समायिक रचना
डाॅ. चेतना उपाध्याय, अजमेर, मो. 9828186706
धरती पर हरियाली, ऊपर श्वेत बादलों का जखीरा
तेज भागती सडकें, ऊपर नीले आस्माँ का डेरा
कहीं राजनैतिक उठा पटक, कहीं कोरोना की धमक
घरों में ताबडतोड घुसता, बाढ़ का पानी
कहीं कोरोना संक्रमण की अजब गजब कहानी
वैचारिक अस्थिरता का, यों ही बढता सैलाब
बाप-बेटों के मध्य नहीं दिखता कोई कसाव
पाकिस्तान से चीन की तरफ परमाणु बहाव
नहीं कोई लाल किताब, नहीं कोई ठोस हिसाब
धरती पर हरियाली, न दे पा रही खुशहाली
काले श्वेत बादलों का जखीरा न दे रहा वर्षा का बसेरा।
इन्सानियत के जज्बात हवा हो गए
हैवानियत की गाथा समां बांध रही यह
कौन-सी हवा है, कौन से ख्वाबों का सवेरा
जो बिल्ली के गले में अनूठी घंटी बांधे रहा
धरती पर दो भिन्न लिंगी प्राणी का रहता था बसेरा
जाने कहाँ से आ गया अब किन्नरों का डेरा।
स्त्री स्त्री रही, ना पुरूष रहा पुरूष
सब कुछ का पुरूष, ना पुरूष, या पुरुष
नहीं कोई सत् पुरूष, ना कोई महापुरुष