संपादकीय

 
देवेंद्र कुमार बहल, वसंतकुंज, नई दिल्ली, मो. 9910497972


जीवन के प्रति साकारात्मक दृष्टिकोण एवं सद्भाव को चित्रित करते हुए प्रेम-प्रतिष्ठा और प्रेम पराकाष्ठा को परिभाषित और परिष्कृत करते हुए दो हादसे जिनका ज़िक्र जरूरी और संवेदनशीलता के बहाने से प्रसंगिक भी है।


हादिसा-1: नायिका का सोलहवां जन्मदिन नायक के लिए प्रेम पराकाष्ठा का इतिहास बन जाना हादिसा ही नहीं तमाम ज़िन्दगी का एक अहम हासिल है जो नज़्म में नुमायां हो रहा है। (नज़्म कवर पृष्ठ 4 पर)


हादिसा-2: अमृता प्रीतम ने अपना सफर अपनी शर्तों पर पूरा किया, जीवन जीया चाहतों और चुनौतियों के दरमियान, कलम का कर्म और धर्म आखिरी वक़्त तक निभाया और उद्घोष कर दिया अपनी आखिरी 2002 में लिखी नज़्म ‘‘फिर मिलूँगी’’ में


फिर मिलूंगी



मैं तुम्हें फिर मिलूंगी


इस 2002 में लिखी कविता के साथ


अमृता के लेखन की उम्र


पूर्ण हो गई


 


कल तक


84 बरसों से


ख्यालों के दरिया में


अपनी कश्ती के


पलंग पर बैठी


कविता लिखती कविता जीती


वह ज़िदगी के


पंच दरियाओं को पल पल


पार करती रही....


 


और आजकल


वह अपने पलंग पर


सोती जागती


श्वासों के पानियों में


डोल रही-


सिर्फ डोल रही....


 


उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ से एक वाक़या और इमरोज़ की कलम से एक कत्आ अमृता के नाम


इमरोज़


कभी-कभी


खूबसूरत ख्याल


खूबसूरत बदन


अख्तियार कर लेते हैं


 


एक वाक़या


समुद्र में तूफान उठता है, तो लहरें उसकी ख़बर देती हैं, लेकिन कई बार मन में उठते हुए तूफ़ान की बाहर से किसी को खबर नहीं मिलती।


मैं चार साल की थी, जब माँ ने नज़दीक के रिश्ते से लगती, मेरी बुआ के बेटे से मेरी सगाई कर दी थी। फिर माँ नहीं रही, तो पिता ने मेरे ब्याह का फ़र्ज पूरा किया, 1936 में। वे बहुत अच्छे लोग थे, पर लगा, तक़दीर ने किसी बेपरवाही में मेरे और उन अच्छे लोगों के नसीबों पर दस्तख़त कर दिए.......


छोटी-सी थी जब से एक साये से बातें करती रहती थी, और वो शायद मेरे किसी पूर्व जन्म का साया था कि मैं उसे तलाशती रहती थी....


वे दिन देश की तक़सीम से पहले के दिन थे। माँ नहीं रही थी, बहन-भाई कोई नहीं था, और मेरे पिता हजारीबाग में जमीन लेकर एक कुटिया बसाने के लिए चले गए थे और मन की बातें करने के लिए मेरा कोई नहीं था।


डॉ० लतीफ़ लाहौर के एफ०सी० कॉलेज में पढ़ाते थे। मनोविज्ञान के माहिर कहे जाते थे, इसलिए मैं उनसे मिली थी। उन्होंने बहुत वक़्त दिया, कई दिन। उनके कई सवालों के जवाब में जो था, वही कहती रही कि इस ब्याही ज़िन्दगी में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं, सिर्फ एक बात है कि मुझे अपना आप जिन्दा नहीं लगता।


एक दिन उन्होंने पूछा कि मैं किसी और से मोहब्बत करती हूँ ? मैंने कहानहीं। यह सच था। वह भी जानते थे और मैं भी कि जहन में बसे हुए साये घर की छत नहीं बनते।


इसलिए वह पूछने लगे लेकिन घर छोड़कर जाओगी कहाँ ?


मैंने कहा-प्रीत नगर चली जाऊँगी गुरुबख़्श सिंह जी बहुत बड़े साहित्यकार हैं और मैं साहित्यिक काम कर सकती हूँ


उस वक़्त डॉ० लतीफ़ ने मेरा हाथ पकड़ लिया, पकड़ा नहीं थाम लिया। कहने लगे-“ऐसा नहीं करना। मैं गुरुबख़्श सिंह को जाती तौर पर जानता हूँ, तुम्हारी सारी इन्डिविजुअलिटी और क्रिएटिविटी ख़त्म हो जाएगी।"


कई बातें ऐसी होती हैं जो ख़ास नहीं लगतीं, लेकिन बरसों के बाद उनके अर्थ, तक़दीरी अर्थ हो जाते हैं। डॉ० लतीफ़ वाली मुलाकात का ज़िक्र मैंने कभी गुरुबख्श सिंह जी से नहीं किया था. लेकिन एक बार इतना जरूर कहा था कि एक वक्त आया था। मैंने सब कुछ छोड़कर आपके पास प्रीत नगर रहने का सोचा था।


उन्होंने प्यार से कहा, “अगर आ जाती, तो मैं अपने पत्र 'प्रीत लड़ी' का सम्पादन दे देता ।


फिर कई बरस गुज़र गए, जब मैं और इमरोज़ बम्बई रहते थे, वहाँ गुरुबख्श सिंह जी मिलने के लिए आए। उस समय सारा समाज मुझसे रूठा हुआ था, इसलिए गुरुबख़्श सिंह जी का आकर मेरा हाल पूछना मुझे बहुत अच्छा लगा।


बम्बई वाला घर अभी ठीक-सी हालत में नहीं था, चौके में अभी चकला तक नहीं था और मैं थाली को औंधी करके बेलन से रोटी बेल रही थी। गुरुबख्श सिंह जी ने देखा, कहा कुछ नहीं, लेकिन बाद में किसी से कहा-“अगर यह कदम उठाना ही था, तो कोई अमीर आदमी खोजती।"


उस घड़ी मैंने जाना कि डॉ० लतीफ़ ने मेरी कच्ची उम्र में मेरा हाथ पकड़कर जिस राह से रोका था, उसके अर्थ सचमुच तकदीरी अर्थ थे।


मुझे जिस हालत में देखकर गुरुबख्श सिंह जी ने जो सोचा और कहा था, मैं उस हालत में लिख रही थी


 


हमने आज यह दुनिया बेची


और एक दीन ख़रीद के लाए


बात कुफ्र की, की है हमने


 


सपनों का एक थान बुना था


गज़ एक कपड़ा फाड़ लिया


और उम्र की चोली सी है हमने


 


अम्बर की एक पाक़ सुराही


बादल का एक जाम उठा कर


घूँट चाँदनी पी है हमने


हमने आज यह दुनिया बेची....


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