समकाल का अन्तर्पाठ करती कविताएँ


अवध बिहारी पाठक, सेवढ़ा, दतिया (म.प्र.), मो. 09826546665


कविता इन दिनों बहुत चिंतित है क्योंकि ये एक खास तरह का समय है जिसमें इंसान, इंसानियत और समाज की अंतिम सफ में खड़ा हुआ आदमी उसकी अंतिम इकाई जैसा है। उसका अस्तित्व, अस्मिता और जिंदा रहने के जरूरी दायरे तंगतर हो रहे हैं। समाज का एक खास बड़ा 'एलीट' वर्ग लगातार उसे खदेड़ रहा है। उसके ऊपर दबाव बना रहा है कि वह अपनी चेतना उसके हवाले कर दे और इतना ही नहीं, वह अपनी अनुभूति के टूटे-फूटे सपनों को देखना बंद कर दे जो सदियों से उसके यथार्थ न हो सके। प्रोफेसर जाबिर हुसेन का यह नौवां कविता संग्रह 'जैसे रेत पर गिरती है ओस' ऐसे ही चूरचूर होते सपनों का शाब्दिक बयान है, शब्दों का जीता-जागता बयान जहां कविता तो क्या शब्द भी अपनी जिन्दगी की तलाश में हैं। विचार-चेतना और शब्द के लिए भी 'स्पेस' नहीं है जहां संपूर्ण नहीं तो कुछ तो मुक्त हो इसीलिए वह संदेश देता है कि 'कवियों को चाहिए कि वो कभी-कभी कविताओं से मुक्त होकर खुली हवा में चांद-सितारों से सजे आसमान की ओर देखें और प्रकृति के चमत्कार का आनन्द उठावें। उन्हें इस चमत्कार के पीछे किसी अलौकिक शक्ति की तलाश नहीं करनी चाहिए। धरती पर एक नए समवेत संगीत की जरूरत है और वह स्वर लहरी तभी उठ सकेगी 'जल उठेंगे / आपकी । आखों में कुछ / रंगी चिराग'। (पृ.-111) किन्ही रंगीन चिरागों की खोज में बह निकला है 168 कविताओं का शब्द सैलाब।


प्रोफेसर जाबिर हुसेन बडा चर्चित नाम है साहित्य के हलकों में। दर्जनों कथा डायरियां, नौ सग्रहों क बाद भी हिन्दी-क्षेत्र ने उन्हें हिन्दी का कवि-लेखक नहीं माना हो पर उनकी लेखकीय ताप का प्रभाव हैं कि साहित्य अकादमी ने उनकी उर्द कृति पर अकादमी सम्मान  दिया। विश्व स्तर पर जोहान्सवर्ग हिन्दी सम्मेलन में उनकी हिन्दी सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया, जो उनके हिन्दी कवि-लेखक होने का सबल प्रमाण है। साहित्य में इजाग्दारी की जो ग्रंथियां लगी हैं, उन्हें आज नहीं तो कल तो अपना अन्तरतम खोल कर देखना ही होगा और तब शर्म-शर्म के नारे होंगे।


जाबिर हसेन मूलतः चिंतक हैं, उनका चिंतन क्षेत्र सभी वादों-प्रवादों से ऊपर रहा है। उनमें एक देशीयता की गंध के स्थान पर विश्वजनित भाव है। जहां जीवन मूल्यों को बचाए रखने की चिंता है, जहां भी जिस स्तर पर देखें, आम आदमी संकट में है। वैज्ञानिक ऊंचाइयां उनके अस्तित्व को ही नकार रहीं हैं। जब आदमी ही नहीं, तब जीवन मूल्य भी समाप्ति की ओर बढ़ रहे है। उनकी चिंता है, धरती पर जब / शब्द नहीं होंग/ चित्र नहीं होंगे / संकेत नहीं होंगें / तब तुम मुझे / बुलाआगे केसे / मैं आऊंगा केसे' (पृ.-120) यह इन्सान नहीं उसके अस्तित्व की चिंता है। ग्रेटा थनबर्ग के नाम कविता किसी एक देश की नहीं समूची मानव जाति को चेतावनी दे रही है, ये सरदार तुम्हें भेजना चाहते है /स्कूल, जहां तुम । सफल और स्वार्थी । नागरिक बनकर उनकी । युद्धाकांक्षाएं पूरी कर सको। ये सरदार दुनिया को । 'वार सक्वायर' में बदलना चाहते हैं।' वार-बार कवि संकेत कर रहा है कि अपनी अस्मिता और इन्सानियत के बचाव में 'तुम लेकिन / अपना संघर्ष / जारी रखना । दुनिया भर के बच्चे / तुम्हारी राह / देख रहे हैं।' कवि की चेतना उन बच्चों को सबल देखना चाहती है जिनके कंधों पर आगामी सदियों के संचालन का भार है।


कवि की दृष्टि में वर्तमान काल की 'अंधेरी सुरंगों में / उम्मीद के दीए / नहीं जला करते की स्थिति बनी है। तब अतीत की ओर ध्यान जाता है। हिन्दी के कई कवियों ने अपने वर्तमान में इब्न बतूता की दस्तक का अनुभव किया है, इस संग्रह की प्रारंभिक 5, 6 कविताओं में इब्न बतूता आ गया है कवि की संवेदना में एकाकार होने को। पहले कभी वह आया था इस धरती-देश की करुणा, दया, परदुख, कातरता, ईमानदारी, श्रमशीलता, कला के रागात्मक स्वर, सदाशयता, निस्पृह जिन्दगी कं लय-ताल के संगम में डूबते-उतराने को, आनन्दित होने को, परन्तु जब कवि ने आवाज दी तो वह इन बदलते हालात में कुछ नया देखने को आया, क्योंकि तमाम नारे जो तथाकथित आदमी की भलाई के पक्ष में लगाए जा रहे थे, उनकी तली तक तो पहुंचे, जिज्ञासा थी, इब्न बतूता की। परन्तु, यहां तो अजब ही खेल है 'सत्तर साल के कई बच्चे । संसद भवन के लॉन में / कंचे खेल रहे हैं (पृ.-14) खेद है उसे कि उम्र भले ही सत्तर वर्ष हो गई हो. परन्तु (कत्ताधत्ता) बच्चे ही हैं, वजूद में वजन नहीं आ पाया ज्ञान का, दायित्व बोध का और कंचे खेल रहे हैं जब ध्यान खींचा इब्न बतूता का एक लाश ने तो आवाज आई 'भीड़ ने पीट-पीट कर / मुझे मौत के मुँह में धकेल दिया।' अशोक के देश में ये शोक, वाह रे देश, ये कैसा देश। तभी तो यहां पाटलिपुत्र के खण्डहरों में चाणक्य की आवाज का रुदन मुखर है


संवेदना का अभाव और उससे उपजी पीड़ा से 'दीवारें दिल की / कुछ इस तरह दरकी लायक नहीं रहीं।' (पृ.-45) परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं कवि की कि हम आशा ही छोड़ दें 'तुम फिर। प्रकृति की। छाया बन कर। हमारी रगों हमारी शिराओं में बहना।' (पृ.-86) इस जीवट को इब्न बतूता ने भी गांव रोपनी में लगा था । पर नन्हकी / अपनी मां / का आंचल / रफ़ू करने श्री (पृ.-18) भले ही हम पर ध्वंस का मय तारी हो, परन्तु नन्हकी आशावान हो रही हो, वह अपनी मां का फटा आंचल रफू करके, सृजन का एक दौर एक की कल्पना में खोई है, जहां उसके श्रम के सारे अमाक भयभीत होते हैं। यह जिजीविषा का कवि का दिव्य संकेत है कि 'तब तुम मेरी बातों पर । अफसोस करना / मैं न रहूंगी । आंखों में कुछ सपने रखना।' (पृ.-141) परिस्थितियां भले ही दुरुह हों परन्तु जाबिर हुसेन का कवि कभी निराश नहीं हुआ। उसके आगे 'एक समंदर हो। अथाह गहरा / बड़ी मछलियों और हवेलों भरा, लेकिन मैंने / लहरों से कोई याचना नहीं की। रहम की काई उम्मीद नहीं रखी। अपनी जिद पर कायम रहा।' एक नया सवेरा जर आयेगा। यद्यपि कवि के अनुसार अभी एक सदी लगेगी तब तुम अचानक। किसी दरवाजे से। आ जाओगे । मेरे ख़ाब की दुनिया को सजाओगे' (पृ.-39) कवि जानता है कि तहरीरें मेरे लिए जेल के दरवाजे खोल देंगी' कितनी भी धुंध / भरी हो / नामुमकिन है मेरे लिए । अपनी कविताओं से । आंखें चुराना' (पृ.-57) जहां तक मैंने देखा है उनकी कविता किसी वैचारिक वाद-विवाद, दर्शन या विचार की कोई पृष्ठभूमि को अंगीकार नहीं करती। वह तो अपने समकाल का एक तटस्थ और बेबाक पाठ है, कविता की अन्तस चेतना के बेलाग स्वर जिसमें जीवन भी मरना हो, जिन्दगी की पहचान हो और सृजन की जीवन्तता का अनुरोध, और उतनी शक्ति से उस बर्बर अहमन्यता का प्रतिरोध भी जिससे अन्तस का सौंदर्य भी ठीक हो रहा हो, तभी तो उनके कवि को 'देवताओं की / गुलामी । मंजूर नहीं थी / उसे / पुरोमीथियस / की तरह । उसने भी / स्वर्ग से निकलते वक्त । आत्म-सम्मान की / एक छोटी लौ / चुरा ली थी। तब देवताओं की / भवें तन गई थीं। (पृ.-28) आज धरती के देवताओं की भवें भले ही तन जायें पर 'उसके ख्याल में / डर का गुज़र नहीं होता।' (पृ.-126)


अभी कविता की आधार भूमि की बात हो रही थी। अब जाबिर हुसेन के काव्य शिल्प पर भी कुछ कहना जरूरी है। वह यह कि भाषा की सादगी उनकी कविता का मुख्य वाक्य चार-चार पक्तियों से बद्ध शब्द जब वाक्य के साथ पढा जाता है तो उनके मूल अर्थ एक भाषा उसमें जाग पडती है। उसकी भाषा का अपना एक संविधान है जो कविता को एक साफ चिकनी सतह मुहैया कराती है तो दूसरी ओर एक खास तरह का खुरदरापन भी जो निर्वैयक्तिक रह कर भी किसी भी दुर्दान्त आगत से खम ठोक कर जूझने को तैयार हो जाता है। ऐसा शब्द का निरालापन या तो निराला में दिखता है या दुष्यंत या धूमिल में, अस्तु जाबिर हुसेन की कविता को पड़ाव तो है ही नहीं, वह तो सपनों की ओर जाने की अनन्त यात्रा की कविता-यात्रा है। 


व्याकरण के बन्धन और भावुकता से कविता बहुत दूर है। हां एक बात और कि कवि और कविता का उत्स किसी विचार में निहित होता है और जब विचार अनुभूति में ढक कर अब व्यंजना की ओर बढ़ता है तो वह इतनी गहरी संवेदना से तर हो चुकी होती है। पर तैर रहा मानव शब्द की गहराई तक नहीं पहुंच पाता। क्योंकि संवेदना का पाठ मानव ने नहीं पढ़ा होता है और न ही अंतश्चेतना का स्वर्णिम आलोक जाबिर साहब जैसा हरेक में उतर पाना संभव होता है। अस्तु उनके सामने कठिनाई यह आती है। कवि में भाव और विचार का जो एकीकृत संपुजन हुआ है, उस दृष्टि से यह संग्रह महत्वपूर्ण है। इसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। समकाल की कविता की निराशा को संग्रह दूर करने में सक्षम है।


इन कविताओं का एक और पक्ष है। वह है हौसलों को अंत तक बनाये रखने का जज्बा जिसका एक बिम्ब किताब के पहले ही पृष्ठ पर दर्ज है 'मैंने देखा / पैरों से लाचार एक जईफ / मेरे घर की सामने वाले पहाड़ की / सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ने की कोशिश । कर रहा है । उसके दोनों हाथ पीछे बंधे हैं। इसके बावजूद वो जईफ / इस तराई के कोने स्थित / मेरे घर की दहलीज पर / खड़ा दिखाई दिया / उसके हाथों में पहाड़ की चोटी पर खिलनेवाले / ताजा फूलों का एक गुच्छा है।' यह कविता में संकल्पों की जीत का आख्यान है। जबकि आसमान चुप है । वह कुछ बोलता नहीं / देव नगरी ने धरती से अपने रिश्ते तोड़ लिए हैं । यही अपने समय का सबसे बड़ा सच है।' समय की हर घोषणा पर जनता हर बार ताली बजाने को विवश है और तालियों के बावजूद आम जन त्रस्त है। उसे इनाम मिलता है कि 'कारिंदों की । फौज आई । जनता / हिरासत में / ले ली गई।' (पृ.-59) ये काव्य बिम्ब कवि की संवेदना को निरंतर चोटिल कर रहे हैं। एक खास तरह की तपिश अनुभूति में भीतर तक उतरती जाती है और कवि कहने लगता है मैं इस तपिश से मुक्ति चाहता हूं । इस आंच से मुक्ति चाहता हूं / इन सपनों से मुक्ति चाहता हूँ / मेरी आंखों में / सब कुछ डरावना है।' (पृ.-12)


कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जाबिर हुसेन की कविता किसी बौद्धिकता का तकाजा नहीं करती। वह केवल आम आदमी की हिफाजत को अपना लक्ष्य मानती है कविता में आदमी की खोज चाहती है यह कविता। ताकि धरती पर पेड, पौधे, नदिया, खत्म हो जाने के बाद इन्सानियत तो बची ही रहे, आकाश भले ही चुप हो रहा हो परन्तु ये कविता संकल्पों से लैस कविता है जो शमशेर और दुष्यंत की कविता का नया काव्य परिदृश्य प्रस्तुत करती है। बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य और संवेदना के नए फलक, जिनसे उम्मीद फिर से ताज़ा होने लगती है। ऐसी परिष्कृत चेतना संवादन के लिए कविता का साधुवाद!



जाबिर हुसेन, पटना, मो. 9431602575


 


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