कविताएँ


रश्मि प्रभा, थाणे, मुंबई, मो. 7899801358


 


एक थी अच्छाई और एक थी बुराई


आओ,


आज तुम्हें एक कहानी सुनाऊं,


अच्छाई और बुराई की कहानी सुनोगे ?


 


अरे अरे डरो मत


कुछ नहीं सिखाउँगी


बस कहानी सुनाउँगी....


बहुत समय की बात है,


एक थी अच्छाई


और एक थी बुराई (होने को तो आज भी हैं)


दोनों अपने अपने घर में रहते थे


 


अच्छाई


अपनी खिड़की से


बुराई को देख


मीठी सी मुस्कान देती


बुराई


धड़ाम से अपनी खिड़की बन्द कर देती


अच्छाई


मीठे बोल बोलती


बुराई


बुरे बोल बोलती...


 


एक दिन भगवान


बारी बारी


दोनों के घर आए


अच्छाई ने उनके चरण पखारे


जो कुछ उसके पास था


खाने को दिया


सोने के लिए चटाई दी


और पंखा झलती रही....


भगवान् ने पूछा,


सामने कौन रहती है?


अच्छाई ने कहा - मेरी बहन


भगवान ने पूछा - नाम क्या है?


अच्छाई कुछ देर चुप रही, फिर कहा- अच्छाई !


भगवान मुस्काए,


उसके सर पर हाथ रखा


और चले गए...


 


बुराई ने घर आते भगवान् को


यह कहते हुए रोका


किस हक़ से आ रहे हो ?


कौन हो तुम?


मैं भगवान...."


बुराई ने कहा,


सुनो,


अपना ये तमाशा


उस अच्छाई पर दिखाना


भगवान ने कहा,


वह तो तुम्हारी बहन है न ?


बुराई ने तमककर कहा...


उसे झूठ बोलने की आदत है


खुद को अच्छा दिखाने के लिए


सारे नाटक करती है


भगवान् ने कहा


कुछ खाने को दोगी ?


बुराई ने कहा-


ना मेरे पास वक़्त है,


ना देने को खाना


और भगवान को निकल जाने को कहा


भगवान मुस्काए


और बिना कुछ कहे चले गए


 


कैलाश जाकर


भगवान ने पार्वती से कहा-


अच्छाई कितनी भी कोशिश करेगी


बुराई को ढंकने की


बुराई उसे हटा देगी


और सारे इलज़ाम अच्छाई को देगी....


 


बच्चों मुझे सिखाना कुछ भी नहीं है


बस इतना बताना है


कि


'अच्छाई से बुराई को छुपाया नहीं जा सकता


और बुराई अच्छाई को कभी अच्छा नहीं कह सकती'


अब आगे जानो तुम


हम होते हैं गुम......


 


बड़े हो जाओ खूब बड़े हो जाओ पर थोड़ा रुको


बड़े हो जाओ


खूब बड़े हो जाओ


पर थोड़ा रुको


नन्हें नन्हें फ्रॉक पहन लो अच्छी तरह


बड़े हो जाओ


खूब बड़े हो जाओ


पर थोड़ा रुको


ये जो अबोध खिलखिलाहट है


उसे भरपूर जी लो, जीने दो


बड़े हो जाओ


खूब बड़े हो जाओ


पर थोड़ा रुको


झां झां अच्छी तरह खेल लो


बड़े हो जाओ


खूब बड़े हो जाओ


पर थोड़ा रुको


एक बार स्कूल जाने लगोगे


फिर ये सबक वो सबक


थोड़ा गुस्सा


थोड़ी हिदायतें 


बड़े हो जाओ


खूब बड़े हो जाओ


पर थोड़ा रुको


अपनी नन्हीं सी दुनिया को


बाहों में समेट लो


एक नन्हीं सी डिबिया में संजो लो


नानी/दादी की कहानियों को


पापा, मम्मा के दुलार को


मामा मौसी बुआ के जादुई चिराग को


सिरहाने रख लो


जब कभी लगे


कहाँ गया बचपन!


सब निकालना अपनी पिटारी से


फिर एक डायरी बनाना


सब लिखना


ताकि जब बहुत बड़े हो जाओ


तो एक दिन अपने घर की बालकनी में


उसे पढ़ते हुए


थोड़ा थोड़ा बच्चे बन जाना तुम


 


बड़े हो जाओ


खूब बड़े हो जाओ


पर थोड़ा रुको...


चिरागी जिन्न दोस्त होता है


बचपन में सुना-


अलीबाबा चालीस चोर


मन करता था अलीबाबा बन जाऊँ


कहूँ पहाड़ के आगे


"खुल जा सिम सिम"


और रास्ता बन जाए


खजाना मिल जाए


 


कुछ आगे बढ़ी


तो नज़र में आया अलादीन का चिराग !


चाहा तहेदिल से


मिल जाये चिराग


निकल आये जिन्न


और सारे काम चुटकियों में हो जाये


इस सुविधा में यह भी ध्यान रखा


कि जिन्न कभी खाली नहीं बैठे !


 


फिर ख्यालों में उतरी


सिंड्रेला की लाल परी


चमकते जूते


घोड़ागाड़ी


घेरेवाला फ्रॉक…


छड़ी का कमाल लिए


सिंड्रेला बनती रही ख्यालों में


12 न बज जाए


याद रखा…


इन सारे ख्यालों में


उम्र कोई बाधा नहीं थी


नन्हीं उम्र से आज तक


इंतज़ार किया है


अलीबाबा, अलादीन, सिंड्रेला


जिनि, ... तिलस्मी इतिहास का !


जादुई ज़िन्दगी की तलाश दिलोजान से रही


उम्मीद के तेल आज भी भरपूर हैं


जिसकी बाती आगे करके


अब पुकारती हूँ इनको,


तुम्हारे लिए मेरे बच्चों।


मोगली को बुलाती हूँ


बघीरे से दोस्ती करती हूँ


अलादीन के चिराग पर लिखती हूँ


तुमलोगों के नाम


अरे, अरे आराम से


अभी आएगा जिन्न


और तुमसे कहेगा


"कहो मेरे आका


क्या हाज़िर करूँ?"


अच्छी तरह से सोच लो


और याद रखो,


इन जादुई कहानियों के संग


वक़्त जादू की तरह बीतता है


चिरागी जिन्न दोस्त होता है।


 


अद्भुत शिक्षा!


सब पूछते हैं-आपका शुभ नाम?


शिक्षा? क्या लिखती हैं?


हमने सोचा- आप स्नातक की छात्रा हैं


मैं उत्तर देती तो हूँ,


परन्तु ज्ञात नहीं,


वे मस्तिष्क के किस कोने से उभरते हैं!


मैं?


मैं वह तो हूँ ही नहीं।


मैं तो बहुत पहले


अपने तथाकथित पति द्वारा मार दी गई


फिर भी,


मेरी भटकती रूह ने तीन जीवन स्थापित किये!


फिर अपने ही हाथों अपना अग्नि संस्कार किया


मुंह में डाले गंगा जल और राम के नाम का


चमत्कार हुआ


............अपनी ही माँ के गर्भ से पुनः जन्म लेकर


मैं दौड़ने लगी


अपने द्वारा लगाये पौधों को वृक्ष बनाने के लिए


......मैं तो मात्र एक वर्ष की हूँ,


अपने सुकोमल पौधो से भी छोटी!


शुभनाम तो मेरा वही है


परन्तु शिक्षा?


मेरी शिक्षा अद्भुत है,


नरक के जघन्य द्वार से निकलकर


बाहर आये


स्वर्ग की तरह अनुपम,


अपूर्व, प्रोज्जवल!!


 


देना चाहती हूँ तुम्हें संजीवनी सा मौन


मेरे बच्चों,


मुझे जाना तो नहीं है अभी


जाना चाहती भी नहीं अभी


अभी तो कई मेहरबानियाँ


उपरवाले की शेष हैं


कई खिलखिलाती लहरें


मन के समंदर में प्रतीक्षित हैं


लेना है मुझे वह सबकुछ


जो मेरे सपनों के बागीचे में आज भी उगते हैं


इस फसल की हरियाली प्रदूषण से बहुत दूर है


सारी गुम हो गई चिड़ियाएँ


यहाँ चहचहाती हैं


विलुप्त गंगा यहीं हैं


कदम्ब का पेड़ है


यमुना है


बांसुरी की तान है…


कॉफी के झरने हैं


अलादीन का जिन्न


चिराग में भरकर पीता है कॉफ़ी


सिंड्रेला के जूते इसी बागीचे में


फूलों की झालरों के पीछे हैं


गोलम्बर को उठाकर मैंने यहीं रख दिया है  


कल्पनाओं की अमीरी का राज़


यहीं है यहीं है यहीं है…


 


समय भी आराम से यहाँ टेक लगाकर बैठता है


फिर भी,


समय समय है


तो उस अनभिज्ञ अनदेखे समय से पहले


मैं इन सपनों का सूत्र


तुम्हारी हथेली में रखकर


तुम्हारी धड़कनों के हर तार को


हल्के कसाव के संग


लचीला बनाना चाहती हूँ


यूँ बनाया भी है


पर तुमसब मेरे बच्चे हो


जाने कब तुमने मेरी कोरों की नमी देख ली थी


आज तलक तुम नम हो


और सख्त ईंट बनने की धुन में लगे रहते हो


 


मुझे रोकना नहीं है ईंट बनने से


लेकिन वह ईंट बनो


जो सीमेंट-बालू-पानी से मिलकर


एक घर बनाता है


किलकते कमरों से मह मह करता है


इस घर में


इस कमरे में


मैं - तुम्हारी माँ


तुम्हारी भीतर धधकते शब्दों के लावे को


मौन की शीतल ताकत देना चाहती हूँ…


 


 


निःसंदेह पहले मौन की बून्द


छन् करती है


गायब हो जाती है


पर धीरे धीरे तुम्हारा मन


शांत


ठंडा


लेकिन पुख्ता होगा!


एक तूफ़ान के विराम के बाद


तुम्हारे कुछ भी कहने का अंदाज अलग होगा


अर्थ पूर्णता लिए होंगे


तूफ़ान में उड़ते


लगभग प्रत्येक धूलकणों की व्याख्या


तुम कर पाओगे


और सुकून से सो सकोगे


जी सकोगे !


मौन एक संजीवनी बूटी है


जो हमारे भीतर ही होती है


उसका सही सेवन करो


फिर एक विशेष ऊर्जा होगी तुम्हारे पास !


 


श्री श्री रविशंकर कहते हैं


कि 1982 में


दस दिवसीय मौन के दौरान


कर्नाटक के भद्रा नदी के तीरे


लयबद्ध सांस लेने की क्रिया


एक कविता या एक प्रेरणा की तरह उनके जेहन में उत्तपन्न हुई


उन्होंने इसे सीखा और दूसरों को सिखाना शुरू किया  …


फिर तुम/हम कर ही सकते हैं न !


 


मौन अँधेरे में प्रकाश है


निराशा में आशा


कोलाहल की धुंध को चीरती स्पष्टता


धैर्य और सत्य के कुँए का मीठा स्रोत


 


हाथ बढ़ाओ


इस कथन को मुट्ठी में कसके बाँध लो


जब भी इच्छा हो


खोलना


विचारना


जो भी प्रश्न हो खुद से पूछना


क्योंकि तुमसे बेहतर उत्तर


न कोई दे सकता है, न देना चाहेगा !


यूँ भी,


 दूसरा हर उत्तर


तुम्हें पुनः उद्द्वेलित करेगा


तुम धधको


उससे पहले मौन गहराई में उतर जाओ


हर मौन से मिलो


फिर तुम समर्थ हो


ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव पर 


तुम सहजता से चल लोगे।


 


बच्चों के लिए, उनके सपनों के लिए 


ज़िन्दगी कितनी भी तंग,लाचार हो,


माँ बनते एक स्त्री


देवताओं द्वारा निर्मित दुर्गा बन जाती है,


अपने बच्चों के लिए,


उनके सपनों के लिए।


स्त्री स्वयं में अद्भुत ढाल बन,


बच्चों के सिरहाने होती है,


बन जाती है एकमुखी रुद्राक्ष,


उसकी रगों से महामृत्युंजय जाप निःसृत होता है,


आँखों से बहते अश्रु,


बन जाते हैं गंगा जल,


विशाल समंदर सा हृदय लिए,


एक माँ अपनी लहरों से,


तटों को नम रहना सिखाती है ।


 


मैंने भी तप किया,


सिखाया,


सिरहाने खड़ी रही,


अड़ी रही,


विघ्नविनाशक को अपनी रूह में स्थापित कर,


माँ बनी,


रक्षा मन्त्र बनी,


शंखध्वनि बनी


कभी,कहीं ना चूक जाऊँ,


बस यही ख्याल रहा


और बिना थके,


यूँ समझो, थककर भी ...चलती रही


शुभ ध्वनि की प्रतिध्वनि बन गई।


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