मैं पुस्तक हूँ


डाॅ. निर्मल सुन्दर, 6541सी-6, वसन्तकुंज, नई दिल्ली, मो. 9910778185


क्या आप जानते हैं कि एक पुस्तक की रचना एक मनुष्य के समान होती है? हाँ ! मैं एक पुस्तक हूँ। आज मैं आप को बताऊंगी कि पुस्तक यानि किताब में और मनुष्य में लेशमात्र भी अन्तर नहीं होता।


देखिये, मनुष्य के जन्म के समय माँ को बहुत वेदना सहन करनी पड़ती है, इसी प्रकार पुस्तक को भी बहुत पीड़ा में से गुज़रना पड़ता है। जब रचनाकार यानि लेखक के मन में मुछ विचार आते हैं तो वह एकदम नहीं लिख देता। उसे कई-कई दिनों तक तपना पड़ता है। जैसे कुछ काग़ज़ बड़े-बड़े कढ़ाहों में गलकर ही कोई नया आकार ले सकते हैं वैसे ही लेखक को लिखने से पहले प्रसव वेदना में से गुजरना पड़ता है। तब जा कर उसके विचारों को, शब्दों का, वाक्यों का आश्रय मिलता है और तैयार होती है एक रचना। वैसे भी हर रचना कृति का जन्म पीड़ा से ही होता है। वास्तव में लेखक को बहुत तप करना पड़ता है। वह शब्दों को समेटता-समेटता एकान्तप्रिय बन जाता है। उसकी आत्मा की हुंकार होती है उन शब्दों में। अनेक विचार, अनेक मत, चिन्तन सब बिखरे होते हैं उसकी रचनाओं में। रचना चाहे गद्य में हो या पद्य में, इसका कोई अन्तर नहीं होता। धीरे-धीरे लेखक अपनी सामग्री को पुस्तक योग्य बनाता है और फिर कहीं जा कर पुस्तक छप कर तैयार होती है, ठीक इसी तरह जैसे एक बच्चे का जन्म होता है। पुस्तक के गम्भीर विचार वैसे ही होते हैं जैसे बच्चे के निर्माण के समय उत्पन्न संस्कार। बच्चा बड़ा होता है। कुछ समय पश्चात् वह पूर्ण मनुष्य बन जाता है। इसी प्रकार एक किताब जब पाठकों के बीच घूमती है और पढ़ी जाती है तो वह भी पूर्ण पुस्तक का रूप प्राप्त कर लेती है।


पुस्तक में विचार होते हैं, चिन्तन होता है, मनन होता है, सूक्ष्मदृष्टि होती है यानि आत्मा बोलती है और शरीर लिखता है। इसी प्रकार पुस्तकों का अध्ययन करते-करते दूसरा मनुष्य मार्गदर्शन खोजता है और पुस्तक के विचारों की, अपने चिन्तन के साथ पुष्टि करता है। यानि रचनाकार, पुस्तक, पाठक मिल कर एक हो जाते हैं।


तो मित्रों! मनुष्य के तन होता है और आत्मा। मेरा भी तो शरीर है जो काग़जों का बना है और मेरे शरीर में विचारों की, तर्कों की, सिद्धता की सरिता बहाती एक आत्मा है। हाँ ! मैं जीवित हूँ जैसे मानव प्राणयुक्त होता है। सांसें उस को जीवित रखती हैं, ऐसे ही चिन्तन से निकले विचार, तर्क मुझे प्राणदान देते हैं।


मेरा अध्ययन कर लोग अनेक उपाधियां ग्रहण कर लेते हैं और पूरा जीवन यापन उन्हीं के सहारे होता है। मुझी को खंगाल कर कुछ लोग विद्वानों की श्रेणी में आ जाते हैं जो सब के लिये प्रेरणा का स्रोत बन बैठते हैं। सम्मान का सिंहासन उन्हीं लोगों को मिलता है जिन्हों ने पुस्तकों को अपना मित्र बनाया है।


जब भी संकट का समय होता है तो मनुष्य भी वेदों, उपनिषदों, दर्शन या गीता-रामायण आदि का सहारा लेता है तो कभी विज्ञान, इतिहास और साहित्य का क्योंकि इनमें ज्ञान का प्रकाश मिलता है। केवल अपने देश का ही नहीं अपितु विश्व के किसी भी कोने का ज्ञान मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। ज्ञान चिरन्तन है, स्थायी है जैसे सत्य, सत्य होता है, उसे कोई नकार नहीं सकता।


देह नश्वर है। इसलिये देहावसान पर मनुष्य की लीला समाप्त हो जाती है पर आत्मा नहीं मरती। पुस्तकों के ख़त्म होने पर भी उनमें निहित ज्ञान नष्ट नहीं होता। वह निरन्तर चलता रहता है। मनुष्य के होने से पुस्तकों की सार्थकता बढ़ जाती है और पुस्तकों के होने से मनुष्य का सन्मार्ग मिल जाता है। वह भटक नहीं सकता। अतः दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।


अच्छा, एक बात और बताऊँ, पुस्तकों में हर समय का परिवेश, गतिविधियाँ, अच्छाइयां बुराइयां सब मिल जाती हैं। अब देखो न, आज पूरे विश्व पर घोर आपदा आई है। कोरोना वाइरस ने पूरे संसार को अपने पाश में बांध लिया है। लगता है जैसे एकदम पूरी सृष्टि को एक ही ग्रास में निगल जाना चाहता है। ऐसे में मनुष्य क्या करे ? उसके सामने तो कोई योद्धा भी नहीं जिसे अस्त्र-शस्त्रों से हराया जाये। यह कोरोना अदृश्य होकर बार कर रहा है। किसी को छू लेने से ही इसका प्रभाव दिखाई देने लगता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य, मनुष्य से दूर रहे, पर कब तक ? यह कौरोना तो अपना आक्रमण करता है और मनुष्य को धराशायी कर, अपनी भूख मिटा लेता है। बड़ी-बड़ी शक्तियाँ, बड़े-बड़े देश इसके सम्मुख हार मान बैठे हैं। अब जानते हो क्या होगा ? सभी देशों के मनुष्य और वैज्ञानिक, किताबों को खंगालें गे और इसका उपचार ढूंढेंगे। कहीं कोई न कोई युक्ति मिल ही जायेगी और इस कौरोना की औषधि तैयार हो जायेगी। तो मैं यही बताना चाहती हूँ कि पुस्तकें सार्वकालिक होती हैं, सार्वभौमिक होती हैं। यानि संसार के प्रत्येक देश में, प्रत्येक स्थान पर, हर समय में पुस्तकों में लिखित सामग्री प्राणीमात्र के लिये सदैव उपयोगी होती है, कल्याणकारी होती है। पुस्तक का उद्देश्य ही मानव का कल्याण करना है। इसलिये मनुष्य चाहे इस संसार से चला जाता है पर उसका ज्ञान पुस्तकों के माध्यम से सदैव प्रकाश फैलाता रहता है। अतः मैं यानि पुस्तक और मनुष्य दोनों एक समान हैं।


हाँ ! यह कौराना सम्बन्धी सामग्री, भविष्य में सब जगह मिलेगी- साहित्य में भी, विज्ञान में भी और इतिहास में भी। इसका आक्रमण आज पूरे विश्व पर है। इसे तीसरा विश्वयुद्ध भी कहा जा रहा है क्योंकि कोई भी देश उस से अछूता नहीं रहा। ऐसे समय में बुद्धि अपना-अपना काम करती हैं। निश्चेष्ट हो कर नहीं बैठती। हर प्राणी योद्धा की तरह अपनी-अपनी भूमिका निभा रहा है। डाॅक्टर नर्सें, स्वास्थ्यकर्मी, सफाई कर्मचारी, किसान, मज़दूर नागरिक अपने-अपने कार्य को निभा रहे हैं और सब का उद्देश्य है कौरोना को पराजित करना।


अब मित्रो! यह सारी सामग्री, आने वाले समय में इतिहास, विज्ञान और साहित्य में अपने-अपने रूप में मिलेगी। वह बन्द होती पुस्तकों में और भविष्य इसे अपने आंचल में समेट कर सुरक्षित रखेगा ताकि प्राणीमात्र का कल्याण हो सके। कभी प्रेरणा बन कर, कभी ज्ञान बन कर और कभी घटना परिचय बन कर। इसलिये मैं कभी खाली नहीं रहती। निरंतर गतिशील रहती हूँ। रुकना मुझे अच्छा नहीं लगता। मेरी नियति यही है क्योंकि मैं पुस्तक हूँ।


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य