पागल के गीत
बस, ऊब गया जीते जीते।
अनचाहे से मिहमान बने,
बैठे निर्लज्ज प्राण उर में;
जब साथ उमंगें छोड़ गई,
मुर्झाई आशा ले कर में;
हूँ सुखी दुक्ख पीते पीते।
आशा की धूमिल ज्योति सदृश,
बस जीवन गाथा पूर्ण हुई;
स्वप्नों की भी सीमा टूटी,
कल्पनातीत कलि म्लान टूटी,
युग गीत गये सुख दिन बीते।
सुधि की चिनगारी से फटता,
बोझिल मन ज्वालामुखी बना;
जग ने क्यों पागल ठहराया;
पाया दुर्भाग्य कलंक सना;
जब दिन आते रीते रीते।
सब अपने भी बेगाने से,
अरमान अंध दीवाने थे;
यों झरना ही थी आशा कलि,
अलि क्यों मँडराने आये थे।
हो गये अपरिचित मन चीते।
साभार: पागल के गीत
प्रस्तुति : अवध बिहारी पाठक
कुटी, सेंवढ़ा (मध्य प्रदेश)
मो. 9826546665
07-06-1950,