सम्मानित


एक रोज़ एक व्यापारी मछलियों से भरा टब लेकर घर पहुंचा। उसकी बलासी सुन्दर पत्नी ने मछलियों को देखकर अपने चेहरे को नकाब से छुपा लिया ताकि टब की मछलियाँ उसे न देख सकें। इस तरह मुँह छुपाये रही ताकि उसका पति उसे सती-सावित्री-जैसी पवित्र समझे।


जब भी व्यापारी घर में रहता कभी भी वह अपना मुँह हौज़ में न धोती और कहती, “नर मछलियाँ कहीं मेरे पाप का कारण न बन जायँ?” इस लाज से भरे अपने स्वभाव के कारण वह व्यापारी के सामने कभी हौज़ के समीप न जाती।


एक दिन व्यापारी अपनी स्त्री के साथ बैठा हुआ था। एक नौकर भी वहीं खड़ा था। व्यापारी की स्त्री ने पहले की ही तरह नर मछलियों की बातें की और बड़ी अदा से शर्मायी। यह सब देखकर वह नौकर हँस पड़ा।


व्यापारी ने पूछा, “क्यों हँसे तुम?" “कुछ नहीं, यूँ ही हँस दिया।"


"बिना कारण हँसी कैसी?” सुनकर नौकर कुछ नहीं बोला, ख़ामोश खड़ा रहा। यह देखकर व्यापारी चिढ़ गया।


उसका क्रोध देखकर नौकर डर गया और बोला, “आपकी सुन्दर स्त्री आपके ही घर के तहख़ाने में चालीस जवानों को बन्द किये है। जब आप शिकार को चले जाते हैं तो वह उनके साथ रंगरेलियाँ मनाती है।"


यह सुनते ही व्यापारी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और वह बोला, “मैं सच्चाई जानकर ही दम लूँगा। कल शिकार पर जा रहा हूँ परन्तु लौटकर तुम्हारे घर आऊँगा। फिर सोचूँगा कि मुझे क्या करना है।"


दूसरे दिन व्यापारी दुबारा शिकार को चला गया और लौटकर उसी नौकर के घर पहुँचा और बोला, “मुझे गधे पर रखे खुरजीन (थैला) में छुपाकर वह जगह दिखाओ जहाँ मेरी स्त्री चालीस जवानों के साथ गुलछर्रे उड़ाती है। इस काम के बदले में मैं तुमको सौ मन जाफ़रान दूंगा।” नौकर सुनते ही राज़ी हो गया।


नौकर ने दरवेश का-सा भेस बदला और खुरजीन में व्यापारी को बिठाकर चल पड़ा। गली में घुसते ही दूर से ही गाने-बजाने की आवाजें सुनायी पड़ने लगीं। नौकर आगे बढ़ता गया और व्यापारी के घर के पीछे जाकर दरवाज़ा खटखटाया और गाने लगा-


आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब, बिया बेनीगर इन मकरे ज़नान,


हाला हाज़िर कुन सदमन जाफ़रान, अब तो दो मुझे सौ मन जाफ़रान।


बार-बार वह गाता रहा जब तक दरवाज़ा खुल न गया। व्यापारी ने देखा सामने महफिल जमी थी। गवैये बैठे गाना गा रहे थे, साज बजा रहे थे। चालीस जवान प्यालों में शराब पी रहे थे और व्यापारी की स्त्री मस्त-मस्त मदहोश-सी कभी इस युवक की गोद में, कभी उस युवक की गोद में जाती और दरवेश से कहती, वही पंक्ति बारबार गाओ


आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेबअब तो दो मुझे सौ मन जाफ़रान।


सुबह होने से पहले यह महफ़िल ख़त्म हुई। दरवेश व व्यापारी दोनों एक साथ लौटे। व्यापारी की स्त्री ने उन चालीस जवानों को एक-एक करके तहख़ाने में भेजा और दरवाज़ा बन्द करके मस्त, नशे में चूर, झूमती-सी बेखबर सो गयी।


व्यापारी थैले से बाहर निकला और नौकर को हुक्म दिया कि जब तक मैं सोकर न उठूं, इसको सन्दूक़ में बन्द करके एक किनारे रख दो।


सुबह जब स्त्री की आँख सन्दूक़ में खुली तो वह सब-कुछ समझ गयी। उसको सन्दूक से निकालकर व्यापारी के हुक्म से घोड़े की दुम से बाँधकर जंगल की ओर भेज दिया गया।


व्यापारी ने उन चालीस जवानों को आज़ाद किया और तहख़ाने से ऊपर बुलाकर पूछा, "असली माज़रा क्या था?"


वे बोले, “सन्ध्या के समय जब हम इधर से गुज़रते तो छत पर खड़ी आपकी स्त्री को देखते ही हम उसके रूप-लावण्य की चमक से बेहोश हो जाते। जब होश आता तो अपने को तहख़ाने में पाते, जब आप शिकार पर जाते तो हमारे बन्ध खोले जाते और हम रंगरेलियाँ मनाते।"


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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