किस्सा जाम का


सुलेमान के समीप बैठी हुई बिलक़ीस ने कहा, “सुलेमान, अगर तुम मुझ तक पहुँचना चाहते हो तो मुझे एक जाम बनवा दो जो मिट्टी का हो, मगर इन्सान की मिट्टी का बना हुआ न हो।"


सुलेमान ने अपनी प्रेयसी की ओर देखा, उसकी विचित्र इच्छा सुनी, और उसके समीप से उठकर दरबार में चले गये।


मन्त्रियों के बीच बैठे सुलेमान बिलक़ीस के इरादे को हर प्रकार से रूप देना चाह रहे थे। वज़ीर सुलेमान के भाव को समझते थे और उसके लिए कुछ भी कर सकते थे।


पूरा मन्त्रिमण्डल ही ऐसी मिट्टी की खोज में चल पड़ा जो इन्सान की मिट्टी न हो। चलते-चलते वे कुहेक़ाफ़ के उस पार जा उतरे और एक स्थान उचित जानकर ज़मीन खोदने लगे-खोदते गये, खोदते गये, यहाँ तक कि धरती के सीने की सात परतों को खोद डाला। आठवीं परत की मिट्टी एकदम इन्सान के खून की तरह लाल थी। सब समझ गये कि यह वही मिट्टी है जो सुलेमान चाहते हैं।


सुलेमान मिट्टी देखकर प्रसन्न हो गये और फ़ौरन आज्ञा दी कि इस मिट्टी से ऐसा बेमिसाल जाम बनाओ जैसा आगे कभी न बन पाये।


कुम्हारों की फौज़-की-फौज़ बैठ गयी। खून-पसीने से बने उस जाम की छटा ही निराली थी। किनारे से अन्दर पेंदे तक ऐसा काला जैसे पालने से क़ब्र तक की, मनुष्य की ज़िन्दगी और बाहर सात रंगों के फूलों व पत्तियों से सुसज्जित। सुलेमान ने उस प्याले में न सिर्फ सुन्दरता देखी, बल्कि अपनी इच्छा की पूर्ति भी देखी।


उस जाम को उठाये वे बिलक़ीस के पास पहुँचे और कहा, “बिलक़ीस, देखो यह जाम!"


“आह! बिलकुल वैसा ही है जैसा मैं चाहती थी," बिलक़ीस ने जाम को चारों तरफ से घुमाकर देखते हुए कहा।


सुलेमान ने जाम को बिलक़ीस के हाथों से ले उसे ऊपर तक मदिरा से भर दिया और बिलक़ीस की ओर बढ़ाया। बिलक़ीस ने जाम ओंठों के साथ लगाया और जैसे ही चाहा कि पहला पूँट भरे, वैसे ही जाम से आवाज़ आयी, “सुनो बिलक़ीस, मैं भी तुम्हारी ही तरह कभी अपने सुलेमान के समीप थी।"


बिलक़ीस यह सुनते ही मूर्छित हो गयी।


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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