कविताएँ


ज्योत्स्ना प्रदीप,


Email. : jyotsanapardeep@gmail.com


 


 सवाल देश मान का


चलो-चलो रुको नहीं,


कभी कहीं झुको नहीं।


उमंग  है,  तरंग  है,


उछाह अंग -अंग है।


 


बड़ी अजीब आग है,


हिया बना चिराग है।


नहीं कभी हताश हो,


सुदूर भी प्रकाश हो।


 


पुकार प्रीत की सुनो,


न फूल, शूल को चुनो।


न वेदना,  न पीर हो,


हिया नहीं अधीर हो।


 


न द्वेष, लोभ, क्रोध हो,


न ज्ञान का विरोध हो।


सवाल देश आन का,


सवाल देश मान का।


 


मीठा-पानी


मीठा-पानी, मीठा -पानी


करना ना तुम फिर नादानी।


 


कभी खुला ना छोड़ो नल


बहुत ज़रूरी है ये जल।


 


सिखलाती है प्यारी नानी


मीठा पानी, मीठा पानी।


 


रोज़ नहाना, रोज़ नहाना


पानी ज़्यादा, नहीं बहाना।


 


होगी ना फिर, आनाकानी


मीठा-पानी,  मीठा-पानी।


 


बूँद-बूँद को, रोज़ बचाएँ


मिलकर हम सब, कसमें खाएँ।


 


सजी-धजी हो, धरती-धानी


मीठा- पानी,  मीठा - पानी।


 


बरगद बोला


बरगद जी ने मुख जब खोला-


बूढ़ा हूँ मै,  बरगद बोला।


 


मेरा जीवन, कितना सारा


अपना जीवन तुमको वारा।


 


खुद ही करते गड़बड़ झाला


धुआँ भरा है  काला-काला।


 


सड़कों पर बस, गाड़ी, मोटर


इमारतें भी छूती अंबर।


 


तुम सबने पेड़ो को काटा


बुरी हवा को सब में बाँटा।


 


काम भला भरपूर करो जी


प्रदूषण को दूर करो जी।


 


बहुत हुआ अब रोना- धोना


नए - नए बीजों को बोना।


 


हरी-भरी पौधों से क्यारी


तभी सुखी हो धरती सारी।


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