निज़ामी गंजवी

निज़ामी गंजवी : कवि निजामी का जन्म 535 हिज्री के लगभग ‘गंज’ में हुआ। उनकी मसनवी का प्रभाव ऐसा शायरी पर पड़ा कि बाद में आने वाले कवियों ने उनके अनुसरण में मसनवी लिखी जिस में ख्वाजू, जामी और वहशी इत्यादि हैं निज़ामी ने अलग अलग विषयों पर पाँच मसनवी लिखीं, मख़जन अल असरार, लैला व मजनूं, खुसरू व शीरिन, हफत पैकर (हफत गुम्बद) और सिकन्दर नाम जिसको ख़मसा कहा जाता है।


ऐतिहासिक कथा : आरश कमानगीर


राजकुमार मनोचहर अपने पिता इरज के मरने के बाद ईरान का बादशाह बना और पिता के दुश्मन देश तूरान से वह लगातार बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ लड़ता रहा अन्त में उसने अपने पड़ोसी देश पर विजय प्राप्त कर ली। इस विजय के साथ ही तूरानियों के दिल में दुश्मनी का बीच फूट निकला, बदला लेने के लिये तूरानी बादशाह अपरासियाब व्याकुल रहने लगा। उचित समय के इन्तज़ार में वह तरह-तरह की तरकीबें सोचता रहता और अपनी फौजी ताक़त बढ़ाता रहता।


इधर मनोचहर विजय के मद में मगन तूरान से लापरवाह उसे अपना राज्य समझने लगा। कुछ समय बाद अपरासियाब बादशाह ने फौजें तैयार की और ईरान पर आक्रमण कर दिया। जीहून नदी को पार करके वह माजंदारान के आगे तक बढ़ आये और फौज़े फैल गईं। चूँकि हमला एकाएक हुआ था सो मनोचहर को सँभलने में देर लगी फिर उसकी फौज अपरासियाब की फौज के देखते केवल मुट्ठी भर थी। कड़ा मुकाबला करने पर भी ईरानी फौज़ों के पैर उखड़ गये। मनोचहर ने आमिल नगर में पनाह ली जिसे बाहर से तूरानी फौजों ने घेर लिया, लड़ाई जारी रही बादशाह का हाथ आना कठिन था। इधर फौजी रसद समाप्त हो रही थी। आखिर फौजियों को भूखा थोड़ी मारना था। सो कुछ सोचना पड़ा। अन्त में अपरासियाब ने अपनी फौजों को पीछे खींचा और ईरानियों से इसशर्त पर लड़ाई बन्द करने की बात की कि वह किसी ईरानी पहलवान से तीर फेंकवाएँ वह जहाँ जाकर गिरेगा बस वहीं ईरान-तुरान की सीमा रेखा होगी। - इस फैसले को सुनकर ईरानियों को ढाँढस बँधी कि चलो हारने के अपमान से बच गये। फिर तीर जितनी दूर जायेगा, उतनी ही ज्यादा ईरानी सीमाएँ बढ़ेगी।


इसके बाद एक दिन ईरान का बादशाह मनोचहर अपने सोने की लगाम वाले घोड़े पर बैठा और प्रजा से सम्बोधित हुआ, “वह कौन है जो देश को इस मुश्किल से मुक्त कराएगा? वह कौन है जो ईरान के सर पर आदर के नगीनों से जगमगाता मुकुट रखेगा।” सब खामोश खड़े थे। उनकी आँखें परेशान थीं। इतनी शांति थी कि यदि सुई भी गिरती तो उसकी आवाज सुनाई पड़ जाती।


“कौन है वह पहलवान जो यह काम करेगा? कहाँ हैं सारे बूढ़े, जवान, : जिनके रक्त से धरती की प्यास बुझेगी? कहाँ हैं वह वीर जिसके ठोकर से धरती का ज़िगर पानी-पानी हो जाए, सामने आये.... सामने आये।


'आरश' नाम का बूढा पहलवान सारे ईरानी पहलवानों में बलवान व तीर चलाने में दक्ष था। वह शांत खड़ा था। उसके मन में तूफान उमड़ रहा था, “यह तीर यह कमान! बहुत बड़ा काम है। शायद जीवन की आहुति देनी पड़ जाये? इस मौत को गले लगाना अर्थात् सदा के लिए अमर हो जाना।"


“सामने आये... सामने आये...” की ललकार के साथ यकायक सारा वायुमण्डल “आरश... आरश" के नाम से गूंज उठा। वह बूढ़ा तड़पती मछलियों के कसरती बदन वाला पहलवान 'आरश' जिसके सफेद बाल कंधों तक झूल रहे थे आगे बढ़ा अपने शरीर के कपड़े उतार दिये फिर बोला, “मेरे शरीर को देखो यह हर कष्ट, हर रोग से स्वतंत्र है। सारे अवगुणों से पाक है परन्तु जानता हूँ जैसे ही मैं तीर को कमान से अलग करूँगा मेरी जान इस तीर के साथ मेरे शरीर से बहुत दूर चली जायेगी और मैं अपनी जन्म-भूमि पर बलिदान होने का गौरव प्राप्त कर सकूँगा।"


यह कहकर वह आगे बढ़ा, अपने सामने रखे तीर व कमान को उठाया और अलबुर्ज पर्वत की चोटी पर पहुँचने के लिए उसने क़दम उठाया... चलता रहा, चलता रहा, भोर के समय वह ऊपर पहुँचा। सूरज की पहली किरण के साथ ही वह अपने चारों तरफ फैले ईरान को देखकर बोला, "सलाम! ऐ मेरी पवित्र धरती माँ! मेरे इस निर्जीव शरीर को तुम अपने अंक में सँभालना।” फिर नीचे खड़े पहलवानों, सिपाहियों, औरत, मर्द, बच्चों की तरफ देखकर चीखा, “सलाम! उन बहादुरों, जवानों, पहलवानों को” पल भर ख़ामोश रहा फिर कमान पर तीर चढ़ाकर उसे अपनी सारी ताक़त से हवा में रिहा कर दिया। तीर के फेंकते ही उसका निर्जीव शरीर धरती पर झूल गया।


आरश की शक्ति से परिपूर्ण वह तीर सुबह का चला हुआ दूसरे दिन दोपहर में जीहून नदी के किनारे अखरोट के सबसे लम्बे पेड़ पर जाकर अटक गया।


वहीं से ईरान व तूरान की सीमा रेखा का निर्धारण हो गया। आज मानचित्र में तूरान नाम का कोई प्रदेश नगर नहीं है क्योंकि अब वह हिस्सा अफगानिस्तान व ईरान में बँट गया है पर उस समय बादशाहों की जीत-हार के साथ उनकी सीमा रेखा बढ़ती-घटती रहती थी।


आज भी ईरान में रुस्तम के बराबर आरश कमानगीर का सम्मान किया जाता है जिसने अपने जीवन को समाप्त कर ईरान को दूर तक फैलाया था।


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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