"कोरोना : काहे को रोना, कलात्मकता उभारें, यादें टटोलें, भावनायें साझा करें.."


रश्मि सुमन, साइकोकाउंसलर, इन्फेंट जीसस स्कूल, पटना सिटी (बिहार), मोबाइल: 9631066771


देशभर में कहीं लॉक डाउन लागू है तो कहीं अनलॉक....ऐसे में डाक्टरों की ओर से कोरोना महामारी से बचने के लिए सामाजिक दूरी बनाने की सलाह दी गई है। सामाजिकता व सह-अस्तित्व का उत्सव मनाने वाले मानव के लिए एकांत व सामाजिक दूरी थोड़ी अव्यवहारिक जरूर है। वहीं दूसरी तरफ सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग), आइसोलेशन, व एकांत (क्वारंटीन) को जब हम मन से  स्वीकार करते हैं तो  मानसिक रूप से हम उसके लिए तैयार होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सबसे पहले स्वीकार कीजिए कि हम पर यह विपत्ति आ गई है और हमें इससे इसी तरीके से लड़ना है। परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना नकारात्मकता से मुक्ति पाने का पहला कदम है। आप स्वीकार नहीं करेंगे तो तनाव में ही रहेंगे। साथ ही इस दौरान होने वाले दिनचर्या के बदलावों को लेकर भी हम खुद को तैयार कर लेते हैं। वहीं जब यह आरोपित (इम्पोज्ड) होती है, हम उसे स्वीकार नहीं कर पाते। यह अस्वीकार्यता ही बेचैनी (एगंजायटी) का कारण बनती है, आगे डिप्रेशन में बदल जाती है। यदि हम इसे स्वीकार लें तो कोई दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि भाग-दौड़ भरी जिंदगी में हम सब एक ब्रेक चाहते हैं, तो फिर इसे हम ब्रेक ही मान कर क्यूँ न चलें।


हालांकि जब हम इसे स्वीकार नहीं कर पाते तो इससे कई तरह की दिक्कतें होती हैं। आज के समय में एकल परिवार की संख्या बढ़ी है, यह पारिवारिक संरचना आइसोलेशन व एकांत (क्वारंटीन) के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि जब तक फेस टू फेस कम्युनिकेशन होता रहता है, बेचैनी व डिप्रेशन की संभावना कम रहती है। क्योंकि जब हम अपनी भावनाओं को किसी से शेयर करते हैं, तो इससे मानसिक दबाव कम हो जाता है और जब ऐसा नहीं होता  कुंठा की स्थिति बन जाती है। इसीलिये इन बातों का विशेष ख्याल रखने की जरूरत है।


छोटे परिवारों में अक्सर माता-पिता नौकरी पेशा होते हैं। और बच्चों को कई चीजें एक्सप्लोर करने के लिए घर से बाहर जाने की जरूरत होती है। इसलिए इस लॉक डाउन का असर बच्चों व अधिक उम्र के लोगों पर होने की सम्भावना ज्यादा है। ऐसे में बूढ़े बुजुर्ग को अकेला न छोड़ें। माता पिता  बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बितायें और इस बात का भी ख्याल रखें कि आपके बच्चे को किन रचनात्मक  कार्यों में अधिक रुचि है। बच्चों पर झल्लाएं नहीं, बल्कि उन्हें प्यार से समझाएं।


शहरों में हमारे घरों की बनावट सोशल डिस्टेंसिंग के लिए अनुकूल नहीं है, और लगातार घर में बने रहने से मानसिक तनाव व झल्लाहट हो सकती है। ऐसे में यदि आपके घर में ग्रीन एरिया हो तो वहां समय बिताया जा सकता है, पेड़ों के आस-पास समय बिताने से भी सकारात्मक उर्जा मिलती है। और यदि ग्रीन एरिया नहीं है, तो सुबह-शाम छतों पर वॉक करें । आजकल प्रदूषण कम होने से आसमान भी साफ़ है, उसे निहारें। प्रकृति का सान्निध्य आपके स्ट्रेस को कम करेगा।


डरावनी सूचनाओं की तरफ ध्यान ना दें। बहुत सारी सूचनाओं को इकट्ठा करने का कोई औचित्य नहीं है , सकारात्मक खबरों को पढ़िए और देखिए। वर्तमान स्थिति पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है, कुछ एहतियात व सावधानियों के साथ ज़िन्दगी जिस धारा में बह रही है बहते चलिये, धारा के विपरीत बहने की कोशिश न करें।


 


और यह अवधि तो  एक ऐसा अवसर लेकर आई है  उन सभी चीजों को करने के लिये जो अक्सर भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में पीछे छूट गयी है। संपर्क साधनों के आने से भले ही हमारी सोशल कनेक्टिविटी बढ़ी  है, लेकिन म्यूच्यूअल डिस्टेंसिंग भी काफी (आपसी दूरी) बढ़ी है। हमें इस सोशल डिस्टेंसिंग पीरियड में इमोशनल क्राइसिस से बचना है और म्यूच्यूअल कनेक्टिविटी पर जोर देना है।


इस पीरियड में अपनी दिनचर्या को बेहतर करने पर जोर दें। सूर्योदय व सूर्यास्त को देखें, जिससे कि बड़ी आबादी वंचित है। ध्यान ,पूजा व योगाभ्यास करें। अपनी कलात्मकता को उभारें, जैसे डांस, संगीत, कुकिंग, पेंटिंग, बुक्स रीडिंग आदि। और वह सब कुछ जो आप करना चाहते हैं, लेकिन समयाभाव में नहीं कर पाते।


अपने अब तक के जीवन को देखें, और उसकी समीक्षा करें। पुराने एल्बम देखें, और उससे जुडी यादों की चर्चा करें। परिवार के साथ चेस, कैरम व लूडो आदि सामूहिक खेल खेलें। परिवार के साथ अपनी भावनाएं साझा करें। आपस में अधिक से अधिक जुड़ाव बनाने की कोशिश करें। खाना मिलजुल कर पकाएं व घर की साफ़ सफाई व अरेंज करने में एक दूसरे की मदद करें, इसे देखकर बच्चों में भी आपसी सहयोग की भावना विकसित होगी। पुस्तकें पढ़ें, व डायरी लिखें। यदि आप गाना गाने के शौकीन  हैं, तो उसकी रिकॉर्डिंग करें, फिर सुनें और ठीक करें। दिन भर में कम से कम एक बार मिरर के सामने खड़े होकर अपनी बॉडी लैंग्वेज पर फोकस करें। यह समय आत्ममंथन का है। खुद से खुद की मुलाक़ात करवायें।


अकेले रहने वालों के लिए यह समय कुछ लिखने-पढने का सबसे बेहतर अवसर है। आप अपनी यादों को , अपनी सृजनात्मकता को कागज या कैनवस पर उतार सकते हैं।


भयभीत होने की जरूरत नहीं है लेकिन आपको सतर्क रहने की जरूरत है। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान रखने की जरूरत है. हो सके तो कैश का इस्तेमाल कम कीजिए, जहां डिजिटल पेमेंट संभव है वहां डिजिटल पेमेंट कीजिए। सब्जी और फल को अच्छे से धोकर इस्तेमाल कीजिए।हाथ बार-बार धोइए। लेकिन इसके साथ ही दुर्व्यसन से दूर रहें। नेगटिव विचार मन में न लायें। आशावादी बनें व परिवार के दूसरे सदस्यों को भी नेगटिव विचारों से बचने के लिए प्रेरित करें। उन विषयों पर चर्चा न करें, जिससे बहस की नौबत आये। इन्टरनेट पर कम से कम समय गुजारें व रचनात्मक कामों के लिए ही उसका प्रयोग करें।


 


"दस्तक का मनोविज्ञान "


दरवाजे पर होने वाले हर दस्तक का होता है एक अलग मनोविज्ञान.....


दस्तक देने वाले को कभी कभी अंदर आने की होती है हड़बड़ी ,


वो भी पूरे अधिकार के साथ.... 


जब वह खटखटाता है खूब जोर जोर से बेधड़क


अंदर आकर हाल चाल पूछने की चाहत नहीं 


बल्कि उन्हें तो हड़बड़ी होती है 


सिर्फ पर्दे, दीवारों छत के भीतर आने की....


कुछ दस्तकें मासूम सी होती,


तलवों पर उसकी छुअन महसूस होती...


कभी आगंतुक बड़े ही धीरे से थपथपाता है दरवाज़े को कि क्या पता भीतर बैठा कोई अपने प्रिय से रूठा हो और अबोलेपन की स्थिति हो...


क्या पता कोई  मीठी तरुणाई नींद के आगोश में हो!


और उसके दस्तक से नींद उचट न जाये...


कभी कभी दरवाज़े पर हौले से बिन आवाज़ भी दस्तक होती है..


क्या पता अभी दस्तक हुई नहीं 


कि उस बेआवाज़ थाप को सुन लिये जाने के


मधुर अनुभूति को कोई जान न ले दरवाज़े पर....


कुछ दस्तकें घमंडी भी होती हैं, 


आने वाला दरवाज़े तक आकर बिन खटखटाये लौट जाता है....


उदास भी होती हैं कुछ दस्तकें...


मन के दरवाजे तक भीग जाते हैं मीठी मनुहारों से....


रूमानी भी होती है दस्तकें...


इधर दस्तक हुई नहीं कि 


मन मंदिर में घण्टियां बजने लगती है, 


साँसों का स्पंदन तेज हो उठता है, 


दरवाजा खुले या न खुले 


पर मन में आगन्तुक आ चुका होता है....


क्रोध और डर भी पैदा करती हैं कुछ दस्तकें...


जिसमें एक तरह की धमकी


या चेतावनी होती है..


इसमें जाने कितने शक, दुःख और पीड़ा होती है, 


इसीलिये तो यह खोले जाने का अनुरोध नहीं करती....


कुछ दस्तकें दरवाज़े पर होती तो हैं,


पर उन्हें पता नहीं होता कि भीतर बैठा कोई,


दस्तक देने वाले की गलियों में ही कहीं गुम है....


 


पर, सुनो!


मैं चाहती हूँ कि


जब दरवाज़े खोलने मैं आऊँ,


और तुम सामने रहो....


 


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