दूरियाँ ही दूरियाँ बनाम बनते बिगड़ते रिश्ते

मूल्यांकन



डॉ. अवध बिहारी पाठक, दतिया (म.प्र.) मो. : 98265-46665


हिन्दी कहानी के इतिहास में एक नाम बड़े इत्मीनान से लिया जाता है और वह नाम है, से.रा. यात्री का, जिन्होंने भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संचालित 'नई कहानी' आन्दोलन को आगे बढ़ाने में अपना भरपूर रचनात्मक सहयोग दिया, यात्री जी का कथावाचक वह चाहे कहानी हो या उपन्यास नारी चेतना की केन्द्रीयता में परिचालित होता रहा है। इंसानी जिन्दगी में नारी के पुरूषवादी विचलन पर आधारित एक उपन्यास "बनते-बिगड़ते रिश्ते" मुझे देखने को मिला, जो आकार में तो छोटा परंतु स्त्री के पक्ष में खड़ी इमारत का बड़ा उपन्यास कहा जा सकता है, उपन्यास की. रचनात्मक उपलब्धियों को जानने के लिए उसकी कथावस्तु संक्षेपतः जान लेना बहुत जरूरी है।


कथा का नैरेटर पर्सनाल्टीज नामक पत्रिका (जो विभिन्न क्षेत्रों की महान हस्तियों के जीवन का विवेचन प्रकाशित करती है) का रिपोर्टर है। मलिक, जो अपने चीफ के आदेश पर फिल्म जगत की जानी मानी हस्ती नागपाल के बारे में लिखने को प्रस्तुत होता है। नागपाल बड़ी कठिनाई से उपलब्ध हुआ और वह मालिक को अपने घर चलने का आग्रह करता है, ताकि वह घर, परिवार, परिवेश और एकांत-वार्ता से नागपाल के बारे में जान सके। नागपाल नीना विला पहुंचा। भौतिक समृद्धि और साधनों का अकुत भंडार, दर्जनों गाड़ियां, नौकर, चाकर, प्रकृति का एकांत, नागपाल ने मालिक से अपनी पूर्व अभिनेत्री पत्नी बच्चों से भी मिलवाया, खाने पीने का दौर चल रहा था। तभी मध्य रात्रि में उसे अपनी एक मीटिंग का ध्यान आया, अस्तु मौलिक को, अपनी पत्नी के हवाले कर अकेला ही बाहर चला गया। मालिक सारे परिवार और उस पर्सनाल्टी को समझने के दौर से गुजर रहा था। नीना और मौलिक की बातचीत के बीच शराब के दौर में नीना ने अपनी परिस्थिति को सोचते हुए बताया कि पहले आर्थिक तंगी के दौर में वह बिठोबा नामक व्यक्ति के माध्यम से फिल्मी मंच पर पहुंची, पैसा काम दोनों मिले तब विठोबा ने नीना से विवाह प्रस्ताव किया, उसके उपकार थे। माता पिता ने विठोबा से विवाह कर दिया। परंतु विठोबा का नीना के ऊपर लगातार आर्थिक, शारीरिक शोषण का दबाव बढ़ता गया एवं बच्ची भी हुई इसी बीच विठोबा को उसके एक साथी ने कत्ल कर दिया, परंतु वह फिल्मों में लगातार सफल होती रही, नागपाल के निर्देशन में उसकी एक फिल्म 'सितारों के खेल' ने नीना को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया। ठीक तभी नागपाल ने नीना से विवाह प्रस्ताव किया, मजबूरी में उसे स्वीकार करना पड़ा। नागपाल ने मुझे यहां भौतिक समृद्धि के दुर्ग में कैद कर दिया। नीना का फिल्मी कैरियर नष्ट हो गया और नीना हताश, निराश है नागपाल रूपी राक्षस से मुक्त होने के अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी। मौलिक के समक्ष नागपाल का छद्म कातिल उभर कर सामने आ गया था कि उस भौतिक समृद्धि के बीच भी घर परिवार पत्नी बच्चों के कितने अंतर्विशेष के महासागर हिलोरे ले रहे थे। इस कथानक के द्वारा लेखक ने फिल्मी दुनियां और समाज में स्त्री जीवन के यथार्थ को वाणी दी है। उनको निम्न शीर्षकों में रखा जा सकता है।


स्त्री केवल एक जिन्स - इस रचना के माध्यम से लेखक ने बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि स्त्री स्वतंत्रता के तमाम नारों के बाद भी स्त्री को समाज में एक जिन्स (उत्पादक का अंग) भर माना जाता है। शिक्षित और फिल्म जगत का खुलापन भी स्त्री (पत्नी) को अपने से दोयम दर्जे का मानता है उसकी स्वायत्तता, इच्छाएँ सब पर पुरूष का अधिकार है पुरूष उसे सुविधायें देता है, परंतु दाम्पत्य में जो सहजता अपेक्षित है, वह नागपाल की पत्नी उस पत्रकार से पुछती है। “मुझे अपने महान पतिदेव से क्या मिला?" मैं साल दर साल बच्चे जनती रहूं बिलकुल मादा जानवर की तरह और बेवकूफी में खुश होती रहूं कि एक अति प्रसिद्ध आदमी की बीबी हूं "पृ.81" नारी की अस्मिता को पुरुष के दंभ ने हरदम आत्मसात से आकृष्ट कर रखा है। नीना कहती है कि उसने मुझ पर अपनी शराफत का ऐसा जाल बिछा रखा है कि इस कैदखाने से निकलना मेरे लिए आसान नहीं रह गया है।


कला की हत्या - पुरुष सत्ता स्त्री की विवशता का सदैव दुरूपयोग करती रही है नीना एक महान कथाकार अभिनेत्री के रूप में अपनी कला-निष्ठा से ऊपर उठी परंतु पहली बार विठोबा ने और दूसरी बार नागपाल ने विवाह कर उसकी कला से कुंद कर दिया। नागपाल ने उसके अभिनेत्री के टैलेन्ट को ही भौतिक समृद्धि की कैद में डाल दिया वह एक जगह पूंछती है "शादी के बाद पत्नी अपने कार्य के क्षेत्र छोड़ कर अलग बैठा दी जाने से उसकी यह एक प्रकार से हत्या नहीं है" नीना की अभिनय कला को पुरूषवादी अहं ने अपने अभिजात्य के मद से नष्ट कर दिया और कोई भी कलाकार इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता, नीना भी अवसर के प्रतीक्षा में है ताकि उसकी कला को सराहा जाए भले ही उसे अपने पति नागपाल द्वारा उपलब्ध भौतिक समृद्धि का त्याग करना पड़े।


जीवन के लिए संघर्ष जरूरी है - लेखक इस रचना के माध्यम से यह स्थापित कर सका है कि एक अच्छे व्यक्तित्व और सामाजिक जीवन के लिए संघर्ष अवश्यक है। व्यक्तित्व प्रखर तेजस्वी नहीं होता है जो अपनी प्रतिज्ञा से चमके। पति समाज पिता या अन्य संबंधों द्वारा खड़े किए गए विधि निषेधों से कोई भी व्यक्ति क्षीण ही होता है, उसकी गतिमानता और चोटों को सहने की सामर्थय से ही निखार आता है। एक जगह नीना कहती है “ऐसे प्रसिद्ध पिता की संतान क्या बनती है नागधारी बाप की सरपरस्ती से कोई भी आश्रित अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता है तो तय मैं कर चुकी हूँ कि अपनी बेटियों को समझदार होते ही इस जेल खाने से भाग जाने की सलाह दूंगी" (पृ. 83) लेखक की स्थापना है कि अभिजात्य और भौतिक समृद्धि के कारण वह निखार नहीं आ पाता, जो एक संतुलित आत्म निर्भर व्यक्तित्व में होना चाहिए। संघर्षों व्यक्तित्व में स्वतः ही उभरते रहना कलाकार क्या सामान्य व्यक्ति में भी बहुत जरूरी है। अन्यथा वह अपने गंतव्य की दिशा ही नहीं खोज पायेगा। क्योंकि अतिशय आश्रितता व्यक्ति को पंगु ही बनाती है।


संवाद की अनिवार्यता - समाज हो या दाम्पत्य जीवन परस्पर एक दूसरे को समझने की बहुत, आवश्यकता होती है, जबकि इस ओर से अपनी व्यस्तता की ओर में हर सामाजिक इकाई मुंहफाड़ रही है। लेखक इस तथ्य को भली-भांति स्थापित कर सका है। नागपाल संवाद की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए कहता है। "कभी-कभी मुझे अपने पर भी शक होने लगता है कि क्या वह वही आदमी है जो एक जमाने में अपने आप से साक्षात्कार करने से जरा भी नहीं हिचकिचाता था, आज वह वक्त आ गया है कि खुद से भी मुंह छिपाने की कोशिश करता है, तो यह मानने लगा है कि एक आदमी में न जाने कितने आदमी हैं (पृ. 87) शब्द मानव को दी गई कुदरत की एक बड़ी नियामत है इस वक्त को हमें भूलना नहीं चाहिए।


आदर्श और यथार्थ का द्वन्द्व - फिल्मी दुनिया मनोरंजन के नाम पर गलत रास्ता पकड़ गई है, लेखक इस रचना के माध्यम से सच बात कहने का साहस करता है, फिल्मी पात्रों द्वारा पर्दे पर जो भूमिकाएं निभाई जाती है वे सच्चाई से परे होती है। पात्र का अभिनय करते समय कलाकार वह हो जाने को विवश होता है जो वस्तुतः वह नहीं होता इस तरह छद्म का सहारा लेकर उसे उसकी कर्त्तव्यों को इस हद तक मोड़ कर पर्दे में अभिनय के अनुरूप करना पड़ता है, उसका (अभिनेता) का चरित्र इससे प्रभावित होता है उसकी अन्तश्चेतना की इससे क्षति होती है, फिल्मी जीवन की भौतिक समृद्धि आदर्श पर्दे पर परोस कर निजी जिन्दगी से उसका अनुसरण नहीं कर पाते वह वहां से गायब हो जाता है और अनुपात से दर्शन पर भी आदर्श का प्रभाव क्षणिक ही रहता है। जीवन और मनुष्य की सामाजिकता जिस आदर्श से अनप्राणित होना चाहिए। वहां इसका नितांत अभाव होता है फलतः अभिनेता अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन से दिशाहीन होता जा रहा है, लेखन की चिंता सामाजिक है इस पर चिंतन की जरूरत है।


सदभाव और नैतिकता की कंगाली - आम जिन्दगी में जब फिल्मी जीवन के मानव की स्थितियां प्रवेश करती है तो इससे हमारे परिवार की कड़ियां भी कहीं न कहीं प्रभावित होती है, स्त्रियां और बच्चे इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, उनकी परम्परागत सौहार्द भावना क्षतिग्रस्त होती है, जैसे कि अधिकता, सामान्यता का नशा उनके भीतर सरलता की जगह पर अधिक गणतीय समीकरण खड़े करती रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि उनमें जिन्दगी का व्यावहारिक पक्ष कमजोर होता जाता है, हमारे परिवार की आधारभूत प्राणदन्ता को निरन्तर गंदा करता जा रहा है और आज का आदमी इसे भूलता जा रहा है लेखक की स्थापना है कि नैतिकता की ताकत स्वभाव है परंतु वह आम जिंदगी से गायब होता जा रहा है। क्यों ?


एकांत की भयावह त्रासदी - कोई भी सामाजिक जीव ऐसे जीवन को स्वीकार नहीं कर सकता है जिसमें भौतिक समृद्धि अटूट हो, परंतु एक तरल आलापन का अभाव हो नीना ऐसे ही एकांत से पीड़ित है। प्रसिद्ध अभिनेत्री मीनाकुमारी की तरह जो अपनी सामाजिकता की पीड़ा से शराब और शायरी की ओर बहती गई और उसी ने उसका जीवन स्वाहा कर दिया परंतु इस उपवास में नीना ने अपने विवेक को जागृत रखा है उसे अपना अपनी संतान का गन्तव्य याद है, और वह अपनी एकान्त की मश्क्कत से दूर भगाने में तत्पर है बिना किसी संदेश के।


कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यात्री, औरत की जिन्दगी उसकी अस्मिता और उसकी जागरूकता चेतना को बचाए रखने के लिए निरन्तर लेखनी चलाते रहे हैं, यहां याद रखा जाना चाहिए कि यात्री जी की यह वैचारिकता किसी स्त्री विमर्ष से बहुत दूर है, वे तो स्त्री (पत्नी) के हक से पैरोकार है जो कि उसे दिया जाना उपेक्षित है इतनी विकास यात्रा के बाद भी स्त्री के प्रति समाज की दूर दृष्टि क्यों है, लेकिन इस रचना के माध्यम से प्रश्न खड़ा किया है, रचना अपने समय की व्यवस्था करने में समर्थ है इसी कारण से वह पठनीय है।


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