सोने के अण्डोंवाली मुर्गी


एक बूढ़ा आदमी था जिसकी रोटी का सहारा केवल काँटे और लकड़ी थी जिन्हें वह जमा करके बेचता था। एक दिन इन्हीं कांटों के बदले में बियाबान से लौटते हुए उसने एक मुर्गी ख़रीदी। घर पहुँचकर पत्नी से बोला, “आज रात के खाने के बदले में हम लोग एक मुर्गी के मालिक बन गये हैं।”


सुबह मुर्गी ने उस काँटे जमा करनेवाले आदमी और उसकी पत्नी के लिए एक सोने का अण्डा दिया। सुबह हुई, वह आदमी अण्डा लेकर यहूदी दुकानदार के पास गया और बदले में ढेर-सा पैसा ले आया। आज, कल, परसों, इसी तरह कई महीने गुज़र गये, धीरे-धीरे उस आदमी ने अपना मकान बनाया और यात्रा पर चल पड़ा। पत्नी रोज़ यहूदी की दुकान पर जाकर एक सोने का अण्डा बेचती थी। आख़िर यह यहूदी जान गया कि इसके पास एक मुर्गी है। वह अपने से ही बोला, “क्या करूँ, क्या न करूँ।" आख़िर तय कर लिया, जो भी हो काँटे बटोरनेवाले की पत्नी के हाथों से मुर्गी निकलवाकर ही दम लूँगा। यहूदी दुकानदार, जो बड़ा चालाक धा, बुढ़िया के पास पहुँचा और बोला, “तुम मेरे लिये काम करो ताकि मैं उसके बदले में तुमको मज़दूरी दूं। अभी तक वह तुम्हारा पति यात्रा पर है इसलिए मेरी पत्नी बन जाओ, उसके इन्तज़ार में ज़िन्दगी ख़राब न करो। आओ, मुझसे विवाह कर लो।"


बुढ़िया मान गयी और यहूदी उसके घर आ गया। उसने दोस्ती और प्रेम का नाटक किया कि वह अपनी राह से भटक गयी और उसके साथ सहवास में डूब गयी और यहूदी के लिए दीवानी-सी उसके हर कहे को पूरा करने लगी। एक रोज़ यहूदी घर नहीं आया और वह राह देखती रही और सोचती रही कि क्या करे। सुबह हुई, वह उसके घर गयी और बोली, “कल रात तुम घर क्यों नहीं आये?"


“अगर तुम वह मुर्गी काटकर उसका ज़िगर मेरे लिये पकाओ तो मैं ज़रूर आऊँगा,” यहूदी ने मक्कारी से कहा। कोई दूसरी राह न देख बुढ़िया ने मुर्गी को काटकर उसको पकाने के लिए पतीली में डाल दिया और अँगीठी पर चढ़ा दिया।


दोपहर हो गयी, बुढ़िया के लड़के घर आये। चूँकि भूखे थे इसलिए वे सीधे अँगीठी की ओर बढ़े। उनमें से एक ने मुर्गी का सर, दूसरे ने मुर्गी का ज़िगर खाकर अपनी भूख मिटा ली। खाने के समय जब यहूदी आया और उसने पतीला खोलकर मुर्गी का ज़िगर और सिर निकालकर खाना चाहा तो देखा, वहाँ दोनों चीजें गायब हैं। बुढ़िया से पूछा, “सिर व ज़िगर का क्या हुआ?" -


वह बोली, “मेरे बेटे भूखे थे, इसलिए ख़ुद ही देग़ से निकालकर खा गये।"


यहूदी बोला, "जैसे भी हो, अपने लड़कों के पेट से मुर्गी का सिर व ज़िगर निकालो, वरना मैं दुबारा घर नहीं आऊँगा।" यह कहकर यहूदी उलटे पाँव वापस लौट गया। बुढ़िया मान गयी। दरवाज़े के पीछे खड़े दोनों लड़के इन दोनों की बातें सुन रहे थे। वे समझ गये कि अब क्या होनेवाला है, इसलिए आधी रात को घर से भाग गये। जब वे दो-राहे पर पहँचे तो देखते हैं कि पत्थर पर लिखा है, "दो तन एक राह पर न चलें, अच्छा यही है कि अलग-अलग हो जायें।"


दोनों भाई एक दूसरे से अलग हो गये। जिसने मुर्गी का सिर खाया था, वह चलता गया, चलता गया, यहाँ तक कि एक शहर में पहुँच गया। उस शहर के लोग गोले में जमा थे और 'बाज़' को उड़ा रखा था ताकि बाज़ जिसके भी सिर पर बैठे उसे बादशाह बनायें। लड़का भी भीड़ में शामिल हो गया और बाज़' की उड़ान देखने लगा। तभी बाज़ नीचे उतरा और उसी लड़के के सिर पर बैठ गया। तब से वह लड़का बिना माँगे ही बादशाह बन गया।


दुसरा भाई चलता गया, चलता गया. यहाँ तक कि रात घिर आयी। घूमते-घूमते सोने के लिए आख़िर उसने एक जगह ढूँढ़ ही ली। सुबह जब सोकर उठा तो देखा कि तकिये के स्थान पर एक थैला पैसों से भरा उसके सिरहाने रखा है। सूरज निकलते ही वह फिर चलने लगा। आख़िर बियाबान तय कर शहर पहुँचा और देखा कि एक महल है जिसके समीप कुछ लोग ज़मीन पर बैठे हुए हैं। पास पहुँचकर बोला, “क्या हुआ है?"


उनमें से एक बोला, “इस महल में एक लड़की रहती है जिसका नाम 'दिलआराम' है और उसकी उन्तालीस दासियाँ हैं। जो भी चाहे दिल-आराम के साथ सहवास कर सकता है, लेकिन वह अपनी जगह उन्तालीस कनीज़ों को पहले सुलाती है, क्योंकि हर रात के सौ तूमान देने होते हैं इसलिए कोई भी चालीसवें दिन दिल-आराम के साथ सहवास तक नहीं पहुंच सकता है।" फिर बोला, “हर कोई जो उसके साथ सहवास की इच्छा रखता है इसी ज़मीन पर बैठता है।"


युवक बोला, “मैं उस तक पहुँच जाऊँगा, तुम सब देखना।" वह महल में गया और रोज़ के सौ तूमान देकर हर दासी के साथ सहवास करता रहा। का जब उन्तालीसवीं रात आयी तो दिल-आराम ख़ुद से बोली, “यह युवक इतना रुपया कहाँ से लाया, इस भेद को जानना चाहिए।"


चालीसवें दिन उसने कुछ ऐसी तरक़ीब लगायी कि लड़का ख़ुद बोल पड़ा, “मैंने सोने की मुर्गी का ज़िगर खाया है। तब से जब भी सोकर उठता हूँ, सिरहाने सौ तूमान की थेली पाता हूँ।" दिल-आराम ने युवक को खूब शराब पिलायी। जब वह मस्त हो गया तो पीछे से उसकी पीठ पर ज़ोर की लात मारी जिससे मुर्गी का जिगर उसके हलक़ से निकलकर बाहर गिर पड़ा। अब दिल-आराम ने जिगर को धोकर साफ़ किया और खा गयी। जब लड़का सुबह उठा तो उसने देखा कि सिरहाने रुपये की थैली नहीं है। उसको मारपीटकर महल के बाहर निकाल दिया गया। बेचारा बौखलाया इधर-उधर घूमता रहा। समझ नहीं पाया कि क्या करे। आख़िर बियाबान की तरफ चल पड़ा।


चलते-चलते एक तालाब के किनारे पहुँचा। वहाँ पर एक पेड़ के नीचे तीन लोग थे जो गुस्से में पागल हो रहे थे और आपस में लड़ रहे थे। उसने पूछा, “क्या बात है?"


वे बोले, “हम तीन भाई हैं। हमारे बाप ने मरते हुए एक ग़लीचा, एक सुरमेदानी


और एक बटुआ छोड़ा है। अब झगड़ा बँटवारे का है।"


जवान ने पूछा, “तुमने जिन चीज़ों के नाम लिये हैं वे किस काम की हैं?"


उनमें से एक बोला, “अगर तुम ग़लीचे पर बैठकर कहो, 'बेहले हज़रत, सुलेमान,' और उसके बाद जहाँ का नाम लोगे, वह तुम्हें ले जायगा। अगर तुम सुरमेदानी से सुरमा लगाओ तो तुमको कोई भी देख नहीं पायेगा। यह बटुआ ऐसा है कि जो भी चीज़ जिस वक़्त चाहो तुमको मिल जायगी।"


लड़का बोला, "ठीक है मैं एक तीर फेंकता हूँ; जो भी पहले उस तीर तक पहुँच जायगा उसको उसी हिसाब से सामान बाँ-गा।" उसने तीर फेंका। जैसे ही तीनों भाई तीर की तरफ भागे, वह ग़लीचे पर बैठकर बोला, “बेहरू हज़रत सुलेमान, दिल-आराम के महल की तरफ चलो।" कुछ ही देर में उसने देखा कि वह हवा पर उड़ रहा है और एक मिनट के बाद वह दिल-आराम के महल में पहुँच गया। सुरमा लगाकर वह ग़ायब हो गया और दिल-आराम के कमरे में पहुंचा और उसे दवा खिलाकर उसके पेट से मुर्गी का ज़िगर निकलवा लिया और साफ़ करके ख़ुद खा गया और दिल-आराम का हाथ पकड़कर ग़लीचे पर बैठ गया और बोला, “बेहरू हज़रत सुलेमान, ऐसी जगह ले चलो जो हर स्थान से अलग हो।" वे दोनों चलते गये, उड़ते गये, आख़िर एक द्वीप में पहुंचे। काफ़ी दिन तक दिल-आराम उस जवान के साथ रही। अन्त में उसके भेद को जान गयी और एक दिन जब वह नहीं था तो सुरमेदानी और बटुए को लेकर गलीचे पर बैठकर बोली, “बेहले हज़रत सुलेमान, मुझे मेरे महल ले चलो।" लड़का लौटकर आया, इधर-से-उधर भटकता-भागता रहा कि यहाँ से कैसे निकले। भटकते ढूँढ़ते एक चश्मे के किनारे पहुँचा। थकान से चूर वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया और बोला, “रात यहीं गुज़ारूंगा।"


दो कबूतर जो पेड़ पर बैठे थे, नीचे आये। कबूतरी ने कबूतर से कहा, “कितना अच्छा हो अगर यह जवान सोये नहीं, बल्कि मेरी बातें सुने।"


कबूतर बोला, “तुम कहोगी तो शायद जागता ही रहे।"


कबूतरी बोली, “इस पेड़ की छाल को निकालकर पैरों से बाँध ले ताकि इस नदी को पारकर सके। दूसरे, यह कि पेड़ से टहनी तोड़कर साथ ले ले। जब चाहे उससे काम ले सके। जिससे किसी को भी मारकर गधा बना दे और इस पेड़ का सेब राजा की बेटी की बीमारी को दूर करेगा। अगर यह जवान चाहे तो सेब उस राजकुमारी को खिला दे और राजकुमारी व आधे राज का मालिक बन जाय।" _अभी कबूतर बोल ही रहे थे कि जवान अपनी जगह से उठा और कबूतर भी उड गये। जो भी कबतरों ने कहा था वह करने लगा और चलते-चलते शहर में पहँचा। महल के समीप पहुँचकर बोला, “मैं राजा की बेटी को ठीक करने की दवा रखता हूँ।" सेब का शरबत बनाकर उसने लड़की को पिलाया। राजकुमारी ठीक हो गयी। राजा ने आधी दौलत युवक को दे दी। कुछ दिन बाद वह एक फौज़ जमा कर दिल-आराम के शहर पहुँचा। दिल-आराम बिस्तर पर लेटी थी, उसने चाबुक मारकर दिल-आराम को गधा बना दिया। जब दिल-आराम गधा बन गयी तो गधे के रूप में उसे देख युवक बेचैन हो उठा और दुःखी होकर जल्दी से बोला, “अगर तुम वचन दो कि इसके बाद तुम मुझे कभी भी छोड़कर नहीं जाओगी तो तुम्हें पहले की-सी हालत में ले आऊँगा।" दिल-आराम ने सिर हिलाया। लड़के ने फिर चाबुक मारकर दिल-आराम को वैसी ही बना दिया जैसी कि वह उसका दिल व होश लूटने के पहले थी। जवान दिल-आराम को ग़लीचे पर बैठाकर सुरमेदानी और बटुए को अपने साथ लेकर बाप के शहर लौटा और आराम से बाक़ी ज़िन्दगी बिताने लगा।


अनुवाद: नासिरा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9811119489


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