आशिक़ देव


एक बियाबान एकदम उजाड़, न पेड़ों की छाया न घास की ठण्डक। मगर न जाने कहाँ से उस उजाड़ बियाबान में मीठे-ठण्डे पानी से भरा हुआ एक कुआँ था। हर क़ाफ़िला जो वहाँ से होकर गुज़रता, सिर्फ इस कुएँ के कारण वहाँ पड़ाव डालता


और कुआँ भी बरसों से इस वीरान में अपनी सत्ता जमाये, हर आने-जानेवाले की प्यास बुझाता। उसे अपने अकेलेपन पर नाज़ था।


मगर कुछ दिनों से उधर से गुज़रनेवाले क़ाफ़िले दुःखी थे। पानी के स्थान पर उस कुएँ से कटे सिर निकलते थे। अगर कोई पानी खींचता तो कएँ के अन्दर से उठते हुए एक विचित्र आकर्षण से खिंचता हुआ कुएँ के अन्दर चला जाता था। जब कोई दूसरा कोशिश करता कि अन्दर गये आदमी को बाहर निकाले तो उसे उस समय सिवाय बिना सर के धड़ के कुछ भी हाथ न आता।


एक दिन एक युवक अपने में मस्त अकेला कुएँ के क़रीब पहुँचा-न हाथ में डोल और न साथ में कोई दूसरी चीज़। सीधा ईंटों पर पैर रखता हुआ वह कुएँ में उतर गया कि शरीर की थकान और धूल धो डाले। नीचे पहुंचा तो क्या देखता है कि एक देव पानी के ऊपर बैठा है। यह देखकर वह मस्त-लापरवाह युवक हौले से मुस्कराया और अपने सिर को हिलाया। देव ने उसे देखकर कहा, “कहाँ थे?"


"बस यूँ ही अपने शरीर की धूल को धोने आया था।"


"स्वागतम् !" यह कह देव ने उस मस्त युवक को अपने समीप पानी पर बिठाया। युवक ने देखा कि बजाय आगे बात करने के देव ख़ामोश पानी को ताक रहा है। ऐसी टकटकी लगाकर देख रहा है कि देखने का तार टूटता ही नहीं। यह देख युवक को जिज्ञासा हुई। तभी उसने देखा कि एक मेंढक 'टर्र-टर्र' करता हुआ पानी के ऊपर निकला और फिर अन्दर चला गया। पानी की एक हलकी परत के भीतर से उस मेंढक की आँखें किसी दमकते हीरे की तरह दग-दग कर रही थीं और देव की आँखें उन्हीं दो हीरों पर जमी हुई थीं।


जब मेंढक पानी में गायब हो गया तो देव की तन्द्रा टूटी। जवान की ओर मुड़कर बोला, “युवक, तुमने इस ज़िन्दगी से क्या जाना है?"


जवान, जो चकराया हुआ था और समझ नहीं पा रहा था कि इस मेंढक और देव में क्या सम्बन्ध है, बोला, “यही कि वही जगह अच्छी है जहाँ इन्सान ख़ुश रहे।" यह सुनकर देव प्रसन्न हो गया।


जब युवक नहाने से फुर्सत पा गया तो देव बोला, “मैं चालीस साल से इस कुएँ पर रह रहा हूँ और इन सालों में कोई नहीं मिला जो तुम्हारी तरह मेरे लिये कुछ बोले, कुछ कहे। तुमने तो मेरा दर्द खूब पहचाना। मैं चालीस साल से मेंढक की इन खूबसूरत आँखों की छाया का दीवाना हूँ जिसे मैं केवल महसूस कर सकता हूँ और यही मेरा जीवन है। पत्नी थी, बच्चे थे, सबको स्वतन्त्र कर बुढ़ापा इस कुएँ में गुज़ार रहा हूँ।"


"जो कुछ मेरे पास था वह सब सामनेवाले पहाड़ पर है। सात खुसखी सोने से भरे कलश मेरी तरफ से क़बूल करो।" फिर ठहरकर बोला, "बस, आज के बाद मैं किसी भी क़ाफ़िले को बरबाद नहीं करूँगा, बल्कि जितना पानी चाहेंगे, लेने दूंगा।"


और वह मस्त-लापरवाह जवान, जो उदास हो गया था, देव से अलग हुआ।


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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