आदमी का प्यार दो
आचार्य बलवंत, सोनभद्र, उ.प्र., मो. 7337810240
वतन की आन के लिए, नये बिहान के लिए।
नयी उमंग से भरी नयी उड़ान के लिए।
देशभक्ति भाव से भरे हुए विचार दोl
मन की राग-रश्मियों को चेतना की धार दोl
गीत को ग़ज़ल, ग़ज़ल को गीत का श्रृंगार दोl
आदमी हो, आदमी को, आदमी का प्यार दो।
जल रही जमीं, तपिश से जल रहा है बाग-वन।
आँसुओं में बह रहा लहू यहाँ नयन-नयन।
सुबक रही कली-कली, सिसक रहा हर एक सुमन।
देखकर दशा वतन की हो रहा विदीर्ण मन।
मृदु वचन, मृदुल नयन से फिर उन्हें पुकार दोl
गीत को ग़ज़ल, ग़ज़ल को गीत का श्रृंगार दोl
आदमी हो, आदमी को, आदमी का प्यार दो।
देख लो नज़र उठाके जंग हर तरफ छिड़ी।
स्वार्थवृत्ति सामने है रक्त के लिए अड़ी।
माँ बिलख रही, बहन कराहती खड़ी-खड़ी।
चीखती है पालने में लाडली पड़ी-पड़ी।
साधना की अंजलि से आरती उतार दो।
गीत को ग़ज़ल, ग़ज़ल को गीत का श्रृंगार दो।
आदमी हो, आदमी को, आदमी का प्यार दो।
साँस कब, कहाँ रूके, नहीं किसी को कुछ पता।
किस भँवर में कौन, कब, कहाँ पर होगा लापता।
मोड़ पर ही छोड़कर, कोई कहेगा अलविदा।
कौन जानता है कब टूटेगा सारा वास्ता।
सृजन की कल्पना को नित नये-नये आकार दोl
गीत को ग़ज़ल, ग़ज़ल को गीत का श्रृंगार दोl
आदमी हो, आदमी को, आदमी का प्यार दो।