एक क़तआ अमृता के नाम
रंजु भाटिया
‘‘इस क़िताब में जहां क्यों है, वहां ही मेरा दख़्ल है, वरना मैं कहीं हूँ ही नहीं, यह कहानी अमृता की है।"
बिल्कुल सच है कि कुछ रूहें हमेशा साथ रहती हैं, वरना अमृता प्रीतम को सौवीं जन्मशताब्दी पर डॉ उमा त्रिलोक जी द्वारा लिखित ‘‘एक क़तआ... पढ़ कर आंखे नम नहीं हो जाती और पढ़ कर दिल बेचैन न हो उठता। अमृता जैसी शख़्सियत की मौजदूगी जिस्म से जान निकल जाने के बाद भी आबाद रहती हैं और मोहब्बत करने वालों को इसी क्यों में उलझाए रखती है।
अमृता, जिन्होंने कच्ची उम्र 16 साल से ही अपने सपनों की इबारत लिखनी शुरू कर दी थी, ज़िंदगी के पन्ने पर रोशनाई कभी जिगर का खून था तो कभी आँसू। अमृता ने जो भी लिखा पूरी तरह डूब कर लिखा था। पर वक़्त से इतना आगे लिखने वाली लेखिका इतनी अकेली क्यों महसूस करती रही, यही सवाल उमा जी की लिखी इस किताब का मर्म है ।
इस किताब की शुरुआत में लिखी आस्कर वाईल्ड के शब्दों की पंक्तियाँ ‘‘उदासी को लिबास बना कर पहने रखा और जिस दहलीज के अंदर पांव रखा,वह घर वैराग्य का स्थान बन गया।‘‘अमृता ने खुद कहा हैं-‘‘मेरा सोलहवां वर्ष आज भी मेरे हर वर्ष में शामिल है‘‘, शायद इसीलिए उनकी नज्में और कहानियाँ प्रेम को इतनी पूर्णता से, सच्चाई से परिभाषित कर पाती हैं।
अमृता अपने समय से बहुत आगे की सोच रखने वाली लेखिका थीं। अपनी आत्मकथा में उन्होंने खुद लिखा है कि ‘‘मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। जानती हूं, एक नाजायज़ बच्चे की क़िस्मत इसकी क़िस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं।
अमृता के मुक्त व्यक्तित्व को उस वक्त का न समाज पचा पाया था न साहित्य जगत। लेकिन अमृता ने न कभी अपने आप को बदला न अपनी कलम को रोकने की कोशिश की। शायद इसलिए वो अमृता कहलाईं। माँ की मौत के बाद पिता को फिर वैराग्य अपनी ओर खींचने लगा मगर अमृता का मोह उन्हें संसार से जोड़े रखता।अमृता कभी-कभी रो पड़ती थीं कि वे पिता को स्वीकार थीं या नहीं...अपना अस्तित्व एक ही समय में उन्हें चाहा और अनचाहा लगता था।एक काल्पनिक प्रेमी ‘‘राजन‘‘ से शुरू हुई कहानी उनकी साहिर और आगे के सफर को तय करती रही। अमृता का मन एक पंछी की तरह था जो उड़ना चाहता था खुले आसमान में,एकदम स्वच्छंद,मगर एक तीखा दर्द लिए...ये दर्द उनकी कविताओं में खुल के नज़र आता है।
उमा जी ने इन्हीं हालात को बखूबी लिखा है कि ‘‘अमृता एक टूटे हुए गीत की तरह हालात की आग में भस्म हो गयी फिर उसी भस्म से उभर कर अमर पक्षी फीनिक्स की तरह उगी,उड़ी और लम्बी दूरियां तय करती हुई वहां पहुंची जहां औरत की मर्जी नहीं पूछी जाती,बस अनचाहे रिश्ते में उसको यूँ ही धकेल दिया जाता है।‘‘
कई बार यह प्रश्न दिल में आया कि साहिर न होते तो अमृता भी न होती और अमृता न होती तो साहिर पर इन दोनों के बीच जो इमरोज आज बन कर चलते रहे वह उमा जी की लेखनी ने बखूबी इस में लिखा है साहिर से वो इश्क, वो दीवानगी जो एक साए से शुरू हुई, उनके साथ ताउम्र रही मगर सिर्फ एक साया बनकर। इमरोज कहते हैं कि इतने लम्बे सफर के दौरान साहिर नज्म से बेहतरीन नज्म तक पहुंचे,अमृता कविता से बेहतरीन कविता तक पहुँचीं,मगर ये जिंदगी तक नहीं पहुंचे।अमृता ने इसे खामोशी के हसीन रिश्ते का नाम दिया।
उमा जी की लिखी इस किताब के एक पन्ने पर अमृता के जीवन के सफर में अपनी मानसिक हालात के अनुसार चार पड़ावों का जिक्र किया है ,पहला पड़ाव...... अचेतनता, बाल बुद्धि जैसा , जिज्ञासापूर्ण दूसरा पड़ाव है...... चेतनता, जिसमे होता है रोष... एक दम प्रचण्ड,गलत मूल्यों से लड़ मरने वाला...... तीसरा पड़ाव है- दिलेरी- जो हारता नहीं, जो जीत की आशा बनाए रखता है और चैथा पड़ाव है...... अकेलापन। यही अकेलेपन का उमा जी की किताब में प्रश्न चिन्ह है। हर इंसान की जिंदगी कभी भी मुक्कमल नहीं होती है, एक खालीपन जो कच्ची उम्र से मन पर छा जाए तो वो भरपूर जी लेने पर भी अकेला ही रखता है। फिर चाहे वह आसपास कितने ही लोगों से घिरा हुआ क्यों न हो। इस खामोशी को अकेलेपन को समझना वाकई आसान नहीं है।
अपने वक़्त से आगे लिखने वाली अमृता की कलम जिन जिन विषय पर चली है उमा जी ने उनकी उन सभी खूबियों को इस किताब में फिर से याद दिलाया है ,जो अमृता प्रीतम को समझने वाले, पढ़ने वाले के लिए एक उनकी सौवीं जयंती पर एक यादगार सहेज कर रखने लायक तोहफा है। जैसे जैसे इस को पन्ना दर पन्ना पढ़ते जाएंगे अमृता के करीब खुद को और पाएंगे।
यह किताब मुझे पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे अमृता प्रीतम के जीवन को नज्म शैली में लिखा गया है, जो उनके लिखे हुए हर उपन्यास ,कविता कहानी, खत आदि के उन पलों के करीब ले आती है जो हम प्रत्यक्ष रूप में तो शायद इतना ध्यान नहीं रखते पर हमारे अवचेतन मन में उनकी लिखी वह हर सोच मौजूद रहती है ,फिर चाहे वह 36 चक हो, गुलियाना हो ,साहिर हो, सज्जाद हो या आज का वर्तमान इमरोज हो।
इतनी सुंदर किताब को लिखने के लिए उमा जी को बधाई ।
एक कतआ अमृता के नाम / उमा त्रिलोक / सभ्या प्रकाशन / अभिनव इमरोज
-नई दिल्ली, मो. 8178210588