चरित्रों पर जान छिडकती भाषा


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रघुवीर सहाय, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, दामोदर खड़से और राज कमल की कहानियां


लोगों का मानना है कि कवि जब आलोचना लिखता है तो वह विशुद्ध आलोचकों की आलोचना से बेहतर होती है। कई लोगों का मानना यह भी है कि कवि जब कहानी लिखता है तो विशुद्ध कहानीकार से अच्छी कहानियां लिखता है और यह स्थापित करने की कोशिशें भी प्रायः होती रही हैं कि कहानी को हटाकर कविता ने फिर से केंद्रीय स्थान हासिल कर लिया है और सही मायने में कला तो सिर्फ कविता ही है, लेकिन हमें लगता है कि कहानी और कविता, दोनों का ही महत्व पूर्ववत बरकरार है, लेकिन यह सच है कि कुछ कवि जितनी सार्थक कविताएं लिखते हैं, उतनी ही प्रभावशाली कहानियां भी। उदय प्रकाश और राजेश जोशी की रचनाओं को पढ़कर इस सच्चाई को महसूस किया जा सकता है। शायद इसीलिए कवि उदय प्रकाश को साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनकी कहानी 'मोहनदास' पर और राजेश जोशी को उनके कविता संग्रह 'दो पंक्तियों के बीच' के लिए हासिल हुआ।


कहानी के बारे में कवि-कथाकार रघुवीर सहाय मानते रहे कि वह 'अन्य विधाओं की तरह जीवन की एक नयी समझ पैदा करती है। लिखना-बोलना, दोनों तरीकों से वह यही काम करती है। जब नहीं कर पाती तो कहानी नहीं होती, मगर जब कर पाती है तो उस पर यह बंधन भी नहीं रहता कि वह कहानी ही रहे।' रघुवीर सहाय की कहानियों के संग्रह 'जो आदमी हम बना रहे हैं' की कहानियां पढ़कर कह सकते हैं कि इसी सोच के चलते वे अपनी ज्यादातर कहानियों पर कहानी होने का बंधन नहीं लगा सके। संग्रह की कुछ रचनाएं आत्मालाप और कथात्मक निबंध तो कुछ रेखाचित्र और संस्मरण की गलियों में गश्त लगाती मिलती हैं। जहां तक कहानी से नयी समझ पैदा करने का सवाल है तो इस बात से किसी को भी इनकार नहीं हो सकता और रघुवीर सहाय की 'एक जीता जागता व्यक्ति' तथा 'कहानी की कला' जैसी रचनाएं पाठक में एक नयी समझ बेशक पैदा करती हैं, पर वह नयी समझ अगर सही समझ भी होती तो निश्चय ही ऐसी कहानियों का बड़ा महत्व होता, लेकिन रघुवीर सहाय की ऐसी कहानियां पाठक में सही समझ विकसित नहीं करतीं। अपनी कहानी एक जीता-जागता व्यक्ति' में रघुवीर सहाय पिघले हुए डामर में फंसी चिड़िया को उस जानलेवा त्रास से स्वतः उबरने देने का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं, जबकि वे मानते हैं कि कहानी को शास्त्र नहीं बनना चाहिए। अब थोड़ी देर के लिए मान लें कि डामर में फंसी उस चिड़िया की जगह कोई आदमी अचानक किसी नदी में बहने लगे तो।।।तो भी क्या रघुवीर सहाय यही प्रतिपादित करेंगे कि उस आदमी को चिड़िया की तरह स्वत: किनारे लगना चाहिए? और यदि वह अपने को असमर्थ पाकर मंझधार में डूबने लगे तो।।।तो क्या रघुवीर सहाय (अंतर्साक्ष्य के अनुसार) यह कहकर पिंड नहीं छुड़ा लेंगे कि अब वह मेरी सामर्थ्य से बाहर चला गया, मैं क्या कर सकता हूं?


कहानी को परिभाषित करते हुए रघुवीर सहाय कहते हैं : 'पाठक या श्रोता, मनुष्यों के बीच जिस रिश्ते को जानते हैं, उसके बदलने और बदल कर नया रूप ले लेने की प्रक्रिया ही कहानी है।' इस कथन को उनकी रचना 'कहानी की कला' पर लागू करें तो निष्कर्ष यह निकलता है कि अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर आदमी मानवीय संबंधों की स्वाभाविकता के कारण कमजोर और असहाय आदमी को बैठने की जगह अपने आप दे देता है। रघुवीर सहाय की मान्यता के अनुसार नये मानवीय संबंधों की स्वाभाविकता के चलते ताकतवर आदमी का हृदय परिवर्तन अवश्यंभावी है, पर क्या इसी आधार पर रघुवीर सहाय यह भी कह सकते हैं कि मालिक अपने मजदूरों की दारुण स्थितियां जानकर उन्हें पर्याप्त मजदूरी भी अपने आप दे सकते हैं?


चर्चित कवि और 'दिनमान' जैसे राष्ट्रीय पत्र से संपादक के तौर पर संबद्ध रहे रघुवीर सहाय की कहानियां समकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों से इस कदर कटी होंगी, ऐसा तो हमने सोचा ही न था, पर यह एक दुखद तथ्य है और शायद अपनी इस कमजोरी को छिपाने के लिए उन्होंने 'जो आदमी हम बना रहे हैं' संग्रह की भूमिका में कहानी को 'मानवीय रिश्तों के बदलाव की प्रक्रिया को रेखांकित करने' तक सीमित करने का तर्क दिया है, मानो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सवालों से कहानी को कुछ लेना-देना ही न हो। बहरहाल, इस संग्रह में नामधर्मा कहानी के अलावा पाठक रघुवीर सहाय की खेल, लड़के, सेब, इंद्रधनुष, एक जीता-जागता व्यक्ति, कहानी की कला, विजेता, सीमा पार का आदमी, किले में औरत, चालीस के बाद प्रेम, मुठभेड़, कीर्तन, कोठरी, प्रेमिका, तीन मिनट, सर्कस, ग्याहरवीं कहानी तथा रास्ता इधर से है जैसी कहानियां पढ़ सकते हैं।


रघुवीर सहाय की ये कहानियां आजादी के बाद के एक लंबे समय की उपज हैं, लेकिन इस बीच हिंदी कहानी में उभरे आंदोलनों से लगभग मुक्त हैं, देश में चल रहे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से भी। तीन मिनट' पर अकहानी की छाया जरूर दिखती है, पर उसे प्रभाव नहीं कहा जा सकता। किसी भी वाद की छाया तक से मुक्त रघुवीर सहाय की 'किले की औरत', 'कोठरी' तथा प्रेमिका' आदि अपने समय की अच्छी कहानियां मानी जा सकती हैं। बाल मनोविज्ञान पर 'लड़के' इनकी एक अच्छी कहानी है, लेकिन 'सीमा पार का आदमी' रघुवीर सहाय की सर्वश्रेष्ठ रचना है, जिसमें उनकी वैयक्तिकता का बांध टूट गया है और कहानी के माध्यम से उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की त्रासदी में छिपी एक और त्रासदी का जो विचारोत्तेजक खुलासा किया है, उसे पढ़कर हम अवाक्रह गए। युद्धविरोधी मानसिकता के कारण रघुवीर सहाय की कहानी 'सीमा पार का आदमी' न सिर्फ हिंदी, बल्कि भारतीय कथा साहित्य की अविस्मरणीय कहानियों में शुमार होती है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम होने पर एक पत्रकार सीमा पर जाकर पाता है कि पाकिस्तान में रहने वाले कुछ गैर-मुस्लिम तमाम कठिनाइयों के बावजूद पाकिस्तान का अपना गांव-घर छोड़ना नहीं चाहते। अपना गांव-घर न छोड़ने का यह स्वर उनकी कुछ और कहानियों में भी मौजूद है। सन् उन्नीस सौ सैंतालीस में वे वहीं थे, आज भी वे वहीं क्यों हैं, पूछे जाने पर जवाब मिलता है : 'हिंदू तो हिंदुस्तान चले गए थे, हम हरिजन हैं।' सो, हरिजन चाहे पाकिस्तान में हों, चाहे हिंदुस्तान में, विभाजन से उनकी नियति का फैसला नहीं हुआ, हालांकि मुसलमानों और हिंदुओं का ही कहां हो पाया? दरअसल भारत आजाद नहीं हुआ। अंग्रेजों से कुछ लोगों को सत्ता हस्तांतरित भर हुई, जिसमें जिन्ना एक बाधा थे, पाकिस्तान बनाकर वह बाधा हटा दी गयी, पर किसी समस्या का समाधान नहीं हुआ, अन्यथा एक भूखंड के दो टुकड़े (अब तीन) होने के बाद भी आज यह मार-काट नहीं मची होती। रघुवीर सहाय की यह कहानी भारत विभाजन के रिसते हुए नासूर के बारे में एक नयी और सही समझ पैदा करती है। कहानी का एक काम नई समझ पैदा करना भी होता हैं। इसलिए कवि रघुवीर सहाय 'सीमा पार का आदमी' से अच्छे कहानीकार भी सिद्ध हो गए।


'सर्वेश्वर की कहानियां अनेक भारतीय, अंग्रेजी, इतालवी, पोल, रूसी तथा सोवियत संघ की भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं और देश-विदेश दोनों जगह समादृत हैं।' यह छापा गया सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के कथा संग्रह 'अंधेरे और अंधेरा' के ब्लर्व पर। विदेश में सर्वेश्वर की कहानियों का कितना आदर है और क्यों है, यह तो हिंदी के पाठक नहीं जानते, अन्य भारतीय भाषाओं की बात भी हमें मालूम नहीं, पर हिंदी में सर्वेश्वर कवि के रूप में समादृत हैं, कथाकार के रूप में नहीं, क्योंकि सर्वेश्वर की कहानियां निखालिस उनकी अपनी कहानियां हैं। जीवन की छोटीछोटी स्थितियों, घटनाओं और दुर्घटनाओं के ठहरे हुए रेखाचित्र, जिनमें गतिशीलता लगभग नहीं है। कहानियां हमें न तो जीवंत पात्र देती हैं, न ही किन्हीं स्थितियों के दहकते हए चित्र। लपटें' और 'पुलोवर' के पात्र अपनी प्रतीति देते भी हैं तो उनका एक-एक कदम लेखक के इशारे पर उठता और गिरता है। उनके अंदाज और निर्णय पूर्व निर्धारित, नाटकीय और अंतत: फिल्मी और 'फेक' हो उठते हैं। अपनी सिर्फ एक कहानी 'लडाई' में जरूर सर्वेश्वर हमें एक ऐसा चरित्र देते हैं। जो घोर अलोकतांत्रिक और जनविरोधी व्यवस्था का खूनी चेहरा उघाड़ कर रख देता है, हालांकि यह भी सर्वेश्वर का गढ़ा हुआ चरित्र ही है, पर कहानी पढ़ते हुए हम खुद को उसके साथ चलते हुए पाने लगते हैं। ऐसा होने लगे तो गढ़े हुए चरित्र भी पाठक के लिए स्वीकार्य हो उठते हैं।


उदय प्रकाश का अनुभव संसार उनका अपना अनुभव संसार मात्र नहीं है, उसमें मौसाजी हैं, टेपचू है, दद्दू तिवारी और किशनू जैसे बहुत सारे लोग हैं। मौसाजी को हम आसानी से भूल नहीं सकते। किसनू, दद्दू तिवारी और टेपचू क्या हमारे जेहन से कभी उतर पाएंगे, खासकर टेपचू' तो रांगेय राघव की 'गदल' की तरह हिंदी कथा का एक ऐसा पात्र है, जिसकी वर्गीय चेतना का प्रसार होते ही रहना है। काव्य तत्वों से सजी अपनी लोकधर्मी भाषा के कारण उदय प्रकाश की कहानियां पाठक को आद्यंत बांधकर रखती हैं। उनमें चरित्र खड़ा करने की अद्भुत क्षमता है, जिसके बल पर उन्हें महत्वपर्ण कथाकार का दर्जा हासिल हआ। इनकी कहानी 'टेपच' हमें गांव के अविस्मरणीय चित्र ही नहीं, अभूतपूर्व चरित्र भी देती है। निर्मल वर्मा के बाद उदय प्रकाश हिंदी के मात्र दूसरे ऐसे कथाकार हैं, जिन्हें कहानी के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार हासिल हुआ। उदय प्रकाश की प्रमुख कहानियां पढ़नी हों तो वे होंगी : वारेन हेस्टिंग्ज का सांड, टेपचू, मौसा जी, तिरिछ, अरेबा-परेबा, राम सजीवन की प्रेमकथा, डिबिया, हीरालाल का भूत, दिल्ली की दीवार और अंत में प्रार्थना आदि।


राजेश जोशी की मुख्य विधा भले ही कविता है, लेकिन उन्होंने अनेक लाजवाब कहानियां भी लिखी हैं, जिन्हें उनके संग्रह 'मेरी चुनिंदा कहानियां' में पढ़ा जा सकता है, जिसमें सींग, सोमवार, सांप, आलू की आंख, धूप, कपिल का पेड़, जाल तथा मैं हवा पानी परिंदा कुछ नहीं जैसी कहानियां संग्रहीत हैं। राजेश जोशी ने इसमें अपनी चार छोटी कहानियां-हंसी, नाम क्या है उर्फ अंडे चोर, बगल की सीट तथा नई आंख भी शामिल की हैं। उदय प्रकाश हों, राजेश जोशी, विष्णु नागर अथवा रवींद्र वर्मा, सबके सब अपनी छोटी कथाओं को लघुकथा कहने से बचते हैं, जिसका शिकार असगर वजाहत जैसे कथाकार भी हुए, जिनका लघुकथा संग्रह 'मुश्किल काम' छपा है, लेकिन वे भी खुलकर उसे लघुकथा संग्रह नहीं कहते। बहरहाल, कवि प्रवर राजेश जोशी की चुनिंदा कहानियों का संग्रह पाठकों के लिए किसी उपहार से कम नहीं। उनके तीन कहानी संग्रह 'सोमवार और अन्य कहानियां', 'कपिल का पेड़' तथा 'किस्सा कोताह' छपे हैं तो एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हंसी, चांद की वर्तनी तथा धूप घड़ी जैसे कई कविता संग्रह भी। एक कवि की नोट बुक' श्रृंखला की दो किताबों में राजेश जोशी का उत्कृष्ट गद्य पढ़ने को मिलता है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अलावा श्रीकांत वर्मा स्मृति सम्मान, शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, मुक्तिबोध पुरस्कार तथा शिखर सम्मान हासिल कर चुके राजेश ने साहित्यिक पत्रिका 'इसलिए' के अलावा 'नया पथ' के कई विशेषांकों का भी संपादन किया और कुछ किताबों का भी। इस रूप में देखें तो वे अपने पूर्ववर्ती कवि-कथाकार-पत्रकार रघुवीर सहाय की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।


राजेश जोशी की कहानी 'सींग' का एक चित्र देखिए: उन्नीस सौ चौहत्तर में डाकतार कर्मचारियों की काफी बड़ी हड़ताल हुई थी, जिसमें भगवती निलंबित कर दिए गए। हड़ताल विफल हो गई और बातचीत टेबुल पर रखी गई। मामला सुलट जाता, पर आपातकाल लग जाने से मामला बरफ की थैली में चला गया। उन दिनों बिना पर वाली खबरें उड़ती रहतीं। लोग-बाग दौड़-भाग में लग जाते। बीच में खबर उड़ी कि सारे निलंबित लोग बर्खास्त किए जाने वाले हैं। खबर से सबके कान खड़े हो गए और पांव में चरखी लग गयी, लेकिन भगवती नहीं हिले। ग्यारहबारह बजे तक दुर्गा चौरे से उठ जाते थे, लेकिन उन दिनों दो-ढाई बजने लगा और उनकी हंसी पहले की बनिस्पत ज्यादा चौड़ी हो गयी। सारा मोहल्ला और आधा शहर भगवती की जान-पहचान का था। गलियों के रास्ते उनकी जुबान पर रखे रहते। बचपन इसी शहर में बीता। यहीं तालीम हुई और यहीं नौकरी में लग गए। डाकिये की नौकरी यों भी घूमा-फिरी की थी। आठ साल की नौकरी हो गयी थी, पर हालत जैसे अंगद की टांग हो, जरा भी टस से मस न होती। बहनों को ब्याहना था, गांव भी कुछ न कुछ भेजना होता। इधर भी किसी न किसी का देना हर वक्त सिर पर बना रहता।' राजेश की कहानी 'सींग' के नायक भगवती बदहाली में अपने बच्चों को दूध तक नहीं दिला पाते। एक तो डाकिये की नौकरी, ऊपर से हड़ताल, निलंबन और इमर्जेंसी का आतंक, जिस पर महंगाई की मार। इस संदर्भ में 'सींग' कहानी से ही एक और अंश देखें : 'बाजार एक मजेदार जगह थी। एक ऐसा बैरोमीटर, जिसका पारा नीचे जाते कभी किसी ने नहीं देखा, वह मौसम के हिसाब से ऊपर चढ़ता था। शहर पहाड़ी था। सो, बाजार भी पहाड़ पर था।।।एक चीज का भाव चढ़ता तो दूसरी चीजों के भाव भी उचक-उचककर ऊपर चढ़ जाते। गल्ला महंगा होता तो तेल, तिलहन और तरकारी से लेकर ताड़ी और अखबार तक सारी चीजें उसका पौंचा पकड़कर आगे बढ़ जातीं।'


राजेश जोशी की कहानी सोमवार' में भी महंगाई है : 'महंगाई एक शानदार चीज थी। हमारे देश में वह और भी शानदार थी। उसमें पुराने राजपूतों के गुण थे। बढ़ेंगे तो आगे ही बढ़ेंगे। आगे बढ़कर पीठ दिखाना उसकी शान के खिलाफ था। वह एक कदम आगे और दो कदम पीछे का सिद्धांत नहीं मानती। उसका सिद्धांत था-आगे बढ़ो, हमला करो और जो कमजोर दिखे, दबोच लो। हमारी औकात के लोग अक्सर उसके आगे रिरिआते रहते और वह शान से जुतियाती रहती। लोग उससे पिटते और गुस्सा घर में निकालते। घरों में तनाव बढ़ रहे थे। ऐसे समय में निलंबन के बाद डाकिये जैसे मामूली आदमी के अभावजनित पारिवारिक जीवन स्थितियों का बेहद प्रभावशाली चित्रण राजेश जोशी ने 'सींग' में किया है।


डाकिये की जिंदगी पर आधारित कहानी 'सींग' के बाद राजेश शिक्षा जगत की राजनीतिक चालों और छात्रों के पठन-पाठन पर केंद्रित 'आलू की आंख' जैसी कहानी में हमें एक दूसरी ही दुनिया में ले गए, जिसमें आज के भारत के आम दृश्य हैं, लेकिन कितने खराब! अपनी कहानी 'सोमवार' में राजेश जोशी ने गैस के चूल्हे के बहाने मध्यवर्गीय परिवार का विश्वसनीय चित्र दिया है और किया है आर्थिक कारणों से उसके बिखराव का मार्मिक चित्रण। राजेश जोशी जैसे कवि की ऐसी कहानियां हिंदी की उपलब्धि हैं, लेकिन कवि उदय प्रकाश के एकदम उलट राजेश जोशी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनके कविता संग्रह 'दो पंक्तियों के बीच' के लिए हासिल हुआ। दरअसल राजेश मूलतः कवि हैं और उदय प्रकाश कविताएं लिखते भले ही रहे, लेकिन उनकी छवि कथाकार की ही बनी और पुरस्कृत भी वही छवि हुई, क्योंकि 'वारेन हेस्टिंग्ज का सांड' जैसी कहानी उदय प्रकाश ही लिख सकते थे, जिसके साथ सिर्फ और सिर्फ भीष्म साहनी की कहानी 'वांग्चू' रखी जा सकती है और उनके समकालीनों में प्रियंवद की 'बोधिवृक्ष'। राजेश जोशी के साथ ऐसे कवियों की कहानियां पढते हए लगता है कि कवि जब कहानियां लिखते हैं तो वे निखालिस कथाकारों से कुछ भिन्न होती हैं, भिन्न और विशिष्ट । शायद इसलिए कि वे लोक मन को कुछ ज्यादा गहराई में उतरकर पकड़ने और अपनी बारीक बुनावट से उन्हें पाठक के सामने रखने की कला जानते हैं।


वरिष्ठ लेखक-पत्रकार सूर्यकांत नागर हिंदी के प्रमुख कथाकारों में शुमार किए जाते हैं। उनकी किताबों के मराठी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद छपे हैं। हिंदी की छोटी-बड़ी प्रायः सभी पत्रिकाओं में छपी उनकी अब तक की 'संपूर्ण कहानियां' एक संग्रह के रूप में आ गयी हैं। हमारी नजर में सूर्यकांत नागर की 'न घर का न घाट का', 'मृगतृष्णा', "तमाचा', 'तैरती मछली के आंसू', 'निशांत', 'मुक्ति पर्व', 'कायर', 'बलि', 'फर्क', 'अंधेरे में उजास', 'जल्दी घर आ जाना', 'बूढ़ी चाची', 'बेटियां', 'दहशतजदा', 'जीने-मरने के बीच', 'शवयात्रा', 'चोर', 'तबादला', 'देश बचाओ', 'बिना चेहरे का पेट', 'त्रिशंकु', 'एक सच यह भी', 'अंतिम संस्कार', 'जरीवाला कोट' तथा 'देवी पूजा' जैसी कहानियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इन कहानियों में समकालीन साहित्य की मुख्य धारा के प्रायः सभी विषय मौजूद हैं। यहां एक तरफ ग्रामीण जीवन के मुंह बोलते चित्र और यादगार चरित्र हैं तो दूसरी तरफ महानगरीय जीवन के अच्छे-बुरे वृत्तांत भी इन कहानियों में हैं। इनमें मजबूत और कमजोर 'चरित्रों' से लेकर अविस्मरणीय 'चित्र' तक सब एक साथ मौजूद हैं।


सूर्यकांत नागर की कहानी 'जल्दी घर आ जाना' पति-पत्नी के प्रगाढ़ संबंधों पर आधारित महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें पत्नी के अन्यत्र चले जाने पर कथानायक को लगता है कि अब उसके जैसा सुखी और स्वतंत्र इन्सान दूसरा नहीं। अब तो वह पूरी तरह स्वच्छंद जीवन जीने के लिए आजाद है। कुछ दिन तक तो उसे यह सब अच्छा लगता है, लेकिन जल्दी ही दिन-प्रतिदिन की व्यावहारिक दिक्कतों से घबराकर उसकी सोच बदल जाती है। उसे लगता है कि पत्नी के बिना जीना कितना_7 कठिन है। अचानक उसे पत्नी की याद सताने लगती है और इस सच्चाई का भान भी हो जाता है कि उसकी वैसी स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं।


'बलि' कहानी में नाव में बैठी बच्ची का हाथ मगरमच्छ द्वारा पकड़ कर नदी में खींच ले जाने पर बाकी लोग अपनी जान बचाने के लिए घबराहट में उसे धक्का दे देते हैं ताकि बच्ची को मगर पानी में खींच ले जाए और डगमगाती नाव डूबने से बच जाए, अन्यथा उसके साथ सब बेवजह मारे जाएंगे। इसी तरह 'तमाचा' का कथानायक सोचता है कि जो व्यक्ति उससे मिलना चाह रहा है, वह निश्चित रूप से कुछ मांगने के लिए आ रहा है। वह उसके आने के कारणों की अनेक कल्पनाएं कर डालता है। अंततः एक दिन वह व्यक्ति कथानायक के सामने आकर जो प्रस्ताव रखता है, उससे उसकी आंखें खुल जाती हैं। आने के बाद अतिथि बताता है कि मुझे पता चला है कि आपके बेटे की किडनी खराब है। मैं उसे अपनी किडनी देना चाहता हूं। यहीं कथानायक को यह भी पता चलता है कि उस व्यक्ति के बेटे के लिए समय पर किडनी की व्यवस्था न होने से उसका देहांत हो गया, जिसकी टीस उसके भीतर अब तक मौजूद है, जिसकी भरपाई वह उसके बेटे को अपनी किडनी देकर करना चाहता है। यह कहानी कथित अभिजात वर्ग और साधारण वर्ग की सोच के अंतर को रेखांकित करती है। 'निशांत' में अपना अपमान करने वाले छात्र से प्राध्यापक क्रूर ढंग से बदला लेना चाहता है, पर ऐन वक्त पर उसका इरादा बदल जाता है। सूर्यकांत नागर की कहानियों में इस तरह के हृदय परिवर्तन की अनेक कथाएं मौजूद हैं। फर्क' कहानी वैसे तो महानगरीय और कस्बाई बोध के द्वन्द्व को प्रस्तुत करती है, पर उसके मूल में यही है कि अभी भी कुछ लोग हैं, जो अपनी संवेदना बचाए हुए हैं और जिनकी वजह से यह दनिया रहने-जीने लायक बनी हई है।


घर-परिवार के रिश्तों को लेकर कहानी लिखना सूर्यकांत नागर की पहली पसंद है। 'मृगतृष्णा' में एक बिगडैल पोते को सुधारने के लिए बार-बार प्रयत्न करता उसका दादा है। 'तैरती मछली के आंसू' कैंसर से पीड़ित पति के लिए अपना जीवन होम करती स्त्री की मर्मस्पर्शी कथा है। यह कहानी प्रेम और त्याग का अविस्मरणीय उदाहरण है। ऐसी कहानियां रिश्तों की ऊंचाई को नए आयाम देती हैं। नागर की कुछ कहानियां समकालीन परिस्थितियों और व्यवस्था संबंधी दुष्चक्र पर तीखा व्यंग्य करती हैं।


'पी-एच. डी. करती लड़की का पिता' शिक्षा जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार को उघाड़ती है तो 'दहशतजदा' में भ्रष्टाचार से दौलत कमाने वाले लोगों का मनोविश्लेषण किया गया है। नागर की इन कहानियों को पढ़ते हुए यह बात भी स्पष्ट होती है कि भाषा के मामले में वे सजग तो हैं, लेकिन पात्रों पर अपनी भाषा थोपते नहीं, बल्कि पात्रों के चरित्र के हिसाब से भाषा का प्रयोग करते है। नागर की कहानियां पढ़कर हमारे सामने समाज के अनेक चित्र उभर आते हैं। लेखक ने विभिन्न चरित्रों और प्रसंगों के जरिये कहानियों में अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कही है।


सूर्यकांत नागर ने आदर्शों और मूल्यों को गति देनेवाले मध्य और निम्न मध्यवर्ग को अपनी कहानियों का आधार बनाया और अनेक अच्छी कहानियां लिखीं। अपने ओछेपन का भान कर मध्यवर्ग खुद ही लज्जित और ग्लानि पीड़ित होता है। इस शर्मिंदगी पर नागर ने 'त्रिशंकु' और 'विवर्ण' जैसी कहानियां लिखी हैं। दोनों ही कहानियों के पीछे चिट्टियां हैं, जो शहरी मध्यवर्ग के आदमी की नींद हराम कर देती हैं। 'त्रिशंकु' कहानी में जहां ब्रदर-इन-लॉ को साथ रखकर इंजीनियरिंग पढ़ाने के पत्नी के प्रस्ताव को ठुकरा चुके नायक के सामने अपने भतीजे को साथ रखकर पढ़ाने के लिए बड़े भाई की चिट्ठी है, वहां 'विवर्ण' में मुंबईवासी मित्र के सामने नयी नौकरी पर मुंबई आ रहे मित्र के आवास की समस्या पेश करती चिट्ठी है। दोनों कथानायक अजीब कशमकश में हैं। वे चिट्ठियों को अनुत्तरित छोड़कर स्थिति से बच जाते हैं, क्योंकि तब तक चिट्ठी लिखने वाले लोग अपना निर्णय बदल चुके होते हैं, पर यह उनकी उपेक्षा के कारण हुआ है, यह बात वे अच्छी तरह जानते हैं और इसका एहसास उन्हें अपनी ही नजरों में गिरा देता है। दूसरों की नजरों में गिरने की अपेक्षा अपनी ही नजरों में गिर जाना कहीं ज्यादा घातक होता है और सूर्यकांत नागर की अनेक कहानियों के पात्र इस व्यथा से रूबरू हैं और यह कोई आरोपित स्थिति नहीं है। दिन-प्रतिदिन हम देखते रहते हैं कि भारत के नगरों-महानगरों का एक बड़ा वर्ग इस त्रासदी से किस तरह दो-चार होता रहता है।


चार दशक से कहानियां लिख रहे सूर्यकांत नागर की संपूर्ण कहानियों के संग्रह में उनकी नब्बे कथाएं संग्रहीत हैं, जिनमें जीवन के विविध रंग देखे जा सकते हैं। उनकी चिंताओं के केंद्र में है निम्नमध्यवर्गीय मनुष्य का जीवन। नागर में मनुष्य के स्वभाव और स्थितियों में उतरकर उन्हें पहचानने का अद्भुत गुण है। इनकी कहानियों में व्यक्ति के चरित्र, अंतर्विरोध, द्वंद्व और मानवीय मूल्यों को रेखांकित करने की ईमानदार कोशिश की गई है। उनके पास व्यावहारिक, प्रभावी और सर्वग्राह्य भाषा है तो शिल्प में सादगी के साथ संवेदनात्मक गहराई भी। कहीं-कहीं व्यंग्य का स्पर्श भी है। 'संपूर्ण कहानियां' में सूर्यकांत नागर के कथाकार के क्रमिक विकास को सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है। उनकी कहानियों में नई कहानी, साठोत्तरी कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी, स्त्री विमर्श और दलित विमर्श तक के सारे रंग एक साथ  पाए जा सकते हैं।


दामोदर खड़से की कहानियां पढ़कर लगता है कि कथा लेखन में जैसी सिद्धि इन्होंने हासिल की, कम ही कथाकार कर पाते हैं। इनकी कहानियां पढ़ते हुए लगता है कि इनके जैसा रचनाकर्मी अपने समाज, परिवेश और जीवन से उदासीन नहीं है। वह स्थितियों का विश्लेषण कर उन वजहों की खोज करता है, जिनके कारण समाज में विषमताएं बढ़ रही हैं। मानवीय मूल्यों का विघटन आखिर क्यों हो रहा है, आदमी-आदमी के बीच अविश्वास की खाई क्यों चौड़ी हो रही है, दामोदर की कहानियां ऐसे ही सवालों का जवाब तलाशते हुए जीवन के प्रति पाठक को सकारात्मक दष्टिकोण सौंपती हैं। इन कहानियों में घर-परिवार के लोग हैं। समाज है, देश-काल है और है समकालीन भारत का परिवेश। इनके पात्र ऐसे हैं, जो हमसे खुद ही बोलने-बतियाने लगते हैं। किसी लेखक के लिए यह गर्व करने की बात होती है कि उसके पात्र अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व हासिल कर लें।


इनकी कहानी 'फिरौती' में बताया गया है कि सत्ता में बैठे लोग डाकूलुटेरों से कम नहीं। वे भी लूटते हैं, पर लूटने का उनका तरीका भिन्न होता है। 'तेंदुआ' एक प्रतीकात्मक कहानी है, जो बताती है कि खूखार तेंदुए जंगल में ही नहीं, समाज में भी घात लगाकर बैठे हैं। मुंबई में अक्सर होने वाली जानलेवा बारिश से जुड़ी कई कहानियां खड़से ने लिखी हैं। 'गाज' में झोपड़पट्टी में रहने वाली औरत की कथा है, जिसे इस बात की चिंता नहीं कि पटरियां पानी में डूबी हुई और ट्रेनें घंटों से रुकी षड़ी हैं। वह तो खुश है कि उसे ऊपर वाले की दया से पीने का शुद्ध पानी मिल रहा है। सुबह तो हुई' में बारिश में फंसी तीन स्त्रियों के मन की ऊहापोह और आशंकाएं चित्रित हुई हैं। इनकी कहानी 'साहब कब आएंगे मां' में गरीब और सीधी-साधी औरत की दारुण यातना को वाणी मिली है, जिसमें उसके आगे कुछ टुकड़े फेंककर लोग स्वार्थ की पूर्ति के लिए उसका इस्तेमाल करते रहते हैं। खड़से की कहानी 'बगुले' उन लंपट अधिकारियों की कथा है, जो बड़ी बेशर्मी से महिला सहकर्मियों को अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं। सीढ़ियों के बीच' मनुष्य के भीतर बैठे उस राक्षस की कथा है, जो उसे दुष्कर्म के लिए प्रेरित करता रहता है। रेत की प्यास' विश्वास-अविश्वास पर टिके पति-पत्नी संबंधों को प्रत्यक्ष करती है तो 'छड़ी' पिता की पवित्र स्मृति कथा-सी बन गयी है। दामोदर खड़से की कहानियां जटिलता से मुक्त ऐसी कहानियां हैं, जिनका शिल्प सहज है और भाषा सरल, जिसके जरिये वे छोटीछोटी कहानियों से बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं।


किसी लेखक ने सृजन में तीस-चालीस साल खपाकर दस-बीस किताबें लिखी हों और कोई पाठक चाहे कि वह उस लेखक को समग्रता में पढ़ सके तो उसकी सारी किताबें शायद ही कहीं मिल सकें। ऐसे में उसके सृजन और जीवन पर केंद्रित कोई किताब मिल जाए तो सोने में सोहागा जैसा हो जाता है, लेकिन ऐसा प्रायः हो नहीं पाता। होता भी है तो सितारे लेखकों के जीवन और सुजन पर ही। दामोदर खड़से हिंदी के वैसे ही लेखकों में से एक हैं, जिनको समग्रता में पेश करने की कोशिश डॉ। सुनील देवधर और राजेंद्र श्रीवास्तव ने 'कागज की जमीन पर' जैसे ग्रंथ के जरिये की है। इस ग्रंथ में हरिनारायण व्यास, मधुकर सिंह, सूर्यकांत नागर, राजकुमार गौतम, आलोक भट्टाचार्य, अशोक गुजराती, ओमप्रकाश शर्मा, शशिकला राय और प्रबोध गोविल जैसे तीन दर्जन से अधिक लेखकों ने डॉ। खड़से के जीवन और साहित्य का बहुकोणीय विवेचन किया है। किताब के पत्र खंड में निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, प्रभाकर श्रोत्रिय, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', शंकरदयाल सिंह, बालकवि बैरागी, दया पवार, सूर्यबाला, शंकर पुणतांबेकर, शिवमूर्ति, भाऊ समर्थ, तेजेंद्र शर्मा, बलराम, रूपर्ट स्नेल, सूरज प्रकाश, हरिसुमन बिष्ट, रामकुमार कृषक, भारत यायावर और घनश्याम अग्रवाल जैसे साठ से अधिक लोगों के खड़से को लिखे गए पत्र शामिल हैं और अंत में दिए गए हैं दामोदर खड़से के साथ सौ से अधिक लोगों के छायाचित्र, जिनके जरिये भी उनके जीवन को देखा जा सकता है।


'तार सप्तक' के दूसरे खंड के कवि हरिनारायण व्यास ने इस किताब के पहले ही आलेख में लिखा है कि दामोदर खड़से अजातशत्रु मानुष हैं, अत्यंत सौम्य और सात्विक विचारों के व्यक्ति। यह उनकी विशेषता है कि वे किसी को छोटा नहीं समझते। समदर्शी व्यक्ति हैं और हैं चलती-फिरती इन्सानियत। वे संस्कृत के 'सुहृद' शब्द की मूर्ति लगते हैं। वे आपको कभी हताश और निराश नहीं होने देते। अत्यंत सौम्य और सरल यह व्यक्ति सज्जनता की पराकाष्ठा है, लेकिन जब अपने सृजन में व्यंग्य का सहारा लेता है तो उसके तेज और तर्रार शब्द सामाजिक ढोंग को नश्तर की तरह छील देते हैं और जब वह करुणा विमलित होता है तो आम आदमी के लिए पाठक का मन करुणा में डूबने लगता है।


दामोदर खड़से की कहानियों के बारे में व्यास जी कहते हैं कि इनकी कहानियां वास्तविक जीवन के निकट और इतनी स्वाभाविक हैं कि पाठक को कभी लगता ही नहीं कि वह किसी अबूझ मानसिकता से जूझ रहा है। कहानियों में आज के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और घर-बाहर के सभी संदर्भ बड़ी गहराई से जुड़े रहते हैं। मनुष्य का मनुष्य के प्रति गहरा लगाव उनकी कहानी 'जन्मांतर गाथा' में देखा जा सकता है। ‘गंध' में नफरत का कारण और प्रभाव दिखाया गया है तो 'आखिर वह एक नदी थी' में विधवा मां के प्रेम का मार्मिक चित्रण हुआ है। 'मुहाने पर' में मेहनतकश ग्रामीण के शहर आने और संघर्ष करने की कथा है। खड़से की कहानियों की भाषा सरल किंतु छाप छोड़ने वाली है। घटनाक्रम, वातावरण और स्थानों का चित्रण वे इस खूबी से करते हैं कि पाठक को लगने लगता है कि वह पढ़ नहीं, बल्कि सब कुछ घटित होते हुए देख रहा है और उस परिवेश का एक हिस्सा भी है। इस तरह देखें तो खड़से एक अच्छे मनुष्य और बहुत अच्छे कथाकार ठहरते हैं, जिनके पांच कहानी संग्रहभटकते कोलंबस, पार्टनर, आखिर वह एक नदी थी, जन्मांतर गाथा तथा इस जंगल में छपे हैं, जो अब 'संपूर्ण कहानियां' के रूप में भी उपलब्ध हैं। दो उपन्यास-काला सूरज और भगदड़ भी आ चुके हैं। 'एक सागर और' यात्रावृत्तांत है तो उनकी भेंटवार्ताएं 'जीवित सपनों का यात्री' में संग्रहीत हैं। इनके अलावा खड़से ने मराठी की दो दर्जन चर्चित कृतियों का हिंदी अनुवाद भी किया है। दामोदर खड़से का कथा साहित्य महत्वपूर्ण है, लेकिन अनेक लोग उन्हें बहुत अच्छा कवि मानते हैं।


कवि प्रवर लीलाधर मंडलोई लिखते हैं कि दामोदर खड़से अत्यंत संवेदनशील कवि हैं, यह 'तुम लिखो कविता' पढ़कर पता चलता है। यह एक लंबी और भव्य प्रेम कविता है। कविता के लिए इस कठिन दौर में यह एक आह्वान है, जिसमें कविता को बचाने का आमंत्रण है। खड़से की इस कविता में समूची सृष्टि के प्रति अद्भुत प्रेम प्रार्थनाओं की दीर्घ श्रृंखला है, जिसमें तमाम तत्वों, वस्तुओं, प्रसंगों और जीवन के आयामों को कविता में उकेरा गया है। मानवीय संबंधों की विरल उष्मा में डूबी यह कविता स्वर, संगीत, रंग, ध्वनि, रूप और मौन को अपने भीतर समेट लेने का सार्थक जतन करती है। 'तुम लिखो कविता' के संबोधन शिल्प में यह दीर्घ मनुहार भी है कि कविता में ही संभव है जीवन को बचा पाना। दामोदर का कवि हिंसक और बर्बर समय के बरक्स कविता में प्रेम की स्थापना को ऐसी कोशिश के रूप में देखता है कि इस दुनिया को पुनः सुंदर और बेहतर बनाया जा सके। यह कविता महाआख्यान रचने के दरवाजे पर मानो अपने होने का स्वप्न देखती है।


'तुम लिखो कविता' जैसा ही है खड़से का कविता संग्रह ‘सन्नाटे में रोशनी', जिसके बारे में सुनील देवधर ने लिखा है कि दामोदर खड़से अपनी कविता से मंत्र फूंकते हैं, सोचने-विचारने पर विवश करते हैं, लेकिन आधुनिक विज्ञानबोध के कारण अनास्थावादी प्रवृत्ति के भी कई स्वर उनकी कविताओं में उभरते हैं। इसी तरह खड़से के तीसरे कविता संग्रह 'अब वहां घोंसले हैं' पर टिप्पणी करते हुए कैलाश सेंगर लिखते हैं कि दामोदर के इस संग्रह की कविताएं सीधी, सहज और सरल हैं, सहज ही धोकर सहजता से पहनी गयी कमीज की तरह। ऐसी कमीज, जिसमें प्रेस करने की भी जरूरत नहीं होती, न ही यह जागरूकताबोध कि बिना प्रेस की हुई कमीज पहने देखकर लोग क्या कहेंगे? इसीलिए इन कविताओं में अपनापन भरा हुआ है। सिर्फ इस गुण के लिए भी इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि आज के जीवन में सबसे ज्यादा जो चीज छूट रही है, वह अपनापन ही तो है ! अनेक सर्जकों की इन दलीलों से निष्कर्ष यह निकला कि दामोदर खड़से जितने बड़े कथाकार हैं, उतने ही बड़े कवि भी। शायद इसीलिए भावना प्रकाशन ने दामोदर खड़से की 'संपूर्ण कहानियां' एक जिल्द में प्रकाशित करना जरूरी समझा, जिसमें इनकी साठ कहानियां संग्रहीत हैं।


दामोदर की श्रेष्ठ कहानियों का मेरा चुनाव कुछ यों होगा : गौरैया को तो गुस्सा नहीं आता, साहब फिर कब आएंगे मां, आखिर वह एक नदी थी, मुहाने पर, उखड़े पहिए, गाज, जन्मांतर गाथा, बोनस, गंध, लहरों के बीच, पार्टनर, केकड़ा, लौटते हुए, फिरौती, इस जंगल में, सुबह तो हुई, छड़ी, रेत की प्यास, बगुले, तेंदुआ, चुभता हुआ घोंसला, भटकती राख, पगडंडियां, कोहरे की परत, मौसम खराब है, अनचाहे मोड़ और 'इंद्रप्रस्थ भारती' के जनवरी, 2014 के अंक में प्रकाशित कहानी 'यह भी सच है'। दामोदर खडसे की कथायात्रा के आरंभिक सिरे को छना हो तो सन् 1978 में 'कादंबिनी' में छपी उनकी कहानी 'चुभता हुआ घोंसला' को पढ़ना पड़ेगा। तभी हमने संपादित संकलन 'काफिला' में उनकी कहानी 'भटकते कोलंबस' छापी थी। इसी नाम से इनका संग्रह भी छपा है।


राज कमल को लोग अच्छे आदमी और भले आर्टिस्ट के रूप में जानते हैं। फरवरी, 1995 के 'वागर्थ' में छपी कहानी 'पहचान' से राज कमल ने अपनी एक नई पहचान बनायी, एक कहानीकार की पहचान । रामकुमार, प्रभु जोशी, अवधेश कुमार और हरिपाल त्यागी जैसे कलाकार साहित्यिकों की कड़ी में अब एक नाम और जुड़ गया है- राज कमल । इनकी कहानी 'सलीब पर सदी' इनके श्रेष्ठ कथाकार बन जाने की गवाही देती है। प्रसन्नता की बात है कि इसी नाम से आए इनके पहले संग्रह में इनकी नौ कहानियां- 'हुंडी', 'डिलीवरी', 'लिफ्ट से नहीं', 'मंत्र', 'माई का थान', 'कारज', 'उम्मीद से', 'पहचान' और 'सलीब पर सदी' संग्रहीत हैं।


एक आर्टिस्ट के रूप में शुरू होने से पहले ही राज कमल ने कहानियां लिखना शुरू कर दिया था, 1969-70 के आसपास। ठीक और ठीक इन्हीं दिनों हमारी भी पहली कहानी छपी थी। इस रूप में राज कमल मेरे समकालीन ठहरते हैं। पहली कहानी लिखने के कोई दस बरस बाद मेरा पहला संग्रह छप गया था, लेकिन राज कमल का संग्रह लिखना शुरू करने के कोई सत्ताइस बरस बाद छपा।


राज कमल के संग्रह 'सलीब पर सदी' में 'पहचान', 'माई का थान' और 'सलीब पर सदी' जैसी उनकी श्रेष्ठ सर्जनाएं उपस्थित हैं। ये कहानियां औसत कहानियां नहीं हैं। इन्हें बीसवीं सदी के आखिरी दशक की श्रेष्ठ हिंदी कहानियों में निःसंकोच शुमार किया जा सकता है, जो भारतीय समाज और मनुष्य के इतने जीवंत चित्र पेश करती हैं कि इतिहास लिख रहा कोई इतिहासकार इनकी मदद ले सकता है और इनके सहारे कोई समाजशास्त्री चाहे तो इस काल का दस्तावेज तैयार कर ले। देश और काल इन कहानियों में इतना मुखर है कि दुनिया में इन्हें कहीं भी रख दीजिए, ये भारतीय कहानी के रूप में अलग से पहचान ली जाएंगी। वह चाहे कृष्णा सोबती और भीष्म साहनी हों या जगदीश चंद्र और तरसेम गुजराल, पंजाब की धरती की महक इनकी हिंदी रचनाओं में सर्वत्र मौजूद है, जैसे जगदंबाप्रसाद दीक्षित, चित्रा मुद्गल और दामोदर खड़से की रचनाओं में महाराष्ट्र की सुवास। ऐसे ही राज कमल की कहानियों में जगह-जगह पंजाबियत के दर्शन होते हैं, हालांकि वे पंजाबी नहीं हैं, पर पंजाब का लोक जीवन और दर्शन उनके लेखन को हर-हमेश तरंगायित किए रहता है। यह शायद उनकी पंजाबी प्रेयसी-पत्नी के संग-साथ का प्रभाव है और यह कोई बुरी बात नहीं है। हिंदी भाषा और साहित्य में प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों का जितना जल मिले, उतना ही अच्छा है। अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर उग रही हिंदी की समृद्धि इसी मेल-मिलाप का परिणाम है। इस संदर्भ में राज कमल जैसे कथाकार के संग्रह 'सलीब पर सदी' की रचनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।


'सलीब पर सदी' कहानी के नायक श्रीनाथ बाबू महज एक व्यक्ति नहीं हैं, वे प्रतिनिधि हैं शहरी मध्यवर्ग की उस पीढ़ी के, जिसके जीवन मूल्यों को नई पीढ़ी का उनका पुत्र चंद्रकांत सहेजना-संभालना नहीं चाहता, खासकर अपनी पत्नी की इच्छाओं और चाहतों के चलते। बहू-बेटे के लिए श्रीनाथ बाबू महज एक कबाड़ हैं, घर के बाकी तमाम कबाड़ की तरह, जिससे वे दोनों मुक्ति चाहते हैं ताकि उनका नया जीवन शुरू हो सके, मानो श्रीनाथ बाबू के जीवन के अंत से ही उनके पुत्र के जीवन का स्वर्णिम आरंभ होगा। तो यह सूरतेहाल है रीत-बीत रहे भारतीय मनुष्य का, उसके संस्कारों और जीवन मूल्यों का, जिसकी गति समाप्तप्राय है और कहानी के अंत में हम पाते हैं कि श्रीनाथ बाबू तो वास्तव में ही गतिशेष हो गए। इसे सद्गति कहें, चाहे दुर्गति, लेकिन यह उदारीकृत समाज व्यवस्था और भूमंडलीकरण का प्रसाद है, जिसे पाकर श्रीनाथ बाबू जैसे करोड़ों करोड़ भारतीय इस असार संसार से विदा हो रहे हैं। इस कहानी में राज कमल का कथा कहने का अंदाज तो पारंपरिक है, लेकिन ट्रीटमेंट नया। दीपदान के बहाने जादुई यथार्थवाद की छौंकबघार है तो प्रभावान्विति में उत्तर आधुनिकता के दर्शन भी। अगर आप मनोहर श्याम जोशी और काशीनाथ सिंह जैसी किस्सागोई के मुरीद हों तो वह भी इस कहानी में भरपूर है। श्रीनाथ बाबू का हस्र पाठक को ऐसे सन्नाटे में छोड़ता है, जहां न कोई आह है, न कोई आहट, बस एक बिलबिलाहट है कि इन हालात में कोई बूढ़ा करे भी तो आखिर क्या करे?


'पहचान' या 'सलीब पर सदी' जैसी कहानियां यों ही बैठे-ठाले नहीं लिख ली जाती और साहित्य में अंधों के हाथ बटेरें भी नहीं लगा करतीं। इसके लिए नित-निरंतर लेखन-अभ्यास की जरूरत होती है। राज कमल अपने कथा कौशल का विकास करते-करते क्रमशः इस ऊंचाई पर पहुंचे हैं। भारतीय मनुष्य की पहचान के संकट से टकराते-टकराते ‘पहचान' जैसी कहानी लिखकर आर्टिस्ट होने की अपनी पहचान से अलग कथाकार की एक नई पहचान बना बैठे और 'माई का थान' कहानी में पाठकों को यह बता पाने में सफल हुए कि जिस झोपड़पट्टी जीवन के राग-द्वेष, हास-परिहास और संगति-विसंगति वे बयान कर रहे हैं, उस जीवन की गहरी जानकारी उन्हें है। राज कमल अपनी ज्यादातर कहानियों में इस बात का सिक्का जमा लेते हैं कि जो कुछ वे बता रहे हैं, वह उनका अपना बहुत करीब का जाना-पहचाना मसला है। 'माई का थान' एक लोक गायक के संघर्षपूर्ण जीवन की अविस्मरणीय कहानी है, जो सहसा फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कहानी 'रसप्रिया' की याद ताजा कर देती है। झोपड़पट्टी जीवन के जरिए इस कहानी में राज कमल हमें जिस आंचलिकता से रूबरू कराते हैं, वह अद्भुत है। राजकमल का दूसरा संग्रह 'उलझे रेशम के बीच' तथा उपन्यास 'फिर भी शेष' छपे और सराहे गए।


पंजाब से बाहर के कथाकार की कलम से पंजाब संकट पर लिखी गई 'पहचान' जैसी कहानी पढ़कर पाठक सन्न रह जाता है। इतनी बड़ी समस्या का इतना सूक्ष्म अंकन, इतनी बारीक बुनावट और इतना प्रभावशाली आलोड़न-विलोड़न। नहीं, ऐसी कहानी लिखने वाली कलम साधारण नहीं हो सकती। अत्यंत साधारणसे दिखने वाले कथाकार राज कमल की कलम से निकली यह एक असाधारण कहानी है, जो भारतीय उपमहाद्वीप की नियति से हमारा साक्षात्कार करा देती है। इस कहानी के समाज और समय में जैसे बलबले उठे हैं, वैसे ही भारत विभाजन के दौर में भी उठे थे। सामान्य आदमी को धर्मांधता की भट्ठी में तब भी ऐसे ही झोंका गया था, जिसे मंटो और कुर्रतुलऐन हैदर जैसे फनकारों की उर्दू रचनाओं में देखा जा सकता है तो भीष्म साहनी जैसे हिंदी कथाकारों में भी। अयोध्या संकट का संकेत इसी तरह राज कमल की कहानी 'माई का थान' में है, लेकिन सिर्फ संकेत है, कोई समाधान नहीं। कथाकार संकेत ही कर सकता है, कभी सूक्ष्म, कभी स्थूल, लेकिन वह समाधान नहीं दे सकता। राज कमल ने भी और कुछ नहीं किया, सिर्फ संकेत दिया है। राज कमल ने महज कुछ समस्याएं उठाई हैं और उठाए हैं कुछ सवाल, जिनके जवाब समाज को ढूंढने हैं।


टाइम्स ऑफ इंडिया के कला विभाग से संबद्ध रहे राज कमल से 'नवभारत टाइम्स' के दिनों में आत्मीयता स्थापित हुई तो फिर वह बढ़ती चली गयी। हमारे साथ ही समय पूर्व स्वैच्छिक अवकाश लेने को सन्नद्ध हो गए राज कमल को हमने कुछ तर्क देकर रोक दिया, लेकिन ठीक एक महीने बाद हमारे घर आकर चाय पीते हुए बड़ी गंभीरता से बोले, "आपकी बात मानकर उस दिन तो रुक गया था, लेकिन आज 'त्यागपत्र' दे आया हूं। अब कुछ मत कहना!"


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