जूतों की चांदी

 


सरो‍जनी प्रीतमसी-111न्‍यू राजेन्‍द्र नगरनई दिल्‍ली -110060, मो. 9810398662


 


जी हां हजूर मैं जूते फेकता हूं


मैं किस्‍म किस्‍म के जूते फैंकता हूं


मैं तरह तरह के जूते फेकता हूं


 


जी यह तो यों सूने में फैंका था


जी कहां मैंने पूणे में फैंका था


जी आप आ गए क्‍या कर सकता हूं


मैं बिना निशाना लगा फैंकता हूं


 


जी आप इसे गद्दी दे दें अच्‍छा


यह राम राज्‍य का वाहक है सच्‍चा


यह पड़ा रहे तो ज्‍यादा चलता है


युग की मर्यादा और विवशता है


 


अब बिना बात के कैसे पचड़े


इक गुम हो या दूजे से इक बिछड़े


बेकार हुआ इसलिए फैंकता हूं


मैं किस्‍म किस्‍म के जूते फैंकता हूं


 


बस पात्र कहीं उपयुक्‍त नहीं मिलता


कहां फैंके युक्तियुक्‍त नहीं मिलता


बस बात यही रह गयी बताने की /


चलने की चीज हो गई खाने की –


खाकर देखें न मुफत फैकता हूं


 


यों खाने वाले किस्‍म किस्‍म के हैं


कुछ कागजी कुछ फौलादी जिस्‍म के हैं


 


जी इन्‍हें भिगोकर मारे तो अच्‍छा


वरना जूता जूते सा नहीं लगता


चाहे लोगों को मारों गिन गिन के


वे इसको जी... अपराध नहीं गिनते


चाहे मारो कितना ही कस कस के


 खा खाकर...झेप मिटा लेते हंस के


 


खाने वालों की एक जमात बनी


फैंकने वालों की संख्‍या कई गुनी


आंकड़े चाहिए जी देखता हूं


मैं किस्‍म किस्‍म के जूते फैंकता हूं


 


यह सैंडिल यह सिन्‍डैला छोड़ गई


इसे ढूढ़ने में लग गए करोड़ कई


 


चौराहे चौरस्ते पर खड़े खड़े


सैन्डिल दिखलाई – जूते बहुत पड़े


सैंडिलों जूतों के किसम सभी आए


जी अच्‍छे अच्‍छों ने भी फिकवाए


आंकड़े चाहिए जी देखता हूं


मैं किस्‍म किस्‍म के जूते फैंकता हूं


 


जी इस जूते के क्‍याकहने जलवे


नौकरियां मिल गई चाट चाट तलवे


हर चाल में यह तो चाल बदलते हैं


न चलें अगर तो ज्‍यादा – चलते हैं


 


यह – तीर सनसनाता – पांव से निकला


चुकता कर ले – हिसाब अगला पिछला


रंगीन मिज़ाज लोगों के नए पचड़े


उनको तो यह – हर दम बेभाव पड़े


जी ... इनके करतब रोज़ देखता हूं


जी हां हजुर मैं...


 


गाली गलौच से काम चलाना जी


जब तैश में आओ तब फिकवाना जी


जो खाएगा – वापस फिकवाएगा


यह उसी तेज़ी से वापस आएगा


हो तू तड़ाक, आपस में बढ़ चढ़ कर


तब ही फैंके जाते है यह अक्‍सर


मारे खींचकर – लो खाल उधड़ी


जाने किसकी करदें यह खाट खड़ी


मैं खाट खड़ी करने को फैंकता


 


आता चुनाव का जब भी मौसम


जी मांग ज्‍यादा हो जाती हरदम


जूतों वालों की हरदम चांदी है


सूची भी हर दल ने भिजवादी है


 


किस किस डिज़ायन के आएंगे लोग


किस किस डिज़ायन के खाएंगे लोग


 


बस ऐसे ऐसे जूते बनवाए


खाने वाले की खाल उधड़ जाए


मैं खाल खींच कर... आंखें सेकता हूं


जी किस्‍म किस्‍म के जूते बेचता हूं


 


पहले का जमाना था जी कुछ और


बस सिर्फ दिखा ही दो, मच जाता शोर


थे ऐसे ऐसे रौबदार जूते


चीं बोल जाए पर- चूं न कर सकते /


कोई उतार ही लेता जब जूते


मरने मारने पर, उतारू होते


ओछी हरकत से हरकत में आते


यों ही न थे ये सब फैंके जाते


जब भिगो भिगो कर मारे ये जूते


जो शेर थे, भीगी बिल्‍ली वह होते


हर कोई जूतों का व्‍यापारी है


जूतों की अब तो मारामारी है


न फैंके न, ये खाए जाते हैं


शब्‍दों के ही कौड़े बन जाते हैं


 


तय थी सशक्‍त भाषा, सशक्‍त नारी


ताना मारा या – फिर- बोली भारी


रामायण के कांड, महाभारत के अध्‍याय


ताना बोली से ही उपजे है प्राय:


जूते फैंकने, खाने का प्रचलन/


यह तो इस युग का ही हुआ चलन


जूतों का धंधा आज बना उद्योग /


जीती मक्‍खी हर रोज निगलते लोग


क्‍या कहा – जी मैं कुछ ज्‍यादा फेकता हूं...


जी हां ...मैं किस्‍म किस्‍म के जूते फैंकता हूं


 


ऐं – जूते के शोरूम में क्‍यों हलचल....?


हरेक के हाथों में जूते चप्‍पल


रे किसने कर दिया यह सत्‍यानाश


पहले इस्‍तेमाल करें – फिर करे विश्‍वास


 


जो आता है जूता दिखलाता है


जूता दिखला – चप्‍पल ले जाता है।


ऐसे मत फैंके करें न ऐसे प्रहार


ले जाए आकर – जी जूतों के हार


जी रूके – इन्‍हें मैं स्‍वयं फैकता हूं


 


जी सुना है फैसला आया नया नया,


वैधानिक जोड़ों का भी प्रचलन गया


हमने भी जूतों के जोड़े बेजोड़


बस एक एक कर दिए हैं सभी तोड़


 


एक गुम तो दूजा होता था बेकार


हमने अब सबके बदले रूपाकार /


अब एक एक जूता है अलग अलग


सस्‍ते दामों में मिल जाएगा अब-/


ऐसे वेसे में – मुफत फैंकता हूं


 


जी—जी- हजूर .. मैं जूते फैंकता हूं..


 


सब ने मुझको यह बात बता दी है


सब जगह सिर्फ जूतों की चॉंदी है


मैं आंखे मूदे आंखे सेकता हूं


फिर किस्‍म किस्‍म के जूते फैंकता हूं



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