डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)
कैक्टस पर गुलाब (1991)
शब्दों का सौदागर
आजकल औरों की तरह
बोलने लगी हूँ मैं,
जुबां के बन्द ताले
खोलने लगी हूँ मैं
जी हाँ हुजुर, अब तो बोलने लगी हूँ मैं !
शब्दों की गुफाओं में
अपने को तोलने लगी हैं मैं,
मेहरबानी करके ध्यान रखियेगा !
मैं कोई ताजा अखबार का पन्ना नहीं
चाय की चुस्की के साथ ही जिसमें छपे
खून / डकैती / बलात्कार / दुर्घटना
आप सब सुड़क जायेंगे।
कोई कोना भी चाटे बिना।
हाथ से उसे नहीं छोड़ पायेंगे ।
और चटखारे भर भर कर अपने
आफिस के दोस्तों को सुनायेंगे।
और न तो मंत्री या समाज सेवी के,
उद्घाटन समारोह का ब्योरा हूँ
जिसमें नजरें गड़ा कर आप
अपने लिए कुछ खास खबर ढूंढ पायेंगे ।
शब्दों के गढ़ का,
केवल पहरूआ ही तो हूँ मैं !
हाँ जी इस लिए तो मुंह खोलने लगी हूँ मैं !
अजी एक बात और सुन लीजिए
मैं कोई प्रेम कविता नहीं
जो सबों के लिए केवल सपने बुने
और उसमें डूबकर आप भी
अपने लिए कोई सपना चुने ।
पत्थरों के सख्ती की
बनी ऊँची मीनार हूँ मैं
हाँ जी जहाँ पहुँच कर आप
अपनी बुलन्दी तो माप सकते हैं ।
किन्तु मुझको / इसको / उसको
किसी को गढ्ढे में नहीं डाल सकते ।
इसलिए तो अंगार में भी
लाबे सा खोलने लगी हूँ मैं
ताजमहल की या मुमताज की
ख़ैरखवह नहीं हूँ मैं
आपके किसी पहचान का प्रश्नपत्र
नहीं.. नहीं जी, नहीं हूँ मैं
और न ही किसी सब्ज बाग
की लड़ी हूँ मैं।
हाँ जी इसीलिये तो सच्चाई के पर्दे
पर तेज पूंज-सा दहकने लगी हूँ मैं
मैं तो बस गांव के कोने पर बनी अछूत
की झोपड़ी का बुझा हुआ चूल्हा हूँ
जिसमें पांच बरस पर भूले से
एक बार आग जल उठती है।
और भीखू चमार के
बच्चों की किलकारियां गूंजने का
दिन भी आता है।
छबीली रमियाँ की
छोटी सी घूंघट की ओट में
झांकती प्रश्न में डुबी
दहशत से भरी आँखों की भाषा हूँ मैं
जो लपलपाती सांप के जीभ
सी चाट कर झट झुक जाती है
उसी चमैनियां की मुंह बोली हूँ मैं !
हाँ जी इसीलिए दीनता का वजन
तौलने लगी हूँ मैं।
जी हाँ हुजूर आजकल बोलने लगी हूँ मैं
जरा गौर फरमाइयेगा
कोई फरमाईश नहीं-नहीं हूँ मैं
आपके लिये कोई आजमाइश भी नहीं हूँ मैं
आप 21वीं सदी को बुला रहे हैं
क्या हमें भी अपने साथ ले जा रहे हैं ?
नहीं नहीं हुजूर आप क्यों अपनी
तौहीन करवायेंगे।
यह सब सहने के लिए ही तो
हँसियों सी फसली लिए खड़ा हूँ मैं
आपके रास्ते में कहां अड़ा हूँ मैं ?
आप सबने जो शब्दों के नारे दिये है
उन्हीं घोड़ों को दौड़ा रहा हूँ मैं
आप की कथनी करनी के अन्तर
को केवल दोहरा रही हूँ मैं
इसीलिए परत दर परत
खुलने लगी हूँ मैं
हाँ जी हुजूर आजकल ओरों की तरह
तरह ही बोलने लगी हूँ मैं ।
(15 मार्च से 22 मार्च 90 तक मारीशस में बार-बार सूनी गयी रचना)
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‘‘गुलाब’’
रात की स्याह चादर
दूर तक फैली धरती पर
अपने अनंत आवरण ढाप चुका है।
दिन के उजाले में चहचहाते पंछी
निः शब्द आँखें बन्द किये,
भयभीत अपने घोंसलों में डैने समेटे बैठे हैं।
हिमश्लाका की स्वेत अभिसारिका
धरा को सरसाते हृदय स्पन्दित करती
स्वर्ग परी-सी उतरती बढ़ी आ रही है।
कल-कल, छला-छल, विमल-विमल
प्रेरक गीत गाती पल-पल, चल-चल
डर कर, छुपकर, थक कर उन्मत्त हो चली है ।
अंधेरों में आर्तनादी अट्टाहास करने आतुर
विद्रुप बाला-सी अन्धाधुंध भागती जा रही है।
गुलाब का मधुर मंजुल मुखरा भी
ज्योतिहीनता का शिकार हो,
कलुषित कालिमा ओढ़ लिया है।
जंगल के बाट उस चैराहे से आगे
हिस्रों के बाद पलकों के नितांत एकांत से
विधवा मांगों की तरह सूने पड़े हैं।
गाँव के चैपाल की चहल-पहल
श्याम वर्ण, श्याम बस, श्याम संग
रेगिस्तानी सन्नाटा ओढ़े खड़ी है।
किन्तु शहर के सुसंस्कृत गृहों में
चकाचैंध के बीच चुहलबाजियों का
नग्न नर्तन जवान हो रहा है।
वहाँ बेचारा अन्धा अन्धेरा-
सभ्यता के दामन में मुँह छिपाये रो रहा है।
बहुत ही प्रभावहीन बेचारगी
स अबसता के गीत गा रहा है
दूसरी ओर नेयोन ट्यूब के प्रखर प्रकाश
तथा रंग बिरंगी उजालों में
गहन गलबहियों के बीच
गुलाबों का लेन-देन
गुलाबी गालों से हो रहा है ।
गुलाब/कली/फूल/पराग/डण्ठल/गुलाब
मही का आलिंगन