क्या खोया क्या पाया (संस्मरण)


कुसम अंसल, नई दिल्ली़, मो. 9810016006


दर्द की विक्षिपृता में और सफेद दीवारों के खालीपन में एकाएक जागकर मैं इतना भर समझ पाई थी कि हाँ, मैं भी, पूरे संसार में फैले हुए, प्राणघातक रोग ‘कोविद' की प्राणलेवा गिरफ्त में फंस चुकी हूँ, जिसमें लाखों लोग अपनी जान खो बैठे हैं । अब यहाँ अकेले अस्पताल के इस आईसोलेशन वार्ड में मुझे इस रोग के प्रकोप से जूझना है- क्योंकि इस बीमारी में घर का कोई भी सदस्य, पति सुशील जी... कोई भी नहीं आ सकता । पेट में दर्द की एक टीस उठती है, अस्पताल की तीखी गंध फिर से बेसुधि की ओर ले चलती है । आश्चर्य घर में इतनी अधिक सुरक्षा, नियम-संयम अपनाने के बाद भी जाने किस खिड़की से फलाँग कर यह रोग मेरे शरीर में प्रवेश कर गया... आश्चर्य?


जीवन भर मैं अपनी बीमारियों, ऑपरेशनों, दर्द से कभी भी इतना नहीं घबराई थी, जितना भी बन पड़ा था मन प्राण में सहजता से सारे कष्ट झेल गई थी। शायद इस कारण कि शरीर मेरी द्विविधा कभी नहीं था- ना ही मैंने शरीर को कभी अहमियत दी थी । यहाँ तक पहुँचने तक की यात्रा, एकाएक मेरी स्मृतियों में एकाएक बर्तुलाकार बहने लगी । घर पर ही जब थोड़ा बुखार और साँस लेने में कष्ट था तो कोविद का टैस्ट कराया, पॉजिटिव आने पर अपने आप को एक कमरे में 'क्वारनटाईन' यानी अकेले में रहना था । कमरे के बाहर समय पर चाय खाना गत्ते के कप प्लेट में सेवक रख जाता था, मैं खा लेती थी और अपनी प्रयोग की हुई वस्तुएँ एक प्लास्टिक के लिफाफे में डालती जाती थी डिस्पोसेबल- जिन्हें बाहर फैंकना होता था । अपना कमरा खुद साफ करना, कपड़े भी धोना- चार पाँच दिन में मैं थकती चली गई। मेरी हालत और बिगड़ती गई। बुखार बढ़ता गया और 'ऑक्सीजन लैवल-' कम होता गया तो घर पर ही एक नर्स रख कर ऑक्सीजन की नलियाँ मेरी नाक में ढूँस दी गई । दिन रात उसी के साथ सोना उठना- परन्तु स्वास्थ्य में गिरावट बढ़ती गई। पेट में दर्द भी कम नहीं हुआ। अधबेहोशी की अवस्था में सुशील जी ने मुझे अस्पताल चलने का संदेश सुनाया- मेरे शिथिल होते शरीर में अब निश्चय लेने का दम नही बचा था ।


अस्पताल पहुँच कर एक व्हील चेयर बड़ी कठिनाई से मिल सकी । जहाँ हम गाड़ी से उतरे,वहाँ काफी भीड़ थी लोग बेतरतीब कुर्सियों पर बैठे थे या खड़े थे । कोई नियमबद्वता, सोशल डिस्टेंसिग जैसा कुछ नहीं था । पता चला यह 'कोविद-विंग' है, यहाँ पर अपना नाम रजिस्टर कराना है- टेलीविजन पर उभरते आँकड़ों में जुड़ता अपना भी एक नाम । जिस लम्बे गालीयारेनुमा कमरे में हम दाखिल हुए वहाँ दोनों ओर कोविद के मरीज लेटे थे कोई ड्रैस-कोड नहीं जो जैसा था, वैसा पड़ा था । बड़ा आश्चर्य हुआ मुझे- कैसे ठीक होंगे यह लोग? खैर उस दलदल को फलाँग कर हम किसी तरह बड़ी कठिनाई से जिस कोने में पहुँचे- वहाँ एक नर्स मास्क- दस्ताने पहने रजिस्टर पर नाम लिख रही थी । बड़ी कठिनाई से डाक्टर से फोन पर बात कराने के बाद उसने अपने रजिस्टर में मेरा नाम लिखा । इस पूरी प्रक्रिया में दो घंटे लग गये । बाहर आकर कुछ दूरी पर अस्पताल के कर्मचारी ने मेरी व्हील-चेअर सम्भाल ली, अब मुझे 'आईसोलटेड वार्ड' की ओर जाना था । सुशील जी और नवीन को..... उसने कहा "अब आप लोग आगे नहीं आ सकते ।"


सुशील जी ने दूर से हाथ हिलाया...... न वह कुछ कह सके ना मैं. ... मेरे साथ घर से आई नर्स थी, ज्योति जिसे सुशील जी ने अपना फोन नम्बर लिखवा दिया था- मेरे उनके बीच बस एक वही सेतु अनजान  । बैचेन सी विदाई... तर्कबुद्वि कुंठित हो चली थी अनिष्यता का पल, सोचने से पहले लिफ्ट का दरवाजा खुला बंद हो गया, बस बाहर का संसार बाहर छूट गया । मैं बिना अलविदा कहे अपने दर्द सिहरती लम्बे कौरिडोर के धुंधलेपन में चल कर एक कमरे में आ गई थी । ज्योति ने पलंग पर बैठा दिया.... संयत होने के लिए पानी चाहिए था- "ज्योति पानी पिला दो ।"


"हाँ" वह कमरे में ढूँढती रही- पानी की कोई बोतल गिलास कुछ भी नहीं .... घर से चलने पर न तो किसी ने दिया... न मेरी अर्धचेतनता में स्मरण शक्ति बची थी । घर से ग्यारह बजे चले थे अब दोपहर के चार बज गये थे । ज्योति ने अपने बैग से निकाल कर अपनी जैसी भी थी झूठी या.. प्रयोग की हुई बोतल से मुझे पानी पिलाया । मैं अपने लिये कभी नहीं रोई थी । परन्तु इस दुर्गाति - हालात- व्यवस्था पर या अकेलपन पर मेरे आँसू रूकते नही । शायद एक घंटा और बीत गया । सुशील जी का फोन बज उठा मैंने उन्हें बताया कि "अभी तक कुछ नहीं हुआ है- नर्से आती हैं जाती है.. पर अगर यही खाली सा ट्रीटमेंट है तो मुझे यहाँ से ले जाओ- घर पर ही मरना पंसद करूँगी मैं ।"


उन्होंने डॉक्टरों को फोन किये होंगे, भारतवर्ष में बहुत आवश्यक है डॉक्टरों से आत्मिक रिश्ते बना कर रखना- नहीं तो कोई नहीं पूछता, फिर यह तो कोविद का समय है- दूरियाँ निभाने का - छूआछूत के नियमबद्व रास्ते पर चलने का- दोष दे भी तो किसे? अपनी स्थिति को? या ढेर सारे मरीजों की लम्बी कतार को या ट्रकों पर लादते मृत शरीरों को? किसे?


ज्योति खाने की ट्रे ले आई थी, भूख की अपनी दास्तान होती है-मैंने खाना खाया उसने भी । पानी भी पीया हमनें ।


डॉक्टरों की टीम आ गई- ऑक्सीजन मास्क चेहरे पर टिका दिया । नर्स को वह सारी दवाईयाँ- लिखवा रहे हैं- मास्क के ऊपर मास्क, मैं कुछ सुन नहीं पा रही, पर सुनना तो मुझे ही है- क्योंकि और तो कोई भी नहीं है मेरे पास एक अजनबी ज्योति बस । मैं सुशील जी का नम्बर मिला कर डॉक्टरों से उनकी बात करा देती हूँ । अब यही एक सहारा है......फोन । मैं जो इस फोन, आई फोन, आई पैड की तकनीकी कठिनाईयों को कम से कम समझना चाहती थी, उसके ऐडिक्शन से बचना चाहती थी उसी की 'आई', 'ईगो' एक महत्वपूर्ण भूमिका में अकड़ कर यह फोन मेरी आवश्यकता बन गया था । खासकर जब ‘फेसटाईम' पर सुशील जी से बात करती थी तब लगता था जान में जान आ गई है । ज्योति ने बताया था- सुशील उससे और डॉक्टर से भी पूछते रहते थे" विल शी कम बैक?" क्या मैं मृत्यु के द्वार से लौट कर घर आ पाऊँगी?" वह प्रश्न जब तब मेरी अर्धचेतनना में दस्तक दे रहा था ।


ऑक्सीजन मास्क अब बड़ा कर दिया गया था पूरे चेहरे को ढकता चुभता । दाँये हाथ में दो लम्बी सुईयाँ फँसा कर... औषधियाँ मेरी धमनियों में बहने लगी थी । नर्से अपना काम करके चली जाती है-मशीनों से हाथ दर्द से राहत मिलती है मुझे  । ज्योति बताती है-


"अभी आपका 'एक्स-रे',भी होगा, कोविद के प्रभाव से आपके फेफड़ो में हो सकता है- कुछ डैमेज हो गया हो ।"


"तो क्या दर्द इसी कारण लहर सा उठता है भीतर?"


"हाँ" वह गरम पानी की बोतल मेरे पेट पर टिका देती है तो मैं संयत हो पाती हूँ, पर कंपकपाहट अभी भी बहुत है- पत्ते जैसा काँपता है शरीर जब भी आँखे उठाती, सामने की दीवार के मटमैले परिवेश में एक छोटा सा टैलीविजन मुझे घूर कर देखता रहता था, साक्षी, द विटनेस ।


अपनी भयानक कँपपहाट के बीच मेरी चेतना में, एक प्रश्न उभरता है" हे भगवान, यदि कोविद की बीमारी से मेरी मृत्यु हो गई हो तो ? तो, आप किस योनि में जन्म देंगे मुझे? स्त्री, पुरूष, पशु या पक्षी, या जैसे मेरी मित्र मंजू गुप्ता अपनी कविताओं में कहती है, वह तितली बन कर जन्म लेना पसंद करेगी । शायद, उसके लिए प्रकृति, फूल उनका सौंदर्य आनन्ददायी है । परन्तु मेरी मनः स्थिति में वह सब अवश्य ही अलौकिक सौंन्दर्य का प्रतीक है, मैं भी फूलो... वृक्षों... लताओं.... चिड़ियों या कबूतरों को अपने जीवन की दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण अंग मानती हूँ जीवन की लैंडस्केप को प्रकृति से अलग कैसे किया जा सकता है? परन्तु इस बीमारी के चलते जाने कैसे मेरे मन में एक बुद्धिजीवी मानसिकता तैर आई थी, तो फिर? मेरी आत्मा की नियति, मृत्यु के बाद क्या होगी प्रभु? हमारे भारतीय संस्कार कहते हैं पुनर्जन्म होता है, तो मेरा क्या स्वरूप होगा भगवान? मन में एक छटपटाहट, घबराहट मेरी साँसों को असंयत कर जाता हैं । पेट के दर्द की टीस से आँखों में अंधेरा सा छाने लगता है... | क्या होगा मेरे इस जीवन का अंतिम अर्थ? तभी मेरी दृष्टि दीवार के काले टेलीविजन पर पड़ती है । घर में मेरी पढ़ने की मेज के ऊपर महर्षि रवीन्द्र नाथ टैगोर का भव्य चित्र लगा है, वही,स्मृति में आ टिकता है । आँखे खोलती बन्द करती हूँ- तो बस वही चित्र कोंधता है बार बार । एकाएक मेरे दर्द को परे खिसकाकर एक शीत बयार मन में तैर आती है । हाँ यदि ऐसा जन्म, .. ऐसा मनुष्यत्व, आत्मा का रूपान्तरण बुद्धिजीविता, मेरी आत्मा को प्राप्त हो तो मुझे स्वीकार है यह कोविद.... मृत्यु । शरीर के भीतर के गैवीटेशन में वह चित्र गहरे कहीं डूब जाता है- और अचानक सारा का सारा दर्द भी एकाएक थम सा जाता है असीम सी शांति जैसे किसी ने मेरे सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया था । सुख का क्षण बड़ा हो जाता है- ना चाहने पर भी गत्ते के गिलास की चाय मुझे सुखकर लगती है ।


नर्स आकर मेरे हाथ की सुईयों में इंजेक्शन लगा रही थी- तीखी दर्द की लहर ज्वाद सी उठती है.... उसके चेहरे पर मास्क..... मास्क के ऊपर प्लास्टिक का दूसरा मास्क- कोई अपना हाथ नहीं जिसे पकड़ सकूँ । परन्तु नर्स के चेहरे का मास्क, देखकर याद आया, मैंने भी, काफी पहले 'मास्क' या 'मुखौटों' पर कविता लिखी थी मैंने तो वास्तविक चेहरों पर लगे चेहरे को, उनकी बनावटी, नाटकीयता के खोखलेपन को उकेर कर उनकी दास्तान कही थी । विशेष रूप से अपने सगे सम्बंधियो के चेहरे विशेष जो झूठ पर झूठ संम्प्रेषित करते मास्क मेरे आगे पारदर्शी हो जाते थे । उनके चेहरे पर चिपकी मधुर मुस्कान के पीछे भीतरी कसैले भाव उभर कर सारे वातावरण में कटुता की एक वाईब्रेशन फैला देते थे । उनके पारदर्शिपन की सच्चाई यकीनन मुझे बहुत कुछ समझा जाती थी, एक दृष्टिकोण, एक आर्टीफिशल रिमेमंबरिंग । अब ये मास्क इस जानलेवा बीमारी के कीटाणुओं से बचने का साधन बन गये हैं । जिसे लगाये बिना जीना असम्भव सा हो चला था । कुछ मित्र पुराने सरमायेदार इस बीमारी का शिकार भी हो गये थे वह मेरी स्मृतियों आ खड़े होते हैं ।


पीछे लौटती हूँ तो याद आता है, अभी महीना भर पहले कुम्मी ने फोन पर मैसेज किया था "आफताब नहीं रहे, ही लैफ्ट अस फोर हिज डिवाईन जरनी ।"


"अरे" मैं चौंक गई, अभी कुछ महीने पहले ही तो, हाँ कोविद से काफी पहले उसने अपनी शादी की ‘साठवीं" सालगिरह सैलीब्रेट की थी । तब भी आफताब व्हील चेअर पर थे- विवाह का इतना लम्बा, साथ, कितने लोगों को नसीब होता है । और कितना जी सकता है कोई?


कुम्मी मेरे बचपन की मित्र है- अलीगढ़ में हम साथ-साथ बड़े हुए थे- उसकी अम्मी, अख्तर आपा और खाला, जमीला आपा, अपने आप में काफी मशहूर और आकर्षक शख्सियत थीं अलीगढ़ की । वह दोनों मेरे पापा को राखी भी बाँधती थी । कुम्मी की फूफी(बुआ) थीं इस्मत चगताई, (उर्दू की महान साहित्यकार) आज भी जिनका नाम फक्र से लिया जाता है ।.. वह भी जब अलीगढ़ आतीं हमारे घर अवश्य जलपान के लिए आती थीं । तब मैं उनके साहित्य को समझती नहीं थी । बहुत वर्षों बाद जब लिखना आरम्भ किया तो.... यहाँ दिल्ली में, वह मेरे घर आती जाती थीं । मेरे उपन्यास, एक और पंचवटी' का उन्होंने उर्दू में अनुवाद किया था... मेरी सबसे बड़ी मूर्खता थी कि वह मैंने उनसे नहीं माँगा, और ना ही उन्होंने दिया । सोचती हूँ आज वह मेरे लिये कितना मूल्यवान होता?


तो आफताब चले गये- कुम्मी अकेली रह गई.. बेटियाँ दुबाई में रहती हैं । हमारी मित्रता में हम कभी भी हिन्दू मुसलमान नहीं हुए थे । वह और मासूमा अक्सर मेरे साथ साहित्यिक कार्यक्रमों में मेरे साथ आ जाती थीं । एक बार जयपुर के 'लिटरेरी फैस्टीवल' में गये थे । और एक बार चंडीगढ़ में मेरा नाटक 'उसके होठों का चुप* मंचित होना था वहाँ भी हम तीनों होटल के एक ही कमरे में साथ साथ रहे थे । नाटक समाप्त होने पर कुम्मी बड़ी गर्मजोशी से उठी- तालियाँ बजा कर कह रही थी- "शी नीडस स्टैडिंग ओवेशन"। हाल के सारे लोग खड़े हो गये- तालियों की गड़गड़ाहट मुझे रोमांचित कर गई थी।


नर्स ने मेरे हाथ की नलियाँ बदल कर नई दवाईयाँ उड़ेल दी। एक दृश्य छूट गया, स्मृतियाँ भी डगमागाई, याद आया, अभी, पिछले महीने कॉल साहब, कोविद के शिकार हो गये थे। मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण था उनका जीवन, बहुत पुरानी मित्रता, बहुत से पुराने जुड़ाव मन में चलचित्र से चलने लगे। हमेशा सूट टाई में सज्जित शालीन, भव्य सा व्यक्तित्व। कश्मीरी होने के कारण, गौर वर्ण, आकर्षक चेहरा, चश्में के भीतर एक गहरी कवि दृष्टि। डॉ. कौल 'पोइट्री सुसाईटी आफ इंडिया' के प्रधान थे। वर्षों उनके कार्यक्रम इंडिया इंटरनैशनल के 'सेमीनार हॉल न. तीन' में होते थे। जहां देश विदेश के उच्च कोटि के लेखक कवियों से मिलने का अवसर मिलता था। उन गोष्ठियों की शालीनता, एक शुद्ध सांस्कृतिक वातावरण, मुझे ही नहीं प्रायः सभी भाग लेने वाले–साहित्यकारों और श्रोताओं को अनुभव होता था। इंडिया इन्टरनेशनल आते जाते- पुस्तकालय से पुस्तकें लेते बदलते, छोटे बड़े वार्तालापों, के बीच डॉ. कौल अक्सर मुझसे कहते थे, "कुसुम जी आपको अपनी ओर से एक लेखकीय पुरस्कार आरम्भ करना चाहियेआपकी इमेज को सूट करता है।"


मैं हँस कर टाल देती थी। परन्तु एक-दिन अपने घर के रात्रिभोज पर मैंने डॉ. इन्द्रनाथ चौधरी, लन्दन से आये कृष्ण कुमार जी, डॉ० नरेन्द्र मोहन, डॉ. महीप सिंह, सुनीता जैन और शामा आदि को आमन्त्रित किया था। डॉ. कौल ने सुशील जी से पुरस्कार की बात की, जो एकाएक सुशील जी को बहुत भा गई। कभी कभी सुशील जी कहते थे "कुसुम तुम हमारे परिवार में एकमात्र लेखिका के रूप में आई हो तो हमारा फर्ज बनता है, तुम्हारे लिये कुछ करें... कि आगे आने वाली हमारी पीढ़ी तुम्हें लेखिका के रूप में याद रख सके।" बस वहीं से 'कुसुमंजलि पुरूस्कार' की नींव पड़ गई। डॉ. कौल और श्री इन्द्रनाथ चौधरी ने बड़े मान से हमारे इस महत कार्य को अपने कंधों पर उठा लिया। 2013 में पहला पुरस्कार बहुत भव्य समारोह के रूप में आयोजित हुआ था, जिसके मुख्य अतिथि डॉ० कर्ण सिंह जी थे। प्रायः सभी प्रबुद्ध लेखक मित्रों ने पुरस्कार की सराहना की थी। अब डॉ० कौल की मृत्यु का समाचार, वह भी क्रूर कोविद के हाथों मुझे सिहरा गया। अचानक?


मैंने संगीता से बात की, वह उनकी निकट मित्र है... वह रोये जा रही थी। कोविद की मृत्यु के समय न कोई शमशान जा सकता है न कोई शोकसभा होती है। एक अजीब सी मजबूरी मन की उदासी, दुख, मन में ही रह जाते है । आपस में मिल कर रो लेने से कह देने से मन का दुख कुछ हलका हो जाता है। बहुत पुरानी विद्या, हमारे पंजाबी घरो में कि तेरह दिन तक जमीन पर बैठते थे। घर के, बाहर के, मित्र रिश्तेदार, बूढ़ी औरतें सफेद साड़ी से सिर ढ़क कर 'बैन' करती थी... 'बैन' में उस मृत व्यक्ति की विशेषतायें... उनके निधन के बाद होने वाले अभाव को लेकर बड़े लिरिकल फार्म, में कही जाती थी। 'रूदाली' नाटक और फिल्म, उसी, एक, जैसी भी जानिये, प्रथा की एक किस्सा बयानी है। मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो उसे 'कैथमर्सिस' या रेचन कह सकते हैं- मन का गुबार शब्दों और आँसुओं के रेले में बह जाता था मन सम्भल जाता था। परन्तु अब... एक गहरा मौन-बस मौन और अंदर घुटता गुबार। उस गहरे मौन को और सिहराता घर से आई कुछ पुस्तको के साथ The journal of the poetry society (India) मेरी मेज पर आकर मुझे आँसुओं से भर जाता है। क्या पोइट्री सोसायटी और डॉ. कौल.... या उनके 'डैलनेट' को एक दूसरे से अलग किया जा सकता है? पत्रिका में उनके 'प्रैसीडिन्ट कॉलम' में पहला लेख 'पोइट्री इज प्रेयर' उनके जीवन का शायद अंतिम लेख या उनकी जीवन ऊर्जा से निकले अंतिम वाक्य ।


डॉ. कौल के साथ एक महत्वपूर्ण मंच एक बहुत खूबसूरत आयोजन, कवितायें, संगठन, उनके साथ-साथ हमारा 'कुसुमांजलि पुरस्कार' लड़खड़ा गया।


कोविद के कहर की सुनसान खामोशी में निःशब्द बैठे रहना पड़ रहा था तो मैंने लवलीन ठंडानी से बात की उसने कौल साहब और उनके डेलनेट को लेकर पूरी फिल्म बनाई थी। वह भी इस समाचार से एकाएक सिहर गई मेरे उसके फोन के बीच निः शब्द साँसे बहती रही।


"खामोशियाँ यूँ ही बेवजह नहीं होती।


कुछ दर्द आवाज छीन लिया करते है।"


और अब सत्रह अगस्त है। शाम के पाँच बजे है। 'फ्लो' (फैडरेशन ऑफ इंडियन कॉमर्स) का एक 'वैबिनार' मेरे ‘आईपैड' पर चल रहा है' एकशाम कविता के नाम'। अब यही 'बैबिनार' नामक नये किस्म की कवि गोष्ठी है- जहाँ 'आई पैड के स्क्रीन पर उभर कर अपनी बात कहती हैं | जो जुड़ना चाहते है वह एक 'लिंक' द्वारा जुड़ जाते हैं' एक दूसरे को देख सकते है बात कर सकते हैं- अभिव्यक्ति का नया-नकोर उपाय । मैं कविता पढ़ चुकी हूँ.. ‘रावलपिंडी' ... स्क्रीन पर प्रतिक्रियाँए उभर रही हैं। परन्तु मेरे फोन की घंटी बज रही है। मैं मुड़ कर देखती हूँ- भाभी अंजू सहगल- मेरे बड़े भाई विनोद भईया की पत्नी कोविद का एक और ग्रास ।


असमर्थता इतनी, कि जा नहीं सकते... अंतिम विदा अंतिम संस्कार में भाग नहीं ले सकते- पूरा घर कोविद के क्रूर सरसराहट से भरा पड़ा है । मैं भाई के गले लगना चाहती थी- लिपट कर रोना चाहती थी, परन्तु चुपचाप जहाँ बैठी थी बैठी रह गई । कोविद कौन सी कला है मृत्यु की – हजार मील की दूरी पर छोड़ जाती है परिवार के सदस्यों को । शाम को मृत्यु हुई थी... कोविद के मृत मरीजों को शमशान में अंतिम क्रिया के लिए 'एन.डी.एम.सी. से अनुमति लेनी पड़ती है । भाभी के क्रियाकर्म के लिए सुबह छ: बजे का समय दिया गया था । तो भाई ने अपनी बेटी और बेटे के साथ.. उस अकेलेपन में भाभी को विदा दे दी थी । हम सब अपने घरों में बंद रह गये... रह जाना पड़ा, क्या करते? मैं उनके बहुत निकट थी । वह मेरी भाभी कम मित्र अधिक थी । हमने लगभग पूरा जीवन साथ जिया था- यात्रायें की थीं, सुख दुख साथ काटे थे । चलचित्र सा पुराना जीवन आँखों में बहने लगा । तो क्या कोविद एक झीने आवरण के समान है- जो जीवित है, उसे जीवन मान लेते है, जो जाते है वह आवरण मुक्त हो जाते है तो क्या मैं भी ठीक नहीं हो पाऊँगी- शायद अब मेरा समय आ चुका है- दर्द की एक बेहोशी मुझे भावशून्यता में ले डूबती है । क्या है जो भीतर टूटे काँच सा चुभ रहा है- मृत्यु से पहले स्मृतियाँ- पुराने चित्र सामने आकर पुरानी गाँठे खुल रही हैं  ।


अस्पताल के इस बिस्तरे पर लेटे लेटे मैं कितना कुछ सोच गई हूँ हाँ सोचने के अतिरिक्त इस कमरे के खालीपन में दवाईयों की गंध है या कभी सामने का दरवाजा खुला रह जाये तो कॉरीडोर में से ट्रॉली पर एक के ऊपर लदे एक या दो शव, एक सिहरन से मुझे विचलित कर जाते है । तो क्या उनका पुनर्जन्म होगा? इतने सारे कोविद ग्रसित शरीर, फिर क्या स्वरूप लेकर जन्मेंगें? पता नहीं । मेरे पास इस समय केवल एक सोच ही है .. एकमात्र मेरा अपनापन जो दर्पण जैसा दिखा रहा है-पुराने दृश्य .. जिनमें चलते जाने अनजाने अपने ही व्यवहार का विश्लेषण होने लगता है ' एनालिसिस आफ रिलेशनसिप ' अचानक याद आया सभी फोन करते हैं । बेटियाँ.. मित्र जिन्हें पता है मैं अस्पताल में हूँ छोटे भाई भाभी, जानते हैं, पर कोई फोन नहीं किया- वह भी मेरा भाई है, उसने पिछले वर्ष एक क्रूर सा पत्र भेजा था मेरे फोन पर, कि किसी रिश्तेदार की शादी में मैंने उन्हें ठीक से नमस्ते नहीं कही... उन्हें मेरे व्यवहार की 'अभद्रता', अभद्र को अंडरलाईन किया था- ''अभद्रता'' मेरा अपराध । लिखित शब्द चुभ गये वह यह भी लिखा, मुझसे कोई बहन भाई का सम्बंध नहीं रखना चाहते । तो इतनी बड़ी उम्र में मुझे अपने व्यवहार कर पुनः विश्लेषण करना होगा मुझे । वह भाई- राखी भाई दूज. ..... पर फोन करने के बाद भी नहीं आया । मैं महीनों.. या पूरा वर्ष एक गहरे उदासी के सन्नाटे में डूब गई, उठते बैठते दर्द की एक लहर मन में फैलती थी । मैंने तो प्रेम करना सीखा है, केवल प्रेम या श्रद्वा मेरे संस्कारों में शुद्वता है... और निः स्वार्थीपन, मैंने कभी भी किसी से कुछ नहीं चाहा, मेरे पिता बहुत बड़ी जमीन जायजाद छोड़ गये थे भगवान साक्षी है मैंने कुछ नहीं चाहा, मुड़कर देखा तक नहीं, एक तिनका भर भी । मेरे भगवान, मेरे जीवनदेवता ने मुझे बहुत कुछ दिया है मेरे मानवीय मूल्य, संस्कार, साहित्य से प्रेम और उस महान प्रभु के प्रति असीम श्रद्वा- जो मेरी चेतना में मुझे, मेरे अस्तित्व की सीमाओं तक समोहित रखती है । फिर मेरा यह अकारण अपमान? मैं इतना गिर सकती हूँ क्या?


"अरे आप काँप क्यों रही हैं ।" ज्योति ने मेरे हाथ अपने हाथ में लेकर रगड़ना आरम्भ किया ।


"मैडम दर्द बढ़ रहा है डॉक्टर को बुलाऊँ ।" "नहीं" मेरा चेहरा आँसुओं से गीला था- "नहीं ज्योति, कोई पुरानी बात सोच रहीं थी, ज्योति व्हाई आई एम ऑलवेज मिस अंडरस्टुड व्हाई? किसी ने भी झाँककर मेरे अन्तर्मन के सुच्चेपन को नहीं देखा – क्यों?


नितान्त अजनबी सी नर्स ज्योति से मन की बात कर रही हूँ, वह मुझे जानती ही कितना है?


ज्योति ने गरम चाय पकड़ा दी- “मैम, मैंने देखा है- रात को भी आपके आँसू बहते रहते हैं.. इन दिनों आप कोविद से अधिक इमोशनली ज्यादा अपसेट है । आप अस्पताल से जाने के बाद किसी 'काउंसलर' (मनोवैज्ञानिक) के अवश्य जाईयेगा । मैं तो अदना सी नर्स हूँ- पर इतना कह सकती हूँ कि आप इमोशनली अपसैट हैं, बहुत ज्यादा, वही आपको ठीक नहीं होने दे रहा ।"


"शायद". मैंने जल्दी जल्दी जलती हुई चाय पी गई ।


"ज्योति कभी कभी बेकसूर होने पर भी इंसान को सजायें क्यों मिलती हैं? मुझे तो बेहिसाब मिली, भगवान का क्या यही इंसाफ हैं? फिर याद आ गया एक दौर- "इतनी ठोकरें देने के लिए शुक्रिया ए जिंदगी चलने का न सही सम्भलने का हुनर तो आया ।"


हाँ, सम्भलना है मुझे मैंने कसकर आँखे बंद कर ली इसलिये कि सारे दृश्य मेरे वजूद से दूर छूट रह जायें ।


सात आठ दिन बाद घर लौटना था, मैं कोविद मुक्त तो हो गई थी परन्तु शारीरिक दुर्बलता बहुत अधिक था । घर पहुँचने का अपना आकषर्ण होता है घर आई आकर अपने कमरे में बिस्तर पर बैठ गई । परिवार के सदस्य दूर बैठ गये अछूत जैसी अवस्था । अभी मुझे एक और भूस्खलन का सामना करना था । मेरा बेटा- बहू एक नया समाचार दे रहे थे- नया इल्जाम, नया निर्णय, कि मेरे कारण घर के नौकर कोविद का शिकार होकर अलग क्वारनटीन में रह रहे थे मेरे कारण- अतः वह दोनों अपनी बेटी के साथ दूसरे किसी घर में शिफ्ट हो रहे हैं- कब तक पता नहीं? कुछ शब्दों में छुरेबाजी छिपी होती है- वह मन को गहराई तक चीर जाती है उन दोनों ने मुझसे मेरा हाल तक नहीं पूछा मुझ पर अस्पताल में क्या गुजरी? उन्हें तो जैसे मुझसे पीछा छुड़ाना था- मैं सशरीर कोविद  । मैं एक गहरे सन्नाटे में धंसती गई । प्राणांतक घुटन । माँ हूँ तो क्या... इतने वर्ष तपस्या की तो क्या? मेरी आत्मा शरीर एक प्रस्तर योनि में ढलता चला गया... अपना ही बेटा... अपने ही शरीर का एक अंग... मास्क पहन कर घर से बाहर जा रहा था मेरे सामने से मुखौटा- एक मास्क काला चेहरा जैसे अनावृत होकर मुझे एक गहरे अपमान के ताव में धकेल रहा था ।


मेरी बेटी आ गई थी- वह समझाती रही- 'माँ, आजकल, सभी प्रैक्टिकल हो गये हैं- व्यवहारकुशल प्रेम, रिश्ते या जीवन की सुकुमार भावनाओं का कोई अर्थ नहीं बचा है आधुनिकता के नाम पर हर स्थान पर भिन्न सी चमक धमक व्यवहार में जैसे किसी आंतरिक दंश को छुपाने की एक भड़कीली रंगत के नये डिजाईन के वस्त्र पहनते हैं, नई जैनरेशन के युवा वर्ग के लोग । एक प्रतीक अपनी ही असंवेदनशीलता, स्वार्थ, व्यवहार के प्रति, कॉन्सटेन्ट रिमेम्बरिंग ।"


"पर माँ आप को उससे उठ कर जीना है । "उसके मन में मेरी अपनी धार्मिकता, से भिन्न, 'बौद्विक-धर्म" 'गहरा प्रभाव डाल चुका था । वह अपने 'लोटस सूत्र' 'नम्यो हो रंगे क्यों' की 'चाँटिग (जाप) करने लगी । हाँ संसार की गहराती कीचड़ से उठकर कमल सा जीना है । संसार की वास्तविकता आप बदल नहीं सकते- तो दो ही रास्ते हैं- या तो संसार जैसे हो जाओ अकृतज्ञ मतलबी या अपनी भीतरी कसककसैलापन या फ्रस्टेशन दूसरों पर उड़ेल दो, या - परमात्मा के प्रति कृतज्ञता ग्रैटीट्यूड में झुक जाओ अलगाव या किसी निर्लिप्लता detachment के रास्ते चल पड़ो ।


मेरी बेटी मुझे पढ़ कर सुना रही थी-


“Life taught me                         Because its easier


Not to complain                        to protect your feet


About others                             with slippers than


Change yourself                       to carpet the whole world”


If you want peace हाँ ठीक ही कह रही है.... अपनी सोच की मुझे ही बदलना है- मैं । संसार के विश्वासघाती चलन को तो नहीं बदल सकती, अपने को ही, नये नकोर परिवर्तन में ढालना है। मैं ही किसी मूर्छा में जी रही थी, पुरानी अस्थाओं में, अवास्तविक ।


"उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा ।


धूल चेहरे पर' थी और आईना साफ करता रहा ।"


'कोविद ट्रोजन हॉर्स', सी लड़ाई में व्यस्त मुझे समझा रहा था- धागों के नये तन्तु बुनने होंगे- जो पुराने विचारों को मिटाकर जीवन में एक नया नकोर आकाशदीप, ज्योतित करके, मेरी अस्मिता को उदीयमान कर दे । बहुत कुछ है जो शब्द नहीं कह पाते...और वही होता है वास्तविक जीवन सार...जो कहने जैसा होता है । मैं उसी निःशब्द स्थिति में प्रार्थनारत खड़ी हूँ। 


 


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भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य