प्रेमचंद के लेखन के विविध आयाम
डॉ. रानू मुखर्जी, A.303.Darshanam Central Park,
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हिन्दी के कथाक्षेत्र में प्रेमचंद का आगमन उस समय हुआ जब वह शैशवास्था में था। उन्होने अपनी प्रतिभा, व्यापक अनुभव, पैनी दृष्टी एवं सरल स्वाभाविक शैली के द्वारा कथा – साहित्य को अत्यन्त उच्च कोटी तक पहुंचाया कि वह अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कथाकार स्वीकृत हुए। 31 जुलाई के 1880 में उनका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ।
कम उम्र में ही परिवार का भरण पोषण का भार उनको उठाना पडा। अध्यापक की नौकरी के सिलसिले में उनको बनारस, गोरखपुर, बस्ती, कानपुर जैसे स्थानों पर रहते हुए भारतीय ग्रामों की दुर्दशा एवं कृषको के दीन-हीन असहाय दशा से परिचित होने का अवसर मिला जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव हमें गोदान जैसे महान उपन्यास में और अनेक कथाओं में मिलता है। उनका वास्तविक नाम धनपत राय था, नवाब राय नाम से उर्दू में लिखते थे और हिन्दी में प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे, जो उनका स्थायी नाम हो गया।
प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन 1901 से आरंभ होता है और मृत्यु प्रयंत चलता रहा। रोग शय्या में पडे पडे भी वो लिखते रहते थे। मना करने पर कहते थे “ मैं मजदूर हूँ और मजदूर को काम किए बिना खाना खाने का अधिकार नही है। उन्होने तीन सौ से अधिक कहानियां और एक दर्जन से अधिक उपन्यास , उनकी सभी कहानियां “मानसरोवर” में संग्रहित है।
उनकी कहानियां सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और व्यक्तिगत स्तरों की है। उनकी कहानियां अधिकतर वस्तु प्रधान या घटना प्रधान होतीं है, जिनमें विकास के कई मोड दिखाए गए हैं। जिससे उनकी कहानियां काफी लंबी हो गई है। उदाहरण के लिए ‘ममता’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘बडे घर की बेटी, ‘ रानी सारंजा’, “मर्यादा की बेदी” जैसी कहानियों में लंबी घटनाएं देखी जा सकती हैं तो आखिरी दिनों में रचित “माता का हृदय”, “शतरंज के खिलाडी”, “बुढी काकी”, “बलिदान”, “मुक्ति का मार्ग” जैसी काहानियों में कथानक अपेक्षाकृत छोटें है। अपनी आरंभीक कहानियों में प्रेमचंद आदर्शवादी है, परंतु आगे चलकर आदर्शोन्मुख यथार्थवादी से दिखतें है।
सामाजिक – पारिवारीक समस्याओं ने उनको लिखने की प्रेरणा दी। सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासो, रुढियों, परंपराओं को उठाकर उनको सुधारने की तीव्र इच्छा भी प्रकट की गई। समस्याओं को उठाने पर भी वे सामान्य जीवनधारा से जुडे रहे, यही उनकी लोकप्रियता का कारण है। वे दलितों, पीडितो, अभावग्रस्तों के जबरदस्त वकील थे। किसान मजदूरों के प्रति उनकी हार्दिक सहानुभूति थी। अतः उन्होने दीन-दुखी, दुःखी मानवता के अधिकारों के लिए आवाज उठाई, दांपत्य जीवन, जाति, धर्म-संप्रदाय संयुक्त परिवार का मध्यम वर्ग और निम्नवर्ग के परिवारों में दिखाई देनेवाला तनाव, पति-पत्नि में पारस्परिक संदेह, विलासिता, झूठी प्रतिष्ठा का मोह इत्यादिक उनकी कहानियों में प्रतिबिंबित हो उठें है।
सामाजिक बहिष्कार, के शिकार निम्नजाति की पीडीत जनता को आधार बनाकर उन्होने “ठाकुर का कुँआ” कहानी लीखी है। प्रेमचंद का अनुभव इतना विस्तृत है कि कोई उनकी नजरों से बच नहीं सकता। उनके कई स्त्री-पुरुष पात्र ऐसे हैं जो सज्जनता सहृदयता, सच्चरित्रता के आदर्शों से ओत-प्रोत है। “मुक्तिधन” कहानी के दाऊदयाल “ममता” कहानी के गिरधारी, “नमक का दारोगा” के मुंशी बंशीधर आदि पात्र सज्जनता, न्याय प्रियता के प्रतिक है। भयानक जाडे से बचाने हेतु अपने कुत्ते को अपने अंक में लेकर सोता हल्कू, अपने बंदर के लिए प्राणों को उत्सर्ग करनेवाला मदारी जीवनदास, अपने बैल को पुत्रवत पालनेवाला मोहन ग्राम्य-जीवन के सहृदयता के प्रतीक है। “सौंत की रजिया”, “क्रिकेट मैच की हेलन”, “बडे घर की बेटी, “रानी सारंधा” की सारंधा और “मर्यादा की बेदी” की प्रभा आदर्श नारियां है।
प्रेमचंद की यह मान्यता है कि मनुष्य को छोटी से छोटी परिस्थितियां सुधार सकती हैं। “बूढी काकी” में बूढी विधवा अपनी सारी संपत्ति भतीजे बुद्धिराम को लिख देती है। पर बदले में उसे भतिजो और उसकी पत्नि रुपा की प्रताडना मिलती है। धर में सुखराम के तिलक पर दावत होती है, पर बूढी काकी को कोई खाना नही देता है। पर छोटी बच्ची लाडली से रहा नही जाता। वह पुरी लाकर देती है। उससे बूढी काकी को तृप्ति नही मिलती है तो वह झूठे पत्रल चाटने लगती है। रुपा से रहा नहीं जाता है। उसके आदर्श खुलकर सामने आता है। वह उदार एवं सहृदय बनकर बूढी काकी को तृप्ति भर खाना खिलाती है।
ग्राम्य वातावरण में आत्मीयता एवं सुख शांति की महक “होली की छुट्टी” में है, तो “पंच परमेश्वर” में भारतीय न्याय व्यवस्था पर अटूट विश्वास दर्शाया गया है। “मंदिर और मस्जिद” में साम्प्रदायिक सदभावो को उजागर किया गया है।
प्रेमचंद ने राजपूत-जाति पर कलंक के रुप में भीरु राजेन्द्रसिंह के चरित्र को उभारा है “स्वांग” कहानी में जिसमें डाकुओं के द्वारा पत्नि के अपहरण पर राजेन्द्रसिंह आंख बंद कर सोने का बहाना करता है। मूगल कालीन भोग-विलास एवं शान-शौकत से उत्पन्न पतन को दर्शाते हुए समाज को सावधान भी किया है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण है “शतरंज के खिलाडी” मध्यम वर्ग एवं निम्नमध्यमवर्ग के परिवारों को कहानी का आधार बनाकर प्रेमचंद ने संयुक्त परिवार के खोखलेपन को उजागर किया है और दिखाया है संयुक्त परिवार मात्र मर्यादा के नाम पर टिके हुए है। वहां प्रेम-सौहार्द का अभाव है।
“कफन” कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने यह प्रस्तुत किया है कि मानव अर्थ – पिशाच है, अर्थ के अभाव में भूखा प्यासा मानव पशु – तुल्य आचरण करने लगता है। भूख प्यास और अभाव उसे मानव से राक्षस बना डालता है। “कफन” के पात्र धीसू और बंटा माधव इस प्रतिक्षा में है कि प्रसव-पीडा से कराहती बुधिया मर जाए तो आराम जो सोंए। सबेरे उठकर देखते हैं तो बुधिया मरी पडी है अब उन्हे कफन और लकडी की चिंता सताने लगी। दोनो जमीनदार के पास जाकर दुखडा रोकर रुपये प्राप्त करतें है। गांव के बनिए आदि से जमा करके पांच रुपये हो गए। दोनों कफन लेने बजार में गए। दोनों आपस में बात करतें है – “कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढंकने को चिथडा भी न मिले, मरने पर कफन चाहिए। कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है।” दोनों शराब खाने में घूस जाते हैं। शराब पीने लगते है। न ज्वबदेही का खौफ था न बदनामी की फिक्र । इन भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लीया था। दोनों मस्ती में गाने लगे लोगों की दृष्टी उन दोनों पर थी। ‘कफन’ यथार्थवादी कहानी है और मानव – मनोविज्ञान पर सटीक बैठती है।
प्रेमचंद की कहानीयों में भारत की आत्मा बोलती है। वे भारत के नंगे – भूखे, बेबस एवं उत्पीडीत ग्रामीणों को स्वर प्रदान करते रहे और उनकी समस्याओं को उजागर करते रहे।
प्रेमचंद की कहानी की सफलता की महत्ता इस बात में है कि उनमें आम जनता की भाषा उनकी समस्यायें उनका जीवन आम जनता की भाषा में ही अभिव्यक्त हुई है। उन्होने बोल-चाल की हिन्दी में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की , जिससे उनके पाठकवर्ग का पर्याप्त विस्तार हुआ।
भारतेन्दु हरिशचन्द्र के बाद हिन्दी में प्रेमचंद एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होने राजनीति से साहित्य को संबंध ही स्थापित नही किया, राजनीति को जीवन का हिस्सा बनाया। 1908 में “सोजेवतन” उर्दू कहानी संग्रह के प्रकाशन पर उनकी भूमिका उन्होने लिखा कि नई पीढी के जिगर पर देशप्रेम की असमत का नशा जमना आवश्यक है। इस पर अंग्रेज – कलेकटर ने उनको बुलाकर “राजद्रोहात्मक” कहानियों के कारण धमकाया और सारी पुस्तकें नष्ट कर दी। ‘हंस’ और ‘जागरण’ पत्रिकाओं को अनेकबार बंद करने का आदेश दिया गया।
प्रेमचंद ने साहित्य और राजनीति के संबंधो को एक नया मौड दिया। उन्होने कहा, “जब तक साहित्य की तरक्की नही होगी, समाज और राजनीति भी ज्यों के त्यों पडे रहेंगे। साहित्य, समाज और राजनीति के संबंध आटूट है और तीनों इनसान के कल्याण के लिए हैं। प्रेमचंद ने यद्यपि अपने साहित्य में समाज, धर्म, अर्थ, संस्कृति, इतिहास, शहर और गांव आदि अनेक विषयो पर अपनी कलम चलाई है पर सभी का मूल है विदेशी दास्ता से मुकित और स्वराज की स्थापना।
प्रेमचंद का स्पष्ट कथन है कि आनेवाला जमाना “किसानो और मजदूरों” का है और उनकी स्वतंत्रता के बिना स्वाधिनता का कोई मतलब नही है। प्रेमचंद मानते है कि यह युग स्वराज्य का युग है, जनता एकाधिपत्य को नही सहन कर सकती, चाहे वह स्वदेशी ही क्यों न हो। वे अंग्रेजो की भेद नीति से क्षुब्ध हैं, क्योंकि वे हिन्दु-मुसलमान, छूत-अछूत, को लडाकर और सिख-इसाईयों को भी अलग-अलग करके देश की एकता तथा स्वराज्य आन्दोलन को तोडना चाहतें हैं। प्रेमचंद जनता की राजनैतिक जागृति को अनिवार्य मानतें हैं।
प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में उनका यह राजनीति-दर्शन इसी विपुलता और प्रबलता से अभिव्यक्त हुआ है। देशप्रेम की कहानियों के संग्रह “सोजेवतन” पर अंग्रेजो के सेंसरशीप के कारण उन्होने अपना नाम बदलकर प्रेमचंद रखा और कुछ समय तक देशप्रेम की कहानियो के स्थान पर सामाजिक जीवन की समस्याओं पर कहानियां- उपन्यास लिखे। उनके लिए सामाजिक जागृति भी स्वराज प्राप्ति का ही एक अंग थी। उनके विशिष्ट सामाजिक कहानियों में “बडे घर की बेटी” (1990), “नमक का दारोगा”(1913), “खून सफेद” (1914), “अनाथ लडकी” (1914), “पंच परमेश्वर” (1916), “सेवा मार्ग”(1919), “बूढी काकी”(1921) आदि। इस काल में कुछ ऐतिहासिक कहानियां भी लीखी। जिनके द्वारा उन्होने इतिहास के उन अध्यायों को चित्रित किया जो पाठकों के मन में पुरातन के प्रति गौरव तथा वर्तमान के लिए कुछ करने की प्रेरणा दे सकें। इन कहानियों में “रानी सारंधा” , “विक्रमादित्य का घोडा”, “राजा हरपाल”, “राजहठ”, “मर्यादा की बेदी”, “पाप का अग्निकुंड” उल्लेखनीय है।
“लाल-फीता” (1921) तथा “प्रेमाश्रम”(1922) उपन्यस से उनके राजनीति के दर्शन का एक नया युग शुरु होता है। “प्रेमाश्रम” से “रंगभूमी” उपन्यास तक प्रेमचंद ने “स्वत्व रक्षा” (1922), “शतरंज के खिलाडी” (1924) आदि कहानियों के द्वारा अंग्रेजी शासन में अपने अधिकार, अस्मिता और प्रतिशोध की क्षमता को बनाए रखने के लिए प्रेरित करतें हैं। उनका प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास “रंगभूमी” अपने युग की राजनीति का विशद आख्यान है। प्रेमचंद्ने इसे राजनीतिक उपन्यास माना है।
“रंगभूमी” (1925) से “कर्मभूमी” (1932) तक का समय तीव्र राजनीतिक गतिविधियों का काल है। अतः प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासो में भी इसका गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। कहानियो में “हिंसा परमो धर्म”(1926), “मंदिर – 2”(1927), “शुद्धि”(1928), “इस्तीफा”(1928), “जुलूस”(1930) आदि विशिष्ट हैं। उपन्यासों में भी देश की राजनीतिक परिस्थितियों का बडा ही वास्तविक चित्रण हुआ है। “कायाकल्प” में उन्होने सांप्रदयिक दंगो तथा उनके कारणों का सच्चा वर्णन किया है और गांधीजी के तरीके से समझोता करातें है। “गबन” उपन्यास में प्रेमचंद अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम युवक की मानसिकता और चारित्रिक दुर्बलता से युगीन राजनीतिक गतिविधियों का वर्णन करतें है।
“कर्मभूमी” पूर्णतः राजनीतिक उपन्यास है और प्रेमचंद ने इसे अपने युग की राजनीतिक परिस्थितियों, युग के नेताओं, तथा राजनितीक घटनाओं, भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस कलकता में गांधीजी द्वारा प्रस्तुत दस सूत्री कार्यक्रमों के अधार पर उपन्यास की रचना की है। “कर्मभूमी” अपनी प्रबल राजनीतिक चेतना से समाज में जागृति उत्पन्न करके महात्मा गांधी राजनीतिक दर्शन को राष्ट्रीय धरातल पर स्थापित करते है। भारत और स्वाधिनता आन्दोलन को व्यापकता से चिन्हित करनेवाला यह एक महत्वपूर्ण उपन्यास बन जाता है।
प्रेमचंद अपने युग की राजनीति को साहित्य में अवतरित करतें हैं। इसे जीवन के अनुभवों से जोडतें हैं उसे जीवंत और प्रामाणिक बनातें है। प्रेमचंद की रचनाओं के अन्तर्गत नैतिक मूल्य संघर्ष में किसी “वाद” के प्रति आग्रह या प्रतिबद्दता दिखाई नही देती, बल्कि राष्ट्रीय चरित्र की गहरी समझ, अदभूत ग्रहणशीलता और गतिशीलता का स्पंदन महसूस होता है। लेखक और विचारक के रुप में प्रेमचंद सही अर्थ में “भारत रत्न” है।