डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)

नारी दंश दलन दायित्व (2002)

भारतीय नारी के सन्दर्भ में अपनी बात

भारतीय संस्कृति जीवन के प्रति समग्र दृष्टि एवं समाज के सर्वांगीण विकास की जातीय अवधारणा है। हमारे शास्त्रों ने यदि पुरुष को स्रष्टा माना है तो नारी को शक्ति का प्रतीक माना। शक्ति के अभाव में शिव को शाश्वत मानने वाली भारतीय परम्परा में नारी का स्थान अत्यन्त माननीय था। इसीलिए तो कहा गया था, ........ ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।’

आज हम अपने समाज पर दृष्टि डालते हैं तो, स्थिति विपरीत ही दिखायी देती है। आज नारी के जीवन में संघर्ष है, अपमान है और सबसे अधिक है उसके जीवन की असुरक्षा। आखिर ऐसा क्यों ?

हम सभी जानते हैं कि स्त्री एवं पुरुष समाज के दो अभिन्न अंग है। समाज की संरचना में इनका अन्योन्याश्रय योगदान है। एक सिक्के के दो पहलुओं की भाँति स्त्री एवं पुरुष जीवन भर एक दूसरे से पूर्णतया संबद्ध है। तब इस पवित्र संबंध में विघटन की वह कौन सी दरार है जो स्त्री-मानस को व्यथित कर रही है।

इस प्रश्न पर विचार करने पर सबसे प्रथम कारण हमारे सामने आता है, नारी की अस्मिता का। प्राचीन युग में परम पूजनीया नारी, मध्ययुग की भोग-विलासी एवं उदात्त जीवन मूल्यों से च्युत समाज व्यवस्था में नारी अस्मिता का दलन हुआ। नारी व्यक्ति से वस्तु बनी, क्रय-विक्रय, धूल में अपमानित हुई। शक्तिशाली नर ने उसके ममत्व एवं आदर्श का शोषण किया, और इसी तरह हमारे समाज में नारी की दशा दयनीय होती चली गई। समय-समय पर उसने अपनी दुरवस्था के विरुद्ध विद्रोह भी किया। सीता का धरती में अवसान एवं पांचाली के खुले केश हमें प्राचीन युग से ही नारी अस्मिता एवं नारी जागरण का सन्देश दे रहे हैं। अहिल्या का पाषाणवत् रूप उस विद्रोह का विद्रूप है। विधवा खातीजा के रूप में मुहम्मद की सफलता है जिसमें उसके घनाढ्य होने का अर्थ ध्वनित है एवं मदर मेरी के साहस के साथ नारी के मातृत्व की ऊँचाई स्थापित हुई है। इस के पीछे सामाजिक बहिष्कार की अदृश्य ध्वनि से आच्छादित युगगाथा है।

आज के भारतीय समाज में नारी जाग चुकी है। उसके भीतर की सीता और द्रौपदी आज अपने पर हुए अत्याचारों का उत्तर चाहती हैं। आज स्त्री जीवन के दोराहे पर खड़ी है। इसका एक मार्ग सावित्री, दमयन्ती आदि के आदर्शों की ओर खींचता दूसरी ओर क्षण-क्षण प्रगतिशील यह वैज्ञानिक युग उसके सहयोग की आकांक्षा करना है। एक ओर प्राचीन परम्पराएं उससे कहती हैं कि, पति ही परमेश्वर है, परिवार सेवा। धर्म है, तो दूसरी ओर विश्व में व्याप्त नारी जागरण उसकी तन्द्रिल अस्मिता को झकझोर कर उठाने का प्रयास करता है। उसे वस्तु से व्यक्ति बनने में सम्पूर्ण विश्व के विकास हेतु अपनी विद्या बुद्धि के प्रयोग करने की प्रेरणा देती है। आगे बढ़ने की सोच रहे झकझोरती है।

आज भारत की नारी-समाज जीवन की इन विविध पगडण्डियों पर फैला हुआ है। परिवार की सीमा में वह माता, भगिनी, पत्नी एवं प्रेमिका है। सामाजिक परिवेश में उसने अपने आपको सभी सामान्य पदों पर प्रतिष्ठित कर रखा है। स्त्रियों ने स्वतंत्रता-संग्राम में पुरुषों से कम कार्य नहीं किया है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती से लेकर सुभद्राकुमारी चैहान एवं सरोजिनी नायडू तक सभी नारियों ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना अनमोल जीवन अर्पित किया है। उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज नारी राजनीति के उच्चतम शिखर तक पहुंच चुकी है। उसने सिद्ध कर दिया है कि वह देश के लिए लड़ सकती है तथा देश के लिये अपने को मिटा भी सकती है। प्रशासन के उच्च पदों पर महिला अधिकारी अधिक सुयोगय सिद्ध हो रही हैं। पुलिस विभाग में उन्होंने अपनी बुद्धि एवं कुशलता का परिचय दिया है। व्यापार के क्षेत्र में महिलाएँ अपनी नीति-निपुणता का परिचय देकर भारतीय व्यवसाय को विकास की दिशा में ले जाने के श्रेय से मण्डित हैं। कार्य के प्रति अपनी निष्ठा एवं लगन के कारण वह कई सेवाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक योग्य मानी जाने लगी हैं। आज की नारी पुरुष की आश्रिता नहीं वह राष्ट्र के निर्माण में, व्यवसाय एवं समाज के विकास में एवं अपने परिवार के संचालन में पूर्ण सक्षम एवं पुरुषों के समकक्ष है। अपनी शक्ति के प्रकाशन से उसने अपनी परिभाषा बदल डाली है। आज वह पुरुष की सहधर्मिणी ही नहीं, अपितु सामाजिक चेतना युक्त अर्धागिनी है। 

इतनी शक्तिमति होने पर भी भारतीय नारी की स्थिति अपने बंधन एवं अपनी विवशताओं से मुक्त नहीं है। इस युग में भी उसे पिता, पति एवं पुत्र की अस्मिता को दृष्टि में रखते हुए ही कार्य करना पड़ रहा है। कहीं पुरुष का अहं और कहीं पर रूढ़ियों की प्राचीर उसे अवरुद्ध करती हैं। नारी के पास क्या इतना बल है कि इन प्राचीरों का प्रतिकार कर सके ? इन प्राचीरों को ढहा देने के बदले स्वयं उस मलबे में दबी कराहती रह जानी है। नारी की स्थिति आज भी दयनीय है।

नारी जागरण की आँच में झुलसता हुआ पुरुष वर्ग भी अपनी हीनता एवं असुरक्षा की भावना से ग्रसित होकर नारी पर शासन के लिए कटिबद्ध है। कन्या को पिता ऊँची शिक्षा नहीं देना चाहता। ऊँची शिक्षा से उसे दो तरह के भय हैं - प्रथम तो यह कि पढ़ा लिखा वर अधिक पैसे में मिलेगा और दूसरा यह कि पढ़-लिख कर लड़की जागरूक हो जाएगी, या उनकी शब्दावली में बिगड़ जाएगी। अपने अनुकूल वर न मिलने तक विवाह नहीं करेगी। इस समाज की विद्रूपता तब भी सामने आती है जब किसी कारणवश बेटी अपनी ससुराल छोड़ कर मायके में आश्रय मांगती है। ब्याही बेटी के खर्च का बोझ पिता या भ्राता को असह्य हो जाता है तथा उस पर एक भण चादर समाज के भय की चढ़ी होती है कि “लोग क्या कहेंगे......‘‘ हमारे दूसरे बच्चों का विवाह कैसे होगा ?

क्या बेटी के जन्मदाता अपनी बेटी के भविष्य के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं रखते। समाज भय व्यक्ति की अपनी मानसिक जड़ता का विक्षेप है। नारी समाज का आधा अंग है, तब उसकी समस्या को क्यों, और कैसे स्वीकार नहीं करेगा। समाज क्या है......? हम ही तो समाज है। यदि हमारी विचारधारा में परिवर्तन होगा तो सामाजिक दृष्टि में अपने आप बदलाव आएगा।

प्रकृति ने नारी को पुरुष की अपेक्षा अधिक हृदय-प्रधान एवं कोमल बनाया है। वह क्रूर बुद्धिवादी की तरह नहीं, भावुकता एवं दयालुता-पूर्वक निर्णय लेती है। आज बढ़ते हुए वैज्ञानिक जड़-बुद्धिवाद के युग में परिवार, समाज, देश एवं सम्पूर्ण विश्व को शान्ति के लिये नारी हृदय की आवश्यकता है। नारी को वस्तु नहीं व्यक्ति की मान्यता प्रदान कीजिए। वह सत्य है, शिव है, सुन्दर है। वह शक्ति है। शक्ति में सत्य, शिव एवं सुन्दर की समायाजना उसे अनुरक्ति की पात्रता प्रदान करती है, विरक्ति की नहीं। 

अपनी पुस्तक नारी “दंश-दलन-दायित्व‘‘ में मैंने अपनी बात रखी है। समय≤ पर प्रवाहित बीच की दिशाओं का मूलभूत आधार सामाजिक कार्य है। समाज से सीधा संपर्क और बुद्धि तत्व तथा चिन्तन वृत्ति ने अपने वर्ग की अवहेलित श्रेणी को विश्लेषित किया है। विश्व के अपार जन समूह का अर्ध भाग जिन वैचारिक परिस्थितियों को झेल रहा है इस से प्रत्येक क्रान्ति चेता स्वयमेव सम्बद्ध हो जाता है। विवेक, विचार एवम् चिन्तन तत्व ने अपनी दूसरी श्रेणी में दर्ज होने की त्रासदी को जाना है, पहचाना है। इसी आयाम को यहाँ शब्दाभिव्यक्ति दी गई है। प्रशंसा एवम् आशावादिता की अनुरूपता का ही निर्वाह नहीं किया गया है वरन त्रुटियों पर भी अंगुली रखने का प्रयास हुआ है। सार्थकता समयपरक है।

मैं अपने शुभेच्छुकों आभार मानती हूँ जिन्होंने समय≤ पर विचार विमर्श तथा प्रनित सूचनाओं को उत्तरित कर सहयोग प्रदान किया है। पुस्तक के शीर्षक चयन में व्यावहारिक सहयोग के लिये अपने पतिदेव श्री आर. डी. मिश्र जी की आभारी हूँ, तथा विभिन्न महिला संगठनों, अखिल भरतीय मारवाड़ी महिला संगठन, आन्ध्र प्रदेश मारवाड़ी महिला संगठन, हैदराबाद-सिकन्द्राबाद मारवाड़ी संगठन, महिला दक्षता समिति एवं मिथिला महिला समाज के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ। इन सबों ने मेरे अंदर महिला की विभिन्न समस्या के प्रति सोच के बीज बोने से लेकर जमीन पर उतर कर कार्य करने और विशद अनुभव प्राप्त करने का शुभावसर प्रदान किया।

विशेष रूप से श्रीमती रत्नमाला साबूजी को धन्यवाद अर्पित करती हूँ। आपने महिला दर्पण तथा महिला सुधा पत्रिका के सम्पादन का दायित्व मेरे कंधों पर सौंप कर मुझे महिला समस्याओं के प्रति उद्वेलित किया। निरंतर महिलाओं की वर्तमान समस्याओं में से किसी विषय विशेष का चयन कर उस विषय पर विभिन्न मत प्रस्तुत कर अपने विचारों के प्रकटीकरण का माध्यम मैंने विभिन्न सम्पादकीय लेख लिखे। आज उसे पुस्तकाकार करते हुए यह तथ्य उजागर हुआ। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष किसी रूप से सहयोगी अपनी सभी शुभेच्छुकों, परामर्शदाताओं को धन्यवाद देती हूँ। श्रीमती सुमन कृष्णकान्त, श्रीमती शीला झुनझुनवाला, श्रीमती डॉ. सरोज बजाज, श्रीमती पुष्पा भारती, श्रीमती मनु भंडारी, श्रीमती चित्रा मुद्गल, मृदुला सिन्हा, डॉ प्रतिभा गर्ग, डॉ. सरोज पाण्डेय शशिबाला धाम आदि की आभारी हूँ। इनसे समय - समय पर विभिन्न विषयों पर विचार विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ जिससे सोच को दिशा देने में समर्थता मिली।


विपरीत स्थितियाँ एवं धैर्य

मानव प्रकृति का सुन्दरतम उपहार है। इसमें बुद्धि, विवेक, तर्क तथा निर्णय शक्ति भी समान है। जिसके आधार पर हम इसे अन्य सभी प्राणी से अलग करते हैं तथा इसे सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में रखते हैं प्रकृति के अन्य उपादेय भी हैं। वे अतीव मन मोहक है। प्रकृति विचित्रताओं का समिश्रण है। कही हरियाली कहीं मरूथली, कही उपज ही उपज, कहीं दलदल कीचड़ और कहीं ऊसर। कहीं मानव को शान्त सहज जीवन प्रदान करने वाली संयमित उष्मा कहीं बर्फ की ठंढ़क जो हड्डियाँ तक हिला दे। कहीं मनोरम झरने, कहीं विशाल सागर, कहीं कलकल छलछल करती नदियाँ, कहीं ऊँचे आसमान को छूते पहाड़, इनकी गोद में बसा गाँव तथा शहर कहीं धरती के गर्भ में छिपे धातु, हीरे, मोती, का खजाना तो कहीं भूगर्भ में पानी रूपी अमृत व पेट्रोल की नदियाँ एवं कूयें। इस प्रकार प्रकृति एक अपरिमित खजाने का भंडार हैं। अनमोल रत्नों का भंडार है। सुख की जो कहीं कठिन परीक्षा हैं वह है दुःखों के बाढ़ तथा जीवन प्रवाह बनाये रखने की। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि जीवन क्या हैं निर्झर है मस्ती ही इसका पानी सुखःदुख के दो तीरों से चल रहा राह मनमानी है।

एक ओर प्रकृति के नयनाभिराम दृश्य हमारा मन मोह लेते हैं। तो कई बार प्रकृति का भयावह रौद्र रूप जन मानस के विनाश का कारण भी बनता हैं। भूचाल बड़वानल और दावानल प्रकृति के ही विकराल रूप हैं। अभी हाल हाल में ही घाटी घटना बेल्लाड़ी में आये भूकम्प या अहमदाबाद के भूज का भयावह रूप तथा इसके ताडंव हमारे हृदय पर अपनी विर्दीण्ण छवि छोड़ गये हैं। उड़ीसा में आये बाढ़ का वह तांडव मस्तिष्क की रंध्राओं में झंझा पैदाकर मानव जाति के विकास को चिन्हित कर गये है। प्रकृति के इस आक्रमक रूप ने सारी मानवता को छिन्न-भिन्न कर दिया है। प्रकृति के समान ही मानव जीवन भी कभी एक जैसा नहीं रह पाता। सुख और दुःख जीवन के दो अभिन्न अंग हैं। कभी न कभी किसी न किसी रूप में हमें इनका सामना करना ही पड़ता हैं।

जीवन के सुखकर आनन्दमय दिनों को तो हम हंसकर स्वीकार करते हैं, किन्तु अवसाद के क्षणों में हमारा संतुलन बिगड़ने लगता हैं। ऐसे में घबराकर हम दूसरों का सहारा ढूंढने लगते हैं। दूसरों का सहारा लेना या किसी से अपने मन की बात कहना बुरा नहीं बल्कि एक तरह से यह हमारे भावात्मक विकास के लिए आवश्यक भी हैं। फिर भी हमें दूसरों की अपेक्षा अपने आप में झांककर अपने मनोबल तथा अपनी आत्मशक्ति को पहचानने की चेष्टा करनी चाहिए तथा आशवादी बन कर अपनी परेशानियों और दुःखों से उबर पाने के ठोस उपाय ढूंढने चाहिये। कभी कभार की बात तो ठीक है किन्तु हर समय हर किसी के सामने अपने ही दुःखी को व्यक्त करते रहने से व्यक्ति स्वयं को दूसरों की दृष्टि में गिरा देता हैं।

मेरी एक जानकार श्रीमती उषा पिछले दो वर्षों से बीमार चल रही थीं। उनके तीनों बच्चो सिजेरियन हुए थे। तीसरे बच्चे के जन्म के बाद से ही उनकी सेहत खराब रहने लगी। पति और बच्चे हर समय उनकी सेवा में लगे रहते, फिर भी वह खुश न रह पाती। हर समय किसी न किसी बात को लेकर निराश हो जाती। फलस्वरूप उनके पति उनसे विमुख होते चले गए और उनका अधिकांश समय घर से बाहर ही बीतने लगा। गलती श्रीमती उषा ठाकुर की ही तो थी। बीमारी पर तो उनका बस नहीं था, किन्तु घरवालों की कर्तव्यनिष्ठा और सेवापरायणता को देखते हुए उन्हें प्रसन्न रहने की, जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की चेष्टा तो करनी चाहिये थी। शारीरिक रूप में न सही मानसिक सहयोग देकर वह अपने घर को टूटने से बचा सकती थी। 

इसके विपरीत श्रीमती सविता देवी एक कैंसर पीडित स्त्री थी उनके जीवन के अन्तिम दिन महाकष्टकारी थे। कैंसर पूरे शरीर में फैल चुका था। जीवन की कोई आशा शेष नहीं रह गयी थी। हमने उन्हें तपड़ते और कराहते हुए अवश्य देखा। किन्तु रोते हुए और उदास कभी नहीं देखा। बल्कि हमारी उदासी को देख कर वह हमें जीवन की सच्चाई से प्रतिपल अवगत कराती रहीं। आज वह इस संसार में नहीं हैं, किन्तु उनका मनोबल अविस्मरणीय है। सोचने की बात तो यह है कि किसी के सामने अपनी ही व्यथा को दोहराते रहने से आपसी संबंधी में दरार पड़ने का भय उत्पन्न हो जाता है। आखिर कोई कब तक आपके दुःख की गाथा सुनता रहेगा।

एक न एक दिन पति, माता-पिता रिश्तेदारों तथा पड़ोसियों की अवेहलना का पात्र बनना ही पड़ेगा। कुछ हद तक तो एक दूसरे के आश्रित रहा जा सकता। किन्तु हर समय के लिए यह बात उचित नहीं।

क्यों नहीं हम इस सच्चाई को स्वीकार कर लेते कि इस संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो पूर्णरूपेण सुखी है। किसी को अपनी सास और ननद से शिकायत है तो कोई अपने बास से दुःखी है तो कोई अधिक और बिगड़ी हुई संतान से दुःखी है। किसी को वैधव्य का दुःख सताता है तो कोई पति के अत्याचारों से पीड़ित हैं। रोग निर्धनता, बेरोजगारी भी कई प्रकार की मानसिक परेशानियों का मूल कारण हैं। तात्पर्य यह है कि किसी न किसी रूप में कष्ट तो झेलने ही पड़ते है। यह तो जीवन का शाश्वत नियम है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि दुःखों से उबरा न जा सके। शेष सभी प्रतिक्रियाएँ व्यक्ति विशेष के सोचने के ढंग पर निर्भर हुआ करती हैं। कुछ तो प्रकृति प्रदत्त उपहारों से वंचित रह जाने की कठिनाइयों के बारे में सोचकर ही जीवन पर्यन्त के लिये निराशा के गर्त में डूब जाते हैं। और कभी भी हताशा के अन्धकार को चीर कर आशा की नन्हीं-सी किरण को ढूंढ निकालने का साहस नहीं जुटा पाते। इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो असीम वेदना को झेलते हुए भी टूटते नहीं, बिखरते नहीं। अपितु अपनी क्षमताओं को पहचान कर दूसरों के समक्ष अपने आपको एक जीवांत उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

जानी-मानी कत्थक नृत्यांगना शोभा कौसर भी एक समय अपनी लम्बी बीमारी के कारण शारीरिक और मानसिक वेदना के दौर से गुजर चुकी हैं। उनकी पीठ में दर्द रहने लगा था। जनवरी 1988 में इस दर्द ने उनके बाएँ पाँव और बाएँ हाथ को भी गिरफ्त में लिया। उन्हें पक्षघात का दौरा पड़ चुका था। पी.जी.आई. के डाक्टरों का कहना था कि वह अब कभी भी नृत्य नहीं कर पाएंगी। किन्तु शोभा ने डाक्टरों की हिदायतों और अपनी दयनीय स्थिति के बावजूद चोरी से नृत्य रियाज शुरू कर दिया। अपने असीम मनोबल के कारण उन्होंने अपनी खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त की। अपनी बीमारी के ठीक तीन साल दस महीने बाद 19 नवम्बर 1990 में वह एक बार फिर चंडीगढ़ के टैगोर थियेटर के मंच पर उतरी। उस समय उनके चाहने वालों में एक अनोखा जोश था। शोभा कोसर से बातचीत के दौरान यह सूचना मिली। इसी प्रकार फिल्म ‘‘नाचे मयूरी‘’ की नायिका 

सुधा चन्द्रन ने भी अपनी अपंगता के बावजूद नृत्य क्षेत्र में श्रेष्ठता प्राप्त की है तथा कई हिन्दी तेलुगु फिल्मों में नृत्य का अविसमरणीय दृश्य बिखेरा है।

उषा की दुनिया 9 नवम्बर 1987 को अंधेरी हो गयी थी। उस समय वह एम.एच. अस्पताल में अपनी मेडिकल की डिग्री के लिए इंटर्नलशिप कर रही थी। उनकी परीक्षा तो एक वर्ष पूर्व 1986 में ही आरम्भ हो गयी थी जब एक मेडिकल जांच से उन्हें यह मालूम हुआ कि उनकी आंखो में मुधमेह युक्त रोटिनोपेथी की बीमारी 1987 में टांग पर लगी एक चोट के कारण उन्हें मधुमेह कोमा हो गया। उनकी आखों की रोशनी तेजी से घटने लगी और एक दिन शंकर नेत्रालय से वह ज्योतिहीन होकर ही बाहर निकलीं। चिकित्सा की समस्त धाराएँ उनकी नेत्रज्योति लौटाने में विफल रहीं। अपने उन कठिन दिनों में वह बहुत हताश रहीं किन्तु धीरे-धीरे उन्होंने अपनी विकलांगाता पर काबू पाने की कोशिश की। आज डॉक्टर वी. उषा तमिलनाडु में मदुरै के एस.एम. अस्पताल की मेडिकल आफिसर हैं और 50 से भी अधिक बीमार व्यक्तियों की जांच रोजाना करती हैं।

भारतीय डॉक्टर निगम की चर्चा भी सुनने को मिलती है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में अपनी दृष्टि खो दी थी। किन्तु इस दुर्घटना के बाद भी उन्होंने अस्पताल में एक प्रशासक की नौकरी की। पाकिस्तान की डॉक्टर सादिया मकबूल भी नेत्रहीन होने के बावजूद अपनी प्रैक्टिस कर रही हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के नेत्रहीन प्रोफेसर रवीन्द्र जैन एक जाने माने संगीताचार्य हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में संगीत की उच्चशिक्षा प्रदान कर रहे हैं।

पारुल शाह एक ऐसी महिला है जो पिछले पच्चीस वर्षों से शारीरिक यातनाएं झेल रही हैं। पहले वह भी अन्य लड़कियों की तरह स्वस्थ और सामान्य थी। पर बाद में किसी बीमारी के कारण उनके पैरों में दर्द रहने लगा। पहले तो डॉक्टर के आदेशानुसार वह कोर्टीजोन की गोलियाँ खाती रही। पर बाद में बिना डॉक्टर से पूछे ही वह कोर्टीजोन लेने लगी, जिससे उनके रोगों की जटिलता बढ़ती गयी। उन्हें उच्च रक्तचाप, दिल की कमजोरी और आंखों का मोतियाबिंद हो गया, धीरे-धीरे मधुमेह ने भी आ घेरा। बायीं ओर के फेमड़े ने ठीक से काम करना बंद कर दिया। कई प्रकार के इलाज करवाए गए पर आराम नहीं मिला। अन्त में पैरों की असहनीय पीड़ा के करण अपने दोनों पैर कटवा कर उन्हें अपाहिज बनना पड़ा। फिर उन्होंने स्थिति से समझौता कर लिया। वह हर हाल में जीवित रहना चाहती थीं। अपने पैरों के सहारे तो नहीं किन्तु इच्छाशक्ति के सहारे वह एक कलाकार के रूप में हमारे सामने खड़ी हैं। उनकी हस्तकलाएँ देखने योग्य हैं। वैसे यह एक टेलीफोन बूथ पर काम करती हैं। अपनी रोजी-रोटी का इन्तजाम वह इस प्रकार कर लेती है।

इन सभी उदाहरणों से यह निष्कर्ष निकलता हैं कि विकलांगता कोई अयोग्यता नहीं हैं। अपने मनोबल के कारण कोई भी अपंग व्यक्ति अपने कार्य क्षेत्र में उन्नति कर सकता है। व्यक्ति के साहस आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति से बढ़कर और कुछ नहीं और यही साहस जीवन का सच्चा सहारा है। हमारे अन्दर समस्त शाक्तियाँ अन्तर्निहीत हैं फिर इन विषम परिस्थितियों से घबराना कैसा ? सच यह है कि हमें अपने जीवन की सच्चाई को नकारना नहीं चाहिए। किसी भी कारण से उत्पन्न समस्याओं को लेकर हीन भावना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, अपितु हर स्थिति में अपने आत्मबोध द्वारा आत्मसम्मान को बनाए रखना चाहिए। इससे पहले की कोई दूसरा आपका सम्मान करे, अपना सम्मान स्वयं करना सीखिए और कभी भी अपने आपको दूसरों की दृष्टि में गिराने की चेष्टा मत कीजिए। अपने बाह्य ही नहीं आन्तरिक स्वरूप को भी पहचानिए। अपनी शक्ति को जानिए। फिर देखिए कोई भी अंगुली हास्यास्पद ढंग से आपका पीछा नहीं करेगी। न हीं आप कोई मानसिक यातनाओं का शिकार होंगी। आपका मनोबल ही आपका सबसे बड़ा शस्त्र है। इसको धारण करने पर धैर्य स्वयं चल कर आपके पास आ जाता है। और सभी विपरीत स्थितियों पर इन दोनों शस्त्रों के सहारे विजय पाया जा सकता हैं। अतः महिलाओं को चाहिए कि विषम से विषम स्थितियों में या किसी भी विपरीत स्थितियों में अपने धैर्य का दामन नहीं छोड़े बल्कि इसका डटकर मुकाबला करें।

मार्च 2012 में श्री उपेन्द्र एवं दिविक रमेश के साथ डॉ. अहिल्या मिश्र

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