स्कूल भी उदास है


रामेश्वर काम्बोज हिमांशु’,
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मैं रात की गहरी नींद से जैसे ही जागता हूँ कि बच्चों की चहल-पहल शुरू हो जाती है। आज जागा तो सन्नाटा-सा लगा। ओह! आज तो रविवार है। स्कूल की छुट्टी है। आज कोई बच्चा नहीं आएगा। कितना बुरा लगा रहा है! आते ही बच्चों की धमा-चौंकड़ी शुरू हो जाती है। मेरे मैदान में छोटे बच्चे तो एक-दूसरे का पीछा करते हुए सरपट दौड़ते हैं। कुछ दौड़ते-दौड़ते गिर भी जाते हैं। घुटनों पर थोड़ी-बहुत चोट लग जाती है, फिर दौड़ने लग जाते हैं। बच्चों की यह दौड़ तब तक जारी रहती है, जब तक शिक्षकों का आना शुरू नहीं हो जाता है। कुछ शिक्षक टोकाटोकी नहीं करते। बच्चों को भी उनका डर नहीं रहता है। कुछ का काम बात-बेबात डाँटना होता है, उन्हें देखकर बच्चे चुपचाप एक ओर हट जाते है। मैं यह तमाशा दिन भर देखा करता हूँ।


पेड़ भी उदास है। अब तक चार-पाँच शैतान बच्चे आकर डालियों पर लटक गए होते। सुधीर को उल्टा लतकने में बहुत मज़ा आता है चोट लगने का डर बना रहता है। उसकी कई बार हैडमास्टर जी के पास भी पेशी हो चुकी है। छुट्टी के समय देबोश्री अपनी वाटर बोटल का बचा हुआ पानी नीम के पेड़ में डालकर जाती है। यह छोटी-सी बच्ची इस पेड़ का कितना ध्यान रखती है! नन्हीं सुधा तो पत्तियाँ तोड़े बिना रह नहीं सकती। माली को पता तक नहीं चलता। कई बार देबोश्री ने भी इसको समझाया है- “सभी बच्चे इसी तरह पत्तियाँ तोड़ते रहें तो छाया पूरी तरह खत्म हो जाएगी। पर सुधा है कि किसी की बात नहीं सुनती। कई बच्चे तो पानी पीने का बहाना बनाकर कैण्टीन के समोसे खाने के लिए आ जाते हैं। कुछ बच्चे शिक्षक के कक्षा में न आने पर चुपचाप खेल के मैदान में चले जाते हैं।


घण्टी की आवाज से मेरा आलस्य भाग जाता है। बिना घण्टी बजे पता ही नहीं चल पाता कि कितना समय हो गया है ! छुट्टी का समय बीतने का नाम ही नहीं लेता। आज सन्नाटा देखकर मोर जरूर आ पहुँचा है। इसे छुट्टी के दिन ही आने का मौका मिलता है। वह कमरे की खिड़की के काँच में खुद को देखकर, बार-बार उड़कर चोंच मारने की कोशिश कर रहा है। हो सकता है काँच में अपनी परछाई को यह दूसरा मोर समझ बैठा हो। अगर यह न आए तो मुझे बहुत बुरा लगता है।


बच्चे न आएँ तो मेरा मन दिनभर उदास रहता है। पता नहीं बच्चे मेरे बारे में भी सोचते हैं या नहीं! अरे आज छुट्टी के दिन ये दो बड़े-बड़े बच्चे इधर क्यों चले आ रहे हैं? इतने बड़े बच्चे बाहर के ही होंगे। पर इनके चेहरे तो जाने-पहचाने से लगते हैं। इन्होंने आगे बढ़कर पाम के पेड़ों को बाहों में भर लिया है। दोनों लड़कों की आँखें नम हैं। इन्हें देखकर माली बीरनराम भी दौड़कर आ गया है-


“यह क्या कर रहे हो तुम दोनों ? कौन हो, कहाँ से आए हो तुम?” बीरनराम को इस तरह किसी का स्कूल में आना अच्छा नहीं लगता।


अरे काका हम हैं अभिषेक और राहुल! नहीं पहचाना ? ये पाम के पेड़ हमने ही लगाए थे। आपने ही तो इन पेड़ों के नाम अभिषेक और राहुल रखे थे। बीरनराम के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई - “अरे हाँ याद आ गया। कितने बड़े हो गए हो तुम ! तुम्हारे लगाए हुए ये पेड़ भी तो बहुत बड़े हो गए हैं।


मैं भी चुपचाप इनकी बात सुन रहा था। “काका, हम बरसात के महीने में आएँगे” अभिषेक ने कहा-“ हम इस बार गुलमोहर के पेड़ लेकर आएँगे।”


“दोनों गेट के सामने गुलमोहर के पेड़ लगाएँगे। गर्मी में जब गुलमोहर लाल फूलों से लद जाएगा, फिर देखना हमारा स्कूल कितना अच्छा लगेगा”- राहुल ने कहा।


“काका, चारदीवारी के पास अमलतास के पेड़ लगा देंगे। सड़क से जानेवालों को भी कितना अच्छा लगेगा!” अभिषेक ने कहा। “बहुत अच्छा लगेगा मेरे बच्चो ! मुझे तुम्हारा इन्तज़ार रहेगा”- बीरनराम के चेहरे पर चमक आ गई। उसकी आँखें गीली हो गई थीं। उसने दोनों के कन्धों को अपने खुरदुरे हाथों से छुआ तो उनकी भी आँखें भर आईं।


मेरा मन भी पिंघल गया। कुछ देर के लिए ही सही मेरे मन की उदासी भी दूर हो गई। मुझे लगा आज छुट्टी के दिन भी बच्चों की आवाजें मेरे आसपास गूँज रही हैं....


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