अभिनव इमरोज़ कवर पेज - 4


78वां जन्मदिन मुबारक हो-
नायक ने 2009 में दोस्ती के रिश्ते की स्वर्ण जयंती पर नायका के जन्मदिन पर भेजी नज़्म नुमां शुभकामनाएं। 
हालांकि 10-11 साल पुरानी रचना लगती है। लेकिन इसकी ताज़गी से प्रेरित होकर इसे प्रकाशित किया जा रहा है। 
1959 में 31 अक्टूबर को दिवाली का पर्व और नायका का 16वां जन्मदिन एक साथ पड़ा था। -संपादक


मुबारक़ हो सालगिरह तुम्हें
और मुझे तुम्हारा ‘सोलहवां बसंत’-
मुझे क्यों ? 
कि उसी साल तुम बनीं थीं मेरे वुजूद की तासीस,
वज्ह और सिला भी, राह और मज़लें-मक़सूद भी;
मरकज़ और मक़सद भी; आज भी रूहे-सकुं हो तुम, 
मेरे पास न हो कर भी मेरे पास हो तुम;
सब कुछ हो जो न होकर भी हो तुम,
ग़ुलाब हो यक़ीनन, मेरे लिए आज भी 
निरी अनार क़ली हो तुम लेकिन
मैं क्यों पूंछूं कितने मील चल चुकी हो, 
आज कैसी लगती हो तुम.....
ज़िद्द है-तो मेरी कल्पना से पूछो, मेरे अतीत से पूछो
मेरी हक़ीकते- ज़िन्दगी हो तुम; 
मेरे लिए आज भी सोहनी, सुलखणी मुटियार हो तुम
कितनी ही मौनसून बरस चुकी हैं,
और मैं ‘सोहलवीं बरसात’ के मील-पत्थर को 
अपना निशाने-हस्ती समझ, ठहरे वक़्त का पाबंद 
किसी करिश्में की इंतज़ार में बैठा हूँ


इत्तफाक़ तो देखो उस दिन का
दिपावली का दिन था,
शुरु-ए-शबाब लेकर आया तुम्हारा जन्मदिन था,
ज़िन्दगी के अहम मोड़ पडे़ एक ही दिन थे!
ख़ूब मनाया था-जश्ने सालगिरह, जश्ने रौशनी
जश्ने शवाव, जश्ने मोहब्बत
बात ही कुछ और थी उस दिन की
दीपमाला लिए तुम थीं दहलीज़ के उस पार
और मैं उम्मीदों की बारात लिए था इस पार उस दिन...
लौ रौशन हो चुकी थी- चांद की चाहत में 
ज़िन्दगी उड़ान भर चुकी थी!
मैं मग्न था मनाने में तुुम्हारा ‘सोहलवां बसंत’ 
और शामे रौशनी का वो दिन शुभ था-शुभ है-शुभ हो
बार-बार आए यह चाहतों का दिन-
पचास साल पहले नई मुलाक़ात का दिन, 
चाँद को चांदनी मुबारक़..., दुआऐं ही दुआऐं,
प्यार ही प्यार; जीवन भर की सुहासों का दिन
बची हुई चंद सांसों की क़सम....
ज़िन्दगी भर न भूल पाऊँगा...
अपनी हस्ती से मुलाक़ात का वो दिन.... 
तुम्हारा जन्म दिन


और आज उस समय की साजिश का शिक़ार,
न पहुंच सका उस पार,
तारों में सिमट के रह गई ज़िन्दगी मेरी,
साथ दो साल का ही सही; लेकिन
फासलों के फलसफे में खिल खिल उठी ज़िन्दगी मेरी 
भरी रही बसालत से खुशग़ुबार ज़िन्दगी मेरी....
पहाड़ी के पीपल तले मनाता रहूँगा
तुम्हारा जन्मदिन, रौशन करता रहूँगा दीए
जैसे कि हो दिवाली का दिन,
बेगरज़ बंदगी का, मन्नत और मिन्नतों का,
अहसासे ‘‘पास’’ होने का दिन.....
तुम्हारा जन्मदिन!!


हाँ याद आया 31 अक्टूबर 1959 ही था
वो शुभ दिन जब पड़ी थी
एक साथ दिवाली और तुम्हारा जन्मदिन, 
आज रिश्ते की स्वर्ण जयंती भी है इसी मौसम में 
‘गोगी’ से प्रियदर्शिनी तक का सफर,
नफीसा से हमीदा तक की कहानी में 
लिप्त है निश्छल, निश्चल, शाश्वत प्रेम 
गूंगे हरफों में,


अब तक का सफर अच्छा रहा
दुआ है महफूज़ रहे यह कशश, 
बड़ता रहे काफिला यादों की निगरानी में
हम खुशनसीब हैं जो रब ने 
रखा जिंदा जवानी के रिश्ते को 
क़ायम और जवान
बुढ़ापे के बड़प्पन में


 


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