फाँस की काई (कहानी संग्रह) (2002, 2007)


कहानी की ऊर्जा...

यूँ तो बचपन के भोलेपन को बहलाने का माध्यम कहानी है। कहानी एक ऐसी विधा या कला है जो आम लोगों के मन को सहज ही छूती है, सहलानी है, हँसाती है, रूलाती है या उनकी अपनी बात होती है। पूर्व में तोता-मैना की कहानी जैसी कहानियाँ मनोरंजन का भार उठाये फिरती थीं। फिर भूत-प्रेत, डायन, ओझा, गुणी, देवी-देवता, वीरता की कहानी से होती हुई यह आगे बढ़ी, पुनः प्रेम गथाऐं कहानी बन कर तेजी से आम लोगों के बीच प्रविष्ट एवं प्रचलित हुई। मानव का मनोरंजन कहानी सुनने सुनाने से सदा से होता रहा है। मानव विकास की यात्रा कथा भी सुनने जानने वालों की कमी नहीं है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक को अपने उम्र तथा रूचि के अनुकूल रस की प्राप्ति होती है। रससिक्त होकर मनुष्य अपनी समस्या एवं कठिनाईयों से हटकर थोड़ी देर एक अलग दुनियाँ या कल्पनालोक में विचरण करने लगता वहीं उसका भावलोक उद्वेलित होकर उसे सहलाने बहलाने लगता है। इस प्रकार कहानी मन को शान्ति प्रदान करती है।

किसी कहानी की क्षमता यही होनी चाहिए कि वह पाठक को कितना अपने से जोड़ पाती है। उसके नित्य प्रति के जीवन से हटाकर किस प्रकार कुछ क्षणों के लिए एक अलग दुनिया की सैर करवाती है। कहानी स्वकेन्द्र से हटकर परामुख की ओर उसकी विचारधारा को मोड़ पाती है तो मनुष्य को सर्वहारा के दुःख दर्द से जोड़ पायेगी। अनुभव के संसार का विस्तार कर पायेगी। यह लेखक के कहानी कथन एवं लेखन की कला का कमाल होता है कि वह पाठक को उसके तात्कालिक मनोभाव से काट कर अन्य लोक की सैर करवाये। यानी कहानी से जोड़े। 

मैंने कहानी में आम लोगों की समस्याओं को उकेरा है। अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं को समेटा एवं सहेजा है। इसे चित्रित करते समय भावनाओं को ज्यों का त्यों रखकर भाषा का जामा पहनाया है। अपनी शैली में आम आदमी की कथा-गाथा लिखने का प्रयास किया है, कई कहानियाँ आपको पुराने अंदाज में उपदेश देती प्रतीत होंगी, तो कुछ कहानी आपको प्रयोगात्मक रूप में आन्दोलित करेंगी। मैंने चन्द्रकान्ता या चन्द्रकान्ता संतति जैसी रहस्यमयी कथाएँ कभी लिखना नहीं चाहा क्योंकि चाहकर भी कहानी की उस विधा को आज का प्राणी नहीं अपना सकता है। वे रचनायें, किस्सागोई की अमर कृतियाँ हैं। 

मेरे मन पर दादी से सुनी कहानियों ने अपना ऐसा प्रभाव डाला कि कहानी में मेरी रूचि गहरी बनी रही। वैसे तो उनके द्वारा सुनायी हुई कहानियों में पुराण महाभारत, रामायण तथा ओझला की कहानी महत्वपूर्ण थीं। इन सभी कहानियों में भावों को उद्वेलित कर मन को आर्द्र करने वाली कहानी ओझला की थी। जो सात भाईयों की इकलौती बहन थी। बड़े लाड़, प्यार से पली बढ़ी थी। किन्तु जब भाभियाँ आईं तो वे उसे बहुत तकलीफें देने लगीं। यहाँ तक कि अनाज छानने वाली छनी में उसे पानी भरकर लाने के लिए भेजा गया। किस प्रकार वह दुःखी एवं कातर होकर नदी के तीर पर विलाप करती रहती है और किस तरह नाग देवता को दया आती है। यह एक मिथक है। बालमन पर पड़े इस कहानी की छाप आज तक करूणा रस पूर्ण कहानी पढ़ने से अधिक प्रभावित होता है। अतः लिखते समय भी शायद कहीं कहीं यह पूर्वाग्रह बन लेखनी की नोक से फिसल जाए तो यह उसी बचपन के ऊर्जा का कमाल होगा।

किशोरावस्था में पुस्तकालय में उपलब्ध सभी आत्मकथाएँ पढ़ने का शौक चढ़ा। पिताजी के मार्गदर्शन में कई अन्य पुस्तकों के साथ मैंने मैक्सिम गोर्की का उपन्यास मदर पढ़ा तो लगा कि साहित्य में करूणरस सर्वोपरि होता है। इस प्रकार कई कहानी एवं उपन्यासों को पढ़ना अपनी बुद्धि के अनुरूप उसका चिन्तन मनन करना मेरा स्वाभाव बन गया। यह विचारधारा मन में कहानी के प्रति जहाँ विशेष भाव जगाने में कामयाब हुई। वहीं अपनी ताकत के अनुसार कहानी लिखने का प्रयास करने लगी। छोटी सी उम्र में पहली कहानी लिखी और पिताजी को दिखायी। पिताजी ने उस कहानी की सराहना कर मेरा मनोबल बढ़ाया। 

कई कहानियाँ लिख कर उन्हें पढ़ने दे देती थी। फिर उन्होंने इसे प्रकाशन के लिए इधर उधर भेजना आरंभ किया। एक कहानी प्रकाशित हुई और यहीं से मेरी कहानी लेखन की यात्रा आरंभ हुई। ‘फाँस की काई‘ नामक इस कहानी-संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ प्रकाशित है। इसपर टिप्पणियाँ भी मिली हैं। इसे संग्रह के रूप में आपके सामने प्रस्तुत करते हुए मैं निश्चिंत हूँ कि इसके साथ न्याय होगा। 

मैं अपने माता-पिता के ऋण से उऋण तो नहीं हो सकती हूँ। लेकिन उनके मनोबल बढ़ाने के कारण ही आज यह सब कुछ कर पा रही हूँ। उन्हें प्रणाम करती हूँ। इसके साथ ही अपनी सहयोगी जयश्री गुप्ता को भी राय देने हेतु धन्यवाद देती हूँ। अपने सभी शुभेच्छुकों, शुभचिंतकों के प्रति नतसिर हूँ।            - डॉ. अहिल्या मिश्र, हैदराबाद


संगत का उपहार

घर से थोड़ी दूर से ही राजू के डैडी चिल्लाते आये ‘‘अरे राजू की माँ तुम्हारा लाडला कहाँ है ? जरा बुलाना तो सही आज मैं उसे किसी हाल में नहीं छोड़ूँगा। उसकी हरकतों से तंग आ गया हूँ। रास्ता चलना दूभर हो गया है। जो लोग मेरे सामने सिर नहीं उठाते थे अब मुझ पर हँसा करते है। कहते हैं मैं वही आदर्शवादी महाशय हूँ जिनके सपूत अपनी कारनामों से दिनरात सभी का दिल जलाते है। हर अंगुली मेरी ओर उठने लगी है।‘‘

राजू की माँ हड़बड़ा कर बाहर आयी। पति की ओर देखते हुए बोली... ‘‘क्यों सड़क पर खड़े होकर गला फाड़ रहे हो ? कौन-सा कहर टूट पड़ा है। जब देखो राजू पर चिल्लाते हुए ही घर में घुसते हो। क्यों उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गये हो ?‘‘ पत्नी की बाते सुनते ही रामचरणजी क्रोध से तमतमाये चेहरे के साथ घर में घुस गये। पत्नी भी पीछे-पीछे अन्दर आकर उनके सामने खड़ी हो गई। वह कुर्सी पर चुपचाप बैठ गये। पत्नी ने पूछा-‘‘चाय पीओगे क्या ? थके लग रहे हो।‘ रामचरण जी ने चिढकर कहा- “मैं राजू को पूछ रहा हूँ, तुम्हे चाय की पड़ी है, पहले उसे बुलाओ।‘‘ ‘‘आखिर उसने क्या किया है जो उसके पीछे हाथ धोकर पड़े हो ? सविता के पूछते ही तेजी से बोले उससे यह पूछो कि क्या नहीं करता हैं। एक दो हों तो बताऊँ। सारे मुहल्ले के लोगों की नाक में दम कर रखा है। कान पक जाते हैं शिकायत सुनते...सुनते...। आज उसे सबक सिखा कर ही दम लूंगा मैं और शर्मिदगी नहीं उठाना चाहता।‘

सविता धीरे से बोली - “क्या तुम्हारे पास केवल मारपीट ही इसका एकमात्र रास्ता है ? शायद समझाओ तो उसपर अधिक असर हो। डराने से जिद्द भी तो बढती है।‘‘ रामचरण के मन को यह बात भा गईं।

राजू दबे पांव घर में घुस रहा था। पिता को क्रोध में देखकर वह सामने आना नहीं चाहता था। पिता ने उसे पूछा “कहां थे?‘‘ उत्तर नदारद राजू चुप चाप सामने खड़ा रहा। उसे अपने पास प्यार से बुलाकर सर पर हाथ फेरने लगे। राजू को डर से छुटकारा पाने में सहायता पहुँचाते हुए ढाँढस बंधाया और कहा - ‘‘बेटे मेरे मना करने के बाद भी तुम कुछ शरारती और गंदे लोग जो तुम्हारे निकट है उन दोस्तों का साथ नहीं छोड़ पाये। मैंने चाहा कि तुम इनके साथ घूमने फिरने में वक्त बर्बाद नहीं करो। किन्तु तुम मेरी सीख मानने को तैयार ही नहीं हो। तुम एक अच्छे किशोर हो। कुशाग्र बुद्धि हो। इसका उपयोग रचनात्मकता के लिए, निर्माण कार्य के लिए करो। तुम्हारा दिल दिमाग लगेगा तो तुम्हें खुशी भी मिलेगी और अपने काम से संतुष्टि भी पाओगे। संगत अच्छे को अच्छा बनाती है और बुरे को बुरा।‘‘ राजू ने धीरे से कहा - मैं नहीं मानता पिता आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। आदमी अच्छा या बुरा संगत से नहीं बनता आदमी अपनी बुद्धि से, विचार से और काम से अच्छा या बुरा बनता है। मैं उनके साथ रह कर भी जब कोई अच्छे काम करना चाहता हूँ तो वे सब मेरा साथ देते हैं। चिन्ता छोड़ कर मेरे साथ हो लेते है। रामचरण जी यह सुनकर कुछ बोले नहीं। राजू अपने साथ बाजार चलने के लिए कहा।

दोनों बाप बेटे बाजार जाकर आलू प्याज और टमाटर खरीद लाये। पिता ने तीनों में एक-एक सड़ा हुआ, आलू प्याज और टमाटर डाल दिया। बेटे से कहा - इन्हें घर के कोने में रख दो। चार दिन बाद राजू को लेकर उस कोने में पहुँचे। देखो सारे टमाटर सड़ गये हैं। दो चार प्याज भी सड़ गये हैं। आलू भी सड़ रहे हैं। पूरे टमाटर उन्होंने फिकवा दिये। प्याज और आलू को वैसे ही छोड़ दिया। पंन्द्रह दिन बाद वह दोनों भी पूरी तरह सड़ गये थे। राजू को दिखा कर बोले - बेटे यही है “संगत का उपहार।‘‘

जबलपुर में आचार्य भगवत दुबे द्वारा रामेश्वर शुक्ल अंचल पर आधारित 
संगोष्ठी में सम्मान ग्रहण करते हुए डाॅ. अहिल्या मिश्र

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