डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)


स्त्री संघर्ष (2013)

वैश्वीकरण, स्त्री विमर्श एवं बाजारवाद

आधुनिक युग का साहित्य भले ही भारतेन्दु के समय से माना गया है किन्तु आधुनिक काल, सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेशों में यह 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं शताब्दी के आरंभ से माना जाता है। मध्यकालीन वर्जनाओं एवं अंधविश्वासों से उबरती हुई दुनिया नए आविष्कारों, नए खोजों के साथ देश-विदेश भ्रमण एवं यात्राओं के माध्यम से नए चिंतन एवं वैचारिक क्रांति के साथ नयी दिशा का ज्ञान प्राप्त कर आधुनिक होने लगा। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आधुनिकता का प्रवास होने लगा। कई पुरानी मान्यताएँ टूटने बिखरने लगी। नए आयाम, नए सोपान निर्मित हुए। इसी क्रम में दबी-कुचली महिलाएँ और उनका समाज पीछे छूटा। उस समय तक अशिक्षा एवं अज्ञानता के अंधकार में जीती महिलाएँ और पिछड़ती गयी एवं मात्र वस्तु बन कर रह गयी। कहने को तो उन्हें गृहस्वामिनी, मालकिन, देवी और न जाने क्या-क्या कह कर महिमा मंडित किया जाता रहा, लेकिन कटु सत्य तो मात्र यह था कि वे वैदिक युग एवं प्राचीन युग में प्राप्त स्वतंत्रता भी खो चुकी थी। उनके पास अपने लिए कुछ बचा ही नहीं था। शिक्षा पीछे छूट चुका था। पर्दा उनपर थोपा गया था। बंदिशे लागू कर दी गई थी और बिना अपराध के चैकठों के भीतर बंद कर दिया गया था।

समय एवं परिस्थियाँ बदली आधुनिक युग का आविर्भाव हुआ। शिक्षा ने पर फैलाए। स्त्रियों को धीरे-धीरे शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश मिलने लगा। उनके अंदर शिक्षा ने जागरूकता का प्रकाश फैलाया और शिक्षा की ज्योति में स्वतंत्रता का भान हुआ। अंधत्व और अज्ञानता की बेड़ी तोड़ते हुए महिलाएँ नवयुग में नवीन उत्थान और विकास की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। उन्हें अपनी पहचान मिली। अपने को जानने का प्रयास तेज हुआ। यह शृंखलाबद्ध तरीके से हुआ और एक नए समाज की रचना सक्षम रहा। यह परिदृश्य 20 वीं सदी के अंत में अपने चरम पर रहा। 21वीं सदी में इतनी तेजी से बदलाव आया कि आज और कल के बीच रात का अंधेरा भी लोप हो गया। चकाचैंध और चकमक चमक से क्रांति की आँधी उठी और पूरे परिवेश पर था। स्वतंत्रता का बिगुल फूंका गया किन्तु इसी बीच इनके भीतर स्वच्छंदता या मनमानापन की घुसपैठ हो गई।

भारतीय समाज में क्रांति का दौर चल रहा है। संक्रमण काल में दूसरे छोड़ अग्रसर हैं। अज्ञान और ज्ञान के बीच की खाई भरी जा रही है। और वैसे तो सामाजिक आदोलन सामाजिक जीवान्तता के परिचायक होते हैं किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि तीसरी दुनियाँ के लोग वर्षों तक उपनिवेशवादी बोझ के तले दबे रहे हैं। ज्यों-ज्यों ये राष्ट्र स्वतंत्र हुए इन देशों में कई प्रकार के आंदोलन उभरे। वास्तव में यह राख में छिपी ज्वाला है जो आजादी की हवा से शोले बनकर छा गए। हाल-फिलहाल हमारे देश में भी कुछ नए चिंतन युक्त विचार आंदोलन का स्वरूप लेकर पूरे देशों सा यहाँ भी फैल गए, पर्यावरण संकट, जल संरक्षण जंगलों की कटाई. वन्यजीवों का विनाश, भूभाग का क्षरण, ऊंचे-ऊंचे बाँधों का निर्माण जमीन से कटते लोग, घर से बेघर होते लोग, गरीबी की वृद्धि, स्त्री का घर से बाहर निकलना, आर्थिक स्वतंत्रता, अंध विश्वासों पर कुठाराघात, नएपन एवं खुलेपन का स्वागत, पाश्चात्य हवा से पूरित श्वास, वैश्वशिक परिवर्तन, एक विश्व की कल्पना, व्यापार-व्यवसाय का बढ़ता संसार, बाजारवाद इसमें स्त्री को चाहे-अनचाहे निरूपित करना आदि घटित होकर भारतीय संस्कृति एवं परंपरा की चूल ढीले तो किए ही एक अनचाही स्थिति का निर्माण भी किया। आज अपने जड़ों से उखड़े घर से भटकते लोगों की त्रासदी भी इसमें सन्निहित है। ये वृहदाकार समस्याएँ भी कई आंदोलनों की जन्मदाता है।

एक और आन्दोलन स्त्रियों से जुड़ा हुआ है। समस्याएँ तीसरी दुनियां की नहीं बल्कि संपर्ण विश्व में ताकतवर सिद्ध हो रही है। पुरूष एवं स्त्री दोनों के लिंग में अंतर है। यहीं अंतर जेन्डर समस्या की जन्मदात्री है। स्त्री या पुरूष दोनों में जैवकीय संस्थागत विशेषताएँ समान हैं। दोनों के शरीर का मुख्य भाग-हृदय, फेफड़ा, जिगर, किडनी, आँख, नाक, कान, धड़ आदि समान हैं। किन्तु लिंग के अंतर के कारण स्त्री को सामाजिक और सांस्कृतिक प्रताड़ना सहनी पड़ता है। प्रजनन के कारण अधिक संवेदनशील होने के कारण शारीरिक तौर पर कमजोर होने के कारण वह निम्न है किन्तु स्त्री होने के नाते यह भेद भाव नहीं होना चाहिए। लिंगीय (जन्डर) भेदभाव का आंदोलन अब विश्वव्यापी बन चुका है। 

अपने पिछले कुछ समय के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि हमारे देश में लिंगभेद की समस्या अत्याधिक संगीन है। वैसे हमारे मिथकों में स्त्रियों का बहुत आदर सम्मान वर्णित है। आदर से सम्पन्नता, लक्ष्मी का वास आदि को संबंद्धकर इसे महत्वपूर्ण बनाया गया है किन्तु इसके साथ ही अनुशासन हेतु स्त्रियों का शारीरिक कष्ट देना या पीटने आदि को भी स्थापित किया गया है। पूर्व में स्त्रियों को पति के शव के साथ जलकर मर जाने या वैधव्यजीवन बिताने की बात प्रचारित किया गया था। वर्तमान में दहेज हेतु वधू दहन आम बात है। इन्हीं मूलभूत कारणों और कारकों ने नारी आंदोलन के द्वार प्रशस्त किए। इन आंदोलनों के द्वारा यह संदेश दिया गया कि इन्हें पुरूषों के भेदभाव का शिकार होने से बचाना चाहिए। इनका अपना एक मुक्ति कार्यक्रम एवं इसकी रूपरेखा बना। इसके माध्यम से इस क्षेत्र में राज्य, कानून और सत्ता को अपने अधिकार की सुरक्षा का गुहार किया। समान अधिकार की वकालत किया गया तथा धार्मिक बंधनों से मुक्ति की माँग भी पुरजोर तरीके से रखी गई।

स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही नारी आंदोलन ने जोर पकड़ा। सन् 1930 में बम्बई विश्वविद्यालय में एक महिला ने स्नातक में प्रवेश हेतु अपना आवेदन पत्र जमा किया। इसे इसलिए खारिज किया गया था कि यह एक महिला का था। स्वतंत्रता आंदोलन के समय स्त्रियों ने पहली बार अपनी मुक्ति की माँग करते हुए इसकी जोरदार वकालत की। अपने को मनुष्य जाति में स्थापित करने की कोशिश की। पर्दे का बहिष्कार, समान अधिकार की वकालत, धार्मिक ग्रंथों में स्त्रियों को दबाने की बातों का विरोध, अपने चारों ओर लगाए गए बाडो (कटीली झाड़ियों) का विरोध परिवार में गाड़े गए खूटे से छूटने की छटपटाहट आदि कई बातें आकार लेकर विरोध की श्रृंखला को मजबूत करने लगी। सन् 1970 दशक में गाँधीवादी एवं समाजवादी विचारधारा के प्रवाह में बहती हुई यह क्रांति वामपंथियों के काँधे की कावँड बनी। सभी बड़े शहरों एवं महानगरों में फैली यह आंदोलन धीरे-धीरे मध्यमवर्गीय महिलाओं के बीच फैलने लगी। उस समय ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं को इसमें शामिल नहीं किया गया।

इस आन्दोलन ने 90 के दशक एवं 2000 के बाद कई स्वरूप बदले। महिलाएँ प्रबुद्ध हुई। कई क्षेत्रों को अपने अधिकार क्षेत्र में सम्मिलित किया। प्रशासन, सत्ता, राजनीति के साथ अपने लिए वर्जित या प्रवेश निषिद्ध क्षेत्रों पर भी अपना अधिकार जमाने लगी। पुरूष तो पूर्व से ही नारी का हर रूप में उपयोग करता आया है। वह नारी के इस नए स्वरूप को सहयोग या असहयोग के बदले एक नए साँचे में ढ़ालने का कार्य करने लगा। औधोगिक क्रांति और इसके दूरस्थ परिणाम स्वरूप उपजने वाले बजारवाद में कुंठित या अति विकास की उत्साह लिए स्त्रियों को पूर्ण रूप से उपयोग में लाने की ठान ली। स्त्रियाँ भी महत्वाकांक्षी बन चुकी थी। उन्हें वर्षों बाद दो छिपी आकांक्षाओं को पूर्ण करने का स्वर्णावसर मिलने लगा। भला वे कहाँ चूकती। वे बेधड़क और बेताहाशा निकल पड़ी। स्वतंत्रता के साथ स्वच्छंदता का चोला पहना और बढ़ चली एक नए मार्गारोहण हेतु।

उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की चर्चा से पहले हम इसके प्रति सोच की बात करें तो पाते हैं कि बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद के वैश्विक प्रसार में आज उपभोक्ता निष्क्रिय  एवं बाजार की ताकत के आगे निरीह प्राणी है। पूर्व में यह धारणा पोषित हुई होगी। आज स्थितियाँ पूर्ण परिवर्तित हो गई है। अब उपभोक्ता केवल प्रभावित पक्ष एवं निष्क्रियता का प्रमाण भर नहीं रह गया है और बाजार का निरीह शिकार प्राणी भी नहीं। आज मनुष्य उपभोक्ता संस्कृति का जागरुक भागीदार है- एवं सक्रिय कार्यकत्तो। अब प्रश्न उठता है कि उपभोक्ता की स्थिति मूल खरीददार उलट कैसे गयी?

विश्व युद्धों के काल में उपभोक्तावाद विश्व भर में उभर रहा था। उस समय समाज विचारकों एवं चिंतकों ने उपभोक्तावाद को बहुत ही निम्नस्तर का आँका। इसके प्रतिरोधन की आवश्यकता पर बल दिया। फलाफल उपभोक्तावाद के विरोध में आंदोलन ने जोर पकड़ा। इसकी कोख से उपभोक्ता संस्कृति का जन्म हुआ। इस से हम कह सकते हैं कि उपभोक्तावाद एवं उपभोक्ता संस्कृति दो भिन्न-भिन अवधारणाएँ हैं। उपभोक्तावाद मूलतः उत्पादक का हितैषी है और उपभोक्ता को लालच देता है। फलतः अनावश्यक खरीददारी एवं अपव्यय की शरणागती है। विपरीततः उपभोगता संस्कृति उपभोक्ता द्वारा विकसित एवं उपभोक्ता के हित में है। उपभोक्ता संस्कृति उपभोक्ता को एक समाज बनाती है जो बाजार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। अतः उपभोक्ता संस्कृति वस्तुतः उपभोक्तावाद को नियंत्रित करने वाली शक्ति होती है इसका पर्याय नहीं। 

बाजारवाद ने लोगों को तरह-तरह से लुभाना, ललचाना, भरमाना आरंभ किया। इसके लिए हर जगह स्त्री सन्निहित होने लगी। मर्दों के दाढ़ी बनाने का सामान, साइकिल सेंट, परफ्यूम, अंडरवेयर, चॉकलेट, भोजन की सामग्री विभिन्न प्रकार के फोन्स, मोबाइल्स और वे सभी सामग्रियाँ जो बाजार में बिकने हेतु उपलब्ध करवाई गईं। सभी के विज्ञापन स्त्रियों के विभिन्न रूप कभी अति आधुनिक, कभी पुरातन, कभी मध्यकालीन, कहीं 18वीं सदी तो कहीं 20वीं सदी तो कहीं 21वीं सदी की स्त्री अपना जलवा बिखेरती हई उन सामग्री का विज्ञापन करती दिखाई जाने लगी। विशेष रूप से उत्तेजक स्वरूप को अति कामुकता के साथ उभारा जाने लगा। उपभोक्तावाद को प्रश्रय देने हेतु स्त्री मानव से वस्तु में परिणित की जाने लगा। आम उपभोक्ता इस लालच में पड़ कर अपनी जेब खाली करने लगा। 19वीं सदी के मध्य से मँहगाई और पैसों की तंगी ने महिलाओं विशेषरूप से घरेलू महिला के समक्ष एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी। इस संकट का सामना करने में भाप बढी मंहगाई और अर्थ संकोच का संकट आज के आधुनिक बाजारा कसा शापिंग मॉल एवं शापिंग सेन्टर में जाने वाली महिलाओं को एक दूसरे के नज आने का अवसर प्रदान किया। इस प्रक्रिया से घरेलु महिलाएँ एक दूसरे से जुलने लगी। समाजीकरण का दायरा बढ़ा। उन्हें अपनी समस्या के लिए समझने का मौका मिला। फलाफल उपभोक्ता महिलाओं ने उपभोक्तावाद समाधान खोज निकाला। इस परिणाम षोषक कार्य में स्त्रियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। स्त्रियों ने अपनी निष्क्रियता को समाप्त कर स्वयं से करो (डी.आई.वाई.) का आंदोलन चलाया। हम कह सकते हैं कि उपभोक्ता संस्कृति ने उपभोक्ता स्त्री की जागरूकता के माध्यम से उपभोक्तावाद का सामना करना शुरू किया।

वास्तव में डी.आई.वाई. आंदोलन ने महिलाओं विशेष तौर पर गृहस्थ स्त्रियों को घर के विकास एवं समुन्नति के लिए अपने हाथ से काम करने हेतु प्रेरित किया। इसके पीछे भाव था, कम पैसों से काम चलाना और आर्थिक संकट से उबरना। इसमें एक पक्ष होलसेल से वस्तुएँ खरीद कर उससे लाभ कमाया जाना था। पश्चिम में यह आंदोलन 1950-60 के दशकों में उभरा। भारत में उदारीकरण का समय 1990 के पश्चात् आरंभ हुआ। अतः अब इसे पूर्ण रूपेण स्वरूप मिला। उदाहरण के तौर पर आज बिग बाजार, मोर सुपर मार्केट या रिलायान्स बाजार या मेट्रो बाजार को देखें। ये बाजार अपनी अवधारणा में नए हैं और यहाँ सभी कुछ बिकता है। नमक, तेल, हल्दी से लेकर गहने, कपड़े, जूते, माँस-मछली, सूटकेस, फैन्सी सामग्री, अन्य उपयोगी वस्तुएँ जो हमारे रसोई घर, दैनिक जीवन आदि में काम आए। जब ये बाजार आरंभ हुए तो लगा छोटे-मोटे दुकान बंद हो जाएँगे। लेकिन बाजारीकरण के दौड़ में वे भला कहाँ पीछे रहते। उन्होंने इन्हीं बाजारों से उपयोग की वस्तुएँ खरीद कर घरों तक डिलेवरी देना आरंभ कर दिया। आज इस कार्य में बड़ी संख्या में महिलाएँ जुटी हुई है। इन्हें संगठित होने पर ही उपभोक्ता संस्कृति का गठन संभव होगा।

डी. आई.वाई. का विस्तार दुनिया में कई रूपों में सामने आया। उपभोक्ता संस्कृति के इस आंदोलन ने दिग्गजों एवं उनके प्रतिष्ठानों के सामने चुनौती खड़ी कर दी। लघु-पत्रकारिता भी इसका एक अंग बनी। वेब पत्रकारिता इसका अत्याधुनिक स्वरूप है। इस क्षेत्र में काफी बड़ी संख्या में स्त्रियाँ सक्रिय हैं। संगीत के क्षेत्र में भी 1970 के आसपास कई म्यूजिक बैंड सामने आए जिन्होंने संगीत की नई धारा को सामानान्तर रूप से चलाया। समानान्तर सिनेमा एवं नुक्कड़ नाटक भी डी.आई.वाई की निष्पत्तियाँ हैं। स्त्रियों ने इन सभी क्षेत्रों में अपनी परिवर्तनकारी भूमिका का निर्वाह किया। मध्यमवर्गीय स्त्रियाँ को इन सारे अवसरों ने अपने हितों को पहचानने और उसके अनुरूप कार्य पूरा करने की प्रेरणा प्रदान की। हमारा फिल्म उद्योग और मीडिया का संसार वैसे तो स्त्रियों के संबंध में जड़तावादी शोषक दृष्टिकोण का पोषक है किन्तु इसके बाद भी कई दूरदर्शन की श्रृंखलाएँ और विज्ञापन इस परिवर्तित उपभोक्ता स्त्री की छवि से संबंधित है। इसे निरंतर बढ़ावा देता है।

उपरोक्त कथन का अभिप्राय है कि बाजार बढ़ा, प्रतिष्ठान बढ़े, उपभोग बढ़ा, तो उपभोक्ता की सक्रियता भी बढ़ी। हमें याद रखना होगा कि विश्व की आधी दुनियाँ स्त्री है। पुरूषों की कमजोरी भी स्त्री है। जिससे देखें तो तीन चैथाई दुनियां स्त्रियों का है। अतः सारे का सारा बाजार एवं बाजारवाद का आक्रमण भी स्त्रियों पर ही होता है। इससे इस क्षेत्र में भी जागरूकता एवं सक्रियता बढ़ी। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक यानी 1990 के पश्चात् भारत में उपभोक्तावाद की जागरूकताओं में विशेष वृद्धि हुई। समाजिक आर्थिक बदलाव के परिणाम स्वरूप युवा स्त्रियाँ बाजार में उतरीं। उपभोक्ता के रूप में इनका पर्दापण हुआ तथा उत्पादक के रूप में ये बाजार में छाने लगी। प्रबंधक के रूप में भी खुलकर सामने आई। इससे स्पष्ट हुआ कि आज स्त्री मात्र उपभोग्य वस्तु नहीं है, वह मात्र उपभोक्ता नहीं है। वह बाजार को उत्पादक एवं प्रबंधक के रूप में व्यापक रूप से प्रभावित कर रही है। वह अब पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के हाथों की गुड़िया नहीं बल्कि नियंता है, निर्णायक है। जमाना बदला है, युग बदला है तो सोच भी बदलेगी ही। अब राजनीति के क्षेत्र में भी वह मात्र कठपुतली नहीं रह गयी है। आज की 2000 से 2012 की स्थिति यह है कि राजनीति में स्त्री अपने बूते से हैं- मीरा कुमार, प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, मायावती, ममता, जयललिता आदि अन्य स्त्रियाँ सिद्ध कर रही हैं कि वे अब राजनीति की सूत्रधार है और पुरूष नेता ही अब कठपतली सिद्ध हो रहे हैं।

सन् 2000 के बाद इंटरनेट का प्रसार भारत में बढ़ा तो भूमंडलीकरण, बजारवाद और उपभोक्तावाद के प्रचार-प्रसार में भी सुविधा हो गई। इसके उत्पादकों तथा उपभोक्ता जगत को सर्वाधिक लाभ मिला। इंटरनेट आया तो उपभोक्ता की भावनाएँ खुलकर सामने आई, वे बाजार को प्रभावित करने लगी। इन्हें मोबिलाइज करने लगी। उदाहरणार्थ कंप्यूटर के विज्ञापन से बताया गया कि पीछे रहने वाली स्त्रियों को कंप्यूटर के माध्यम से आगे बढ़ना तेजी से संभव होगा। यानी स्त्रियां बौद्धिक रूप से पिछड़ी है। वे टेक्नोलॉजी का कोई ज्ञान नहीं रखतीं। यह सदियों से रची साजिशवाली स्त्री की छवि है। जिसमें स्त्रियों का कार्य क्षेत्र भोजन बनाने, बच्चे पैदा करने, डायटिंग करने एवं सुंदर दिखने भर माना गया या सीमित किया गया है। कंप्यूटर के अभियान पर वृहद प्रतिक्रिया ने इस विज्ञापन को वापस लेने को विवश किया। भारत के संदर्भ में भी हम उपभोक्ता संस्कृति के गठन में स्त्री शक्ति की भूमिका हेतु दृष्टांत रख सकते हैं। उपभोक्तावाद की सवारी बनी मीडिया स्त्री की कामिनी और अबला की छवि में ही अधिक रूचि लेता है। स्त्री उपभोक्ता संगठित होकर इन प्रचारों का बहिष्कार करे तो बाजार को लगाम कसना संभव होगा। स्त्री के वस्तुकरण स्वरूप वाले विज्ञापन जो हमें आहत करते हैं- जिनमें स्त्री को माल बनाकर प्रस्तुत किया जाता है, हमें इसका विराध होगा। 

स्त्री को एवं उपभोक्ता संस्कृति को इस प्रतिरोधी- चरित्र को पहचान कर उपभोक्तावाद के चंगुल से छूटना या छुड़वाना होगा। प्रतिरोधी चरित्र ही स्त्री को उत्पादकों के स्त्री विरोधी प्रचार कर संस्कृति को इस प्रतिरोधी-चरित्र को पहचान कर उपभोक्तावाद कर या छुड़वाना होगा। 

प्रतिरोधी चरित्र ही स्त्री को उत्पादकों के स्त्री स्त्री-विरोधी प्रचार अभियान से छूटकारा दिलाता है। कामकाजी महिलाओं को अच्छी माँ होने से नकारने बाली विज्ञापन को उसी चरित्र की दृढ़ता के आगे झुकना पड़ा एवं विज्ञापन वापस लेने पड़े। बाजार का नियंत्रण प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक के हाथ में दिखाई पड़ता है किन्तु वास्तव में यह उपभोक्ता द्वारा नियंत्रित होता है।

हमारे यहाँ अनेक टी.वी. श्रृंखलाओं में आज पात्रों का बने रहना या हटा दिया जाना आज केवल उपभोक्ता वर्ग ही तय करते हैं। टी.आर.पी. इसका माध्यम है। भारतीय आधार पर टी.वी. के अधिकतर पारिवारिक नाटक भारतीय स्त्री से संबंध रखते हैं। उन्हीं को संबोधित करते हैं, ये सारे सीरियल स्त्रियों के परस्पर चर्चा और बातचीत के लिए नित्य प्रति नई कहानियाँ या श्रृंखलाएँ परोसते हैं। ये स्त्रियाँ केवल जड़ दर्शक नहीं है। बल्कि एक सक्रिय दर्शक होती है उनकी सक्रियता कई बार सीरियलों को बंद करा देती है। सास भी कभी बहू थी में दादी को बार-बार मारना चाह कर भी एकता कपूर मार नहीं पाई। इसी तरह बालिका वधू में दादी के अनुपस्थित होने पर सीरियल में फीकापन आते ही गया। पुनः दादी को वापस लाना पड़ा। बाजारवाद के युग में असंगठित स्त्री समाज टी.वी. एवं इंटरनेट के माध्यम से संगठित उपभोक्ता समाज बनकर उभर रहा है। आने वाला समय इनका ही होगा। दर्शक उपभोक्ता का प्रभाव टी.वी. के रियलिटी शो पर तो स्पष्ट नजर आता है। यही उपभोक्ता समाज नए बाजार संस्कृति का नियामक होगा।

उपभोक्ता का लक्ष्य बाजार है। बाजार को खरीददार हेतु हर तरह की वस्तु बेचने की प्रवृति होती है। बाजार और इसके नियामक जानते हैं कि सदा से सेक्स बिकता आया है। सदा से देह बिकती है और सदा से कामुकता बिकती है। स्त्रीवाद के प्रभाव में हम कहते हैं कि बाजार पुरूषों द्वारा नियंत्रित है और स्त्री केवल बिकाऊ माल है। आज यह धारणापूर्ण सत्य नहीं हो सकती आज की स्त्री बेचारी नहीं रह गई है। देह बेचने वाली स्त्री भले ही पुरूषवादी व्यवस्था का शिकार हो, किन्तु देह की छवि देने वाली स्त्री वैसी लाचार नहीं है। आज वह वस्तु या माल नहीं बल्कि अपनी छवि की उत्पादक एवं विक्रेता भी है। उसकी हर अदा की कीमत है और यह कीमत वह स्वयं तय करती है। मनोरंजन उद्योग हो या फिर विज्ञापन व्यवसाय, यहाँ के बाजार में मात्र स्त्री का शोषण अब नहीं होता। कैटरीना कैफ को विश्व की सबसे सेक्सी महिला की उपाधि से तीसरी बार विभूषित किया जाना गर्व होता है। जीरो फिगर का गर्व हीरोइनों के साथ विज्ञापन की दुनियाँ की बालाओं को भी है। मधु सप्रे का नंगापन उनके लिए गौरव की बात है। सेक्स एवं सेक्सी दृश्य देने में आज की नायिकाओं में होड़ लगी रहती है। कई फिल्मों के अगले दृश्य में पुरुषों से बढ़कर स्त्रियों का प्रदर्शन होता है क्योंकि वे अपनी कीमत बढ़ाना जानती हैं। तो फिर बाजार भला इसके लाभ से क्यों चुके? इन तंत्रों में स्त्री स्वयं उत्पादक एवं नियंता की तरह शामिल है। अपने स्वयं के निर्णय से बाजार का हिस्सा बनती है। यह उपभोक्ता संस्कृति नहीं उपभोक्तावाद है।

पत्र-पत्रिकाएँ या कंप्यूटर एवं इंटरनेट के साइट को देखें जो नग्नता परोसने में अग्रणी है तो इनके उपभोक्ता स्त्री व पुरुष दोनों ही है। यहाँ बाजारवाद के आधार पर लोकप्रिय फैन फिक्शन के संबंध में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर स्त्रियों की संख्या अधिक है। जापानी एनीमेशन में नग्नता भरी है। इसे बहुतायत स्त्रियाँ पसंद करती है। महिलाओं की पत्रिका में छपने वाली विज्ञापनों में पुरूष उपभोक्ता नहीं लेकिन वहाँ भी नग्नता होती है। नग्नता और कामुकता का उपभोक्ता आज स्त्री पुरुष दोनों है, विज्ञापन के माध्यम से उभारे गए विचारों ने आज हमारे देश में पब संस्कृति फैला दी। श्रीकांत चैधरी एवं शीला चैधरी से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि मद्रास जैसे शहरों में लड़कियाँ घर से पारंपरिक पोषाक में निकलकर रास्ते में अत्याधनिक पोषाक धारण कर लेती है एवं पब संस्कृति का लाभ उठा लेती हैं पुनः वापस अपनी घरेलु पोषाक पहन कर घर जाती हैं। यह है अपसंस्कृति का व्यापक प्रभाव। इसे रोकने के उपाय की आवश्यकता है, सौंदर्य दिखाने का चस्का उचित नहीं। वैसे अगर विज्ञापन हो अजंता एलोरा या कोणार्क की कलाकृतियों इनमें प्रदर्शित देह-दर्शन अश्लील नहीं होता। यह सौंदर्यबोध है। मनुष्य की दुनियाँ में देहोत्सव भी है। उपभोक्ता संस्कृति, उपभोक्ता वाद या बाजारवाद के उत्पादकों को देह एवं इसके उत्सव को सही प्रस्तुतिकरण देना चाहिए। अभद्रता से बचना आवश्यक है। सौंदर्यबोध को उबुद्ध कर इसे विकृत न करे। देह एवं काम के व्यापार एवं व्यवसायिक उपभोग के बावजूद देह व्यापार, बाल शोषण और अप्राकृतिक संबंध, व्यभिचार तथा इस तरह के अन्य अनैतिक कार्य अपराध है। यदि बाजार इनका पोषण करें तो उपभोक्ता संस्कृति को विरोध के तेवर अपनाने चाहिए। स्त्रियों की जागरूकता इस मामले में अनुकरणीय है। स्त्रियाँ आवाज उठाना सीख चुकी है। उनकी बुलंद आवाज कई मामलों में प्रकाश में आ रही है। 

मैं आज के बाजारवाद के युग में यह प्रश्न उठाना चाहती हूँ कि क्या विज्ञापन में स्त्री का वस्तुकरण उचित है? उत्तर है कि औचित्य बाजार एवं इसकी माँग से तय होता है। क्या उपभोक्ता या स्त्री भी इसमें सम्मिलित होती है। ये अवलोकन के भिन्न बिन्दु हो सकते हैं। बाजार की दृष्टि से देखें तो विज्ञापन की मजबूरी है कि वह वस्तुकरण का व्यवहार टेकनीक की तरह करें। विज्ञापन ऐसा तीव्र माध्यम है जिसमें एक मिनट या इससे भी कम समय में अपनी कहानी पूरी करनी होती है। उतने अल्प समय में वह कोई चरित्र-निर्माण नहीं कर सकता। इसलिए प्रभावी सप्रेषण हेतु वह स्टीरियोटाइप दृश्यों का निर्माण करता है। ब्रांड रचता है। पात्रों का वस्तुकरण करता है। वैसे अधिकतर ऐसे वस्तुकरण का शिकार प्रायः स्त्रियाँ ही होती है।

लक्स या डिआडरेंट के विज्ञापन में पुरूषों का वस्तुकरण भी किया गया है। साबुन से लेकर अंतर्वस्त्र तक के विज्ञापन में आज स्त्री-पुरूष दोनों का वस्तुकरण होने लगा है। वास्तव में यह छवि निर्माण बेचने की कला है, जिसे बाजारवाद सिखा रहा है। मुझे याद आती है राखी सावंत की वह बेबाक टिप्पणी, जिसमें उसने स्वीकारा था कि आज दो ही वस्तुएँ बिकती हैं- सेक्स और शाहरूख। उपभोक्ता छवि से प्रभावित होता है। अतः बाजार में उत्पाद बेचने हेतु उत्पादक छवि निर्माण करते हैं। यह छवि एंग्री यंग मैन की हो या ड्रीमगर्ल की या जीरो फिगर की या 6 या 8 पैक्स की। मल्लिका शेरावत की हो या मुन्नी बदनाम हुई फेम मलाइका अरोड़ा की हो या विपाशा बासू या जॉन अब्राहम की हो या चाकलेटी शाहिद कपूर की हो या फिर प्रियंका चोपड़ा की हो या चिकनी चमेली की कटरीना कैफ की हो या जलेबी बाई की हो। वैसे तो सोनिया गांधी, ओबामा, नरेन्द्र मोदी, मायावती, उमा भारती या वृंदाकरात हो या रामदेव बाबा, आशाराम बापू, अन्ना हजारे आदि की भी छवि बनाई गई है। कहने का अभिप्राय है कि आज विज्ञापन और बाजार में वस्तुकरण की प्रक्रिया से स्त्री एवं पुरूष दोनों गुजरते हैं। इसके लिए एक को दोषी नहीं कहा जा सकता। दोनों आज के बाजार की मानसिकता समझ कर उसका सदुपयोग अपनी कीमत हेतु लगाने बढ़ाने में करते हैं।

फिल्मों में उपभोक्तावाद का बोलबाला है। बाजारवाद का पहला सूत्र है बेचना। बेचने के लिए उपभोक्ता की तलाश की जाती है। उपभोक्ता की रूचि सर्वोपरि होने लगी है। बिपाशा बासु द्वारा आरंभ किया गया बीड़ी जलाईंले का आइटम सांग फिल्म दर फिल्म मल्लिका शेरावत, करीना कपूर के जीरो फिगर एवं मदमाती अदाओं के साथ कैटरीना कैफ के मादक सौंदर्य के साथ शीला की जवानी, जलेबीबाई की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए उपभोक्तावाद का सबकुछ बिकता है जैसी नवीन संस्कृति का नियामक बनना स्पष्ट दृष्टिगोचर है। पता नहीं यह होड़ कहाँ तक जाएगी और बिकने की यह परंपरा पाश्चात्य के तर्ज पर हमें क्या बना कर छोड़ेगी। सच तो यह है कि आज की ये आधुनिकाएँ इस पर गर्व करती हैं कि उनके पास प्रदर्शन योग्य शरीर है वे ठुमके लगा सकती है और उपभोक्ता को लुभा सकती है तो क्यों न इसका उपयोग करें। उपभोक्ता संस्कृति का यह एक स्वरूप है तो अति भ्रामक एवं हमारी नई पीढ़ी के लिए घातक है। फिल्म उनका प्रिय मनोरंजन है। इसके माध्यम से परोसा जानेवाला, स्वस्थ्य अस्वस्थ्य खुराक उन्हें ग्राह्य है। वैसे स्त्री स्वयं भी बिकाऊ वस्तु बनने तत्पर है। 

रेव पार्टी की चर्चा महानगरों में पिछले कुछ समय से चर्चा का विषय बनी हुई है, पुलिस की पकड़-जकड़ एवं अमीर घरानों के बालक-बालिका का स्वच्छंदाचार खुल कर सम्मुख आ रहा है। समाचार पत्रों के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि देर रात सारी रात चलने वाली इन पार्टियों में बाजारवाद अपनी गहरी पैठ बनाए हुए है। ये पार्टियाँ मादक द्रव्य सेवन कर नशे में झूमते युवा वर्ग की है, इसमें बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद दोनों अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। मादक पदार्थ बेचने वाले भला बुरा नहीं सोचते। वे युवक-युवतियों में नशे की लत डालने का तिकड़म करते हैं और उपभोक्ता संस्कृति के नए सोच का विकास कर बाजार का विस्तारीकरण करते हैं। उन्हें इसके गुण-दोषों से कुछ लेना देना नहीं है। पुलिस ने अपनी विवशता जाहिर की अपराध के नाम पर उन युवाओं को पकड़कर उनके माता-पिता को समझाने के यत्न के साथ उन्हें छोड़ दिया गया है किन्तु इसका निराकरण? अगर इसे रोका न गया तो मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी भी इसकी चपेट में आ जाएगी।

बाजारवाद आज एक नयी अवधारणा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत है. सेलीब्रेटी संस्कृति। चाहे खेल हो या अन्य क्षेत्र पाश्चात्य देशों में इस तरह का एक नया फेशन ट्रेडसेट हो गया है कि सेलीब्रेटी के लिए एवं उसकी सफलता को भुनाने हेतु अपने कपड़े उतार कर स्वयं को पेश करना। पाश्चात्य देशों में तो पिछले कुछ वर्षों से यह विचारधारा धूम मचाए हुए है। इसमें प्रमुख नाम हैं- रेयान जिग्स. इमोजन बोम्स रिहाना, जोडीमास, एड्री आनेकरी, एम्बररोज, कैटी प्राइस, केली ब्रक लेडी गागा अबेक्लान्सी, सैम फार्यस आदि सेलीब्रेटी ने अपने टिवट पर अपना नग्न प्रदर्शन के माध्यम से बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद को भुनाया और नया ट्रेंड सेट किया। इसी तर्ज पर हिन्दुस्तान की पूनम पाण्डे ने घोषणा भी की और अपने टिवट पर स्वयं को नंगा कर प्रसिद्धि की लालसा पूरी की एवं भारतीय संस्कृति की धज्जी उड़ायी। इन कृत्यों पर रोक लगाना अत्यावश्यक है। बाजारवाद एवं उपभोक्ता संस्कृति के विस्तार ने हमें इस तरह भौतिकवादी बना दिया है और हम इतनी तेजी से दौड़ लगा रहे हैं कि पता नहीं हम अब रूकेंगे भी या नहीं? 

आज तारा चैधरी अपने को दोषी मानने के स्थान पर अपने उपभोक्ताओं को सरे आम चेतावनी दे रही है कि अगर उसे उचित संरक्षण प्राप्त हो तो वह सभा बड़ी हस्तियों के चेहरे से नकाब उठाएगी उसे अपने किए पर शर्मिंदगी नहीं है। ऐसी ही उपभोक्ता संस्कृति का खुलासा जघन्य के रूप में जसवंती के अपना घर कहानी से पर्दा उठने पर सामने आया है। इस परिणामों के साथ देखे तो यह बाजारवाद का भयानक परिणाम अभी उपभोक्ता संस्कृति के छिट पुट रूप में सामने है। इसी तेजी से मानसिकता बदली तो राष्ट्र का चेतन स्वरूप ही नहीं बदलेगा, संपूर्ण संस्कृति विरासत का चूल हिल जाएगा।

आज पेज-3 सभ्यता एवं फैशन की नई टेंड के लिए एक प्रचलित शब्द है। बाजारवाद के प्रभाव में बड़े घरानों के युवक-युवती अपने को वहाँ प्रकाशित देखने को लालायित रहते हैं। उनके अनुसार यह उनका स्थान बढ़ता है। उन्हें सुप्रीम सिद्ध करता है इसमें मूल रूप से बाजारवाद एवं उपभोक्ता संस्कृति की प्रधानता रहती है। हम चिंतन करें तो पाते हैं कि उपभोक्ता संस्कृति हमारे नसों में घुल कर बाजारवाद का शिकार बना रही है। स्वाभाविक तौर पर वैश्विक बाजारवाद हर क्षेत्र में उपभोक्ता एवं बेचने की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने हेतु कार्य करती है। इसका विशाल फैलाव अपने प्रभाव में बहुत कुछ लील रही है। फिर हमारी संस्कृति कैसे अक्षुण्ण रह सकती है?

बाजारवाद पर लगाम कसनेवाली उपभोक्ता संस्कृति उपभोक्ता में चयन और त्याग के विवेक की अपेक्षा करेगी। उपभोक्ता बाजार और विज्ञापन या फिल्मों एवं देह प्रदर्शन में अपने नैसर्गिक अधिकार का प्रयोग करते हुए चयन करें। ग्रहण और त्याग के अधिकार के उपयोग की पूर्ण सुविधा बाजार हमें उपलब्ध करवाता है। अनेकानेक सोशल नेटवर्क की साइटें हैं जहाँ हम अपनी कठोरतम प्रतिक्रिया आजादी से व्यक्त कर सकते हैं। यह कार्य हम करते भी हैं। यू ट्यूब या फेसबुक या ट्विटर पर दर्शकों की व्यक्त प्रतिक्रियाएँ बेकार नहीं जाती। शशि थरूर के कैटल क्लास वाली टिप्पणी इसी माध्यम से ध्वस्त की गई। अतः बाजार की नग्नता एवं असांस्कृतिकता को भी समाप्त किया जा सकता है। बाजार भले ही सेक्स और शरीर का व्यवहार करता है किन्तु स्त्री मात्र देह भर नहीं है। इसी तरह सेक्स या शरीर केवल स्त्री नहीं है। बिकाऊ पुरूष भी यहीं होते हैं। दूर क्यों जाएं अभी हाल में वर्धा विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर श्री त्रिभुवन राय की स्त्री को गाली देने के विरोध में इस माध्यम से प्रबुद्ध स्त्रियों ने पूर्ण सक्रियता दिखाई, व्यापक विरोध हुआ। जागरूकता का सशक्त प्रमाण मिला।

स्त्री की भूमिका हम इंटरनेट पर सक्रिय सोशल नेटवर्क में देखें तो आज पुरूषों से अधिक स्त्रियाँ सक्रिय है। ये विचार-विमर्श एवं बहस में अधिक रूचि लेती है। अनेक आॅनलाइन डिस्कशन फोरम इसके सबूत है। छवि निर्माण वाली उपभोक्ता संस्कृति का ही रूप है फैन-कल्चर। आपके चाहनेवालों के कारण आज देश व्यापी परिवर्तन चिह्नित है। वास्तव में बड़ी संख्या में स्त्री उपभोक्ता इस बाजार को संरक्षित करती है। स्पष्ट है कि आज स्त्री उपभोक्ता एवं उत्पादक दोनों रूप में बाजार को प्रभावित करती है। पूर्व में स्त्री को मूक बधिर माना गया था किन्तु आज वह विश्लेषण कर समाज के समक्ष अपने तर्क प्रस्तुत करती है और सारे समाज को प्रभावित करती है। फैन कल्चर की तरह स्त्रियों का समूहबद्ध होना उपभोक्ता संसार में बदलाव का परिचायक है। उपभोक्ता संस्कृति बाजार का अपना पाठ तैयार करती है। तथ्यों को पनः व्याख्यायित करना, पाठ निर्मित करना इसका एक रूप है। इसे रीमिक्स मीडिया भी कहा जा सकता है। उपभोक्ता का उत्पादक बनना। प्राचीन साहित्य का पुनर्पाठ भी उपभोक्ता संस्कृति का ही एक रूप है। रामायण-महाभारत के टी.वी. संस्करण या शेक्सपीयर की कथाओं के आधुनिक संस्करण अंगूर, मगबूल और ओंकारा-ये पुनर्पाठ ही तो है। इस प्रकार उपभोक्ता संस्कृति एवं विश्वबाजार समाज को अधिक भागीदारी एवं पूर्ण लोकतंत्र की दिशा दर्शन देता है।

आज बाजारवाद व उपभोक्ता संस्कृति और स्त्री के संदर्भ में राजनीति एवं भारतीय लोकतंत्र का अवलोकन करें तो पाते हैं कि स्त्री वोट की सारी राजनीति का आधार लोकतंत्र के उपभोक्ता समाज का दबाव है। भारत के वार्षिक बजट एवं गैस की सामग्री एवं कुंकिंग गैस की चर्चा अनिवार्य होती है। आलू, प्यार एवं गैस की कीमतें सरकार को बनाती एवं गिराती है। इस आधार पर कहें कि बाजारवाद में स्त्री उपभोक्ता समाज संगठित होकर उत्तरदायित्व पूर्ण सामाजिक समूह का निर्माण करे तो इसे उपभोक्ता संस्कृति के स्थान पर भागीदारी की संस्कृति के विकास का प्रारंभ माना जाएगा। इसी का अगला चरण सहभागितापूर्ण लोकतंत्र होगा। यही स्त्रियों का सशक्तिकरण होगा।

आज की स्त्रियाँ शक्तिमान, बुद्धिमान और विवेकशील है। वह बाजार को नचाने, चलाने और परिवर्तित करने की शक्ति एवं सामथ्र्य रखती है। देखने पर भले ही लगे कि बाजार स्त्री को नचा रहा है। समाजिक विकास के हाशिया पर रहने वाली स्त्रियों का शोषण आज भी जारी है। आज भी वह मात्र भोग की वस्तु है, पुण्य कमाने की सामग्री है। इसके लिए बाजारवाद या उपभोक्ता संस्कृति नहीं सामंतवाद के अवशेष जिम्मेदार है। यह शक्ति आज भी भारत को मध्यकाल में जीने को विवश करता है। मैं बाजार की शक्तियों को प्रभावित करने वाली स्त्रियों की चर्चा करते समय उन शोषित एवं दमित स्त्रियों की बात नहीं कर पाऊँगी। वैसे बाजार इनके नियंत्रण में भी आंशिक रूप से आता है। उत्पादक कंपनियाँ जान चुकी है कि जनसंख्या का द्वितीय स्थानीक ग्राफ में ऊपरी हिस्से यदि संतृप्त हो जाए तो निचले हिस्से जिसकी क्रयशक्ति कम है को ध्यान में रखना आवश्यक है। अतः बाजारीकरण के बढ़ावा हेतु भारत में इन्होंने सिर धोने से लेकर कपड़े धोने तक के सस्ते पैक उतार रखे हैं। इसके मुख्य उपभोक्ता समह मध्यम एवं निम्न वर्गीय स्त्रियाँ है।

आज की स्त्री उपभोक्ता, उत्पादक एवं प्रबंधक बन चुकी है। वस्तुतः राजनीति, प्रशासन एवं औद्योगिक घरानों का संचालन आज अनेक स्त्रियाँ सफलतापूर्वक कर रही हैं। मीडिया के क्षेत्र में महिलाएँ समाचार संकलन कार्यक्रम का न कुशलतापूर्वक कर रही हैं। राधिका राय एन.डी.टी.वी. की प्रबंध निदेशक रह चुकी है। इसी समूह की संपादक बरखा दत्त जनमत अभिव्यक्ति का पर्याय है। एकता कपूर का धारावाहिक के माध्यम से हर घर में प्रवेश है। भारत में बैकिंग और फाइनान्स सेक्टर में 54 प्रतिशत मुख्य कार्यकारी अधिकारी स्त्रियाँ हैं। मिडिया में 11 प्रतिशत तो तीव्रगामी उपभोक्ता वस्तुओं (एफ.एम.सी.जी.) सौंदर्य सामग्री एवं विस्कुट, चाकलेट में 8 प्रतिशत का आकड़ा है। फिल्म के क्षेत्र में मीरा नायर, तनुजा चंद्रा, पूजा भट्ट, अखिला श्रीनिवासन, जुही चावला, आदि कार्यरत है। चंदा कोचर (आई.सी.आई.सी. बैंक), इंदिरा नूई (पेप्सी), ऋतु कुमार (फैशन डिजाइनिंग) व निरूपमा राव तथा भारत की सबसे अमीर महिला किरण मजमदार शाॅ (बायोकोन) जैसी स्त्रियों को बाजार को नियंत्रित करने की व भारतीय स्त्री शक्ति का सक्षम प्रमाण दिया है।

दुनिया के बाजार में आज स्त्री शक्ति का हस्तक्षेप उपभोक्ता संस्कृति के साथ बाजारवाद के नवीन गठन में प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है। शर्त यह है कि इसका उपयोग समाज के वंचित वर्गों के कल्याण के लिए हो। वीमेन काइंड नामक विज्ञापन एजेंसी जो स्त्रियों द्वारा संचालित है इसने प्रतिभाशाली स्त्रियों को जोड़कर मुख्यतः स्त्रियों को संबंधित व्यापार मॉडल प्रस्तुत किया और इसने बाजार में पूर्ण सफलता पाई।

स्त्रियाँ आज के बाजार में केवल बिकाऊ माल की तरह से निष्क्रिय रूप से उपस्थित नहीं है। बल्कि प्रबंधन और उत्पादन के क्षेत्र में भी इनका हस्तक्षेप एवं भागीदारी दृष्टिगोचर हो रही है। यह नारी से नागरिक बनने की क्रिया है। इस बात के साथ एक तथ्य और सामने आता है कि आज जहाँ इतनी गतिशीलता से स्त्रियों ने अपनी स्थिति संभाली है और अपने मनुष्य होने के परिचय पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं वहीं इन संदर्भो का लाभ पुरूष की दमन मानसिकता लिए लोगों ने उठाया है। स्त्री की कमनीयता एवं सौष्ठव बाजार एवं समाज को आकर्षित करने का साधन बनाने में इसी मानसिकता ने अहम भूमिका निभाई है। अपनी छवि निर्माण के चक्कर में पड़ी कुछ अति उत्साही महिलाओं का उपयोग कर नग्नता का वीभत्स स्वरूप एवं हमारे संस्कारों तथा संस्कृति के विरूद्ध अलभ व अदर्शनीय दृश्यों को बाजार के लोभ में परोसना शुरू कर दिया है। इसके लिए दोनों पक्ष दोषी हैं। स्त्री को रति बनाकर प्रस्तुत करना कितना समीचीन है या स्त्री के मनोभावों का उत्खनन किस प्रकार की प्रभावोत्पादकता का भाव देगी। इसे परे रख कर केवल बाजार को सामने रखा जाता है। यह भारतीयता के लिए हानिकारक है। इसका खुलकर विरोध होना चाहिए। पूनम पाण्डे जैसी स्त्रियाँ जो स्वयं को प्रदर्शित कर प्रसिद्धि पाने हेतु अश्लील बयानबाजी एवं स्वयं को न्यूड करने पर आमादा हो उठती है। ऐसी स्त्रियों पर अकुश होना आवश्यक है। अदाएँ बेचने की बात हों या फिगर के माध्यम से लुभाने को बात हो इनमें सौंदर्य बोधका पर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए। इसे खुलेपन की सभी सीमाएँ तोड़ने से रोका जाना चाहिए। स्त्रियों को भी खुलेपन में निश्चित मर्यादा का ध्यान रखने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए। चूंबन एक शाश्वत भाव है। माँ-बेटे-बेटी के स्नेह सिक्त चुंबन तो अन्य संबंधों की गहनता को व्यक्त करते चुंबन तथा प्रेमी-प्रेमिका के बीच प्रेम की सघनता एवं दो जिस्म एक जाने बनने की प्रक्रिया के बीच का चुंबन आज सब कुछ बाजार बन गया है। सभी बिकने लगा है यह बाजारवाद हमारे रिश्तों की गहनता एक प्रतीक का सहारा लिए दिखाया जाता था और वह सौंदर्यबोध का उत्तम स्वरूप था। आज सब कुछ खुला और बाजार का वस्तु बन कर अपना सर्वाधिक सौंदर्य और गरिमा खोती जा रही है। इसे बचाना होगा। इसके लिए बाजरीकरण की सीमा निर्धारित करनी होगी।

स्त्रियों को अपने छवि में उत्पादक और नियामक होने के साथ अपनी सीमा निर्धारण का ध्यान रखना आवश्यक होगा। सभी प्रकार की जागरूकता के बाद भी जनता और भारतीय परिप्रेक्ष्य के साथ भी अपनी उड़ान भरने का ध्यान रखना होगा। अपने उपयोग और उपभोग की सीमा उन्हें ध्यान रखना आवश्यक होगा। स्त्री को वस्तु बनाने वाली चरित्र से निकालने हेतु कितने-कितने आन्दोलन घटे और जरा सी नादानी के प्रभाव में पुनः उसी ओर न चल पड़े इसका ध्यान रखना ही होगा। एक ओर कई सक्षम आन्दोलन एवं बाजारवाद तथा उत्तर आधुनिक युग में कई पुर्नपाठों का निर्माण करने की प्रक्रिया ने नारी को नागरिक बनने के मार्ग पर चलना दिखाया-सिखाया है। दूसरी ओर कहीं कुँआ और खाई की कहावत सच न हो इसकी चेतना भी आवश्यक है। अपनी छवि निर्माण प्रक्रिया में स्त्री को सजग एवं सचेत भी होना है। तभी बाजारवाद स्त्री को हाँक (ड्राइव) नहीं कर पाएगा। स्त्री बाजारवाद एवं उपभोक्ता को ड्राईव करेगी एवं एक संस्कृति का निर्माण होगा। लोभ एवं लालच की राजनीति अपरोक्ष रूप से मनुष्य को चलाता है। इसमें फंसे मनुष्य यानी स्त्री-पुरूष इस धुरी पर चक्करघिनी सा घुमते रहते हैं। उपभोग एव उपभोगता की नई शब्दावली से आच्छादित मानवतावाद की परिभाषा विकृत होने लगी है। भले ही इसे हम आधुनिकता की परिभाषा बनाकर समक्ष में परोसें। किन्तु यह गरिष्ठ भोजन अपना हानिकारक स्वरूप छुपा नहीं पाता है। अतः उपभोक्ता सस्कृति की विकृतियों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। अन्यथा समाज विघटन का शिकार हो जाएगा।

इससे उत्पन्न स्थितियों का विशद वर्णन किया। सामाजिक मानदंडों का उल्लेख कर दोहरे मानदंड पर शब्द प्रहार किए। विकास एवं जागृति हेतु शिक्षा की आवश्यकता को स्वीकारा एवं माना। शिक्षा से अधिकार एवं अधिकार से स्वतंत्रता तथा सुदृढ़ता की बात की गई। स्त्रियों को मनुष्य बनाने की दिशा में इसे सर्वोपरि यत्न ठहराया गया।


पत्रकारिता बनाम स्त्री विमर्श

आजादी के पूर्व हमारे देश का प्रमुख लक्ष्य गुलामी से मुक्ति प्राप्त करना था। इसके समानान्तर एक और कार्य को प्रश्रय देना या देशव्यापी कुरीतियों-कुप्रथाओं के विरुद्ध जन-मानस को तत्पर करना। पूर्व में पत्रकारिता तो यूहीं छुटपुट संदेश स्वरूप या सूचना स्वरूप थी। सभ्यता के विकास एवं आवश्यकता अनुरूप मानवीय विकास की कहानी ने पत्र को समाचार एवं सूचना से जोड़ा। पुनः यह समाज से जुड़ी और जैसे ही देश ने अपने कार्यों का विस्तार किया इसका भी विस्तार एवं फैलाव सात समुन्दर तक हुआ। धीरे-धीरे पत्रकारिता अपना एक प्रमुख स्वरूप पाने लगा। इसने कई महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उसी समय हिन्दी पत्रिका का उदय भी हुआ और विस्तार भी। हिन्दी पत्रकारिता इस समय मुख्य रूप से परिवर्तित सामाजिक परिवेश एवं इसके वैज्ञानिक आधृत स्वरूप हेतु संघर्षरत थी किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश ने शासन हेतु लोक-तंत्रात्मक पद्धति का चयन किया। यह लोक के लिए लोक द्वारा एवं लोक के माध्यम से शासन व्यवस्था थी। अतः पत्रकारिता के क्षेत्र में भी विशाल क्रांति की आवश्यकता झलकने लगी। इसका दायित्व वृहद् हुआ। अब लोकमत बनाने और संवारने का कार्य इसे करना था। कई समस्याएँ पैदा हईं एवं इसके समाधान के लिए पत्रकारिता को प्रयासरत होना पड़ा। ये समस्याएँ आम से नितांत अलग थीं।

वास्तव में लोकतंत्र में पत्रकारिता को अधिक दायित्व का भार वहन करना पड़ता है उसे अधिक सतर्क एवं जागरूक होना पड़ता है। यह लोकतंत्र की सफलता सेपान होता है क्योंकि पत्रकारिता को लोकतंत्र पद्धति के प्रथम तीन न्याय पालिका, कार्य पालिका एवं विधायिका के पश्चात् चैथा स्तंभ माना गया है। अपनी भूमिका जरा-सी भी भुलचक करें तो इसके नियंत्रण से परिस्थितियाँ बाहर हो जाने का भय बना रहता है।

पत्रकारिता का एक बहुआयामी विधा मानी जाती है। भारत में पत्रकारिता की नींव डालने वाले अंग्रेज जेम्स अगस्त हिकी थे। इन्होंने सर्वप्रथम भारतीय पत्र 29 जनवरी 1780 को प्रकाशित किया था किन्तु हिन्दी पत्रकारिता के संस्थापक युगल किशोर शुक्ल जी थे। आपने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 30 मई 1826 को उदंड मार्तन्ड नाम के साथ कलकत्ता से प्रकाशित किया। उस समय जिस निर्भीकता से सच्चाई को उजागर किया जाता था आज इसे सामने लाने का साहस कम होता जा रहा है।

पत्रकारिता के मुख्य रूप से चार उद्देश्य होते हैं। इसके अन्तर्गत सूचना देना, विश्लेषण करना, मार्गदर्शन करना तथा मनोरंजन युक्त होते हैं। पत्रकारिता की पहली चिन्ता मनुष्य एवं मनुष्यता को संभाले रखना होती है। सन् 1990 में बंग्ला भाषी बाबू चिंतामणि घोष ने प्रयाग से हिन्दी मासिक पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन आरंभ किया। इसके बाद तो दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हो गया। इनमें मुख्य रूप से विशाल भारत, माधुरी, सुधा, चाँद, मदारी, कल्याण, आर्य, प्रताप, मतवाला, केशरी, अभ्युदय, हंस, कर्मयोगी, स्वराज्य, सैनिक, नवजीवन, भारत, अर्जुन, विचार, आर्य-भारत, चंदा मामा, हिन्दुस्तान टाइम्स के विभिन्न प्रकाशन आदि-आदि हैं।

हमारे देश में लोकतंत्र के आधार स्वरूप प्रौढ़ मताधिकार जनता को सौंपा गया ताकि उनकी भागीदारी सही हो सके। 21 वर्ष के सभी स्त्री-पुरूष चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित इस अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं अब उम्र की सीमा को घटा कर 18 वर्ष कर दिया गया है। यह संविधान में संशोधन कर किया गया है और वे लोग सरकार निर्माण में अपनी भागीदारी निभा सकते हैं। संसार के अन्य देशों में आम जनता को यह अधिकार काफी संघर्ष के पश्चात् मिला है किन्तु हमारा सौभाग्य रहा कि हमें बिना किसी संघर्ष के ही प्राप्त हुआ है। हमारे देश में यह नवीन विचार धारा एवं जन-साधारण की भावना हेतु आदर का भाव एवं एक प्रशंसनीय कार्य संपन्न हुआ किन्तु समय के साथ वोट की राजनीति ऐसी फैली कि अप्रत्यक्ष रूप से समाज, जाति, धर्म, वर्ण एवं क्षेत्र आवृत हो गया है। आज यह राजनैतिक स्थिति आम आदमियों के बीच अपनी गहरी पैठ बना ली है, यह पत्रकारिता हेतु एक चुनौती है। इसका सामना करने हेतु हिन्दी पत्रकारिता को सारे भेदभाव से हटकर सापेक्ष एवं गुट निरपेक्ष स्वरूप प्रस्तुत करना होगा। इस प्रदूषण की राजनीति के विरूद्ध जनमत तैयार करने की क्षमता केवल पत्रकारिता के वश में है। आम आदमी को सचेत करना अत्यावश्यक है।

यहाँ एक बात उभर कर आती है कि केवल हिन्दी पत्रकारिता के काँधे पर ही यह जुआ क्यों पटके तो इस पर सोचना आवश्यक है कि हिन्दी देश के बहुसंख्यक की बोलने, समझने की भाषा है। अतः इसी को पत्रकारिता की एक व्यापक क्षेत्र मिला है। दूरदर्शन के हजारों चैनल के होते हुए भी समाज में अखबार की आवश्यकता आज भी पूर्व की तरह बनी हुई है। इस पर किसी मीडिया का कोई असर नहीं। करोड़ा की संख्या में देश भर में समाचार पत्र खरीदे एवं पढ़े जाते हैं। यह हिन्दी पत्रकारिता के लिए स्वयं सिद्ध महत्ता है। अतः अखबारों की विचारधारा मानव कल्याण हाना अत्यावश्यक है। इसी से इसकी भूमिका प्रजातंत्र चैथे स्तंभ वाली सत्य सिद्ध होगी।

हिन्दी पत्रकारिता के लिए कई चुनौतियों के रूप में भ्रष्टाचार, प्रलोभन, भूमंडलीकरण के माध्यम से बाजारीकरण का सामना करना है। हिन्दी पत्रकारों को ईमानदारी, दृढ़ता, त्याग एवं आत्मविश्वास के साथ इन समस्याओं से युद्धस्तर पर निबटना होगा। समर्पित भाव पत्रकार का धुन होना चाहिए। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हिन्दी के पत्रों सहित एलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने लुभावने विज्ञापन के माध्यम से दिग्भ्रमित करते रहते हैं। वे इन विज्ञापनों से चकित एवं चमत्कृत हैं। धन की लिप्सा बढ़ गयी है। उन लुभावने वस्तुओं को खरीदने हेतु धन की व्यवस्था अत्यावश्यक हो गया है ऐसे में सही गलत का राह चुनने में भटकन का शिकार बनी पीढ़ी सामने आती है। पूर्व में ये अनदेखी एवं अप्रत्यक्ष थी। हिन्दी पत्रकारिता को इन प्रलोभनों से दूर रहते हुए इस बाजारवाद के विरूद्ध सामने आना अत्यावश्यक है। इसके लिए दृढ़ संकल्प एवं दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है।

अपसंस्कृति का बढ़ता प्रचार-प्रसार भी घातक है। एलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से शहर, कस्बे एवं गाँवों में यह अपसंस्कृति छूत रोग की तरह फैल गयी है। हिन्दी पत्रकारिता को इस फ्रंट पर भी युद्ध करना है। हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े स्त्री पुरूष को जन अपेक्षा को जानना, समझना एवं इसके अनुकूल व्यवहार करना आज समय की माँग है। चैथे स्तंभ की इस भूमिका निर्वाह हेतु एक कठोर अनुशासन की आवश्यकता है। वर्तमान पत्रिकाओं में इंडिया टूडे, आउट लुक, वर्तमान साहित्य, कादम्बिनी, मधुमति, आजकल, सरिता, मुक्ता, शुक्रवार, पुष्पक, सरस्वती सुमन एवं राज्य सरकारों द्वारा संचालित मासिक एवं त्रैमासिक के साथ समाचार पत्र में नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्तान, आज, जनमोर्चा, स्वतंत्र भारत, अमर उजाला, भास्कर, दैनिक जागरण, जनसत्ता, राजस्थान पत्रिका, डेली हिन्दी मिलाप, स्वतंत्र वार्ता, आर्यावत्र्त आदि देश भर से प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें हजारों पत्रकार कार्य कर रहे हैं। स्त्री-पुरूष दोनों आज फोटोग्राफी, प्रेस एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना दायित्व निभा रहे हैं। 

स्त्री पत्रकारों की ओर देखें तो पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में स्त्री की निर्धारित भूमिका में स्त्रियाँ कैद थी। स्वाभाविक है पत्रकारिता जैसे दुस्साहसी, कार्य क्षेत्र में इनका पदार्पण संभव नहीं था। उन दिनों की स्थितियों को देखने जानने एवं परखने का कार्य करें तो हम पाते हैं कि पत्रकारिता के क्षेत्र में स्त्री की भूमिका बिल्कुल नगण्य रही। इसके कई कारण रहे हैं।

पत्रकारिता के प्रारंभ में स्वतंत्रता आंदोलन के समय देशबंधू जी की पत्नी वासंती देवी ने बंगला पत्रिका का संपादन किया। मोक्ष दायिनी देवी गिरीन्द्र मोहिनी देवी जाह्नवी आदि ने भी पत्रिका चलाने हेतु कार्य किया। इसी तरह स्वर्ण कुमारी एवं हरदेवी ने भारत भगिनी के संपादन में सहयोग दिया। उर्मिला एवं सुनीति सहयोगी का तथा उड़िया की अन्नपूर्णा देवी ने भी अपने संपादन कार्य द्वारा लोगों में राष्ट्रयता के भाव जगाए। दक्षिण में कन्नड़ की आर. कल्याणम्मा ने सरस्वती पत्रिका का तथा तिरूमलाम्बा ने कर्नाटक नंदिनी पत्रिका का संपादन करते हुए राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार प्रसार किया। सरला देवी चैधरी ने भारती नामक पत्रिका का संपादन किया। लाहौर से शान्ति देवी ने शान्ति कामुक पत्रिका निकाली। हिन्दी में महादेवी वर्मा ने चाँद पत्रिका का संपादन किया। वीणा दास की बड़ी बहन कल्याणी दास ने मदिरा नाम की राजनैतिक पत्रिका चलायी। सुभद्रा कुमारी चैहान भी प्रेस चलाती थी। सन् 1942 में सुप्रसिद्ध नेत्री अरूणा आसफ अली ने लिंक और पैट्रियाट पत्रों के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

कल का गुलाम एवं इसकी चक्की में पिसकर कणी बना भारत आजादी के बाद अपनी समग्र उन्नति करते हुए पूरे विश्व में ज्ञान-विज्ञान एवं विकास के विविध क्षेत्रों में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभर कर आ रहा है। इस सिलसिले में अनेक क्षेत्रों में स्त्रियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जा रही है। भले ही सदियों से भारतीय की संघर्षों में पिसने की मजबूरी भरी दास्तान सुनाए गए हों। या घर की चाहरदीवारी में कैद रहने की विवशता हो किन्तु अब वह सम्मान पाने की अधिकारिणी है। अपने घर बाहर की भूमिका के प्रति वह सचेष्ट होने लगी है। इस सच्चाई से हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि इन विवशताओं हेतु भी महिला ही जिम्मेदार है। नारी अधिकार, नारी उत्थान, नारी उद्धार, नारी जागृति आदि की बातें पुरूषों ने ही बहुतायत से किया है। अनेक महापुरूषों के सद्प्रयासों से स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन और सुधार हुआ। उनसे प्रेरणा प्राप्त कर अनेक परिवारों में जागृति आई एवं महिलाएँ भी अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगीं। उस समय से अभी तक उन्हें अनेक सुअवसर प्राप्त हुए तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में इनकी सहभागिता होने लगी।

हमारी संस्कृति के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों का ह्रास हो रहा है। वस्तुवादी सोच एवं अनैतिकवादी वृत्ति बढ़ती जा रही है। घर-परिवार के अंतर्रात्र एवं संवेदनायुक्त रिश्ते समाप्त प्राय हैं। परिवार विखंडन के दौर से गुजरने लगा है। अभद्र संवाद एवं बातचीत, भड़कीले चमकीले लिबास, भद्दे विज्ञापन, सस्ती लोकप्रियता, मूल्यविहीन छिछोरी मानसिकता एवं उच्छृंखलता को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। माडलिंग, सिने जगत, टी.वी., फैशन वल्र्ड में धन एवं प्रसिद्धि के पीछे स्त्रियाँ दौड़ लगा रही है। इन स्थितियों में साहित्य से, समाज सुधार से, शिक्षा से, राजनीति से, पत्रकारिता से संबद्ध महिलाओं का दायित्व बहुत ही उत्तर दायित्व पूर्ण हो जाता है। उन्हें स्वयं से लेकर घर, समाज तथा संसद एवं नियमन तक अपनी पैनी दृष्टि रखने की आवश्यकता होती है। ऐसे में पत्रकारों सा पैनापन इनमें अवस्थित हो जाता है। इनके उपर घर से लेकर संसद तक अपनी दृष्टि टिकाए रखने का दायित्व आ जाता है। प्रसिद्ध रचनाकार कृष्णा सोबती का आशा एवं विश्वास से लबालब वक्तव्य ध्यान देने योग्य है। भारतीय समाज में स्त्री पुरुष संबंधों और परिवारिक चैखटों को लेकर एक गहरी नैतिक हलचल और दूरगामी परिवत्र्तन लक्षित है। एक तरफ स्त्री आरक्षण की राजनीतिक चेतना और दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर पर नई स्त्री की उपस्थिति अपनी ऊर्जा नए उत्साह को संचार कर रही है। (हिन्दुस्तानी जुबान, दिसंबर 2010)

सामाजिक बुराइयों को दूर करने हेतु आज की महिलाओं को अनेकों क्षेत्रों में जागरूक होने की आवश्यकता है। अंधविश्वास, मिथ्या, कर्मकाण्ड, साम्प्रदायिकता इत्यादि जागरूक पत्रकार की कलम की नोक से उभरे अक्षर से आघातित हो सकते हैं। इन्हें महिलाओं के बीच स्वस्थ्य मानसिकता का विकास करना होगा। डॉ. मिथिलेश दीक्षित का कथन देखें। जागृति का अर्थ उन्मतता और स्वछंदता नहीं है और न पुरुषों के बराबर उनके जैसा होना या उनसे आगे जाना है। स्त्री का अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी है और उसमें प्रकृति प्रदत्त सहज गुण भी हैं। साथ ही स्त्री एवं पुरूष दोनों जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्ष है जो एक दूसरे के पूरक हैं विरोधी नहीं। जीवन के कुछ क्षेत्रों में तो स्त्री के दायित्व पुरूष से कहीं बढ़कर है। वह पूरे परिवार के व्यवस्था की स्वामिनी होती है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी यह बात समझनी चाहिए कि सामाजिक बुराईयों को अब स्त्री शक्ति द्वारा पहल करने पर ही आसानी से दूर किया जा सकता है। सही रूप में आधुनिक बनने के लिए फैशन व शारीरिक सज्जा आवश्यक नहीं है बल्कि विचारों में परिवर्तन आवश्यक है। जहाँ तक स्त्री पुरूष के समान अधिकार की बात है उसके लिए कोई उपदेश नहीं कार्यान्वयन की आवश्यकता है। (साहित्य और संस्कृति, पृ. 128 से उधृत) इस तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में स्त्री केवल स्वच्छंदता के साथ नहीं प्रविष्टि लें बल्कि अपने संपूर्ण दायित्व एवं पत्रकारिता के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए प्रवेश एवं विस्तार की ओर बढ़े तभी वह पुरूष के समकक्ष खड़ी हो सकेगी।

देश के लिए भारतीय नारी ने बड़े से बड़े बलिदान दिए हैं। नारी का त्याग व बलिदान की एक गौरव शाली परंपरा भी रही है। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में भारतीय युवतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सूचना की गुप्तता निभाने, सूचना पहुँचाने एवं प्राप्त कर संरक्षित रखने का महत्वपर्ण कार्य इन्हीं के द्वारा सपन्न हआ। हम उस पतुरिया को नहीं भूल सकते। जिसने बहादुर शाह जफर के लिए कार्य किया।

पत्रकारिता के परोक्ष स्वरूप में इसे हम रख सकते हैं। वैसे हर क्षेत्र की तरह नारी विषयक सामाजिक समस्याओं के प्रति पत्रकारिता के क्षेत्र में आरंभिक समय से ही उदासीनता रही है। नारी शोषण के विरोध में भी इनका स्वर दबा रहा है। आवाज उठाने या कत्र्तव्य बोध के नाम पर कुछ स्त्रियों ने स्वच्छंदता से उच्छृखंलता का अर्थ ध्वनित कर इसे ही अंगीकृत किया है।

स्त्रियों के बीच शिक्षा का अभाव एक बड़ा कारण रहा है। पिछड़ने या अन्य मनोभाव के साथ आगे बढ़ने का। शिक्षा के क्षेत्र में अब तो विभिन्न शैक्षिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में हमारी नवयुवतियाँ देश से लेकर विदेश तक अपना स्थान बना रही है। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ-साथ अनेक स्वयं सेवी संस्थाएँ भी नारी कल्याण, महिला उत्थान, नारी शिक्षा और स्त्री जागृति के लिए कार्य कर रही है। महिला साक्षरता के देश व्यापी अभियान हेतु विभिन्न कार्यक्रम के आयोजनों में जागृति की लहर फैला दी है किन्तु पत्रकारिता को मिशन बना कर कार्य नहीं हो रहा है। साथ ही यह भी सच है कि शहरी क्षेत्रों की स्त्रियाँ ही प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न क्षेत्रों में अपनी भूमिकाएँ निभा रही है। ग्राम्य क्षेत्रों में अभी भी पर्याप्त जागृति नहीं है। यहाँ अभी भी स्त्रियों का पूरा जीवन घर परिवार हेतु समर्पित होकर रह जाता है। इन्हें किसी प्रकार का अधिकार कम ही मिल पाता है। उनकी क्षमताओं का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता है। उनकी सहज गम्य प्रतिभा भी इन्हीं बोझों के तले दबकर नष्ट हो जाती है। हमारे देश में कृषि व्यवसाय एवं खाद्य सुरक्षा में इन ग्रामीण स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस महती कार्य को ये ग्रामीण स्त्रियाँ पूर्ण मनोयोग से निर्वाहित करती है। आज ग्रामीण महिलाओं को ध्यान में रखकर ढ़ेरों सरकारी योजनाओं का नियोजन किया गया है। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 15 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस घोषित होने पर भी पत्रकारिता के क्षेत्र में जागृति के अभाव ने इन तक सूचना एवं सामग्री का सभाव नहीं होने दिया है। 1975 ईं में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वर्ष संपूर्ण विश्व में संपन्न हुआ। इसी समय कई संगठन बने अनेक समितियों द्वारा अनेक पत्रिकाएँ प्रकाश में आयी। कई स्त्री पत्रकार उभरे। कई विचारों को प्रश्रय मिला किन्तु महिला सुरक्षा की समस्या आज भी ज्यों कि त्यों बनी है। यहाँ तक कि सरकार ने महिला आयोग भी स्थापित कर दिया है एवं राज्य स्तर पर भी यह क्रियान्वित किया गया है किन्तु सजग पत्रकारिता नहीं होने के कारण ही अब तक यह सफलता के सोपान नहीं चढ़ पाई है।

नारी विकास, उन्नयन, शिक्षा एवं जागृति की नींव वस्तुतः घर से ही प्रारंभ होती है। घर में माता की अहम् भूमिका होती है। पुनः डॉ. मिथिलेश दीक्षित का कथन उधृत है- घर एक आदर्श स्थल होता है। जहाँ बच्चों को सीखने के विविध अवसर मिलते हैं। माता पूरे घर की स्वामिनी होती है। बालक के वर्तमान तथा भविष्य की निर्मात्री होती है। मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया बाल्यावस्था से ही आरंभ हो जाती है। संसार में महापुरूषों से संबंधित अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें माता की भूमिकाएँ सर्वोपरि रही हैं। अपनी माताओं के द्वारा दी गई उचित शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों के कारण अनेक व्यक्ति संसार के इतिहास में महापुरूष कहलाए प्रसिद्धि पाई। माता का जागरूक एवं शिक्षित होना इसलिए भी आवश्यक है ताकि वह बच्चों में सुचित नैतिक संस्कार डाल सके। स्वस्थ्य विकास न होने के कारण बालक का पूरा जीवन प्रभावित होता है और जिस समाज में वह रहता है उसमें सहयोग करना तो दूर उसे भी दुर्बल बनाने का वह कारण बन जाता है।.... उसके संपूर्ण विकास की नींव माता के द्वारा ही पड़ती है एवं घर के वातावरण का बालक पर बहुत प्रभाव पड़ता है। प्रेम पूर्ण अनुशासित स्वस्थ्य वातावरण में पलकर बालक बाद में स्वस्थ्य व्यक्तित्व का स्वामी बनता है। आज के मशीनी युग में ममता का भी मशीनीकरण होने लगा है। बच्चे आया का क्रच में पलने लगे हैं। यहाँ पत्रकारिता की आवश्यकता आन पड़ी है। स्वस्थ्य एवं संतुलित वातावरण के प्रति पत्रकारिता की ओर से जागरूकता फैलाना अत्यावश्यक है। यह सभी बुराइयों पर चोट कर समाज को उध्र्वान्मुख बना सकती है।

भुमंडलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति में कई गुणा वृद्धि कर दिया। उर्मिला गिरीष का यह कथन दर्शनीय है- इधर भूमंडलीकरण ने सारे परिदृश्य को ही बदत्व दिया है। भूमंडलीकरण बाजार, पूरा विश्व एकीकृत्त हो गया है। जंक फूड से लेकर डिजाइनर कपड़ों, फैशन, सूई-धागा से लेकर एयर लाइन्स तक में स्त्री दिखाई दे रही है। जनसंचार के माध्यमों में आयी क्रांति ने इस बदलाव को दुनियाँ के कोने-कोने में पहुँचा दिया है। नए वैश्वीकरण में स्त्री को अलग ढंग से स्वावलंबी बना दिया है। आत्मविश्वास से भर दिया है। अपनी क्षमताओं, अपने अधिकारों, अपने सौन्दर्य और अपनी वृद्धि से परिचित करवा दिया है। इसके प्रभाव में महिलाओं की शक्ति को अपने सौन्दर्य और अपने प्रति अन्याय और शोषण तथा असमानता के खिलाफ जहाँ स्त्री सृजनकारों ने अपनी आवाज उठाया है। वहीं महिलाओं की सशक्त भूमिका के लिए और उनको केन्द्रीयधारा में लाने के लिए महिला रचनाकारों के माध्यम से महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। स्त्री पत्रकारों एवं स्त्री संपादकों ने अपनी कलम के माध्यम इस जागृति में गति देने का सार्थक कार्य किया है किन्तु एक बात और भी इस बीच घटित हुई है उपभोक्तावादी अपसंस्कृति में महिलाओं की उच्छृखंलता को भी बढ़ावा मिला है तो उनकी असुरक्षा भी बढ़ी है। वर्तमान भौतिकवादी परिवेश में संबंधों मंे टूटन, बिखराव, नैतिक मूल्यों में गिरावट, वृद्धावस्था का एकाकीपन आदि अनेक पक्षों पर पत्रकारिता एवं आलेख के माध्यम से ध्यानाकर्षण किया है। स्त्री को प्रकृति प्रदत्त गुणों का भास दिलाकर अपनी क्षमताओं की ओर उन्हें उन्मुख करने एवं मानवी स्वरूप के निर्माण हेतु प्रयुक्त करने हेतु प्रेरित करने का कार्य पूरा करने हेतु पत्रकारों को चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया हो, इसके माध्यम को अपनाना होगा। नारी लेखन, नारी की अस्मिता और संघर्षों से जुड़ा है। नारी-चेतना को जागृत करने का जहाँ आज प्रमुख दायित्व है। पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत स्त्रियाँ इसके महत्व को समझती भी है और इस क्षेत्र में अपने कार्य द्वारा निरंतर सहयोग कर रही है। सबसे पहले पत्रकारिता के क्षेत्र को हम टटोले तो पाते हैं कि साहित्य के विकास के साथ एवं पत्रकारिता के इतिहास में स्त्री पत्रकारों का उल्लेख नहीं के बराबर ही है। वास्तव में स्वातंत्र्य आंदोलन के समय सूचना देने एवं लेने हेतु कुछ स्त्रियों ने अपना योगदान दिया। पत्रकारिता के क्षेत्र में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पश्चात् स्त्री पत्रकारों की भरमार बढ़ी है। इस क्षेत्र में इसके पश्चात स्त्रियों ने कई नवीन क्षितिज खोले हैं। सबसे पहले इस क्षेत्र में एक बड़ी लकीर खींचने वाली महाश्वेता देवी का नाम रखना चाहूँगी जिन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में आदिवासियों के चित्रण से तहलका मचाया है। शीला झुनझुनवाला (साप्ताहिक हिन्दुस्तान), पुष्पा भारती, शुभा वर्मा एवं नालिनी सिंह (टी.वी. पत्रकारिता) आदि ने इस क्षेत्र में अपना महत्ती स्थान बनाया। साप्ताहिक हिन्दुस्तान एवं मीडिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली मृणाल पांडे के योगदान को इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाना चाहिए। अरूंधती राय बुकर पुरस्कार विजेता ने भी पत्रकारिता को महत्व दिया है। उपरोक्त सभी महिलाएँ खोजी पत्रकारिता की सशक्त हस्ताक्षर हैं। मीडिया पत्रकार बरखा दत्त जो पत्रकारिता आकाश में धूमकेतु सा उदित होकर अपनी चमक बिखेरने लगी वह भी खोजी पत्रकारिता की एक हस्ताक्षर बन कर सामने आयी।

ऋता त्रैमासिक की महिला संपादक ने पत्रकारिता के क्षेत्र में आस्थावादिता और मानवीय मूल्यों का समावेश किया। इन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने दो बार पुरस्कृत किया। नवभारत टाइम्स की संवाददाता मणिमाला ने अतिरिक्त प्रसिद्धि अर्जित की। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त तेलुगु पत्रकार मालती चंदर का नाम भी ससम्मान उद्धृत किया जाता है। इसके साथ ही कई महिला पत्रकार एवं संपादकों ने अपनी प्रविष्टि पिछले कुछ दशकों में तेजी से दर्ज करायी है। इसमें महिला सुधा से लेकर पुष्पक के प्रधान संपादक के रूप में मैं (डॉ. अहिल्या मिश्र) पत्रकारिता पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त करने एवं इस क्षेत्र में अपना अस्तित्व सिद्ध करने का कार्य संपन्न कर चुकी हूँ। विवरण पत्रिका की सहयोगी संपादिका के रूप में अपनी सेवा हिन्दी के संवर्द्धन हेतु निरंतर अर्पित कर रही हूँ। कर्नाटक हिन्दी महिला समिति की पत्रिका कर्नाटक हिन्दी प्रचार वाणी की संपादक शान्ता बाई कई वर्षों से इस क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। मिथिलेश कुमारी मिश्र बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना का पत्रिका का संपादन करती हैं। कुछ नाम हैं जिनका उल्लेख आवश्यक है। आशा शैली हिमाचली (शैलसूत्र), नमिता सिंह (परती-पलार), विनीता श्रीवास्तव (तूलिका), मृदुला सिन्हा (पाँचवा स्तंभ), सुमन कृष्णकान्त (भारतीय जननी), शशि भारद्वाज (भाषा), विद्या विन्दु, (राजर्षि टंडन संस्थान, लखनऊ), डॉ. नीरजा (श्रवंती), ऋचा त्रैमासिक की संपादिका के रूप में आरंभ में अपनी पहचान बनाने वाली स्त्री जिसने पत्रकारिता को मिशन बना लिया एवं लघु प्रकाशित की तथा रति सक्सेना इन्टरनेट (अन्र्तजाल) पर अपनी नई पत्रिका अनुभूति का संचालन करती है। दिव्या जैन (अंतरसंगिनी) डॉ. जयश्री शर्मा (अनुकृति), आशा देवी सोमाणी (अहिल्या), डॉ. रश्मि आलोक (नवोदित स्वर), कल्पना (बच्चों देश), सुगंधा त्रिपाठी (विविधा), डॉ. उषा किरण (वसुंधरा), उर्मिकृष्ण (शुभतारिका), डॉ. संजीता वर्मा (हिमालिनी), शशिश्रीवास्तव (हम सब साथ-साथ), डॉ. निर्मला मौर्य (साहित्यादित्य), कुसुम बुढ़ला कोठी (नेहा), डॉ. आरती (समय के साखी) तारा परमार (आश्वस्त), वंदना (अग्निशिखा), डॉ. उमा विस्ट (उजाला), श्रीमती सुमित्रा आर्य (कलम कला), सौ. वासंती देशमुख (कथामाला), फरजाना- सुषा शर्मा (ज्योतिबिंब), प्रमिला देवी (जनजन तक), डॉ. मधुरानी औट (जनप्रवाह), रीता कुमार (दर्शन), सुधा चन्दोला (दूनदर्शन), डॉ. माधुरी गुप्ता (पंजीयन भारती), श्रीमती किरण कुमारी (पटना एक्सप्रेस), बरनवाल रेणु खन्ना (बरन संकल्प), सुलभा कोरे (युनियन धारा), देवी, शीला, कंचन (मैत्री), रेखा मंत्री (मधु संचय), प्रो. महाश्वेता चतुर्वेदी (मंदाकिनी), संतोष गोयल (ऋचा), डॉ. शुभद्रा पाण्डेय (लालित्य), सविता थपलियाल (वात्सल्य जगत), श्रीमती तृप्ता तिवारी (शिवम), रंजना श्रीवास्तव (सृजनपथ), डॉ. अनिता (स्वदेश भारती), श्रीमती चंदा मिश्र (सनातन भारत), मेहरूनिशा परवेज (समरलोक), इंदिरा ठाकुर (हिम संचार), आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। ये वर्तमान नाम हैं जो पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने संपादकीय एवं विश्वसनीयता के झंडे गाढ़ चुकी हैं। उसके साथ ही ई-समाचार, वेब पत्रिका, वेबसाइट आदि पर कई महिलाएँ कार्यरत हैं। ये सभी समाचार अपडेट कर सूचना क्रांति में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। 

व्यवसायिक तौर पर सफल संपादिका तब्बसुम द्वारा संपादित गृहलक्ष्मी को चिन्हित किया जा सकता है। अपनी जानकारी के अनुसार मैंने यथायोग्य नामों और पत्रिकाओं का उल्लेख किया है। हो सकता है, समुचित जानकारी के अभाव में कुछ नाम छूट भी गए हों। 

पत्रकारिता  के क्षेत्र में समाचार संकलन महिला पत्रकार एवं संपादक विविध विषयों से संबंधित कार्य संपन्न कर रही हैं। 

मैंने हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में अधिक नाम लिए हैं। मीडिया पत्रकार के रूप में युवा वर्ग की स्त्रियों का भरमार है। आज पत्रकारिता को मिशन के साथ अपने जीविकोपार्जन के साधन के रूप में स्त्रियाँ अपना रही है। इसके प्रति एक निष्ठा, ईमानदारी, सत्य एवं साहस का प्रदर्शन कर अपनी सोच समाज सापेक्ष भूमिका के प्रति रख रही है। जागरूकता का अभियान लेकर चलने वाला ये महिला पत्रकार अपनी जाति के लिए कल्याण कारी होंगी। इनसे निःस्वार्थ एवं दक्षता का अपेक्षा समाज को होगी एवं इन्हें इस पर खरा उतरना है।

प्रसिद्ध लेखक प्रभाकर श्रोत्रिय का सम्मान करते हुए डाॅ. अहिल्या मिश्र

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