवी के कथन , " भारतीय नारी भी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राणवेग से जाग सके उस दिन उसकी  गति  रोकना  किसी के लिए संभव नहीं। उसके अधिकारों के संबंध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेंगे क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान करने योग्य वस्तुओं से भिन्न है" इंगित करते हैं कि उनकी वेदना 'स्त्री होने की वेदना' थी । इसी  भाव-प्रस्फुटन के लिए उन्होंने 'वेदना', 'पीड़ा' जैसे शब्दों को अपना संदेशवाहक बनाया। किंतु उनके काव्य को रहस्यवाद की चाशनी में डुबोकर परोसने वाले आलोचक ऐसा नहीं समझते । कवयित्री के वेदना परक बोल :


मेरी मधुमय पीड़ा को कोई ढूँढ न पाए


पा  लिया किसे मैंने इस वेदना के मधुर क्रय मे


गई वह अधरों की मुस्कान, मुझे मधुमय  पीड़ा में बोर


पीड़ा सुखानुभूति नहीं दे सकता ,यह स्थूल अर्थ में सटीक है,किंतु मध्यकालीन काव्यों में अमिट आह्लाद के साथ मर्मांतक पीड़ा के भाव व्यक्त हुए हैं। कविवर घनानंद ने इसे 'दुहेली दसा' कहा :


निपट कठोर ये ही ऐंचत न आप ओर 


लाडिले सुजान सों दुहेली दसा को कहे


कबीर कहते हैं :


मन परतीत न प्रेम रस, न इस तन में ढंग 


क्या जाणै उस पीव सूँ, कैसे रहसी संग


प्रसाद ने प्रेम को 'हलाहल' और 'सुधा' एक साथ माना :


तेरा प्रेम हलाहल प्यारे अब तो सुख से पीते हैं 


बिरह सुधा से बचे हुए हैं मरने को हम जीते है     


यहाँ मीरा की हेरि मैं तो दरद दिवाणी मेरो दरद न जाणै कोय  और घायल की गति घायल जाणै और न जाणै कोय में अंतर्निहित स्त्री की अंतर्वेदना चीख-चीख कर यही समझाने की कोशिश कर रही है बिना उस पीड़ा से गुजरे उसका बोध होना संभव नहीं, जो पुरुष समाज समझ ही नहीं सका। आलोचक /समीक्षक  पुरुष समाज ने एक काम किया --- मीरा और महादेवी दोनों को अलौकिक प्रेम की उपासिका बना दिया, जबकि दोनों ने अपने-अपने समय की स्त्री-दुर्दशा को इंगित करते हुए  स्त्री -अस्मिता के लिए आवाज़ उठाई। मीरा के प्रेमी के लिए  सगुण और महादेवी के प्रियतम के लिए निर्गुण स्वरूप की कल्पना कर ली गई  और महादेवी को 'रहस्यवाद ' की कवयित्री घोषित कर दिया गया। जब महादेवी कहती हैं :


पर शेष नहीं होगी यह मेरे प्राणों की क्रीडा 


तुमको पीड़ा में ढूँढा तुममें ढूँढूँगी पीड़ा


तो समीक्षकों की समीक्षा तत्कालीन समय के सत्य-बोध को छोड़ शेष सभी अर्थ तलाश लेती है। विश्वंभर मानव के अनुसार, 
"अंतिम पीड़ा शब्द का अर्थ है ' पीड़ामय हृदय जिसके लिए इतनी पीड़ा सही है, उस निष्ठुर के हृदय में भी कभी दर्द उठता है कि नहीं, यह जानने की कामना भी अत्यंत स्वाभाविक है । जिस वेदना ने कवयित्री को निष्ठुर से मिलाया, उसकी प्राप्ति पर वह उपकारी को भूलने की कृतघ्नता नहीं कर सकती क्योंकि ध्येय 'तुम' है पीड़ा नहीं।


किंतु गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार, "प्रेमरहित या प्रणयविमुख प्रियतम से किसी प्रेमिका को आनंद कैसे प्राप्त हो सकता है?"  इस संदर्भ में सत्यपाल चुघ के  विचार  हैं :  " अवश्य ही वेदना उनको प्रिय भी है और इसका उनके जीवन-दर्शन से अनिवार्य रूप से संबंध भी है। तो क्या जो बात किसी को प्रिय हो , वही उसका जीवन दर्शन भी होगी? ऐसा आवश्यक तो नहीं, किंतु महादेवी जैसी परिपक्व बुद्धिशीला महिला के लिए आवश्यक है, क्योंकि हम उनसे किसी सस्ती भावुकता की आशा नहीं कर सकते। और फिर कितनी ही कविताओं में  वेदना साध्य बन गई है।"


क्या  चुघ महोदय यह कहना चाहते हैं कि अलौकिक प्रेम पूज्य और लौकिक प्रेम त्याज्य है या कि उसमें केवल केवल सस्ती भावुकता ही स्थान पा सकती है या यह भी कि महादेवी का स्त्री-हृदय कभी प्रेम के लिए धड़का ही न होगा। जहाँ प्रेम होता है वहाँ सस्ती भावुकता नहीं होती, जहाँ सस्ती भावुकता पराश्रय पा लेती है वहाँ प्रेम प्रकर्ष  प्राप्त कर ही नहीं सकता । महादेवी की पीड़ा उदात्त और शाश्वत प्रेम प्रदत्त नहीं हो सकती क्या? आज भी पुरुष व्यवस्था पर स्त्री-विरोध बर्दाश्त नहीं किया जाता, उदाहरण में तसलीमा नसरीन हैं, फिर उस समय स्त्री-चिंतन को कहाँ इतना आसमान मुहैया हो पाया होगा? एक ओर महादेवी कहती हैं-


विस्तृत नभ का कोई कोना


मेरा कभी न अपना होना   


परिचय इतना इतिहास यही


उमड़ी कल थी मिट आज चली।


दूसरी ओर वे कहती हैं  " जिस अशांत वातावरण में पुरुष अपनी इच्छा और विश्वास के अनुसार स्त्री को चलाना चाहता था उसमें इस भ्रमात्मक धारणा को 'स्त्री स्वतंत्र व्यक्तित्व से रहित पति की छाया मात्र है' सिद्धांत रूप दे दिया गया। इस भावना ने इतने दिनों में कितना अपकार कर डाला है! यह इस जाति  की युगांतर तक भंग न होने वाली निंद्रा और निश्चेष्टता देखकर ही जाना जा सकता है । उसके पास न अपनापन है और न वह अपनापन चाहती है।" महादेवी ने अपने गद्य लेखन में सामाजिक -चिंतन करते हुए रूढ़ियों, अनीतियों का जिस प्रकार खुला विद्रोह किया है, हम कह सकते हैं कि उनकी वेदना भी विरोध का अस्फुट रूप है।


तुम्हें बाँध पाती सपने में


तो चिर जीवन प्यास बुझा लेती उस छोटे क्षण अपने में 


इन ललचाई पलकों पर पहरा था जब व्रीड़ा का


साम्राज्य मुझे दे डाला, उस चितवन ने पीड़ा का     


गए तब से कितने युग बीत, हुए कितने दीपक निर्वाण


महादेवी की ये काव्य पंक्तियाँ क्या उनके इस विचार की द्योतक नहीं, जब वे लिखती हैं, "पुरुष के अंधानुसरण ने स्त्री के व्यक्तित्व को अपना दर्पण बनाकर उसकी उपयोगिता को सीमित कर ही दी , साथ ही समाज को भी अपूर्ण बना दिया।" यह भी कि   "स्त्री- पुरुष के प्राकृतिक मानसिक वैपरीत्य -द्वारा ही हमारा समाज सामंजस्यपूर्ण और अखंड हो सकता है, उसके बिम्ब- प्रतिबिंब भाव से नहीं। उससे समाज का दृष्टिकोण एकांगी हो जाएगा तथा जीवन की अनेकरूपता का वास्तविक मूल्य आंकना असंभव।"


गौर करें तो पाएँगे कि समकालीन स्त्रियों की भाँति महादेवी भी परंपरा और आधुनिकता की संक्रांति से गुजर रही थीं,जहाँ एक ओर  रूढ़िग्रस्त परंपराओं, नियत मान्यताओं और बेड़ी बने संस्कारों से मुक्त होने के लिए छटपटा रही थीं, दूसरी ओर स्त्री- की चिरकालीन पीड़ा, जिसे युगों से सहती आई  आम स्त्रियों ने नियति मान लिया , को चिह्नित करती चलती हैं। अब्राह्मण स्त्री होने के कारण उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वेदों का अध्ययन करने से मनाही हो गई किंतु तब भी भारतीय वाङ्मय के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन किया। उनके विचारों में नवजागृति के दर्शन होते हैं। उन्होंने कलम को हथियार बनाकर चेतना का शंख फूँका । 'स्मृति  की रेखाएँ ' और 'अतीत के चलचित्र' में स्त्री-दुर्दशा के विरोध में ही उन्होंने बाल-विधवा, परित्यक्ता और वेश्या जैसे चरित्रों को मुखर किया। क्या समाज की ऐसी सजग नेत्री को रहस्यवाद के आवरण में लपेट देने से बात ख़त्म हो जाएगी? क्या काव्य में प्रस्फुटित वेदना के स्वर व्यापक अर्थ पा सकेंगे?  महादेवी ने स्त्री सुलभ गुणों-- कोमलता,करुणा, दया, संवेदना आदि का कहीं भी विरोध नहीं किया किंतु स्त्री चारदीवारी में क़ैद रहकर , अपनी दुनिया की सीमा पति और बच्चे की सेवा तक मान बैठे, यह उन्हें मंजूर न था । उन्होंने माना है कि स्त्री में शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्तियों का ऐसा सामंजस्य है जो उसे कहीं भी उपहासास्पद बनने नहीं देगा।


कोई भी व्यक्ति भावना और विचार के परस्पर सामंजस्य से अपना व्यक्तित्व औरों से अलग बनाता है। ऐसी स्थिति में केवल भावना या केवल प्रज्ञा के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारण  उचित नहीं ।  काव्य में कवयित्री की भावना, उसकी संवेदना 'स्व' में प्रस्फुटित दिखती है, किंतु इसका कतई अर्थ नहीं कि वे लौकिक समाज के तत्कालीन राजनीतिक या  सामाजिक  से पूर्णतया अनभिज्ञ रहीं। इसलिए यह निर्णय सुना देना कि वे अलौकिक प्रियतम के विरह में काव्य रचती रहीं जो बहुत क्लिष्ट या दुर्बोध है। या कि वर्णित अंतर्वेदना उनके व्यक्तिगत हैं। यह तो छायावाद की विशिष्टता रही है।


अपने गद्य लेखन के विषय में  उन्होंने स्वयं कहा  है, " विचार के क्षणों में मुझे गद्य लिखना ही अच्छा लगता रहा है क्योंकि उसमें अपनी अनुभूति ही नहीं बाह्य परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश रहता है।" किंतु इससे उनके पद्य में समाहित समस्त भावों  व विचारों को संकुचित परिदृश्य में रखकर नहीं देखा जा सकता। सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने महादेवी को 'आस्था और सौदर्य की कवयित्री के रूप में व्याख्यायित किया । उन्होंने महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व की परिचायक इन पंक्तियों को माना है :


रात्रि के उर में  दिवस की चाह का शर हूँ


कौन आया था न जाने स्वयं में मुझको जगाने


नींद में उन उँगलियों की, पर मुझे हैं युग बिताने


रात्रि के उर में दिवस की चाह का शर हूँ


डॉ. रामविलास शर्मा की समीक्षक दृष्टि प्रशंसा की पात्र है। तत्कालीन समय में कविता में पहली बार  किसी समीक्षक ने महादेवी के साहित्यकार व्यक्तित्व के साथ न्याय करने की चेष्टा की और उनके साहित्य- मूल्यांकन को नवीन दिशा दी। सामान्य पाठकों के साथ ही विद्वदजनों को उनकी काव्य-यात्रा करते हुए निश्चय  कविता का सौदर्य-बोध होगा ,साथ ही आशा और आस्था के मुखरित स्वर भी सुनाई पड़ेंगे। कवयित्री छाया और रहस्य की दुनिया से विलग उद्बोधन गीत भी गाती हैं-- जाग तुझको दूर जाना तथा दीप मेरे जल अकंपित, चीर अचंचल


महादेवी की वेदना दो अन्य भावों को भी लेकर चलती है--- पीड़ितों के प्रति करुणा और वैयक्तिक वैभव के प्रति निर्वेद-भाव। प्रकृति छायावादी कवियों के भाव-सम्प्रेषण का माध्यम है । अतएव कवयित्री का विरह पुष्प के जीवन की दुखमय गाथा बन जाता है :


देकर सौरभ दान पवन से कहते जब मुरझाए फूल


जिसके पथ में बिछे वही क्यों भरता इन आँखों में धूल


कवयित्री महादेवी के ही शब्दों में : " दुख मेरे निकट जीवन का एक ऐसा काव्य है जो सारे संसार को एकसूत्र में बांधे रखने की  क्षमता रखता है--- मनुष्य सुख को अकेले भोगना चाहता है, परंतु दुख सबको बाँटकर -- विश्व-जीवन में अपने जीवन को, विश्व-वेदना में अपनी वेदना को इसप्रकार मिला देना, जिसप्रकार एक जलबिंदु समुद्र में मिल जाता है, कवि का मोक्ष है।"


"मुझे दुख के दोनों ही रूप प्रिय हैं। एक वह जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार में एक अविच्छिन्न बंधन में बाँध देता है और दूसरा वह, जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतना का क्रंदन है।"


स्पष्ट है कि युग चेतना से अनुप्राणित और युग-बोध के प्रति सजग मन केवल वैयक्तिक पीड़ा की बात नहीं कर सकता। समाज की  प्रत्येक उपेक्षित व्यक्ति, वस्तु और समुदाय की पीड़ा कवयित्री की अंतर्वेदना बनकर कविता में उभरी है तो गद्य की  विभिन्न विधाओं में  उन पीड़ाकारकों के  विरोध में स्वर प्रबल हुए । सामाजिक जीवन में भी यही पीड़ा वे अथक और अमर साधना में विश्वास करती हैं। अपनी पीड़ा को उन्होंने इसप्रकार निरूपित किया है :


अमरता उसमें मनाती है मरण त्यौहार


मैं नीर भरी दुख की बदली  पंक्तियाँ लोक कल्याण की भावना मुखर होती है। यही कामना इन पंक्तियों में  फूट पड़ती  है :


दुख प्रति  निर्वाण उन्माद


ये अमरता नापते पद


बाँध देंगे अंक संसृति से तिमिर में  स्वर्ण-बेला


रहस्य साधना को लोक कल्याण के साथ संयुक्त कर अपने युगबोध के अनुरूप ढालना रहस्यवाद का एक नया आयाम प्रस्तुत करता है,जिसके उद्घाटन का श्रेय महादेवी वर्मा को है। महादेवी का व्यक्तित्व तथा कृतित्व उन्हें सजग साहित्यकार और संवेदनशील किंतु गरिमा को अक्षुण्ण रखनेवाली नेत्री के रूप में प्रस्तुत करता है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, बाल श्रम संबंधी विमर्श को लेकर आज जो चेतनता नज़र आती है , उसपर प्रेमचंद की दृष्टि तो गई ही थी, महज रहस्यवाद की कवयित्री मानी जानेवाली कवयित्री की अंतर्वेदना को नए सिरे से सोचने-समझने की ज़रूरत है । महादेवी के विचार एवं चेतावनी भरे शब्दों के साथ उस महीयसी को नमन !


"समाज' में पूर्ण स्वतंत्र तो कोई हो ही नहीं सकता, क्योंकि सापेक्षता ही सामाजिक संबंध का मूल है।"


"स्वयं अपनी इच्छा अस्वीकृत युगदीर्घ बंधनों को काट देने के लिए हमें न संसार भर की अनुमति लेने का अवकाश है , न आवश्यकता ; परंतु इतना ध्यान रहे कि बेड़ियों के साथ ही उसी अस्त्र से बंदी यदि पैर भी काट लेगा तो उसकी मुक्ति की आशा दुराशा मात्र रह जाएगी। "    


 संदर्भ :



  1. श्रृंखला की कड़ियाँ

  2. स्मृति की रेखाएँ

  3. अतीत के चलचित्र

  4. महादेवी के कविता संग्रह

  5. हिंदी का आलोचना पर्व

  6. आधुनिक कविता और युग दृष्टि


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