अतिथि संपादकीय

संपादकीय

 
डाॅ. उषारानी राव, बेंगलुरू, मो. 9845532140

संकल्प साधिका डाॅ. अहिल्या मिश्र...

स्त्री की कर्तव्यनिष्ठता उसकी आकांक्षाओं का दर्पण होता है। यह उसके मुक्ति की राह पर अन्वेषण का संघर्ष भी है। स्वाभाविक है कि उसकी अभिव्यक्ति ऊर्जा बनकर सामाजिक और मानसिक सत्यता को चुनौती की सतह पर ले आता है। जहाँ तक साहित्यिक सृजनात्मकता की बात आती है, वहाँ हम देखते हैं कि जीवन के उत्कृष्ट अनुभव-चिंतन से ही साहित्य का निर्माण होता है। यह मानवीय चेतना की अभिव्यक्ति करता है। यहाँ भाषा की भूमिका अहम होती है। ऐसे में स्त्री अपने निजी विशेषताओं के संदर्भ को अधिक गहराई से समाज में संप्रेषित करती है, तो वह शक्ति स्वरूपा बनकर समाज में सकारात्मक बदलाव का हेतू बनती है।

हिंदी भाषा और साहित्य की असंख्य संभावनाओं और बहुलता की व्याप्ति में क्षरित होती संवेदना को सजगता से बचाये रखने की एक उद्दाम जीजिविषा से भरपूर  डॉ. अहिल्या मिश्र ऐसा व्यक्तित्व है, जो संघर्षात्मक पथ पर चलते हुए समावेशी विचारों के साथ सजग रचनाधर्मिता से अनथक अनवरत यात्रा कर रहीं हैं। उनका रचनात्मक संघर्ष आत्म संघर्ष का प्रतिबिंब है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में कार्य करते हुए अपने स्त्रीत्व को संजोकर पुरुष के साथ पूरक शक्ति के रूप में उभरने की अदम्य साधना उनके व्यक्तित्व की पराकाष्ठा है। हिंदीतर भूमि पर शिक्षण एवं साहित्य के क्षेत्र में परिवेश की कठिनाइयों का सामना करते हुए उन्होंने रूढ़ीगत शिलाखंडों को ध्वस्त किया।

हैदराबाद आकर बसने के बाद पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों के साथ-साथ सर्वप्रथम स्वयं को शिक्षित करने का दृढ़ संकल्प लिया। एम.ए, एम.फिल, पी.एचडी एवं अनुवाद का कोर्स आदि  के साथ अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ने में सफलता प्राप्त की। शिक्षण के क्षेत्र में कार्य करने के हर अवसर पर बालिकाओं को शिक्षित करने के प्रति गहरा लगाव अनुभव किया। इसे साकार रुप देने के लिए सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर कार्य करते हुए व्यक्ति एवं समाज के मूल्यों के विघटन को देखकर बहुत बार इनके चिंतन के क्षितिज पर काले बादल छाए, जिससे मन में शब्दों एवं विचारों की धुआंधार वर्षा ने बालिकाओं की शिक्षा के प्रति समर्पित होने के प्रण ने संवेदना की अकूत सामर्थ्य से भरा।

मारवाड़ी संस्थाओं एवं अग्रवाल महिला विंग से जुड़कर तथा उन क्षेत्रों में भी जहाँ महिला अंतिम व्यक्ति है, के लिए कार्य किया। नारी स्वचेता के रूप में उभर सके और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सके, इस उद्देश्य से  उनमें चेतना जगाकर उनको शिक्षण के प्रति प्रेरित किया, इतना ही नहीं इन महिलाओं को शिक्षण का प्रशिक्षण दिलवाकर रोजगार के द्वारा आत्मविश्वास जगाया। इन सबके साथ-साथ अपने लेखन में बदलते हुए सामाजिक मूल्यों और उसके विघटन से उबरने के लिए सांस्कृतिक बुनावट को मजबूती से रेखांकित किया है। इन्होंने अपने गद्य लेखन में अस्मिता की भाषा की बात करते हुए भाषा की अस्मिता की बात की है। आज चहुँ ओर परिवर्तन का स्वर तेज है। डॉ. अहिल्या मिश्र के स्त्री लेखन की बात करें तो हम देखते हैं कि अपने लेखन के सरोकारों में नए भाव बोध के साथ चुनौतियों  को स्वीकार कर स्त्री को कुंठाओं से निकालकर यथार्थ की कसौटी पर कस कर लेखन को नए आयाम में गढ़ती हैं।

जीवन के आरोह अवरोह को विवेक से देखते हुए और उसके परिप्रेक्ष्य में सतर्क और सचेत होकर कह उठती हैं कि ‘‘पूछते हो ज़मीन का ज़मीर क्या है/गर्वीले हिमालय को देखते हो/जो सिर ऊंचा किये सीना ताने खड़ा है/और अपने बड़प्पन का आभास दिलाता है/लेकिन क्षण भर को ऐसा सोचो/जरा-सी ज़मीन अगर खिसक जाए/तो समूचे का समूचा हिमालय अपना/पता ठिकाना तक खो देता है/यही है ज़मीन का ज़मीर" यह उनके आत्मसंघर्ष की काव्यात्मक बनावट है, जिसमें सामाजिक एवं मानवीय संदर्भ उभरते हैं। यह काव्य विवेक विषमताओं से जूझते हुए नए रास्तों का निर्माण करती है। 

डॉ. अहिल्या मिश्र संघर्ष से बाहर निकलने की छटपटाहट को पहचानतीं हैं। महाविद्यालय में व्याख्याता के रुप में कार्य करते रहने पर भी उनके मन मस्तिष्क में सदैव बालिकाओं के शिक्षण एवं उनको पारिवेशिक बदलाव के लिए वैचारिक रुप से तैयार करने संबंधी विचार मथते रहते। इसीलिए महाविद्यालय की नौकरी छोड़कर विशेष रूप से बालिकाओं के विद्यालय में शिक्षण के कार्य को स्वीकार करना उनके संकल्पों की दृढ़ता का परिचायक है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संपादन के कार्य को करते हुए कविता, कहानी, निबंध, आलोचना एवं समीक्षा की सृजनात्मकता से सराबोर जीवन मूल्यों से मुखरित बीस से भी अधिक पुस्तकों का लेखन किया है। वे यहीं तक नहीं रुकतीं हैं और आगे बढ़कर साहित्य गतिविधियों को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से वरिष्ठ एवं युवा लेखकों तथा साहित्य प्रेमियों को जोड़ने की एक अनूठी कड़ी की शुरुआत करतीं हैं।

कादम्बिनी पत्रिका के संपादक डाॅ. राजेन्द्र अवस्थी की प्रेरणा से वर्ष 1994 में कादम्बिनी क्लब की शुरुआत हुई। क्लब उस समय कादम्बिनी पत्रिका का अंग हुआ करता था। समाज की वैचारिक एवं भावात्मक अभिव्यक्ति ही साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

कादंबिनी क्लब के साथ-साथ ही इन्होंने ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के हैदराबाद चैप्टर की शुरुआत भी की। इन दोनों ही संस्थाओं में निर्बाध रूप से हर महीने कवि गोष्ठी, पुस्तक चर्चा, पुस्तकों का लोकार्पण आदि अनेक साहित्यिक गतिविधियों ने पच्चीस-पच्चीस वर्ष पूरे कर वर्ष 2019 में दोनों ही साहित्यिक संस्थाओं की रजत जयंती उत्सव मनाई गई।

आंदोलनों और कोलाहल के युग में समाज की विसंगतियां तथा पीड़ित एवं शोषित की व्यथा कथा को अपनी संवेदनशील अभिव्यक्ति देने वाले विचारों के साथ बिना झंडाबरदार बने अविचलित रह कर संकल्प को साधते हुए निष्पक्ष भाव से साहित्य एवं समाज की सेवा के प्रण को पूरा कर डॉ. अहिल्या मिश्र संकल्प साधिका के रुप में प्रेरणीय हैं।

वे मानतीं रहीं हैं कि परिवेशगत चुनौतियों को चित्रित करने वाला साहित्य ही चिरस्थाई होता है। इन्होंने अपने अनुभवों के ताप से अभिव्यक्ति के क्षणों को सामाजिक दायित्व बोध के द्वारा विस्तृत आयामों को स्पर्श किया है।

सृजनात्मकता प्रतिबद्धता के साथ साथ डॉ. अहिल्या मिश्र को ज्ञात है कि सृजन की शक्ति उसके पास है, जो लेखकीय सरोकारों को नवीन अभिव्यक्ति देने में समर्थ है। इसी लेखकीय सामर्थ्य की पहचान कर साहित्य की सभी विधाओं में हिंदीतर प्रदेश में लेखन में संघर्षशील रचनाकारों को रेखांकित करने के लिए स्वतः साहित्य गरिमा पुरस्कार का आरम्भ किया। यह पुरस्कार वर्ष 2000 से लगातार महिला रचनाकारों को प्रदान किया जा रहा है।

साहित्यिक प्रतिभागिता में स्त्री चेतना की पहचान इनसे बेहतर भला कौन जान सकता है? डॉ. अहिल्या मिश्र एक जिजीविषा और जीवटता का जीवंत उदाहरण हैं, जिन्होंने विरोध, अवरोध, तिरस्कार और बहिष्कार को परे हटाते हुए अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा स्त्री शिक्षण और स्त्री लेखन तथा सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में विभिन्न स्तरों पर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। 

बिहार से हैदराबाद आकर हिंदी भाषा और साहित्य का संवर्धन करने में अग्रणी महिला सशक्तिकरण की प्रखर व्यक्तित्व डाॅ. अहिल्या मिश्र के लिए अनेक विद्वानों ने उनके साहित्य एवं उनके सामाजिक कार्यों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। सबके भावबोध ने शब्द शक्तियों के रूप में इस विशेषांक को समृद्ध करने में सार्थक भूमिका निभाई है। विशेषांक के सभी लेखकों को साधुवाद एवं हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। गोवा की पूर्व राज्यपाल आदरणीया मृदुला सिन्हा जी, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के कुलपति प्रो. राजाराम शुक्ल, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. निर्मला एस. मौर्य एवं पद्मश्री से सम्मानित साहित्यकार आदरणीय उषाकिरन खान जी के प्रति सादर विनम्र आभार ज्ञापित करती हूं। आपके संदेश विशेषांक के गौरव वृद्धि में बहुमूल्य हैं।

प्रतिष्ठित पत्रिका अभिनव इमरोज़ में इस विशेषांक का अतिथि संपादन करने में अपनी संपूर्ण सहमति, सहयोग देने एवं विश्वास व्यक्त करने तथा सार्थक आवरण पृष्ठ के साथ  उत्कृष्ट संयोजन कर प्रकाशित करने के लिए कुशल संपादक आदरणीय देवेंद्र बहल जी के प्रति विशेष रूप से आभारी हूँ।

अभिनव इमरोज़ के संपादक मंडल को अंतर्मन से धन्यवाद।

अस्तु, जिनके प्रबुद्ध पराग से सुगंधित हूँ, जिनके हृदय के विस्तार में स्नेह की शीतलता और चेतना की स्वतंत्रता का आवाहन हो, जिन्होंने व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक समीक्षात्मक अवलोकन के लिए अपनी स्वीकृति दी है, ऐसी डॉ. अहिल्या मिश्र जी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। इन अर्थपूर्ण पंक्तियों के साथ आपकी पंक्तियाँ आपको ही समर्पित है।

‘पृथ्वी के उबड़ खाबड़ पथरीले रास्तों को अपने ही

तलवों के मोटे मोटे छालों से धोया था और 

चढ़ाये थे आशाओं अभिलाषाओं के बेशुमार फूल इस पर

कालचक्र की धुरी पर 

समय के देवता को स्थापित किया था’’ कैक्टस पर गुलाब

 

नव वर्ष आप सबके लिए मंगलमय हो।

 

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