धूप
डाॅ. सुधा श्रीवास्तव, अहमदाबाद, मो. 9426300006
आओ मुझको धूप ओढ़ा दो
रजाई, कम्बल, दोहर-चादर,
नहीं चाहिए, धूप ओढ़ा दो।
थर-थर उँगलियाँ काँप रही हैं
नाक की नोक हो गई लाल
पैर समेटे घुटनों में मैं
देखो तो हो गई बेहाल
पैर चढ़ाए मोजे मैंने
हाथ चढ़ाए दस्ताने
सर पर टोपी गोल लगा ली
फिर भी काया ठंडी री
इसीलिए कहती हूँ सखि मैं
आओ मुझको धूप ओढ़ा दो
कितना बेदर्दी है बादल
धूप पर अपनी चादर डाल
हम सबको कर दिया बेहाल
धूप को बोलो कैसे ओढूँ
पहले बादल को तो खोलूं
उसने गीली कर दी धूप
बोलो कैसे ओढूं धूप