उमा त्रिलोक की पुस्तक ‘एक कत़आ अमृता के नाम’ के संदर्भ में

उमा जी!


जब मैंने आप की पुस्तक ‘‘एक क़तआ-अमृता के नाम’’ पढ़ी तो मैं विचलित हो गई। जैसे सोये हुए भावों ने एक साथ आ कर मुझे झकझोर दिया हो। मैं अस्थिर हो गई और उस मनःस्थिति को झेलना कठिन हो गया। आप ने अपनी लेखनी से उस शख्सियत का जो समय की आग में जल कर कुन्दन बन चुकी थी, जैसे चित्रण किया है, बहुत मर्मस्पर्शी है। यदि एक पाठक के नाते मेरा यह हाल हो सकता है तो एक लेखक के रूप में आप की क्या स्थिति हुई होगी, मैं कल्पना कर सकती हूँ।


आग में जलती अमृता को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करना आप का साहस है। मुझे लगा कि आप का ‘क्यों’ सुन कर वह ज़रूर मुस्कराई होगी और ख़ामोश अपने दर्द से लिपट गई होगी। आप ही ने पृष्ठ 34 पर अपना प्रश्न अमृता से पूछा था कि-


‘‘जानती हूँ


पहला प्यार भुलाना बहुत मुश्किल है


लेकिन क्या तब भी


जब दूसरा प्यार ख़ुद को मिटा कर


महबूबा पर कुर्बान हो जाये?’’


‘‘मैंने अमृता से बार-बार पूछा भी लेकिन उन्होंने ने कुछ भी नहीं कहा.... न हां.... न ना।’’ मुझे लगा कि उनकी ख़ामोशी इस प्रश्न का उत्तर थी। वे क्या कहतीं कि मैं अपने इष्ट को बदल दूँ? साहिर को उन्होंने इष्ट ही माना। उनके जीवन में बुहुत चाहने वाले आये पर अमृता को साहिर के अतिरिक्त कोई भाया ही नहीं। हाँ! इमरोज़ भी तो अमृता को अपना इष्ट ही मानते थे।


प्रेम देना जानता है, लेना नहीं। वह प्रतिदान कभी नहीं मांगता। कुर्बानी की नींव पर टिका प्रेम सर्वव्यापी बन जाता है। वही तो हुआ अमृता के साथ भी। उनकी श्रद्धा, निष्ठा देखकर, चाहे अमृता हो चाहे इमरोज़ - अनहृदनाद पैदा हो जाता है और इसी लोक में आत्मा-परमात्मा के मिलन का दृश्य प्रस्तुत हो जाता है।


पृष्ठ 36 पर अमृता ने कहा-


‘‘मेरी और साहिर की दोस्ती के बीच में


लफ़्ज़ नहीं आये थे.... वह ख़ामोशी


का हसीन रिश्ता था।’’


अमृता का यह स्वीकार करना मन की सभी ग्रन्थियों को खोल देता है। वाह! क्या दृश्य है कि अमृता साहिर के छोड़े हुए सिगरेट के टुकड़ों को पीती-


‘‘इस तरह धुएँ की हवा


में दोनों मिलते थे’’


उसके प्रेम की पराकाष्ठा को शब्द देना आप की ही लेखनी का कमाल है। मुझे याद आ जाता है कालिदास जिसने ‘‘मेघदूत’ लिखकर नायक का सन्देश बादलों के द्वारा उसकी प्रिय के पास भिजवाया था।


आप ने कितना सटीक लिखा कि अमृता की ख़ामोशी ने साहिर की ख़ामोशी को सारी उम्र ओढ़े रखा। हाँ ! ख़ामोशी की भी अपनी एक भाषा होती है। पृष्ठ 77 पर


अपनी कृतियों की नायिकाओं की


हसरतों भरी सफे़द धोतियों को


वह अपने जज़्बातों से


गुलाबी बनाती रही।


यह अत्यन्त सुन्दर कल्पना है।


अमृता के जीवन के निकटतम रहस्यों का उद्घाटन आप ने इस पुस्तक में किया है। जैसे इमरोज़ के साथ 42 वर्ष रहना। जब पूछा कि शादी क्यों नहीं की तो उन दोनों का उत्तर था यदि रिश्ते में प्यार है तो शादी की ज़रूरत नहीं। वह इमरोज़ को कभी मुंह से, कभी आंखों से ‘ईमा’, ‘ईमा’ कहती और उन्हें ख़ुद से दूर न होने देती। आंखों-आंखों से ही इमरोज़ का शुक्रिया करते हुए और अपनी आख़िरी नज़्म ‘‘मैं तैनू फिर मिलां गी’’ (मैं तुझे फिर मिलूंगी) मुंह में लिये चली गई।


प्रेम, इश्क, मुहब्बत की चरमसीमा का चित्रण इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य रहा है। इसका अध्ययन करने के बाद प्रेम सिर चढ़कर बोलता है और, जैसे कहता है- ‘‘इसके बाद कुछ नहीं’’।


शैली को वास्तव में नये पथ का प्रदर्शन कर रही है। उसने नया रास्ता खोजा- गद्य और पद्य का मिश्रण। यानि गद्य को पद्य की शैली में लिख कर कविता को भी पंख दे दिये ताकि वह आकाश में उड़ सके।


इस सफल प्रयास के लिये साहित्यजगत आप का आभारी रहेगा



डाॅ. निर्मल सुन्दर, वसन्तकुंज, नई दिल्ली, मो. 9910778185


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