सपने की पीड़ा (मौलाना रूमी)
मौलाना रूमी : मौलाना जलालउद्दीन मोहम्मद बिन बहाउद्दीनमोहम्मद बिन हुसैन अल ख़तीबी प्रसिद्ध हुए मौलवी या मुलाइ रूम जो ईरान के सातवीं सदी के महा कवियों में से एक हैं। मौलाना बल्ख में पैदा हुए मगर लम्बे अरसे तक रोम में रहने के कारण मौलाना रूमी या मौलाना कानिए के नाम से भी मशहूर हुए। मौलाना की मुलाकात शम्स तबरेज़ी से हुई जिसके बाद वह सब कुछ भूल गए। शम्स तबरीजी 645 में रूम से निकले तो फिर पलट कर उधर नहीं गए। मौलाना रूमी की रचनाओं में उनका छह खंडों की लम्बी मसनबी, रूबाइयात व ग़ज़ल संग्रह है। उनकी ग़ज़लों का संगह 'दीवान-ए-शम्सी' के नाम से जाना जाता है। उनके गद्य के कई महत्वपूर्ण ग्रंथ भी हैं। मौलाना ने 'इरफानी शायरी को न केवल उस ऊँचाई पर पहुंचाया बल्कि इरफान के दर्शन को न सिर्फ हिन्द व ईरान तक बल्कि सारी दुनिया तक पहुंचाया। उनकी मृत्यु 672 में हुई।
सपने की पीड़ा
प्राचीन काल में कज़वीन शहर में यह रिवाज़ प्रचलित था कि लोग बदन पर विशेषकर कंधे पर चीते और शेर की तस्वीरें गुदवा लेते थे। इस तस्वीर में सुई से नील भरवाते थे ताकि देख्ने में सुन्दर लगे। ये चित्र सुन्दरता के साथ-साथ उनके शरीर के बल के द्योतक भी होते थे कि फलां कैसा और कितना बलवान है।
एक कज़वीनी भी इसी शौक में एक दल्लाक़ के पास पहुंचा और कहने लगा, “चलो भाई! मेरे कन्धे पर नील भर दो और अपनी 'शीरीनी शक्कर' ले लो।"
"कौन सी तस्वीर बनाऊं!” दल्लाक ने सामान ठीक करते हुए सवाल किया।
कोई अच्छी सी तस्वीर बनाओ। हां, सिंह राशि है न मेरी, बस सिंह बनाओ और देखो। खूब अच्छी तरह से नील भरना। संभल कर मेहनत से और खूब दिल लगाकर | कज़वीनी यह कह कर दल्लाक के समीप बैठ गया।
“कौन सी जगह बनेगा शेर।”
"कंधे पर बनाओ ताकि लड़ाई के समय इस शेर के चित्र से हिम्मत और हौसला मिलता रहे।” गर्दन अकड़ा कर वह बोला-
दल्लाक सुई लेकर कज़वीनी के पीछे बैठ गया और तस्वीर बनाना शुरू कर दी। जैसे-जैसे दल्लाक सूई बदन पर लगाता उसकी चुभन से कज़वीनी अपने स्थान से उचक-उचक जाता और दर्द से बिलबिला उठता। कभी होठों को दांतों तले दबाता, कभी मुट्ठियां भींचता। जब दर्द झेलना असह्य हो गया तो झुंझला कर दर्द मिश्रित आवाज़ से कज़वीनी चीखा, “अरे मार डाला! कौन सी तस्वीर बना रहे हो?"
“तुम्हीं ने शेर की फरमाईश की थी। वही बना रहा हूं।” दल्लाक़ घबरा गया।
“वह तो ठीक है! पर शेर के शरीर का कौन सा हिस्सा बना रहे हो?" कराहते हुए कज़वीनी ने सवाल किया।
“दुम!"
"दुम छोड़ो! इस दुम से तो मेरा दम निकला जा रहा है। माथे पर छलके पसीने को पोंछते हुए कज़वीनी आगे बोला।
"बिना दुम के ही शेर भला है, दुम से क्या लेना देना।"
दल्लाक सूई को दूसरी जगह कोंचने लगा! दर्द की तेजी से निढाल होकर कज़वीनी बोला, “अब कौन सा अंग बनाने जा रहे हो?"
"कान!"
“अरे एक काम करो! कान से शेर के चित्र में क्या फर्क पड़ता है? कान छोड़ो!"
दल्लाक़ ने कान बनाना छोड़ कर उस स्थान से ज़रा हट कर सूई चुभोई - अभी उसने चार-पांच बार ही कोंचा था कि फिर सवाल किया गया।
“यह कौन सा हिस्सा है।"
“पेट!"
“उफ़ शेर की तस्वीर में पेट की क्या ज़रूरत है? बेकार में मुझे घायल मत करो। मुझे तकलीफ हो रही है। ठीक से काम करो। इस बार ओंठ को कसते हुए बड़ी कठिनता से प्रश्न पूछा गया था।
यह सुनकर दल्लाक हैरान रह गया। तंग आ चुका था। सूई ज़मीन पर पटक कर कज़वीनी का मुख घूरने लगा और प्रश्न किया, “दुनिया में ऐसा कौन सा शेर है जिसके न दुम है न सिर, न कान न पेट । ऐसा शेर आज तक किसी ने देखा है? मेरा तो ख्याल है, अभी तक पैदा ही नहीं हुआ है।” दल्लाक़ ने सामान समेटते हुए क्रोध को बलपूर्वक दबाते हुए
कहा।
“शेर बनवाने का शौक है पर सूई की चुभन का दर्द सहन नहीं है।"
अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489