संपादकीय


देवेन्द्र कुमार बहल,
बसंतकुंज, नई दिल्ली,
मो. 9910497972


मैं पहले जितना खुश था, उतना ही आज हूँ।
ज्यादा खुशी की दिल में गुंजायश भी नहीं है।।
                                -डॉ. हरीन्द्र श्रीवास्तव


"आज क्यों साहित्य की दुनिया मुझे अपनी गुरु लगती है? क्यों मेरा मन आज भी अच्छे साहित्य के लिए बेकाबू होता है? इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि सबसे पहले उसी से मैंने जीवन को उसके पूरे विस्तार, हँसी-खुशी और उदासी के विविध रंगों और एक अजीब से चकराने वाले उतार-चढ़ाव के साथ देखा था। सच कहूँ तो जीवन को ठीक-ठीक समझने की शुरुआत मेरी यहीं से हुई थी। तो इसे केवल कल्पना की दुनिया या महज किस्सा-कहानी कहकर कैसे बिसरा सकता हूँ मैं?....." प्रकाश मनु


उपरोक्त पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे 1959 में पढ़ी गई वह पंक्तियाँ याद हो आईं जिन्हें मैं अपनी बी.ए. की क्लास में प्रेमचंद की उपन्यास ‘‘गोदान’’ का समापन पाठ करते हुए रो रहा था।


‘‘..... मगर सब कुछ समझ कर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आँखों से आंसू गिर रहे थे, मगर यंत्र की भांति दौड़ दौड़ कर कभी आम भून कर पन्ना बनाती, कभी होऱी की देह में गेहूँ की भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं थे नहीं तो किसी को भेज कर डॉक्टर बुलाती।


हीरा ने रोते हुए कहा- भाभी दिल कड़ा करो, गो-दान करा दो। दादा चले। धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे ? अपने पति के प्रति उसका जो कर्म है, क्या वह उसको बताना पड़ेगा जो जीवन का संगी था, उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है?


और कई आवाज़ें आईं- हाँ गो-दान करो दो, अब यही समय है। धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सूतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रख कर सामने खड़े दातादीन से बोली- ‘‘महाराज घर में न गाय न बछिया न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है’’ और पछाड़ खा कर गिर पड़ी।’’


इन पंक्तियों को पढ़ते-पढ़ते मेरे जीवन में संवेदनशीलता का अंकुरण हुआ और हिन्दी साहित्य के लिए अभिरूचि का बीजारोपण भी। मैंने प्रेमचंद, यशपाल, देवेन्द्र सत्यार्थी, विष्णु प्रभाकर, अमृत लाल नागर, अमृता प्रीतम, साहिर, मंटो अश्क इत्यादि पढ़ डाले। लेकिन यह साहित्यिक ‘सरस्वती’ प्रयाग पहुँचते ही संगम में लोप हो गई इसका स्थान ले लिया- व्यापार-प्रबंधन, आत्म विकास, दर्शन, मनोविज्ञान और इतिहास ने। फिर 2011 में सागर विलयन से पहले संयोगवश ‘सरस्वती’ का प्रादुर्भाव हुआ जो अभिनव इमरोज़ के रूप में मेरे जीवन में अवतरित हुई। जिसने मुझे जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँचे हुए को वह सुख दिया जिससे मैं 49 साल तक वंचित रहा। सत्य है कि साहित्य के इस आयोजन ने मुझे विशिष्ट लेखकों और सुधि पाठकों के सानिध्य ने सराबोर कर दिया। उन्हीं के प्रोत्साहन से ‘साहित्य नंदिनी’ का जन्म हुआ। वर्तमान में- ‘अभिनव इमरोज़’ और ‘साहित्य नंदिनी’ ने मेरे व्यक्तित्व में स्वयंसेविकता, सौहार्द, और आत्मियता के संस्कार उपदेशित किए और यही संस्कार संपदा और साकारात्मकता की सम्पन्नता मेरे जीवन की प्रथम तथा अंतिम उपलब्धि है जिसे मैं आत्मा के स्तर पर जी रहा हूँ।


पिछले 10 साल से इन दोनों का प्रकाशन करते हुए जो सुखानुभूति का आभास होता रहा है वह मुझे अपने व्यतीत के पेशेवर 52 सालों में कभी महसूस नहीं हुआ। प्रकाश मनु ने तो साहित्य को गुरु माना है और मैंने अपने आप को साहित्य का शिशु शिष्य। अब साहित्य कर्मियों तथा पाठकों की सेवा ही मेरी दिनचर्या है और रात की सुखद नींद है।


‘मन’ मेरा नायक और ‘सोच’ मेरी नायिका मुझे उत्कर्षित करते रहते हैं और प्रेमचंद के कहीं उद्धृत विचार पिछले 60 सालों से मेरे जीवन का फलसफा बन चुके हैं- ‘‘मेरा जीवन एक सरिता की भांति हैं जिसने प्यार तो पर्वत से किया और मिलन सागर में’’ इस प्रेम, प्रोत्साहन, प्रतिभा और मौलिक चिंतन की वाटिका का आखिरी दम तक सिंचन करता रहूँ यही मेरा मंतव्य एवं गंतव्य है।


2012 में अंतश्चेना की पुकार से आकर्षित और सम्मोहित होकर ‘अभिनव इमरोज़’ पत्रिका अस्तित्व में आई थी। और वही पुकार मेरे जीवन का पुरस्कार एवं प्रसाद और जीवनयापन की प्रेरणा और प्रारब्ध है। संयोगवश अपने विचारों की अभिव्यक्ति मुझे प्रो. श्रीहरि की कविता में मिली।


‘‘मैंने अपनी सबसे ऊंची छत से


प्रेयसी को देखना चाहा


तो मंदिर का कँगूरा दिख गया


अब मेरी खोज


मुझमें पूजा बन कर व्याप्त है


और माथे पर


कँगूरे का तिलक लग गया है।’’


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