निज़ामी गंजवी


निज़ामी गंजवी : कवि निजामी का जन्म 535 हिज्री के लगभग ‘गंज’ में हुआ। उनकी मसनवी का प्रभाव ऐसा शायरी पर पड़ा कि बाद में आने वाले कवियों ने उनके अनुसरण में मसनवी लिखी जिस में ख्वाजू, जामी और वहशी इत्यादि हैं निज़ामी ने अलग अलग विषयों पर पाँच मसनवी लिखीं, मख़जन अल असरार, लैला व मजनूं, खुसरू व शीरिन, हफत पैकर (हफत गुम्बद) और सिकन्दर नाम जिसको ख़मसा कहा जाता है।



साठ सीढियाँ


बहराम बादशाह, सासानी साम्राज्य का सम्राट, एक दिन शिकार खेलने निकला। बादशाह के साथियों में एक रूपवति कनीज़ भी थी जो शिकारगाह में अपने नाच-गाने से बहराम का मन बहलाती थी।


उस बियावान में गूरख़र (जंगली गधे) बहुत नज़र आ रहे थे जिन्हें देखकर बादशाह का शिकारी मन पुलकित हो उठा और व्याकुल होकर उसने तरकश से तीर निकालकर कमान पर लगाया और खींचा। तीर गूरख़र को लगा और वह ज़मीन पर  लोटने लगा। देखते-देखते उसने कई गूरख़रों को मार गिराया।


बादशाह की दक्षता देखकर कनीज़ मन ही मन उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा  करने लगी पर ऊपर से शांत रही। यहाँ तक कि एक बहुत बड़ा-सा गूरख़र सामने आता नज़र आया। बहराम को कनीज़ की खामोशी खल रही थी। अप्रसन्नता से बोला, “बोलो लड़की! गूरख़र को किस तरह से मारूं या किस तरह से पकडूं।" कनीज़ ने कहा, “आपका मरतबा बुलन्द हो। इस गूरख़र के सर को व खुरों को तीर से भेद दें।"


शाह बहराम ने पहले कमाने गुरूहे (पत्थर फेंकने वाली कमान) से मुहरे (पत्थर, लोहे, लकड़ी, हड्डी की बनी गोली) गूरख़र के कान में फेंकी। गूरख़र ने बेचैन होकर अपना पैर जैसे ही कान के पास ले गया कि कान में पड़ी मुहरों को बाहर निकाले वैसे ही तीर सनसनाता हुआ कमान से जुदा हुआ और कान और खुर को भेदता हुआ गूरख़र को धरती पर गिरा दिया।


शाह अपनी दक्षता से फूला न समाया। बड़े गर्व के साथ उसने लड़की की ओर मुख घुमाया और कहा, “मेरे बाजुओं के बल को देखा?"


कनीज़ ने कहा, “अच्छे कार्य का आरंभ ही उसका अन्त है।  शाह यह कमाल जो तीर अन्दाज़ी में है वह केवल निरन्तर अभ्यास के कारण है न कि भुजाओं के बल के कारण।"


यह सुनकर शाह बहराम को बुरा लगा। उसके अहम् को ठेस पहुंची और कुण्ठित होकर आज्ञा दी कि “इस लड़की को क़त्ल कर दिया जाये। सरहंग (करनल) जोकि योद्धाओं के बीच में था उसे बुलाया और आज्ञा दी कि लड़की का सर घड़ से  अलग कर दिया जाये।


सरहंग उस रूपवती कनीज़ को तब तक के लिए अपने घर ले गया जब तक कि शाह बहराम का क्रोध शांत न हो जाए क्योंकि कनीज़ ने रोते हुए उससे विनती की, “मुझ बेगुनाह का खून अपने सर न लो। तुम तो जानते हो मैं शाह बहराम की प्रिय कनीज़ हूँ और उसके शिकार की साथी। अभी मैंने अपनी बातों से शाह को रुष्ठ कर दिया है कि उन्होंने मेरे क़त्ल का हुक्म दे दिया है परन्तु तुम इतनी शीघ्रता से आज्ञा का पालन मत करो। कुछ समय गुज़रने दो। शाह का क्रोध समाप्त हो जायेगा। उस समय कह देना-“मैने क़त्ल कर दिया है तब देखना कि वह इस समाचार से यदि खुश होते हैं तो बेशक आकर मुझे क़त्ल कर देना और यदि दुःखी होते हैं तो मुझे इसी घर में पनाह देना। तुम गुनाह से बच जाओगे और मैं मरने से। शायद एक दिन ऐसा आयेगा जब मैं इस अहसान का बदला चुका सकूँ।"


सरहंग ने अपना इरादा बदल लिया और बोला, “खबरदार! जो इस भेद को ? किसी पर खोला। बस इस मकान में नौकरानी के समान अपने को गुप्त रखो।"


एक हफ्ते बाद शाह ने कनीज़ के बारे में सरहंग से पूछा। सरहंग ने आदरपूर्वक जवाब दिया कि “हुजूर के हुक्म की बन्दा बजा लाया है।" यह सुनते ही शाह की आँखों में आँसू छलक आये। यह देखकर सरहंग ने संतोष की साँस ली।


सरहंग की एक हवेली आबादी से कोसों दूर थी जिसकी छत आसमान से बातें करती थी। वहाँ तक पहुँचने के लिए साठ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थी।


उन्हीं दिनों सरहंग की गाय ने बछड़ा को जन्म दिया जिसे कंधे पर रखकर कनीज़ रोज़ साठ सीढ़ियाँ चढ़ती और उतरती। हर रोज़ के कार्यक्रम में एक दिन भी उसने नागा नहीं किया। इस तरह से कई वर्ष गुज़र गये। उसकी दिनचर्या में यह काम शामिल हो गया था।


जब बछड़ा छः वर्ष का हो गया और पूरा बैल बन गया तो भी वह कनीज़ नीचे से उसे कंधे पर बिठा कर उसके पैरों को पकड़ कर एक-एक सीढ़ियाँ तय करके ऊपर कोठे पर पहुँच जाती। धीरे-धीरे वह इस कार्य में इतनी दक्ष हो गई थी कि उसे गाय का बोझ भारी नहीं लगता और आराम से भागती हुई ऊपर पहुँच जाती।


एक दिन कनीज़ सरहंग के साथ अकेली बैठी हुई बातें कर रही थी। अपने कान के बुंदों से कई मोतियाँ निकाल कर सरहंग को देती हुई बोली, “इन मोतियों को बेच देना और इससे मिले धन से भेड़, बकरी, शमा, गुलाब खरीद लेना। जिस  दिन शाह शिकार को जायेंगे मैं उनकी दावत करना चाहती हूँ। तुम उन्हें यहाँ ले आना ताकि वह भोजन करें। अगर यह अतिथि सत्कार सफल हुआ तो उनसे हम दोनों को लाभ पहुँचेगा।" 


सरहंग ने वह मोतियाँ न ली। उसे लौटाता हुआ बोला, “मैं दावत का सारा इन्तज़ाम कर लूँगा। इसके बाद मछली, मुर्गा, भेड़, रेहान (सब्जी) का बन्दोबस्त कर लिया।


एक दिन शाह बहराम शिकार के इरादे से निकला। घोड़े को जंगल की ओर डाला। जैसे ही वह उस गाँव से गुज़रा देखा कि गाँव बहुत ही हरा-भरा और प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है। पेड़ों की छाया, फूल व हरियाली ने उसके मन को हर लिया। सरहंग से पूछा, “इस गाँव का ज़मीदार कौन है?"


सरहंग भी शाह की रकाब के समीप था बोला, “शहरयारा! यह गाँव इस तुच्छ गुलाम का है।" जो आपने ही मुझे बख्शा था फिर बहुत आदरपूर्वक इच्छा प्रकट की। “थोड़ी देर गुलाम के घर में बादशाह आराम फरमा लें।" शाह बहराम ने सरहंग का अनुरोध क़बूल कर लिया।


सरहंग के लिए शाह का अतिथि होना बड़े सम्मान का कारण था सो मोटी, मुलायम गदगदी कालीन सीढ़ियों पर बिछाई जिस पर शाह पैर रखकर 60 सीढ़ियों को तय कर ऊपर छत पर पहुंचा।


शरबत, स्वादिष्ट भोजन, जो भी हो सकता था बादशाह के आगे चुन दिया।। बादशाह को आराम मिला तो प्रसन्नता से बादशाह बोला, “जगह बहुत अच्छी है। मकान , बड़ा है पर जब साठ साल के होंगे तो कैसे इन सीढ़ियों से ऊपर तक पहुँचेंगे?"


सरहंग बोला, "शाह! मेरे लिए यह कोई अचम्भे की बात न होगी क्योंकि मैं मर्द होकर इन सीढ़ियों पर चढ़ सकूँगा पर आश्चर्य तो उस लड़की पर है जो दुबलीपतली होकर भी कंधे पर पहाड़ के समान बैल बिठाकर सीढ़ियाँ चढ़ती है और घास चराने के लिए यहाँ से रोज़ उसे नीचे ले जाती है।"


यह सुनकर बादशाह ठगा-सा रह गया और आश्चर्यचकित-सा बोला, "बिना आँखों से देखे मैं कैसे इस बात पर विश्वास कर लूँ?"


जैसे ही सरहंग ने बादशाह से यह सुना तो तेज़ी से नीचे आया और कनीज़ को समाचार दिया। कनीज़ तो पहले से ही सजी-सँवरी बैठी थी। चन्द्रमा जैसे मुख को आधा नक़ाब से ढक लिया और बैल को कंधे पर बिठाया। सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ने लगी और ऊपर पहुँचकर ठीक शाह बहराम के तख्त के समीप पहुँचकर खड़ी हो गई। बहराम एक नाजुक लड़की के शरीर पर बैल रखे देखकर अपने स्थान से उचककर खड़ा हो गया। लड़की ने बैल को कंधे से उतारा और कहा, "देखा मैं अपने बाहुबल से इस बैल को ऊपर लाई हूँ, है कोई संसार में दूसरा आदमी जो इसे नीचे ले जाए?"


“यह तुम्हारा शारीरिक बल नहीं बल्कि तुम शुरू से इस कार्य में अभ्यस्त हो गई हो। तुम्हारी आदत पड़ गई है। जानती हो, अच्छे कार्य का आरम्भ ही उसका अन्त है। पिछले कई वर्षों में तुमने कोशिश की तब आज बिना किसी दुःख के तुम इस कार्य में सफल हो गई।" यह सुनकर कनीज़ ने झुककर सलाम किया और बड़े मृदुल कण्ठ से कहा, "मैं जो बैल ऊपर कोठे तक ले आई उसको केवल आपने अभ्यास का नाम दे दिया परन्तु जब गूरख़र को मारा जाता है तो किस करण से  अभ्यास का नाम नहीं लिया जा सकता है? तब शूरता व वीरता की चर्चा होती है। : कनीज़ ने अपना वार्तालाप जो शिकारगाह में शाह के साथ हुआ था शाह को इस प्रकार से याद दिलाया और चेहरे से नकाब हटाया। शाह बहराम उसे पहचानकर प्रसन्न हुआ और अपने किये पर शर्मिन्दा हुआ। सरहंग को मूल्यवान उपहारों से लाद दिया और कनीज़ को अपने महल लाया और विवाह कर लिया।


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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