मंजु महिमा भटनागर- एक सजग साहित्यकार


लेखक- रामकिशोर मेहता, अहमदाबाद,  मो. 9408230881


मंजु महिमा जी के साहित्य से मेरा पहला परिचय उनकी हिन्दी साहित्य परिषद्, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘बोनसाई संवेदनाओं के सूरजमुखी’ में रोटी, अचार,प्याज आदि पर लिखी रचनाओं से हुआ। मेरे लिए आश्चर्यजनक थीं, वे कविताएँ। साहित्य में यह अभिनव प्रयोग था। उदाहरणार्थ –


प्याज की तरह मेरी ज़िन्दगी में,/दर्द की परत दर परत/ चढ़ती चली गईं,/ आज जब मैं इसे छीलने बैठती हूँ, / तो आँसू निकल आते हैं।इसी प्रकार – ‘ज़िंदगी के खट्टे-मीठे अहसासों को,/ अचार की तरह सहेज कर,/रख लिया है मैंने,/यादों के मर्तबान में, / अब जब भी ज़िंदगी बेमज़ा होने लगती है,/ मैं इन्हें निकाल लिया करती हूँ।’ –मंजु महिमा


[ऐसी रचनाओं को पढ़ने के बाद रचनाकार से मिलने की जिज्ञासा मन में प्रगाढ़ हो गई। पता लगा कि वे कुछ समय से शहर से बाहर हैं। बहुत समय और कोशिशों के बाद साहित्यिक मित्र श्रीमती मधु जी सोसी जी के यहाँ एक छोटी सी गोष्ठी में उनसे मुलाक़ात हो ही गई।]


एक नाज़ुक सी तीखे नाक-नक्श वाली, सौम्य, शांत महिला को कवयित्री रूप में देख मेरे मन में उनके बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा और बढ़ गई। उनकी चुप्पी देख एक सामान्य गृहिणी का सा आभास हो रहा था, पर जब उनकी  खनकती आवाज़ में काव्य-पाठ सुना तो यह ग़लतफ़हमी भी दूर होगई। फिर तो इनसे अलग-अलग स्थलों पर होने वाली गोष्ठियों में मिलना होता रहा और उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का कुछ-कुछ आभास होने लगा। समय समय पर उनसे हुई बातचीत द्वारा उनकी जीवनयात्रा और रचना प्रक्रिया के बारे में जाना और उनकी पुस्तकों को भी पढ़ा, जिसमें उनका व्यक्तित्व झलकता है।


व्यक्तित्व एवं कृतित्व


कहा जाता है कि विलक्षण व्यक्ति विलक्षण स्थल पर पैदा होते हैं। उन्होंने बताया कि उनका जन्म पुस्तकालय में हुआ था। यह सुनकर मेरा चौंक जाना स्वभाविक था। मुस्कुराते हुए मंजु महिमा जी ने बताया कि उनके नाना मुंशी हीरालाल जी जालौरी कोटा राजस्थान के जाने-माने व्यक्ति थे और जबरदस्त पुस्तक-प्रेमी थे। वे 6 भाषाओं के जानकार थे और बहुत सशक्त लेखक और अनुवादक भी। उन्होंने अपने घर की तीसरी मंज़िल के कमरे में एक पुस्तकालय बना रखा था जिसका नाम था ‘जालौरी पुस्तकालय’। आज से करीब सवा सौ साल पहले वे अपने इस व्यक्तिगत पुस्तकालय में हर माह करीब 10/- की पुस्तकें विविध विषयों की मंगवाया करते थे। मंजु जी के जन्म के समय जालौरी जी जीवित नहीं थे और उस समय प्रसव अधिकांशत: घर पर ही किसी एकांत कमरे में ही हुआ करते थे, इसलिए इसी कक्ष को उपयुक्त समझा गया। यानी कि मंजु जी ने पैदा होते ही पुस्तकों से दोस्ती कर ली थी और वह दिन था 30 जुलाई 1948 का। 


मंजु जी की माताजी श्रीमती महिमामयी (जालौरी) बक्षी उस समय कोटा की गिनी-चुनी ग्रेजुएट महिलाओं में से एक थीं। बाद में वे अपनी संघर्षमयी यात्रा के बाद भी बी।एड करके हाई स्कूल की प्रिंसिपल बनी। पिता श्री सज्जन सिंह बक्षी मेडिसिन के डॉक्टर थे, बाद में वे राजकीय अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में ‘मेडिकल ज्यूरिस्ट और प्रोफ़ेसर रहे। सुसंस्कृत माता-पिता और उदारवादी विचारधारा वाले परिवार में इनका पालन-पोषण लड़की होने के बावजूद राजकुमारी की तरह हुआ। अध्ययन आदि के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों के लिए भी दोनों की ओर से इन्हें भरपूर प्रोत्साहन मिला। [3 वर्ष की आयु से ही माँ इन्हें छोटी-छोटी कविताएँ सिखाने लगीं थीं और सभी परिवारजनों के मध्य सुनाने के लिए प्रोत्साहित करती रहती थी। 5 वर्ष की आयु में इन्होने स्टेज पर अपनी पहली काव्य-पाठ प्रस्तुति दे दी थी। इसके अतिरिक्त नृत्य,नाटक, मोनो एक्टिंग,वाद-विवाद आदि में भी भाग लेकर कई पुरस्कार प्राप्त किए। स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में उनकी तुकबंदी वाली कविताएँ छपती रहती थीं। साथ ही खेलों से भी यह अछूती नहीं रहीं, टेबल-टेनिस, बेडमिन्टन आदि खेलों में भी ये अपने स्कूल-कॉलेज का प्रधिनिधित्व करती रहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे समय में भी, जब लड़कियों को अधिक नहीं पढ़ने दिया जाता था, घर के ढेरों काम करवाए जाते थे,जल्दी शादियाँ करवा दी जाती थीं, ] मंजु जी को एक सुसंस्कृत, प्रगतिशील सोच और स्नेही पारिवारिक वातावरण मिला जिसने उनके व्यक्तित्व को विकसित करने में सहयोग दिया।


सन 1967 मंजु जी के जीवन में सुनामी लेकर आया, उस समय वे बी.ए. के अंतिम वर्ष में थी कि ईश्वर ने उन्हें माँ की ममता से वंचित कर मातृत्व की देहलीज़ पर खडा कर एक बड़ी चुनौती दे डाली। यह कड़ी परीक्षा का समय था। माँ 5 दिन के शिशु भाई को उनके अंक में डाल दिवंगत हो गईं। उनसे छोटा एक और भाई था जो उनसे 6 वर्ष छोटा था। परिवार में वृद्ध दादी-नानी के सहयोग से इन्होंने इस कठिन समय का सामना किया और अपने नए दायित्व का पालन करने के लिए बहादुरी से कटिबद्ध हो गईं। इसके लिए सभी उन्हें देख चकित थे और प्रशंसा करते हुए प्रोत्साहित भी करते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालते हुए भी,यूनिवर्सिटी में वे सभी गतिविधियों में सक्रीय रहती थीं, उनके लिए वह गर्व का दिन था जब उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाडिया जी के करकमलों से सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए स्वर्ण-पदक प्राप्त हुआ। उस समय उन्होंने आँखों में आँसू लिए अपनी पहली साहित्यिक कविता लिखी- तुम न देती जो ये वेदना, पा सकती थी क्या मैं यह चेतना?’ उनके लिए आए कई शादी के प्रस्तावों को वे नकारती रहीं, परिवार के प्रति अपने कर्तव्यबोध के कारण। पर पिता के बहुत अधिक आग्रह और कसम दिला देने पर आप एक जाने-पहचाने परिवार में शादी करने को तैयार हो गईं।


समृद्ध ससुराल और विद्वान श्वसुर जी के प्रोत्साहन के कारण उन्हें वहां काफी बड़ा परिवार होते हुए भी कोई कठिनाई नहीं आई और यहीं से उनके लिखने का भी सिलसिला ज़ारी हो गया। पति होटल लाइन में थे, वे उस समय रामबाग पेलेस होटल में कार्यरत थे और देर रात तक उन्हें रुकना पड़ता था। इसी समय का सदुपयोग मंजु जी, अपने मौलिक विचारों को कलम बद्ध करने में करती रहीं। इसी समय में वे जयपुर आकाशवाणी से भी जुडीं, नाटकों का ऑडिशन टेस्ट भी पास किया और उस समय के प्रसिद्ध नाटक-निर्देशक नंदलाल जी शर्मा के निर्देशन में ‘राय जी का परिवार’ नाटक श्रृंखला में भी भाग लिया, युवावाणी प्रोग्राम का भी संचालन किया, कमर्शियल कार्यक्रमों के प्रसारण में भी अपनी आवाज़ दी, कुछ नाटक भी लिखे जिसमें ‘बाज़ आया मैं तो ‘ नाटक काफी लोकप्रिय हुआ, इसका पुनर्प्रसारण कई वर्षों तक होता रहा। महिला कार्यक्रम में भी इनकी उपस्थिति काव्य-पाठ और नारी-उपयोगी लेखों से बनी रहती थी। इन सबके चलते वे दो पुत्रियों की माँ भी बनी।


सन 1978 में पुन: इनके जीवन में भूचाल आया और फिर से ये दैविक आपदा की शिकार बनीं, इस बार इस काल ने इनके पूज्य श्वसुर और प्यारे पिता को अचानक छीन लिया। दोनों परिवार की जिम्मेदारियों ने फिर कर्तव्यों की ओर उन्मुख कर दिया और साहित्य हवा हो गया। लगभग 10 साल तक इनकी साहित्यिक गतिविधियाँ सोई रहीं, इसी बीच इनका, पति की सर्विस के कारण अहमदाबाद आना हुआ। अस्वस्थ सास की सेवा, बच्चों और भाइयों की पढाई।।इन्हीं सब में समय जाने लगा, पर कविता इन पर कभी कभी हावी हो जाती थी और जिसे ये रात को अँधेरे में ही कुछ कागज़ की चिंदियों पर लिख अपने गद्दे के नीचे डाल देती थीं। उस समय की लिखी इनकी एक कविता ‘अलविदा कविता’ एक कवि ह्रदय गृहिणी की वास्तविक दास्ताँ है। मंजु जी का कहना है कि एक पुरुष के लिए कवि/लेखक बनना आसान है क्योंकि उसको परिवार से, पत्नी से भरपूर सहयोग मिलता है। पर एक स्त्री का कवि–लेखन का दायित्व निभाना बहुत ही कठिन होता है, उसे सहयोग के स्थान पर तंज ही सुनने पड़ते हैं, हर एक के कार्य से निवृत होकर ही वह कलम हाथ में ले पाती है। वे हँसते हुए कुछ शर्माते हुए बताती हैं कि कई बार वे शौचालय को अपना सोचालय बनाने को विवश हो जाती थीं। उनकी ‘अलविदा कविता’ की अंतिम पंक्तियाँ हैं-


इस मुई कविता के कारण ही/आज मेरे गुण,अवगुण में बदल गए हैं,/बहुतेरा समझाया था इसे कि हर काम का समय होता है/यूँही गाहे बगाहे दस्तक नहीं दिया करते,/पर जब यह नहीं मानी तो ले लिया फैसला / टुकड़े-टुकड़े कर मार ही दिया कविता को मैंने,/अब तुम नहीं आओगी ज़हन में, कलम में मेरे,/जबतक कि ये जिम्मेदारियां ख़त्म नहीं हो जातीं,/ मेरी कविता मर रही है...और उसके साथ मेरा कवि ह्रदय भी,/अलविदा.....अलविदा.....अलविदा .....


सन 1987 में एक दिन एक मित्र के साथ इनकी मुलाक़ात गुजरात विद्यापीठ में डॉ. अम्बाशंकर नागर से हो गई। उनका प्रोत्साहन पा जैसे मुरझाए फूल में जैसे जान आगई। उन्होंने एम.फ़िल करने की सलाह दी जिससे वे साहित्य से जुड़ सकें, इसी दौरान हिन्दी साहित्य परिषद् की स्थापना हुई और एक वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में परिषद् ने अलग अलग विधा की पुस्तकों के प्रकाशन का निर्णय लिया और एक विज्ञप्ति प्रसारित कर गुजरात के सभी स्थानों से पांडुलिपि मंगवाई और स्पर्धा रखी। उन दिनों वे एम्।फिल हिन्दी साहित्य में कर रही थीं और अपना लघु शोध डॉ. रामकुमार गुप्तजी के निर्देशन में कर रहीं थी, उनसे प्रोत्साहन पाकर इन्होने अपनी डायरी की धूल झाडी और अपनी छोटी-छोटी रचनाओं को व्यवस्थित कर पांडुलिपि तैयार की और छोटी रचनाएं होने के कारण उस संग्रह का नाम रखा बोनसाई संवेदनाओं के सूरजमुखी मंजु जी बताती हैं कि उन्होंने बहुत डरते डरते यह पांडुलिपि जब सबमिट की तो पहला प्रश्न ही सबका यह था कि यह बोनसाई क्या है? 1989 में यह जापानी भाषा का शब्द सबके लिए नवीन था। आज तो बोनसाई वृक्ष सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। नारी-विमर्श का यह काव्य संग्रह उनकी मौलिक सोच, नवीन प्रतीकों और बिम्बों के आधार पर चयनित हो गया और बाद में एक सर्वे से ज्ञात हुआ कि यह गुजरात का पहला नारी-विमर्श काव्य संग्रह है। इसका विमोचन गुजरात के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम स्वरूप सिंह जी और गुजरात में संस्कृत के प्रकांड विद्वान् शिरोमणि के.का.शास्त्री जी के कर-कमलों द्वारा हुआ।


कर्तृत्व- मंजु जी की प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं-


1)    बोनसाई संवेदनाओं के सूरजमुखी सन 1991 में विमोचित इस संग्रह की कविताएँ तुलनात्मक रूप से अपने आकार में तो छोटी हैं, परन्तु अपने कथ्य में प्रकाशवान एवं मारक हैं। वे सूरजमुखी हैं। उनका मूलस्वर व्यंग्य है। इसकी कविताओं में प्रयुक्त हुए प्रतीक नवीन हैं। एक ताज़ी हवा के झोंके की तरह आते हैं और हमारे मन का ताप हरते हैं। वे प्रयोगशील हैं।इन कविताओं में मंजु महिमा जी ने स्त्री की अनुभूतियों का गहन चित्रण किया है। ये बोनसाई कविताएँ स्त्री-विमर्श में उद्धृत करने योग्य कविताएँ हैं,एक वानगी देखिए- ‘तुम में और मुझ में,/ कोई फर्क नहीं,/ बस एक ही फ़र्क नज़र आता है,/वह है शरीर का,/ और यही एक फर्क/ इतना कुछ कर जाता है, जहाँ तुम सब कुछ पा जाते हो, मेरा ही सब कुछ क्यों खो जाता है।’ इसी तरह मनीप्लांट, त्रिशंकु, उजाले की किरण, ललक, बोनसाई, पेंग्विन, डॉल्फिन आदि ऎसी रचनाएं हैं जिनसे महिमा जी की एक अलग पहचान बनती है। यह संग्रह न केवल अखबारों की सुर्खियाँ बना, वरन समीक्षकों की कसौटी पर भी सराहा गया।


2)    शब्दों के देवदार- बोनसाई संवेदनाओं के शिखर पर पहुँच, मंजु महिमा जी विचारों के पहाड़ों से ‘शब्दों के देवदार’ पर चढ़, कविता के आकाश को छूती हैं। इसमें संग्रहित बहुत सारी रचनाएं अपने आकार में देवदार सी हैं। यह संग्रह आशावादिता से संपन्न है-“....फिर मुझे तो फूटना है/ बनकर झरना/झर-झर का गीत/प्रतिपल गुनगुनाना है। लेकर चलना है,/ दोनों किनारों को अपने साथ,/ गन्दगी को बहाकर ले जाना है। क्यों रहूँ मैं /भयाक्रांत मौन के घेरे में सिमटी? संकोच के झरोखों से झांकती?....”


‘टूटी चप्पल’ कविता में वे एक स्त्री के रूप में पुरुष से पूछती हैं- ‘वक्त ने मेरी चप्पल तोड़ दी है, .... क्या छोड़ कर अपना अहम् करवाने दोगे मुझे अपनी चप्पल ठीक?’ एक कविता ‘अद्भुत प्यार’ में वे लिखती हैं- ‘कितना अद्भुत है /हमारा प्यार,दे दिया मानव ने,अपने ‘जीवन’ में से ‘जी’ इन प्राणियों को /और कर लिया उनका वन अपने नाम।’ –गज़ब की व्यंजना नज़र आती है, इनकी कविताओं में। ‘संस्कृति के बोनसाई’, ‘कलर ब्लाइंड’, ‘कसक’, ‘ढहती दीवारें’, कश्मीर के लिए लिखी कविता ’केसर में डूबी रोटी सा सूरज’, ‘जागरण सुत- नव वर्ष’, ‘चुप क्यों हो साबरमती’ आदि उच्च स्तरीय कविताएँ कही जा सकती हैं। [कई रचनाओं ने मंजु महिमा जी को पुरस्कृत भी करवाया है।] कवि धर्म को वे भूलती नहीं है ‘कसक’ कविता में वे कहती हैं- मैं कैसे अपनी कल्पनाओं को पहना दूं /सतरंगी चूनर /जबकि मुझे नज़र आ रहे हैं/ हर ओर कफ़न ही कफ़न।/ मैं एक कवि हूँ,/ मैं तुम्हें यथार्थ की धरती से दूर नहीं ले जा सकती/ तुम्ही कहो /कैसे मैं भ्रांतियों के बीज बौऊँ तुम्हारे हृदयों में?’ 


इस संग्रह की मुख्य कविता ‘शब्दों के देवदार’ भी आचार्य श्री रघुनाथ भट्ट सा. के शब्दों में कहें तो, ‘....इस कविता में हितेन सहितं की भावना को बड़े सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।’ इसके द्वारा मंजु जी, अपने साथ सभी कवियों का आह्वान करते हुए कहती हैं- ‘आओ,/ तुम भी उगा दो,/ यहाँ कुछ शब्दों के देवदार, ....यूकोलिप्तिस की भाँती /जो समाज की/खांसती छाती से/ बलगम को साफ़ कर सके....’ इस काव्य संग्रह को हिन्दी साहित्य अकादमी गुजरात ने वित्तीय अनुदान हेतु चुनकर सन 2001 में प्रकाशित करवाया था।


3)    हथेलियों में सूरज- सन 2013 में प्रकाशित इस संग्रह में आते आते इनकी कविताएँ परिपक्व एवं गंभीर हो गईं। इन कविताओं में वे स्वप्नदर्शी भी हो गईं। यह कामनाओं और सम्भावनाओं से भरपूर कविताओं का संग्रह है- ‘जी चाहता है, उगा लूं हथेलियों में एक नन्हा सूरज जिसकी किरणें समा जाए मेरी कलम में।’ इस संग्रह में वक्त की धड़कन है, दिल के द्वारे पर प्रेम है और अंतत: प्रकृति भी है। चिड़िया और पेड़ इनके प्रिय विषय रहे हैं। ‘चिड़िया’ के प्रतीक को इन्होने कई रूपों में अभिव्यक्त किया है, कहीं कमजोर व्यक्ति, कहीं स्त्री, कहीं पत्रकार आदि- ‘मेरे बच्चों तुम कभी चिड़िया न बनना।’ वह चिड़िया बनकर मनुष्य के गृह में घुस जाती है, उसके हर बुरे-भले कार्यों की साक्षी भी बनती है, पर उसकी आवाज़ को ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबा दिया जाता है, यह है उसका दर्द। इसमें कवयित्री की कसक अनुभव की जा सकती है। इसमें स्त्री को मुखर बनने के लिए विरोध करने के स्वर,’ न बनाओ मुझे अपनी पतंग’ कविता में दृष्टव्य हैं। मंजु जी ज़िंदगी की सुन्दरतम कला-प्रवीण नर्तकी हैं, जिसे उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से 'नर्तकी' कविता में व्यक्त किया है।इस  संग्रह में अधिकाँश रचनाएं छंदमुक्त हैं,परन्तु रचनाओं में लय है, कुछ रचनाओं में गीतात्मकता भी है। जापानी विधा हायकु में भी आपकी कुछ रचनाएं इस संग्रह में हैं। समष्टि में उनकी रचनाएं एक स्त्री द्वारा, स्त्री के दु;ख, दर्द, संत्रास को समझते हुए, उसकी ऊंची उड़ान की विराट सम्भावनाओं को प्रकट करते हुए स्त्री विमर्श की कविताएँ हैं।


4)    संत कवि आनंदघन और उनकी पदावली- यह मंजु महिमा जी का एक शोध ग्रन्थ है, जो यह दर्शाता है कि उनकी प्रवृति शोध में भी रही है। साहित्य गुदड़ी में छिपे रत्न संत आनंदघन के हिन्दी पदों को हस्तलिखित पांडुलिपि से खोज एकत्र करना और उनकी साहित्यिक व्याख्या करना कम चुनौतीपूर्ण काम नहीं था, जिसे इन्होने डॉ. अम्बाशंकर नागर सा. के मार्गदर्शन में पूरा कर दिखाया और हिन्दी साहित्य अकादमी गुजरात से श्रेष्ठ शोध ग्रन्थ का पुरस्कार भी प्राप्त किया। इसका वितरण भार ‘गुजरात प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ ने वहन किया है। यह भी साहित्यिक शोध ग्रंथ की दृष्टि से काफी प्रशंसनीय रहा। मंजु जी बताती हैं कि इस कार्य में उनके पति श्री सुनिल जी ने भी भरपूर सहयोग दिया।


5)    काव्य-व्यंजन – यह एक डिजिटल पुस्तक है जिसे E-Book भी कहा जाता है। इसमें भी जैसा मैंने प्रारम्भ में बताया था, खाने के व्यंजनों को प्रतीक बनाकर काव्य में परोसा गया है। साहित्य में यह अभिनव प्रयोग है जिसे पहले नहीं देखा-सुना गया है। इसे डिज़िटल कॉफ़ी-टेबल कविताएँ भी कहा जा सकता है, जिन्हें मोबाइल पर फुर्सत के या इंतज़ार के क्षणों में पढ़ा जा सकता है। इसे विदेशों में भी काफी सराहना मिली है।


6)  मंजु महिमा की हस्ताक्षरित कविताएँ- यह भी E-book है, इसमें चित्र के साथ मुक्तक दिए गए हैं और कवयित्री के हस्ताक्षर भी हैं। इसमें भी नवीनता है और एक नया प्रयोग है।


इन सबके अतिरिक्त लगभग 21-22 पुस्तकों में रचनाओं की सहभागिता रही है ।


साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त मंजु जी शैक्षणिक गतिविधियों में भी सक्रीय रहीं हैं। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु पूर्णत: समर्पित रही हैं। अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों से कुछ निवृति पाने के बाद इन्होने विभिन्न स्कूलों में हिन्दी शिक्षण का कार्य भी किया और बालकों में हिन्दी के प्रति प्रेम और रूचि जगाई। हिंदी को प्रयोजनमूलक ढंग से पढाया और बालकों में नाटक, काव्य-पाठ, वाद-विवाद, विज्ञापन लेखन, सम्वाद लेखन जैसे कौशलों का विकास किया साथ ही आधुनिक तकनीक द्वारा जैसे एनिमेटेड प्रोग्राम हिंदी में बनवाकर बालकों को हिन्दी सीखने बोलने में सहायता दी। इतना ही नहीं गुजरात के स्कूलों की शिक्षिकाओं को हिन्दी को रुचिकर माध्यम से पढ़ाने का प्रशिक्षण भी दिया। ये आज भी हिन्दी परामर्शक के रूप में कई स्कूल और संस्थओँ से जुडी हैं और अभी तक करीब 5 हज़ार बहुवैकल्पिक प्रश्न हिंदी-भाषा से सम्बंधित बना चुकी हैं।


बाल-साहित्य लिखने में भी आजकल ये अपना योगदान दे रही हैं, नंदन, चम्पक, बाल किलकारी आदि पत्रिकाओं में बाल-कहानियाँ और कविताएँ प्रकाशित हुई हैं।


राजस्थानी भाषा में अनुवाद, गुजराती से हिन्दी में अनुवाद का कार्य, दो बड़े ग्रंथों का सह-सम्पादन भी कर चुकी हैं।


उपलब्धियों की चर्चा करें तो उन्हें जो पुरस्कार और सम्मान मिले वे संक्षेप इस प्रकार हैं—




  • ’सन डे इंडिया’ द्वारा प्रकाशित भारत की मुख्य 111 लेखिकाओं की सूची में नाम सम्मिलित (4 सित. 2011-सम्पादक अरिंदम चौधरी द्वारा एक सर्वे के अनुसार)

  • हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा श्रेष्ठ शोध-प्रबंध पुरस्कार

  • हिंदी साहित्य परिषद, अहमदाबाद द्वारा काव्य-स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार एवं रजत पदक से सम्मानित  1991

  • साहित्यलोक अहमदाबाद द्वारा  डॉ. आर. सी. वर्मा गौरव पुरस्कार,

  • ‘शब्द निष्ठा सम्मान-2016’ के लिए भारतीय स्तर पर 10वें स्थान पर चयनित एवं पुरस्कृत ’

  • "साहित्य समर्था" त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका द्वारा 'अखिल भारतीय डॉ. कुमुद टिक्कू कविता प्रतियोगिता 2016' हेतु श्रेष्ठ-कविता में रचना पुरस्कृत और सम्मानित।

  • स्टोरी मिरर प्रकाशन द्वारा आयोजित women write प्रतियोगिता में कविता को तीसरा स्थान प्राप्त। 2019

  • युवा उत्कर्ष साहित्य मंच द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान-मई 201

  • ’अनहद कृति-काव्य उन्मेष उत्सव’- विशेष योग्यता सम्मान 2014-15

  • ‘कमल-पत्र पुरस्कार, अंतर्जाल पत्रिकाओं, सामजिक संस्थाओं द्वारा भी हिन्दी-सेवा हेतु कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।




मंजु महिमा, अहमदाबाद,  मो. 9925220177



मंजु महिमा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझाते हुए निसदेह रूप से यह कहा जा सकता है कि वे अपने जीवन में एक सजग साहित्यकार रहीं हैं, उन्होंने वक्त की नब्ज़ को समझा है और उसी के अनुरूप अपनी रचनाओं को आकार दिया है। वे वक्त के साथ चल रहीं है, भावनाओं के साथ उनकी कविताओं में अपने देश-समाज और वैश्विक समस्याओं के लिए चिंतन भी नज़र आता है। सरल भाषा,सामान्य प्रतीकों के माध्यम से वे अपनी गहरी से गहरी बात एक अनोखे अंदाज़ से रखने में सक्षम हैं, जिसे एक सामान्य पाठक आसानी से ग्राह्य कर सकता है। वे स्वाभिमानी हैं,पर विनम्र हैं। कथनी और करनी में अंतर नहीं करतीं। परिचय पूछने पर वे जो कहती हैं,उसी से उनके व्यक्तित्व का अनुमान हो जाता है— ‘स्वयं अपरिचित अपने से,कैसे परिचय दूं तुमको,पहचानी जाऊँ अन्य के नाम से यह 'न  सह्य होगा मुझे'।


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