दो शब्द


ईरान से लौटकर मुझे लगा कि यात्रा संस्मरण लिखने से अच्छा यह रहेगा कि मैं ऐसा कुछ लिखू जो ईरान की आत्मा से जुड़ा हुआ हो, जिसमें ज़िन्दगी भी हो, रोचकता भी हो, और ईरान के रीति-रिवाज़ों से लिपटी हुई उसकी सांस्कृतिक काया भी हो। जिस तरह 'ईरान' शब्द मेरे लिये नया नहीं था, उसी प्रकार फ़ारसी साहित्य भी। हाफिज के नग़मे, मौलाना रूमी का सूफी दर्शन, सादी और निज़ामी की शायरी की ताज़गी ने मुझे सदा यही बताया कि प्रकृति ने अपना यह उपहार बड़ी दरियादिली के साथ ईरानवासियों को प्रदान किया है। इसी कारण आज भी हर दूसरा ईरानी और कुछ हो या न हो, कवि ज़रूर होता है। ईरान का पुराना चित्र, जो लोगों के मस्तिष्क में अंकित है, वह है उमर ख़य्याम की रुबाइयों में झलकती मदिरा और कल की चिन्ता से मुक्त मानव। यदि किसी ने फ़ारसी साहित्य का अध्ययन उमर ख़य्याम के अतिरिक्त भी किया है तो उसके दिमाग़ में तो ईरान का एक अजीबोगरीब ही चित्र उभरता है, कि ईरान केवल जज़्बात व एहसासात का नाम है।


बहरहाल, मैं इसी उम्मीद से वहाँ गयी थी कि ईरान का अपना एक विशेष मिज़ाज, जो शायराना है, और वह संस्कृति जिसमें भारत के विद्वान् अपनी छाया देखते हैं, देखने को मिलेंगे। पर ऐसा कुछ भी न दीखा। हवाई अड्डे से मेहमानखाने तक के रास्ते को देखकर ही मेरे विचारों पर ओस पड़ गयी। जो विचार कई बरसों से मेरे दिलो-दिमाग़ में ईरान के लिए पल रहे थे, एकदम से दम तोड़ गये और लगा कि ईरान की धरती पर यूरोप के किसी देश ने अपना डेरा-खेमा डाल रखा हो। सारा उत्साह जाता रहा। खट्टे मन से सोचने लगी कि “मैं कोई यूरोप देखने थोड़े ही आयी थी।" लेकिन मैं इतनी जल्दी हार माननेवाली नहीं थी, बल्कि प्राचीन ईरान को ढूँढ़ने की जिज्ञासा मुझमें दिन-प्रति-दिन प्रबल होती गयी और मैं अपने विचारों में बसे ईरान के पदचिह्नों को खोजने के लिए ईरान के गली-कूचों में फिरने लगी।


तीन मास के इस अल्पकाल में ईरान के कई शहर देखे जो सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण थे। इसके साथ ही मैं ईरानवासियों से मिलती-जुलती भी रही, जिनमें केवल एक तबके के लोग नहीं थे, बल्कि विद्वान् भी थे, लेखक व कवि भी थे, और उन्हीं में दफ्तर में काम करनेवाले क्लर्कों और घरों में पुताई करनेवाले मजदूरों के कुटुम्ब भी शामिल थे। मुझे सुविधा यह थी कि मैं फ़ारसी बोल लेती हूँ। इस कारण देखने के साथ ही मैंने उनके आचार-विचार, व्यवहार, रहनसहन को नज़दीक से समझा और महसूस किया, और यहाँ पर पहुंचकर मुझे लगा कि ईरान भारतवर्ष से अलग नहीं है बल्कि हमारे विचारों और हमारी मर्यादाओं का स्रोत एक ही है। अन्तर केवल ऊपरी आवरण का है। ईरान ने समय और आवश्यकताओं के साथ अपने को विदेशी प्रसाधनों से सजा ज़रूर लिया है, पर आज भी उसकी आत्मा अन्दर से वैसी ही ईरानी है जो बरसों पहले थी।


यह सब बताने का मेरा तात्पर्य केवल इतना है कि आखिर जब ईरान का साहित्य, जो इतना मालामाल है, उसके दामन से मैंने ये क़िस्से ही क्यों चुने, और कुछ न करके मैंने इसी काम को प्राथमिकता क्यों दी? भारत लौटने के बाद खुद का, और लोगों का इसरार था कि कुछ ईरान के बारे में लिखूं। नया अनुभव लिखने से पहले सोचना पड़ा कि क्या लिखूं–उस ऊपरी ‘खोल' को जो ईरान के बारे में हमारे सामने है, उसे और मज़बूत करूं या फिर जिस ईरान को देखने की आशा में गयी थी उसकी प्राप्ति को आपके सामने पेश करूँ? क्योंकि जो कुछ इन क़िस्सों में है वह केवल गुज़रे कल की बात नहीं है बल्कि वे किरदार आज भी उसी प्रकार ईरान में मौजूद हैं, अन्तर केवल समय का है।


इस कारण कुछ और लिखकर बताने से अच्छा यही समझा कि बरसों से लोगों के सीनों में जमा इस खज़ाने का कुछ अंश आपके सामने प्रस्तुत करूँ।


यह पूरी किताब तीन तरह के क़िस्सों में बँटी हुई है। एक भाग में दर्शन का चिन्तन है, दूसरे भाग में राजाओं के माध्यम से सांसारिक व्यावहारिकता का ज्ञान है, और तीसरे क़िस्से वे हैं जो मूलतः परियों व हब्शियों से सम्बन्धित हैं, जिनके द्वारा यह बताया गया है कि धरती का सबसे शक्तिशाली और महिमामय प्राणी ‘मनुष्य' है जो दुष्कर-से-दुष्कर, कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी अपनी विजय-पताका लहराता है। केवल एक क़िस्सा जानवरों पर आधारित है जिसमें रोचकता के साथ ही व्यंग्य का भी पुट है।


ये सारे क़िस्से खुरासानी बोली में थे। फ़ारसी जानने के बावजूद उनके इशारों व मुहावरों को समझना कठिन काम था, क्योंकि ये चीजें शब्दकोश में भी नहीं मिलतीं। उन्हें केवल कोई ईरानी ही बता सकता है। इस कारण इन क़िस्सों को हिन्दी का लिबास पहनाने में दोहरी मेहनत पड़ी।


ये क़िस्से जैसे सुने गये थे, उसी प्रकार बिना किसी इज़ाफ़े के श्री मोहसिन मीहनदस्त ने इन्हें कलमबन्द किया था। जब मैंने ये क़िस्से पढ़े तो लगा, मैं इन क़िस्सों को लताफत देने के लिए अपना कुछ योगदान देकर इन्हें अधिक रोचक बना सकती हूँ, फिर यह ख़्याल गुज़रा कि ऐसा करने से उनमें अपनेपन का एहसास ज़रूर ज़्यादा आ जायगा पर उसका अपना ‘स्वयं' का अन्दाज़ मर जायगा। इस कारण मैंने कोशिश यही की है कि बिना किसी इज़ाफ़े के ये क़िस्से ज्यों-के-त्यों आप तक पहुँचाऊँ, साथ ही इस बात को ध्यान में रखूं कि उनका अर्थ वही हो जो क़िस्सागो कहना चाहता है। चन्द क़िस्से ऐसे हैं जो एकदम से शुरू हो जाते हैं और अचानक ही समाप्त भी हो जाते हैं। ये पढ़नेवाले को एक विशेष स्थिति में छोड़ते हैं कि वे सोचने के लिए मज़बूर हो जाते हैं कि आखिर यह हुआ क्या? और यही इन क़िस्सों का लुत्फ़ है कि ये न रवायती ढंग से शुरू होते हैं, न ख़त्म।


इन क़िस्सों के चयन में श्री मोहसिन मीहनदस्त का मुझे बड़ा सहयोग मिला। ये ईरान के जाने-माने कवि हैं जिनका शोधकार्य लोक-साहित्य पर है। उन्होंने स्वयं खुरासान के गाँवों में घूमकर किसानों, रसोइयों, मज़दूरों, फकीरों व स्त्रियों से सुनकर पाँच सौ क़िस्से जमा किये जो मिनिस्टरी आफ आर्ट एण्ड कल्चर के एन्थ्रापालोजी डिपार्टमेण्ट से किताब के रूप में छप चुके हैं। उन्हीं क़िस्सों में से चन्द क़िस्से आपके सामने हैं।


श्री अली फकीही की मैं आभारी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक में हर प्रकार का सहयोग व सहायता दी है।


डॉ0 अमीर हसन आबदी का मैं शुक्रिया अदा करती हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के बारे में प्रस्तावना रूप में दो शब्द लिखे। अन्त में डॉ० नामवर सिंह की कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस किताब के सिलसिले में अपना मूल्यवान् समय और सुझाव दिये।



नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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