सुदर्शन प्रियदर्शिनी का परिचय एवं समीक्षा


सुदर्शन प्रियदर्शिनी


जन्म : लाहौर 'पाकिस्तान'


बचपन : शिमला, उच्च शिक्षा : चंडीगढ़ .


सम्पति : अमेरिका में 1982 से।


पुरस्कार : महादेवी पुरस्कार ‘हिन्दी परिषद, कनाडा',


महानता पुरस्कार 'फेडरेशन ऑफ इंडिया, ओहियो,


गवर्नस मीडिया पुरस्कार : ओहियो 'यू एस ए', हरियाणा कहानी पुरस्कार 2012, हिंदी चेतना एवं ढींगरा फैमिली फाउंडेशन कहानी पुरस्कार 1993, कथादेश कहानी पुरस्कार 2016


प्रकाशित रचनाएँ : उपन्यास- रेत के घर, जलाक, सूरज नहीं उगेगा : अरी ओ कणिका, न भेज्यो विदेस, अब के बिछुड़े।


कहानी संग्रह : उत्तरायण, खाली हथेली, मेरी प्रिय कहानियाँ, आर न पार।


कविता संग्रह : शिखंडी युग, बराह, यह युग रावण है, मुझे बुद्ध नहीं बनना, अंग-संग, मैं कौन हाँ ‘पंजाबी'।


246, Stratford Drive, Broadview Heights,


Ohio 44147, 'U.S.A.' Email : sudershen27@gmail.com


 


विस्थापन



मैंने जिंदगी से समझौता कर लिया है, यूँ ही लिखा होगा तभी तो हुआ- नहीं तो सब कुछ होते हुए, मैं क्यों बेदखल कर दी जाती। मेरे साथ दूसरी भी तो थी ही- नितांत मेरे जैसी हूबहू डिट्टो कॉपी! एक ही माँ बाप की बेटियाँ। लेकिन मेरा दुर्भाग्य ये कि मैं पैदा हुई, जहाँ मेरी जगह नहीं थी, जहाँ मेरा स्वागत नहीं था और एक तरह से- तो मुझे वहाँ भेजा गया, जहाँ मेरा स्वागत हुआ। जहाँ मैं हाथो हाथ ली गयी। मुझे सर आँखों पर बिठाया गया और वह भी अपनों के ही बीच।


मुझे गोद ले लिया गया और अपनी दूसरी जुड़वा बहन से अलग कर दी गयी। अपने चाचा के घर मुझे सुदूर भेज दिया। जहाँ सब कुछ था। लाड़ प्यार था, मनुहार थी। चार बहन भाइयों की एक वहन। गली कूचे में भी आदर से देखी जाती, सराही जाती और प्यारी अनोखी सुंदर कहकर पुकारा जाता। पलती रही उधर इसी लाड़ प्यार वाले वातावरण में। एक तरफ प्यार ही प्यार, लाड़ ही लाड़। गली मोहल्ले में सहेलियाँ भी बन गई थीं, अपनी मनमानी करने लगी थी। सहेलियों के बीच भी मैं अपने आप को उनसे अलग और आगे समझती थी। देखने में सुंदर थी। जानते हुए भी अपने ही स्त्रोत को भूलना चाहती थी पर भूल नहीं पाती थी।


जैसे-जैसे वड़ी होती गई ये प्रश्न वड़ा होता गया। यहाँ तक कि हर दिन मुझे यह अंदर ही अंदर खाने लगा। क्यूँ छोड़ा होगा मेरे माँबाप ने मुझे...?


चाहे बच्चे कुछ क्षणों के उन्माद के ही परिणाम होते हैं पर फिर भी अपने बच्चों के ऊपर लोग अपना सब कुछ वार देते हैं। बच्चों में लोगों की दुनिया बसती है और धीरे-धीरे मेरा अपने असली परिवार के प्रति मोह - घृणा में बदल गया। मैं स्वयं को उनका हिस्सा तो नहीं मानती थी लेकिन अभी तक अंदर से स्वयं को उनका ही मानती थी। जिस दिन मुझ पर यह प्रगट हुआ है वो मेरे लिये जानलेवा था। तव मेरी उम्र 12 वर्ष की हुई थी, तभी मुझ पर ये उजागर हुआ- माँ अंदर किसी से बात कर रही थी। उससे भी पहले एक और बम्म मुझ पर और गिरा- जब मेरी बहन पैदा हुई थी- थी तो यह खुशी की बात लेकिन मेरे लिए ये दुर्भाग्यपूर्ण था।


उस दिन तो समझ नहीं आया था लेकिन आज समझ में आने लगा था कि मेरा सिंहासन हिल गया है। दिव्या के जन्म के वाद कुछ कुछ परिवर्तन होने लगे थे। माँ का बेवजह चिल्लाना, घर का काम करवाना, खेल पर पाबंदी, सहेलियों के साथ ज़्यादा उठना बैठना मना हो गया था। माँ झड़प कर कहती, बड़ी हो गयी है पर बड़े होने के कर्त्तव्य नहीं निभाती। सरू और तृष्णा आती खेलने के लिए। पर मेरा न में हिला हुआ सिर देखकर निराश लौट जातीं। आज तो वह क्षण भी स्मृति में ग्रहण से ग्रस्त होकर उभरता है। धीरे धीरे मन में पड़ी दरारें - जिनमें घर का वोझ भी शामिल था और एकाएक व्यक्तित्व का वदला जाना भी शामिल था।


सभी के जीवन समतल मैदान नहीं होते कि बाढ़ आए और बहकर चली जाए। यहाँ तो ऊबड़-खाबड़ तट हैं जो बाढ़ में बह भी नहीं सकते और रुक भी नहीं सकते। बस छिल जाते हैं और कभी न स्थिर होने के लिये बस अपने से समझौता कर लेते हैं।


दिव्या के आने से सचमुच ही माँ का स्वभाव बदल गया था। मैं बड़ी थी उससे लगभग 14 साल और मुझे बड़े होने का ताना हर समय दिया जाता- मैं बड़ी हूँ इसलिए मुझे ये करना चाहिए, वह नहीं करना चाहिए। मुझे कैसे वोलना चाहिए, कैसे उठना चाहिए- ये सारा धर्मशास्त्र मेरे सामने उड़ेला जाने लगा था। इसी बीच का एक और तूफान आया जिसने मुझे जड़ों से ही उखाड़ डाला। जिसने मेरी जड़ें उखाड़ कर फेंक दीं।


मेरे असली पिता को भान हो गया कि अव में दोयम दर्जे पर आ गई हूँ। क्योंकि वड़ी दीदी कुछ दिनों के लिये यहाँ आई थी, उन्होंने ही कुछ देखा होगा और मेरे असली पिता इस ज़िदद पर अड़ गए कि मुझे वापस अपने घर आना है। मैं खुश भी थी और दुखी भी। समझ नहीं आता था कि कौन सी दीवार से सिर मारूँ और मेरी जगह कहाँ है। मैं किस से ज़्यादा जुड़ी हुई हूँ- कौन मेरा वास्तव में अपना है और कौन पराया! क्या ये भाई वहन अपने नहीं हैं? हैं- लेकिन इनसे मेरा खून का रिश्ता नहीं। भगवान ने खून के रिश्ते ऐसे बनाए हैं कि इनको कोई तोड़ना चाहे तो नहीं तोड़ सकता। और इन दो विरोधाभासों के बीच जीना मुश्किल हो गया था। कौन मेरे घावों की मरहम वन सकता है? में अव वड़ी हो गई थी और स्थिति को अच्छी तरह समझ सकती थी।


मेरा विस्थापन हो चुका था। मेरे असली पिता मुझे अपने घर ले आए थे और मैं अपने और पराए हाथों में उठ गिर रही थी। असली पिता जिस जगह रहते थे, वह पहाड़ियाँ, वहाँ का जीवन अच्छा लगने लगा था। धीरे धीरे मन लगने लगा। ऊबड़-खाबड़ घाटियाँ- चीड़ के पेड़ठंडी शीत से ढकी बर्फीली चोटियाँ कितना सुंदर था सब कुछ। उस पर घर की सोच। घर की नहीं दो घरों की सोच- दो घरों के प्यार में कौन सा प्यार सच्चा है, सच्चा कुछ है भी या नहीं, अपना कुछ है भी या नहीं- वस यही व्याप्त रहा था मन में।


कभी-कभी इतनी उदास होती कि वीरान सड़कों पर चलने लगती। आसपास की सुनसान वादियाँ, बड़े-बड़े देवदार के आकाश छूते पेड़, बहते नालों का पानी, लंबी सड़क और न ख़त्म होने वाले रास्तेलगता जिंदगी का यही सच है। जिंदगी के रास्ते भी सुनसान सड़कों से मिलते जुलते।


पढ़ाई में मैं काफी तेज़ थी। यहाँ आकर ठीक वातावरण मिला और आठ सालों में मैंने पीएचडी कर डाली और फर्स्ट डिवीज़न एम ए में होने से नौकरी भी मिल गई और में घर से फिर विस्थापित हो गई। पर अब का विस्थापित होना अच्छा लगा। इसमें अपने आप को जानने का अवसर मिला। इस आत्मपरीक्षण ने यह सिखाया कि अगर मैं कोई ऐसी लड़की होती जिसे अपने मूल का पता ही न हो तो उम्र भर मैं एक अनाम नाम से जीती रहती या अपने आप को पूछती रहती कि मैं कौन हूँ? मुझे कहाँ से लाया गया है। मैं क्या हूँ? मेरे माँ-बाप कैसे होंगे कैसे दिखते होंगे।


इन सब से में कैसे निपट पाती। अब मेरा व्यक्तित्व है, मैं जानती हूँ- मैं कहाँ से आयी हूँ मेरे माँ-बाप कौन हैं।


ये सारे प्रश्न अगर अनुत्तरित रहते तो मैं फिर भी जीती और इन प्रश्नों के साथ जीना दूभर हो जाता- पर जीना तो पड़ता ही ना। विस्थापन में मैं प्रसन्न हूँ और मेरे सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए हैं। मैं अपनी जड़ों से अलग नहीं हूँ। क्या हुआ अगर मेरे व्यक्तित्व में वार वार विस्थापित होना लिखा है। मैंने ये विस्थापन भोग लिया है। पर अभी एक और विस्थापन मुझे भोगना है। अंतिम विस्थापन। न जाने वह कैसा होगा? सुखद या दुखद! पर होगा अवश्य।


बीच -बीच में अब भी सालता है ये दो घरों में कट कर सुदर्शन प्रियदर्शिनी का जीना। क्या मैं एक घर की हो पाऊँगी, शायद हाँ शायद ना। पर इस विस्थापन के समक्ष तो हर लड़की घुटने टेकती है मुझे भी टेकने हैं।


पिताजी तैयारी में लगे हैं और अब मुझे भी लगना है। मैं अपने आप को तैयार कर रही हूँ इस विस्थापन के लिए जो आमूल चूल होगा और अंतिम होगा।



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दर्शन



पारो  उत्तरकथा


श्याम चूड़ामणि


अपार ‘पारो'


पराकाष्ठा की पराकाष्ठा, मनोविज्ञान के तह की अंतिम परिणति, औरत, माँ और पत्नी की विकट जीवटता का संयोजन, कहने में बेशक 'उत्तर कथा' हो किंतु गूंज हो सृष्टि के सृजन के प्रारंभ का तब कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं, इसे करीब 'अमेरिका', से ही पा सकते हैं जब हम संभाषण करते हैं सृजयिता सुदर्श न प्रियदर्शिनी से जो स्वदेश की माटी की गंध को धुर पश्चिम में रोपती ललनामयी दिखाई देती हैं इस भारत के वर्त और इतर जन समुदाय को!


कथा देवदास की ये अगली कड़ी है किंतु कहीं से भी ये फिल्मी कहानी नहीं जान पड़ती जैसा कि आमतौर पर होता आया है जब कथानकों के भाग दो, तीन व चार बनाए जाते हैं। अंतस के जुनून का प्रस्फुरण है ये उत्तर कथा की पारो जिसे शरत् ने बेशक ‘सशर्त' अमर होने दिया किंतु 'अब के बिछुड़े' धारावाहिक की बेबाक रचयिता ने इसे तब अमर हो जाने दिया जव वो पूर्वाग्रहों से विलग हो हर उस भारतीय की उस अनत प्यास को तृप्त करती सतत प्रयास करती है जव जव वितृष्णा और जिज्ञासा की पारो के वाद के जीवन के होने और न होने की जानने की कल्पना में जीता आया है, ये सम्स्त मुग्ध पाठक वर्ग!


इस परिकथा में अनेकों ऐसे उल्लेखनीय किंतु महत्त्वपूर्ण पहलू हैं जो जन मानस को अंतस तक झकझोर जाते हैं। वो वाक्या बड़ा ही मार्मिक है जिसमें कहा गया है जब किसी बाला को पता ही नहीं लगने पाता कि प्यार या किसी का अच्छा लगना क्या होता है जब उसका अल्पावस्था में ही व्याह हो जाता है।


अच्छा मनोविज्ञान पाया है प्रियदर्शिनी जी ने! लीलामयी के ब्याह का शुरुआती जीवन कहना इसकी उत्तम बानगी है। आम से विशेष होने की 'ठसक' का अच्छा वर्णन दिया है। आम परिवार की लीला बड़े घर में जाकर 'लीलामयी' बन गई है। इनके पिछले काल के जीवन का वर्णन बहुत सही जान पड़ता है।


जीवन की कटु सच्चाईयाँ तव व्यान हो उठती हैं जव कोई अपना ही उत्तराधिकारी हो जाता है और स्वयं का अधिकार उसके अधीन। एक ही जीवन से लीलामयी द्वारा तीन अवस्थाओं में जिया जाना जिसमें पति का आकार सरेआम बेटों में प्रविष्ट होते देखना, निर्दोष लीलामयी का वीरेन को उसी पथ पर बढ़ते देखना जिसकी पगडंडी का निर्माण उसके पिता कुँवर नारायण और उनके पूर्वजों ने किया था। रानी माँ का माँ के अतिरिक्त 'औरत' होना इसके महत्त्व को बड़ी शिद्धत से दर्शाता है।


इस कथानक का महत्वपूर्ण केन्द्रविन्दु 'प्रेम' है जिसे लेखिका 'रसखान' के अलौकिक प्रेम अख्तियार में ला देती है। इससे भी आगे वे इस लौकिकता के उस धरातल पर ले आती है जिससे अलौकिकता भी रश्क करने लगे। पारो केवल प्रेम नहीं है, वो प्रेम के साथ एक ऐसी अनुभूति है जिसे परवाह है समाज की, सामाजिक कर्तव्यों की और उससे भी ऊपर की कि प्रेम पर कोई आक्षेप भी न आए। इन सभी स्थितियों परिस्थितियों को वो जिस कुशलता से निभा ले गई हैं उस सूरत की यदि सीरत परखनी है तो सुधिजनों को प्रियदर्शिनी की 'पारो-उत्तरकथा' अवश्य देखनी चाहिए।


कथान्त तव जीवन्त हो उठता है जव पारो दैहिक लौकिक व मानसिक अलौकिक प्रक्रियाओं से गुजर उस जीवटता का परिचय देकर व्यक्तिगत, घरेलु, पारिवारिक और सामाजिक प्रेम में कर्तव्य का भी उचित निर्वहन करती है। उनके ये कर्म उन्हें न केवल भारतीय समाज में अपितु संपूर्ण लोक में कर्तव्य के साथ स्वयं को निर्दोष रख, नारी समाज के सर्वोच्च शिखर पर ससम्मान जा बिठाते हैं। ये उत्कृष्ट कर्म पारो को तो संपूर्ण नारीत्व प्रदान करते ही हैं, स्वयं प्रियदर्शिनी की भी प्रखर दृष्टि के परिचायक हैं। कहना न होगा 'पारो' के साथ 'प्रियदर्शिनी' भी उसी प्रकार अमर हो गई हैं जब जिस प्रकार से कोई पारो का ज़िक्र करेगा।


भावनाओं का झंझावात, कल्पनाओं का प्रखर आरोहण, तब ख़लिश में, अस्थिर कायनात स्थिर हो जाती है जब उत्तर कथा का अमर पात्र पारो समाज को व्यवस्थित पटरी पर ला, कुछ भी असहज न रहने देकर अकलुषित नैतिकता लिये अपने स्थान पर बिना कोई उंगली उठे टिका जाता है और खिले कमल से जब ये शब्द पारो, उसके प्रियतम और हम सबके सामने स्फूर्त संभावनाओं की परम संतुष्टि लिये उपस्थित होते।


चाँद सी सुन्दर पर नील आर्मस्ट्रांग के पैरों के चिन्ह जैसे आज उसके अकलुषित सौन्दर्य को कुंठित करने को तत्पर थे। पारो ने राय साहब के कमरे की देहरी पर जैसे ही पाँव रखा-कहीं हवा में घुघरू बज उठे। देव की आँखों में, राय साहब के आँगन में आलता लगे पावों की झलक झिलमिलाने लगी। बाहर हवा में झूलती टहनियों में सिमटी झरोखों से झांकती एक गुलावी मुस्कान देहरी पर आलता बन गई। हर श्रृंगार के फूल झर-झर झिलमिलाने लगे और एक महक सन्नाटे में खिलखिला उठी...


जैसे ही पार्वती ने देहरी पर पाँव रखा, अन्दर से आवाज़ आई - आओ पार्वती! आओ!


मोहन दास 'फकीर'


साहित्य जगत में सुदर्शन प्रियदर्शिनी किसी परिचय की मोहताज नहीं है। विदेश में रहते हुए भी अपनी आत्मा भारतभूमि की मिट्टी से जुड़ी हुई है। उनका यह दर्द पात्रों के माध्यम से कहानियों, उपन्यासों में झलकता है। 'पुष्पगंधा' के माध्यम से उनकी रचनाओं को पढ़ने का मौका मिला। धारावाहिक उपन्यास 'अब के बिछुड़े' पत्रिका में जारी है। उपन्यास 'पारो' पढ़ने का मौका मिला। वर्षों पहले पढ़ा शरत् का देवदास याद आ गया शरत् वाबू की पारो अपने देव के लिये तड़पती है और एक नदी के वेग सी देवदास को मिलना चाहती है। प्रियदर्शिनी की पारो भिन्न है। वह कभी देव के लिये तो कभी 'रायसाहब' के लिये असमंजस में है। दिवंगत देव कभी उसको भ्रमित करता है तो कभी झिंझोड़ता है। देव दुनिया से तो चला गया लेकिन पारो के दिलो-दिमाग से न गया। राय साहब जो एक मिनार की तरह हैं, कंचन के विधवा होने पर किले की तरह ढह जाते हैं और उन्हें पारो में ही इस समस्या का हल नज़र आता है। दोनों जुड़ते हैं लेकिन पारो- पिछले पाँच सालों से मैं अपने साथ, देव के साथ, माँ के साथ, राय साहब के परिवार के साथ इसी आडम्बर बिन मल्लाह की पारो जो अपनी पतवार अपनी डोंगी को जो किसी को देना ही नहीं चाहती।


मुझे लगता है कि मैं अभिशप्त आत्मा हूँ और मेरी नियति दो किनारों सी वनी है। देव के साथ भी और राय साहव के साथ भी। देव पारो तो समाज की सहमति चाहते थे न कि समाज से...? तभी तो देव कहता है- हाँ पारो, कितना सरल है कहना और हम दो जन आपस में खुश रह कर माँ-बाप की अवहेलना लिये एक दूसरे को दोषी ठहराते  रहते, जिधर जाते हम पर ताने कसे जाते। हम समाज च्युत हो जाते और साथ ही हमारे माता-पिता किसी को मुँह दिखाने के काबिल न रहते। कैसा होता वह जीवन और उस पर तुम्हारा अहम्!


शुभकामनाएँ आशीर्वचन हमारे जीवन में कहाँ व्यापते। ऐसा अशान्तिपूर्ण जीवन स्थायीत्व कहाँ होता पारो। अलंकारिक शब्दावली उपन्यास को प्रभावशाली बना देती है। चाँद की चाँदनी के लिये, पतझड़ की उदासी के लिये, विरह और प्रेम की पीड़ा से भरा उपन्यास चंद्रमुखी का पारो वार्तालाप भी आनन्द से भर देता है। मानो हारगार सी चन्द्रमुखी और मीरा सी उदासी लिये मीरा दुर्गा की मूर्ति बनाने को आँगन की मिट्टी...और झूठ का किरदार निभा रही है। पारो इसी दुविधा में जी रही


कहीं भी पहुँचना, न पहुँचना, चाहना या न चाहना अन्तत: हमारे ही हाथ में होता है। हारते जीतते भी हम अपनों से ही हैं। कोई वाहर वाला हमें मात नहीं दे सकता इसलिये यह लड़ाई भी मैं अपने लिये लड़ रही हूँ। न देव के लिये न राय साहब के लिये न रानी माँ के लिये न माँ के लिये। राय साहव को पारो का टोकना और राय साहब का कहना- हम सामंती रजवाड़े हैं। वड़े घरों में यह सब चलता है... और तुम्हारी माँ ने ही कहा था कि तुम्हें कुछ वताया न जाए।


फिर मेरे देव के प्यार पर आपको एतराज क्यों?


पुरुष के सौ गुनाह माफ, नारी का एक नरक!


पारो सोचती है हम कैसी दुनिया में जी रहे हैं?


राय साहब की पत्नी छुअन पवित्र और और देवदास की मुग्ध चितवन पाप!


क्या आज मैं एक अधूरी औरत हूँ जो न पत्नी बन सकी न ही प्रेयसी और न ही माँ!


सुदर्शन प्रियदर्शिनी ने अपनी लेखनी से पात्रों के माध्यम से दर्शन पेश किया है। उपन्यास को पढ़ कर लगता है कि शब्दों में गीता के शब्द समहित हैं। कहीं-कहीं लफ्ज़ों में लेखिका का अपना दर्द झलकता है। लेखक जो ज़िंदगी में जीता है वही तो लैखनी से कागज़ पर उतारता है। 'पारो उत्तरकथा' उपन्यास के लिये सुदर्शन प्रियदर्शिनी वधाई की पात्रा हैं।


गुलशन आनन्द


पारो का नाम सुनकर एकदम मस्तिष्क में देवदास की पारो का नाम कौंध जाता है जो कि शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जी के वंगला पृष्ठभूमि पर ताल सोनापुर गाँव की हवेली के ज़मींदार नारायण मुखर्जी के पुत्र देवदास और पारो के वचपन के प्यार को लेकर कहानी है।


स्कूल में तो दोनों का प्रेम फल-फूल रहा है। ज़मीदार नारायण मुखर्जी अपने बेटे को ज़मीदारी के काम के लिये कलकत्ता भेज देते हैं। पर देवदास के माता-पिता के मिथ्या कुलाभिमान के कारण दोनों का विवाह नहीं हो पाता। तेरह वर्षीय पारो के पिता थोड़े से पैसे के बदले उसकी शादी चालीस वर्षीय हाथीपोता गाँव के दुहाजू भुवन चौधरी के साथ, जिसकी पहले से एक वेटी भी है, जो पारो से कई साल बड़ी है, के साथ कर देते हैं। ससुराल में पारो अपनी शादी के बाद अपने पति और परिवार की पूर्ण निष्ठा व समर्पण के साथ देखभाल करती है। निष्फल प्रेम के कारण नैराश्य में डूवा देवदास मदिरा सेवन आरम्भ करता है। जिस कारण उसका स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर जाता है वहाँ डरपोक प्रवृत्ति देवदास दारू और वैश्याओं के चक्कर में पड़ जाता है। वहाँ देवदास वीमार रहने लगता है। जीवन के अंतिम क्षणों में देवदास पारो के ससुराल में उसके घर के बाहर अपना दम तोड़ देता है। पारो को जव पता चलता है तो मिलने  के लिये बाहर भागती है पर उसकी हवेली का दरवाज़ा बंद कर दिया जाता है। गाँव वाहर शमशानघाट में लावारिस समझ कर देवदास का संस्कार कर दिया जाता है। वंगाली पृष्ठभूमि सामंतों और हवेलियों तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को लेकर साथ चार पीढ़ियों को एकसाथ लेते हुए देवदास उपन्यास की रचना आदरणीय शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जी की जिसका प्रकाशन 1917 में हुआ। यह उपन्यास बहुत चर्चित हुआ।


इस उपन्यास की लोकप्रियता के कारण इस पर भारत में हिंदी के साथ कई अन्य भाषाओं में फिल्म बनाई गई। 1955 में फिल्म निर्देशक बिमल राय ने अभिनेता दिलीप कुमार के साथ फिल्म का प्रदर्शन हुआ जिसको कई पुरस्कार भी मिले। यह विषय इतना लोकप्रिय था कि इस पर वाद में भी कई फिल्में बनीं।


मूल रूप से तो उपन्यास पारो के गाँव हाथीपोता में उसके घर के पास ही नायक देवदास देर रात पहुँचकर वहाँ उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है, पर 'पारो : एक उत्तरकथा' अपने नाम को सार्थक करता इस उपन्यास की कहानी को और आगे बढ़ाता है। यह मूल कहानी की नकल न होकर अपने नाम को सार्थक करता मूल कथानक का विस्तार ही है।


विकेश निझावन


जैसे किसी बहती धार को पकड़ लिया हो! उसे खुद में समाहित कर लिया या खुद उसमें समाहित हो गए... ऐसा ही कुछ आभास हुआ सुदर्शन प्रियदर्शिनी का उपन्यास 'पारो - उत्तरकथा' पढ़ते हुए।


बरसों पहले पढ़ा शरत् बाबू का उपन्यास 'देवदास' आज भी दिमाग़ में वना हुआ है। निःसन्देह, एक प्रश्न उठता था कभी-कभी, पारो को लेकर। बीच-बीच में एक-दो वार सिनेमा-स्क्रीन पर भी इसे देखा तो सवाल वरावर वना रहा। परन्तु जीवन की जददो-जहद में हम उसे दरकिनार करते रहे।


देवदास का एक गम के बोझ तले अलविदा ले लेना, पीड़ा दे जाता है। पाठक व दर्शक उसके दर्द में आँसू बहाता रह जाता है। पारो के दर्द को भी महसूस किया गया, परन्तु उसे किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया गया, इसी धार को सुदर्शन प्रियदर्शिनी ने जिस सूक्ष्मता से पकड़ा और उसके साथ बहती चली गयीं, पारो के व्यक्तित्व व अस्तित्व को खुलकर और वहुत खूबसूरती से वयान किया। पाठक व दर्शक इस सोच में रहा कि पारो एक परिवार के बीच है, उसके संरक्षण में है। परन्तु उसके ऊपर जो जिम्मेवारियाँ हैं, उसे पाठक वर्ग सोच पाया क्या? यहाँ लेखिका प्रियदर्शिनी ने इस सवाल पर विचार करते हुए पारो के व्यक्तित्व को जिस तरह से उजागर किया है, पाठक उसी बहाव में बहता चला जाता है और इसे पूरी तरह से स्वीकार करता है। यही 'पारो-उत्तरकथा' की खूबसूरती भी है और सफलता भी।


पारो रानी बनी, पर पत्नी नहीं।
नारी रही, पर प्रेयसी न बन सकी।


हमारे अन्दर बसी अतृप्ति की हूक ही हमारी प्राण शक्ति है जो हमें उठाती-बिठाती और उछालती रहती है। प्रियदर्शिनी ने कथा के साथसाथ जिन संवेगों को अभिव्यक्ति दी है- वे अभिभूत करते हैं।


कंचन के किरदार और उसकी स्थितियों को सामने लाना, बड़ी सहजता से आगे बढ़ाया गया है। ... वहती नदिया की धार को पकड़ने की हिम्मत कौन कर सकता है?... सुदर्शन प्रियदर्शिनी ने इसे कर दिखाया और एक समूचे पाठक वर्ग को इससे बाँध दिया।


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