अपनी बारी


ईरान के किसी शहर में एक दर्जी रहता था। उसकी दूकान नगर-द्वार के समीप थी। दिन भर काम करता और साथ ही आस-पास की ख़बर भी रखता, उसकी एक विचित्र आदत थी। दूकान के दरवाज़े पर उसने कील ठोक कर एक मिट्टी की हांड़ी टांग रखी थी। जब कोई शहर में मरता और उसकी अर्थी गुज़रती तो वह दर्जी फौरन हांडी में एक कंकड़ डाल देता था। मास के अन्त में वह हांड़ी को ज़मीन पर उलट देता और कंकड़ों को गिन कर हिसाब लगाता कि मास भर में कितने लोग मरे हैं।


इसके पश्चात् वह खाली हंड़िया को फिर कील पर टांग देता और वही दुहराया गया कार्यक्रम फिर से आरंभ कर देता। यहां तक कि वह दिन आ गया जब दर्जी ने स्वयं आंख मूंद ली।


कुछ दिनों बाद एक आदमी दर्जी को तलाश करता हुआ आया। दूकान बन्द देख कर चकराया। काम जरूरी था। इस कारण उसने पड़ोसी से पूछा, 'भई यह दर्जी ने दूकान क्यों बन्द कर रखी है? कहां है?' पड़ोसी बोला, 'दर्जी तो मिट्टी की हांड़ी में गिर गया है।' (क़ाबूसनामा)


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य