'शाम भर बातें'

दिल्ली में 23 मई 1949 के दिन एक सांस्कृतिक रूप से समृद्ध परिवार में जन्मीं, दिव्या माथुर ने दिल्ली-विश्विद्यालय से स्नाकोत्तर (अंग्रेज़ी), आई.टी.आई. दिल्ली से सचिविक-प्रशिक्षण लेने के पश्चात दिल्ली एवं ग्लासगो पॉलिटेक्निक्स से चिकित्सा-पत्रिकारिता की। आप ऐम्स-दिल्ली में चिकित्सा-आशुलिपिक (1971-1985) रहीं, जहां आपने अपनी और नेत्र-विशेषज्ञों की सुविधा के लिए मेडिकल-आशुलिपि ईजाद की। पोषण, नेत्र-रोग, और नेत्र-दान आदि पर लेख भी लिखे, जो प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में छपे। 


1985 में आप भारत़ीय उच्चायोग-लंदन से जुड़ीं, 1992 में गोपालकृष्ण गांधी के प्रोत्साहन पर नेहरु केंद्र-लन्दन में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी का पद सम्भाला यहां आपने हज़ारों कार्यक्रमों का आयोजन किया; आपके इस उत्कृष्ट योगदान और नवरचना के लिए आपको आर्ट्स-काउन्सिल औफ़ इंग्लैंड ने आर्ट्स-एचीवर के सम्मान से सुशोभित किया। आपका लन्दन के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन मे अपूर्व योगदान रहा है। स्वतंत्र लेखन-अध्ययन और वातायन के कार्यक्रमों के अतिरिक्त, यह आजकल हैदर-क्लब फ़ॉर डिमेंशिया एवं 'हर्ट्स विज़न-लॉस' में स्वयंसेविका के रूप में कार्यरत हैं।


राॅयल सोसाइटी की फ़ेलो, अंतर्राष्ट्रीय वातायन कविता संस्था की संस्थापक और आशा फ़ाउंडेशन की संस्थापक-सदस्य, आप लंदन में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन-2000 की सांस्कृतिक अध्यक्ष, यू.के हिन्दी समिति की उपाध्यक्ष और कथा-यूके की अध्यक्ष रह चुकी हैं। जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल, विश्व-रंग-भोपाल, कोलंबिया विश्विद्यालय-न्यू यॉर्क, महात्मा गांधी हिंदी विश्विद्यालय-वर्धा, इंद्रप्रस्थ एवं हंसराज महाविद्यालयों-दिल्ली जैसे अनगिनत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों द्वारा आमंत्रित की जा चुकी हैं। आप 'प्रवासी टुडे' की प्रबंध-सम्पादक और कई महत्वपूर्ण प्रवासी पत्रिकाओं के संपादन-मंडल में भी शामिल रही हैं। 


दिव्या जी द्वारा स्थापित और भारतीय उच्चायोग-लन्दन के फ्रेडरिक-पिन्कॉट पुरस्कार से सम्मानित, वातायन संस्था ने पिछले पंद्रह वर्षों में कई ऐतिहासिक कार्यक्रम किए हैं, जिसमें अनन्य प्रतिष्ठित कवियों को सम्मानित किया जा चुका है: निदा फ़ाज़ली, पुष्पिता अवस्थी, प्रसून जोशी, जावेद अख्तर, राजेश रेड्डी, कुंवर बेचैन आदि। वातायन की गतिविधियों में शामिल हैं: लेखकों को मंच उपलब्ध कराना, नियमित गोष्ठियों एवं काव्य-पिक्निक्स का आयोजन, अनुवाद, सम्पादन, विदेश में हिन्दी-शिक्षण पर कार्यक्रमों और सम्मेलनों के आयोजन आदि।


प्रकाशित पुस्तकें हैं: उपन्यास: शाम भर बातें (दिल्ली विश्विद्यालय के पाठ्य क्रम में शामिल)। कहानी-संग्रह: मेड-इन-इंडिया, हिंदी@स्वर्ग.इन, 2050, पंगा, आक्रोश और ज़हर मोहरा। कविता-संग्रह: अंतःसलिला, ख़याल तेरा, रेत का लिखा, 11 सितम्बर: सपनों की राख तले, चंदन-पानी, झूठ, झूठ और झूठ, हा जीवन हा मृत्यु। अँग्रेज़ी में संपादन: औडिस्सी (Odyssey), आशा (Aashaa, देसी गर्ल्स, इक सफ़र साथ साथ, और नेटिव सेंटस, अनुवाद: नैशनल फ़िल्म थियेटर के लिए सत्यजीतरे का फ़िल्म रैट्रो; बीबीसी द्वारा निर्मित कैंसर पर बनी एक डाक्युमैंटरी का हिंदी रूपांतर; मंत्रालिंगुआ के लिए बच्चों की पांच पुस्तकों का हिंन्दी में काव्यानुवाद। गीतों का एल्बम: वतन की खुशबु।


'नया ज्ञानोदय' द्वारा प्रकाशित 'पिछले पचास वर्षो की सर्वश्रेष्ठ कहानियों' में आपकी कहानी, पंगा, सम्मलित, 'सन्डे-इंडियंस' ने भी हिन्दी की पच्चीस बेहतरीन कहानीकारों में आपको शामिल किया है। कई महत्वपूर्ण संग्रहों में भी सम्मलित, आपकी कहानियां और कविताएँ बहुत सी भाषाओं में अनुदित और प्रकाशित हैं। दिव्या ने जिन प्रसिद्ध कवियों के साथ पाठ किया है, उनमें एंड्रूमोशन, रूथपडेल, रोगनवुल्फ, माइकल होरोवित्ज, कैनेथवैरिटी, लिलीमाइकेल्ड्स, शामिल हैं।


नाटक और फ़िल्म: दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा दिव्या के नाटक, फ्यूचर-परफैक्ट, का मंचन, पॉलरौबसन द्वारा प्रस्तुत आपके नाटकTête-àtête और ठुल्ला-किलब का सफल मंचन, दिल्ली दूरदर्शन द्वारा आपकी कहानी, सांप-सीढी, पर एक फ़िल्म निर्मित, रेडियो/दूरदर्शन पर नियमित प्रसारण, कला-संगम द्वारा कार्टराईट म्यूज़ियम-ब्रेडफर्ड में आपकी कविताओं की नृत्य-शैलियों के माध्यम से प्रस्तुति, राधिका चोपड़ा, रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह संगीतज्ञों द्वारा आपके गीत/ग़ज़लों की प्रस्तुति। डा निखिल कौशिक द्वारा निर्मित आपकी सांस्कृतिक और लेखकीय गतिविधियों पर एक फ़िल्म, घर से घर तक का सफ़र, कई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म-उत्सवों में शामिल किया गया।


शोध दिव्या जी की साहित्यिक-उपलब्धियों पर अनन्य स्नातकोत्तर शोध हो चुके हैं। इनकी रचनाएं और पुस्तकें सम्मलित कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में हैं।


आपका नाम निम्नलिखित सूचियों में शामिल हैं: प्रेरणादायक महिलाएं, एशियन हूज़हू, आर्ट्स काउन्सिल ऑफ़ इंग्लैंड के Poems for the Waiting Room, अनुभूति/अभिव्यक्ति, प्रतिलिपि, हिंदी-विकिपीडिया इत्यादि। 


संपर्कसूत्र


Ms Divya Mathur, London NW2 5NN, UK, दूरभाष: 007770775314, ई-मेल: divyamathur1974@gmail.com


प्रवासी जीवन-वृत्ति का एनसाइक्लोपीडिआत्मक रेखांकन


 डॉ० राहुल अवस्थी



लिखना एक प्रक्रिया हो सकती है किन्तु दिव्या माथुर के लिये एक घटना है। उन्हें लेखन की बंधुआ मजदूरी नहीं आती लेकिन लेखन उन्हें करना पड रहा है। लेखन उनकी मजबूरी है। मजबूरी आम तौर पर इंसान से कुछ भी करा लेती है। दिव्या को भी दुनिया से इतर नहीं रखा जा सकता क्योंकि वे भी एक सामान्य इंसान हैं। एक सामान्य जन की तरह ही उनके भीतर भी संवेदनाओ-भावनाओ का अजस्र सोता है। उनकी भी अपनी अनुभूतियां हैं, अपने अनुभव हैं। अपवाद वे इस मामले में हैं कि वे इन अनुभूतियों को अपनी तरफ़ से नहीं, अपनी तरह से व्यक्त कर देती हैं और यही अपवादिकता उन्हें विशिष्ट बनाती है। दिव्या विशेष रूप से एक सामान्य जन-जीवन से जुडी हुई हैं और वही विशिष्ट सामान्य-जनीनता उनको लेखन के नये अन्दाज और उनके लेखन के अन्दाज को नये मानी देती है। इंसान में सामान्य जीवन-धर्म का न होना उसे या तो असामान्य की श्रेणी में ला खडा करता है या असाधारण कर देता है। दिव्या असामान्य को भी असाधारण रूप से साधारण बना कर पेश करने की कला से लैश हैं किन्तु वे ऐसा करती नहीं। उनका मन मानव-मन का स्कैनर है और उनकी नजरें एक्स-रेज। उनके अनुभव-सामर्थ्य की आंखों के अल्ट्रासोनोग्राफ से कोई बच नहीं सकता। उनका लेखन अपने दिक्-काल का अल्ट्रासाउण्ड है और उनका नवीनतम उपन्यास 'शाम भर बातें ' भारतीय प्रवासी जीवनचर्या की एमआरआई रिपोर्टनुमा रिपोर्ताज, जिसके साथ आजकल स्वयं डायग्नोस्टिक डिसेक्शन चल रहा है और बडे जोर का चल रहा है। आलोचना की बडी-बडी पैथोलोजी लैबोरेटरीज और ओटी'ज में उसे नैदानिक मशीनों और शल्यक आलोचना-औजारों तले लिटाया जा रहा है। मुफ़्त में ही नाहक परीक्षण-सर्जरी चल रही है।


हिन्दी में आलोचना न व्यक्तिगत आग्रहों से उठना चाहती है और न अब ये सम्भव लगता है। खास कर तब, जब आलोचना को आलू-चना की चाट बनाकर रख दिया गया हो। मनमाने मसाले डालो और मनचाहा स्वाद पा लो। नमक तो स्वादानुसार रहता ही है। बुजुर्गुआ और बुर्जुआ आलोचकों की स्वाद-ग्रन्थियां खिर-मर चलने से तो अरुचि की समस्या और उत्पन्न हो चलती है। अब तो उदरस्थ पुराने चारे की ही जुगाली चल रही है। कितनी झाग छूट रही है थूथन से और कितनी बन रही है पेट में, पता कहां है और किसे है! शाम भर बातें हों या सुबह भर शुरुआत, उनसे क्या मतलब : उनकी पागुर तो चल ही रही है।


दुनिया बहुत बदली है और इसलिये बदली है कि समय-सरि में न जाने कितना जल पल-पल बहा जा रहा है। बदलाव होता ही है : इसे रोक भी कौन सका है! समय बदलेगा तो समाज बदलेगा और समाज बदलेगा तो साहित्य बदलेगा : विधा, भाषा, शैली, प्रस्तुति - सब बदल जायेगा। बदलते रचना-मानकों के साथ आलोचना को भी दृष्टि-मूल्य बदलने चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो वही होगा, जो दिव्या माथुर के उपन्यास 'शाम भर बातें '  के साथ हुआ है। अपने लोकार्पण-क्षण से ही ये कठनेत्री आलोचकों के निशाने पर आ गया। आश्चर्य का कारण यह है कि  साहित्य के स्वयंभू आजादख्याल सिपहसालार और अधुनातन चिन्तना के झण्डाबरदार जिन जिम्मेदार रचनाकार लोगों को इस प्रसङ्ग में कुछ कहना-करना चाहिए था, वे कवच-केंचुली के हवाले हो लिये हैं।


शाम भर बातें मानवीय प्रवृत्तियों-वृत्तियों का न केवल विश्वकोश है, वरन चरित्रों और आचरणों का लेखा-जोखा भी है। कैसे कोई कुछ का कुछ दिखता है और कुछ का कुछ निकलता है। आचरण और है, आवरण और है। मुखौटों का बाजार बडा गर्म है। मुखौटे खुद परेशान हैं कि हाय! क्या चीज है ये आदमी! हमको भी ओवरटेक कर गया ससुरा। आइने कराह भरी आह भर रहे हैं कि आदमी उन पर अपना हुक़्म तारी देखना चाहता है। धरती की तरह चटकने-फटने से भी रहा कि ये तो अपनी फ़ितरत सहित उसमें समाने-आने से रहा। 'शाम भर बातें '  के क़िरदार ऐसे ही प्रतिनिधि है। विशेष बात यह है कि प्रवासी जीवन के अविश्वसनीय चरित्रों के जो चित्र दिव्या ने 'शाम भर बातें ' से उरेहे हैं, वे बडे विश्वसनीय हैं। इसका कारण ये है कि वे खुद उसकी भोक्ता हैं। दिव्या उस प्रवासी जमात का हिस्सा हैं, जो जमात वहां रहकर भी स्वयं को अपनी जमीन से, अपनी जडों से नहीं काट पायी हैं। शायद यही कारण है कि दिव्या द्वारा प्रवासी चरित्रों का आचारगत प्रेक्षण इतना बारीक़ और विशद बन पडा है। सच तो यह है कि यह उपन्यास न केवल उपन्यास शब्द का बारीक़ बयान है, वरन वह प्रवासी भारतीयों के दैनन्दिन का कच्चा चिट्ठा है।


पात्रों का चारित्रिक-व्यावहारिक निर्वसनीकरण दिव्या के रचना-कौशल की क़ामयाबी भी है और उनका रचनात्मक उद्देश्य भी। दिव्या के पात्र रोजमर्रा और आसपास के परिचित-से इसलिये महसूस होते हैं क्योंकि वे चरित्रों को गढती नहीं हैं, उनका चलचित्रीकरण करती हैं। 'शाम भर बातें ' २-३ घण्टे की एक ऐसी पार्टी का बयान हैं, जहां उत्तर आधुनिकता का दोगलापन अपना विद्रूप्त ग्लैमर लिये ठठा रहा है। कई-कई स्तरों पर जीने वाला मरे से कौन कम है! हम खुद को न देखना चाहते हैं न दिखाना : हम दिखावा करना चाहते है। दूसरे पर अपना छद्म रौब गालिब करके उसे ऐसे मकडजाल में फंसते हुए देखना चाहते हैं, जहां उसे हाथ-पैर मारते देख कर हम हंस सकें; किन्तु ध्यान रहे - यह दिखावा न केवल हमारे उन्मुक्त हास्य को निगल जाता है, बल्कि हमें ही हास्यास्पद बना देता है। समय सबकी समीक्षा करता है : सबकी खबर रखता भी है और सबकी खबर लेता भी है। नकली जीवन जीते-जीते हम कब असलियत को हार बैठते हैं, हमें पता ही नहीं लगता। नकली जीवन जीते-जीते हम खुद नकली हो जाते है। हम पर न केवल हमारे परिवेश का ही प्रभाव पडता है, प्रत्युत वाह्यान्तरिक हर कारक हमें निर्मित करने को जिम्मेदार है। जिन्दगी दोरङ्गी है, नौरङ्गी है कि सौरङ्गी, उपन्यास के गिरगिटाना क़िरदार ऐसा कहने को काफ़ी हैं।


एक ओर माहौल जहां हमारी फ़ितरत को बनाता-बताता है, वहीं हमारी फ़ितरत भी हमारे माहौल को बताती-बनाती है। पुरुष हो अथवा स्त्री, प्रौढ हो या युवक, बालक हो अथवा वृद्ध - हर कोई अपने समय और समाज को गाहे-बगाहे चाहे-अनचाहे ढोता है। उपन्यास के स्तर पर हम एक ऐसे समय और समाज में जी रहे हैं, जहां संवेदनाएं भी घडियाली हो उठी हैं। आनन्द-कन्द कहीं नहीं, सब जगह छ्ल-छन्द। पुरुष तो पुरुष, स्त्रियां तक पुरुषों की बाप हैं। पश्चिम वैसे भी कभी हमारी इन्सानियत का अभीष्ट नहीं रहा लेकिन रोजी-रोटी की मायूस मजबूरी और चमक-दमक की चालबाज चाहत हमको क्या नहीं बना देती और हमसे क्या नहीं करा लेती, यह इङ्गलैण्ड में एक तरह निर्वासी जीवन जी रहे कुछ प्रवासी पात्रों को लेकर लिखा गया उपन्यास 'शाम भर बातें ' हमें बेहतर तौर पर बताता है।


शैल्पिकतः उपन्यास का सबसे उद्धरणीय वैशिष्ट्य है इसकी सम्वाद-भाषा। दिव्या की प्रवासी स्थिति उनकी भाषिक पकड से छेडछाड-छोडछाड, मोडमाड और तोडताड - सबके लिये कैसे जिम्मेदार है, कहना कठिन है! हां, अलग-अलग सम्प्रदायों और स्थानों के क़िरदारों के शब्दों, उच्चारों और लहजों को समझना-समझाना, पढना-पढाना, बताना-बनाना बडी टेढी खीर होती है, जिसे दिव्या ने गजब पकाया है। साथ ही ऐसे सैकडों शब्दों की संरक्षा-सुरक्षा भी सुनिश्चित कर दी, जिन्हें जल्द ही भाषा की रेड डाटा शीट में देखना पड सकता था। भाषा की जितनी व्यक्तिनिष्ठता दिव्या के पास है, वस्तुनिष्ठता उससे किसी क़ीमत पर कम नहीं। भाषा रसाभास की सेतु है। जैसे पात्र, जैसी स्थिति, जैसे भाव, वैसी भाषा। डिस्कोथेक, कैबरे-शोज, नाइट-बार, कैसीनो, पब्स और चाक-चौराहों से आप देवालयों के माहौल और भाषा-संस्कारों की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं!


इस उपन्यास में व्यवहारगत समस्याओ का कैसा-भी समाधान अपनी ओर से प्रस्तुत करने की कोई भी कोशिश नहीं की गयी है। एक आइना भर रखा गया है हमारे सामने कि लो, देख लो कि क्या हो, कैसे हो, क्यों हो, किसलिये हो, कब तक हो! वस्तुतः  यही ईमानदारी रचनाकार की कुव्वत भी है, उसकी विशिष्टता भी है और उसकी सफलता भी। जिसने भी अपने उपदेशों की गांठ लेखनी की लढी पर लादी है, उसका दल-दल में फंसना तय रहा है। सृजनशीलता की सार्थकता तब समझो, जब कथानक की परिस्थितियां और क़िरदार परोक्ष रूप से स्वयं सन्देश  दें उठें। मजे की बात तो यह है कि इस सत्य-तथ्य को स्वीकारने वाले भी न जाने क्यों दिव्या की शाम भर बातें लेकर बखेडा खडा कर पडे।  अगर साहित्य सचमुच समाज का दर्पण है तो इस दृष्टि से दिव्या का उपन्यास 'शाम भर बातें ' यथार्थ के निकष पर पूरी तरह खरा भी है और रचना-संवेदना-प्रस्तुति और सञ्चृति के हिसाब से सौ फ़ीसदी सफल भी। फ़िलहाल दो-चार कङ्कडियां तो आलोचना-दृष्टि-सापेक्ष निकलनी ही चाहिए, नहीं तो छिद्रान्वेषी आलोचकों को क्या भूखा मरना है! ठलुआपन्थी से उंगलीकराऊ आलोचना भली।


शाम भर बातें (उपन्यास) : दिव्या माथुर / मूल्य : रु० ३९५/- सजिल्द / वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली


 


'शाम भर बातें'


यह उपन्यास मेरी एक चर्चित कहानी, ठुल्ला किलब, पर आधारित है, जिसकी सर्वत्र सराहना बहुत पहले ही हो चुकी थी। प्रकाशित होने के कहीं पहले, इस कहानी का नाट्य रूपांतर 1989-90 में ‘Tête-à-tête’ के शीर्षक से पॉल रोब्सन थिएटर-लंदन में नवरंग थिएटर द्वारा प्रस्तुत किया जा चुका था, जो बहुत पसंद किया गया। यह पहला परिचय था ब्रिटिश दर्शकों के लिए भारतीय संस्कृति और विरासत से।



मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि 'शाम भर बातें' को दिल्ली विश्विद्यालय ने अपने बीए-ऑनर्स पाठ्यक्रम में शामिल किया है। इसे प्रयोगधर्मी कहा जा सकता है। इसके मूल मसौदे में केवल संवाद थे, किसी भी चरित्र का कोई ब्यौरा नहीं था।  चित्रा मुद्गल जी और स्वर्गीय मनोहर शयाम जोशी को भी यह कहानी मूल रूप में ही ऐतिहासिक लगी थी। मैंने इसे जब वाणी को प्रकाशित करने के लिए दिया तो कुछ मित्रों और सम्पादक स्वर्गीय राजकिशोर जी की सलाह पर, मैंने उपन्यास के चरित्रों की रूप-रेखा जोड़ दी।



यह दृश्यात्मक शैली में लिखा गया है, जो एक घरेलू पार्टी में पाठकों को आमन्त्रित करता है, जिसमें मैंने अभिवादन, बातचीत, बॉडी लैंग्वेज़, हावभाव, कूटवाक्यों के माध्यम से रस पैदा करने का प्रयत्न किया है। इस पार्टी में हो रही बातें धीरे-धीरे चरित्रों की तह खोलने लगती हैं, जो प्रवासी समाज की दशा और दिशा की ओर इंगित करती हैं; विविध अभिव्यक्तियाँ इस पार्टी में शिरकत कर रही हैं।  यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि यह उपन्यास में ऐसा कुछ नहीं जो कपोल-कल्पना हो, यह सच पर आधारित है, प्रभाव छोड़ने के उद्देश्य से कहीं-कहीं मैंने नाटकीयता का उपयोग अवश्य किया है।


26 नवंबर, 2014 में इस उपन्यास का लोकार्पण इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अक्षरम और वाणी प्रकाशन के एक संयुक्त आयोजन में बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता विख्यात हिंदी लेखक, प्रेमचंद मर्मज्ञ, डॉ कमल किशोर गोयनका जी ने की और लोकार्पण भारतीय ज्ञानपीठ के निर्देशक डा लीलाधर मंडलोई ने; मुख्य अतिथि थे प्रसिद्ध नाटककार और लेखक प्रो. असगर वजाहत और सान्निध्य मिला डा कृष्ण दत्त पालीवाल का। वक्ता थे डॉ प्रेम जनमेजय, अनिल जोशी, अजय नावरिया। जानी मानी लेखिका अलका सिन्हा का संचालन भी उत्कृष्ट रहा।


डा असगर वजाहत ने कहा, 'दिव्या जी के विमर्शों को देखने के लिए सही आँख चाहिए'। डा लीलाधर मंडलोई ने कहा कि यह उपन्यास बदलाव का दस्तावेज़ है। अनिल जोशी ने कहा कि लेखिका की मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ है; उन्होंने सामाजिक, पारिवारिक जीवन, हिंदी की समस्या, नस्लवाद, संस्कृति का खोखलापन, भारतीय दूतावास के अधिकारी, टूटते हुए परिवार इत्यादि बहुत सी समस्याओं को उकेरा है। मन को बहुत तसल्ली हुई। मैं अपनी बात अनिल जोशी जी के आमुख के अंश से करना चाहती हूँ क्योंकि वह मेरी मंशा से भली भांति परिचित हैं। ‘अपने सांस्कृतिक मूल्यों से कटे पश्चिमी जीवन शैली के ग्लैमर से अभिभूत, ईमानदारी, सच्चाई और कर्मठता जैसे गुणों से भरपूर किन्तु जड़ों से कटे इस समाज की रंग और गंध विचित्र है - ना हिंदुस्तानी, ना ही विदेशी..उनके जीवन की महत्वाकांक्षाएं, कुठांए, तुच्छताएं, सोच, अतृप्त इच्छाएं, जीवन शैली, व्यक्तिगत-सामाजिक सरोकारों से रू–ब–रू करते हुए आप पाते हैं कि आप एक एक ऐसे भयावह दृश्य के सामने खड़े हैं  जिसकी जमीन दरकी हुई है, जिसके चरित्र खोखले हैं। अवसरवादी, महत्वाकांक्षी, दोगले, कामुक, नस्लीय, चरित्रों से बने समाज को दर्शाता यह विचारोतेजक और चाक्षुष उपन्यास जलते सवालों के सामने आपको खड़ा कर देता है।’


यात्रा आदि की सहूलियत के लिए प्रवासी एशियंस ने विदेशी पासपोर्ट अवश्य बनवाए किन्तु तन मन धन से वे आज भी  पूर्णतः भारतीय हैं। ब्रिटिश नागरिक होने के बावजूद, क्रिकेट के मैचों में वे चाहते हैं कि हमेशा भारत ही जीते और यदि भारत में कुछ बुरा घटता है तो उनके सिर शर्म से झुक जाते हैं। अचरज की बात यह है कि जिस पीढ़ी ने ब्रिटेन का सांस्कृतिक परिदृश्य और ज़ायका बदल डाला, वे खुद नहीं बदले इसीलिए दो पीढ़ियों के बीच एक ऐसी गहरी खाई उत्पन्न हो गयी कि जिसे पाटना संभव नहीं - भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, प्रेम, पुनर्चक्रण आदि छोटे-बड़े सभी विषयों पर दो पीढ़ियों में भारी मतभेद है।


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