विदेशी विद्वानों का हिंदी प्रेम

समीक्षा

हरिशंकर राढ़ी

पुस्तक:  विदेशी विद्वानों का हिंदी प्रेम

लेखक: जगदीश प्रसाद बरनवाल ‘कुंद’

प्रकाशक: मेधा बुक्स, एक्स -11 ,

नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110032

पृष्ठ: 380 (परिशिष्ट अलग) 

मूल्य: रु 500/-

भाषा का साहित्य और साहित्य का भाषा से अन्योन्याश्रय संबंध होता है। दोनांे ही एक दूसरे को समृद्ध करते हैं और लोकप्रिय बनाते हैैं। गौरतलब है कि किसी देश का साहित्य और उसकी भाषा वहाँ के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण से जुड़ा होता है। दूसरे शब्दों में किसी भी भौगोलिक क्षेत्र का साहित्य वहाँ बोली जाने वाली भाषा में जितना सहज और सुपाच्य होता है, किसी अन्य या अनूदित भाषा में हो ही नहीं सकता। प्रेमचंद का साहित्य मूलतः अंगरेजी में और शेक्सपीयर का साहित्य मूलतः हिंदी में वह स्वाद नहीं दे सकता जो अपनी भूमि की भाषा में दे देता है। यह भी सच है कि किसी देश या समाज में इतना आकर्षण होता है कि उसकी संस्कृति को समझने के लिए न जाने कितने रसिक खिंचे चले आते हैं और वहाँ की भाषा को अपनी भाषा बना लेते हैं। वह भाषा उनकी माँ भले न बन पाए, धाय माँ तो बन ही जाती है। समय आने पर वे भी उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ते ।

हिंदी भाषा में संभवतः इतनी ममता भरी रही होगी कि इसने न जाने कितने विदेशी विद्वानों की धाय माँ बन गई और उनको अपना बना लिया। इसमें संदेह नहीं कि उपनिवेशकाल ने भारत के हर ताने-बाने को बहुत हद तक तोड़ा और उसकी संस्कृति को भी मटियामेट करने की कोशिश की, किंतु इसका किंचित अच्छा पक्ष रहा कि इसने भारत को दुनिया के अन्य भागों के सीधे संपर्क में रखा जिससे वैश्विक भाषाओं एवं ज्ञान का आवागमन हुआ। इस क्रम में विश्व के न जाने किन-किन क्षेत्रों के लोग भारत भूमि से जुड़े जिनमंे कुछ ने हिंदी भाषा और साहित्य को अपना अद्भुत सहयोग और समर्पण दिया। किंतु ऐसी अधिकतर विभूतियाँ समय और समाज की उदासीनता के चलते अज्ञात ही रह गईं। इधर अत्यंत सुखद है कि इस सूखे को दूर करती एक बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तक आई है जिसे लिखा है जगदीश प्रसाद बरनवाल ‘कुंद’ ने।

‘विदेशी विद्वानों का हिंदी प्रेम’ शीर्षक से प्रकाशित यह पुस्तक ‘कुंद’ जी के गहन शोध, अथक परिश्रम एवं भाषायी जिजीविषा का परिणाम है। इसमें संदेह नहीं कि विश्वभर में फैले अगणित हिंदी प्रेमी लेखकों के विषय में स्पष्ट एवं प्रामाणिक जानकारी जुटा पाना एक दुष्कर संकल्प है। ऐसे समय में जब लोग भौतिकता की अंधी दौड़ में अपने पड़ोस तक के चरित्र की जानकारी नहीं रखते, सात समंदर पार बैठे विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की व्यापक सूचना एकत्रित कर लेना भगीरथ प्रयास ही कहलाएगा। ‘कुंद’ जी ने इस तरह की बहुतेरी कठिनाइयाँ झेलीं। अपनी भूमिका में लेखक इस बात का जिक्र करना नहीं भूलता - ”एतद्विषयक अन्य सूचनाओं के लिए मैंने हिंदी से जुड़े कुछ सरकारी संस्थानों, गैर सरकारी संस्थानों, भिन्न-भिन्न देशों के दूतावासों एवं कई रचनाकारों से अनेक पत्राचार भी किए, किंतु आदरणीय श्री लल्लन प्रसाद व्यास, विष्णु प्रभाकर दिल्ली,  सुश्री युट्टा आस्टिन इंग्लैंड, टोमियो मिजोकामि जापान को छोड़कर किसी से भी मुझे कोई उत्तर प्राप्त न हो सका।“

पुस्तक में समाहित विदेशी विद्वानों की संख्या से ही इसकी विशालता, महत्त्व एवं स्तर का बोध हो जाता है। विश्व भर में फैले लगभग साढ़े तीन सौ विद्वानों के हिंदी में योगदान को इकट्ठा कर पाना सरल नहीं है। वैसे तो लेखक ने भूमिका में ही इस पुस्तक की आवश्यकता, लेखकीय मार्ग में आने वाले अवरोधों, अपनी इच्छाशक्ति और उपलब्ध सामग्री के गुण-दोष का संतुलित जिक्र कर दिया है, किंतु एक बार इसके पृष्ठों से गुजरते हुए स्पष्ट रूप से लगता है कि यह काम लेखकीय नहीं राष्ट्रीय महत्त्व का है। 

इसमें संदेह नहीं कि पुस्तक सूचनात्मक निबंध है, किंतु लेखक की सुपुष्ट भाषा और रोचक शैली ने इसे प्रायः साहित्यिक महत्त्व का बना दिया है। पुस्तक की मुख्यधारा में प्रवेश करते ही जिस विदशी विद्वान का जिक्र आता है, वह हैं जाॅन गिल क्राइस्ट का जो अठारहवी सदी के अंतिम दशकों में ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से भारत आए थे। उन्होंने प्रशासनिक कार्यों के लिए हिंदी की ओर रुख किया तो प्रशासक से हिंदी प्रेमी हो गए। गाजीपुर के आस-पास रहते हुए गिल क्राइस्ट ने ‘डिक्शनरी आॅफ इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी’ की रचना की। इतना ही नहीं, उनकी प्रेरणा से लल्लूलाल जी ने ‘प्रेमसागर’ की रचना की। लल्लूलाल जी ने ‘प्रेमसागर’ के बारे में लिखा- ”श्रीयुत गुनगाहक गुनियन सुखदायक, जान गिल किरिस्त महाशय की आज्ञा से संवत् 1860 में लल्लूजी लाल कवि ब्राह्म गुजराती भवदीय आगरे वाले ने जिसका सार ले, यामिनी भाषा छोड़ दिल्ली आगरे की खड़ी बोली में कह, नाम प्रेमसागर धरा।“

ऐसे प्रसंग न केवल उस समय की हिंदी की स्थिति बताते हैं, अपितु हिंदी के विकास की कथा भी कहते हैं। ‘कुंद’ जी तमाम प्रकरणों में विदेशी विद्वानों के जीवन एवं कर्म के साथ हिंदी का इतिहास भी बताते चलते हैं। न जाने कितने भूले -बिसरे नामों को याद कराते हैं। ऐसे ही द्वितीय प्रकरण में थाॅमस डूएर ब्रूटेन को हिंदी छंदों के प्रथम विदेशी संग्रहकर्ता के रूप में दिखाते हुए न जाने कितने अनछुए प्रसंगों को लेखक ने जाहिर किया है।

फादर कामिल बुल्के को प्रायः हर हिंदी प्रेमी जानता है। फिर भी लोग उन्हें उनके शब्दकोश एवं व्याकरण ज्ञान के लिए ही जानते हेैं। इस पुस्तक में लेखक फादर कामिल बुल्के पर लिखते हुए बहुत भावुक एवं संवेदनशील हो जाता है। कामिल बुल्के न केवल भाषायी संत थे, उनमें विदेशी होने के बावजूद एक सच्चे भारतीय की आत्मा बसती थी। यदि ‘कुंद’ जी के साहित्यिक स्पर्श की बात की जाए तो वे फादर कामिल बुल्के के साथ बहुत आत्मीय एवं श्रद्धानत दिखते हैं।

इस ग्रंथ में लेखक ने विदेशी विद्वानों का वर्गीकरण देशों के अनुसार किया है। सच तो यह है कि विषयसूची देखकर ही बहुत हैरानी होती है। खंड-क में लंबे लेख हैं। इनमें उन विद्वानों को शामिल किया गया है जिनके बारे में लेखक को विस्तृत जानकारी है और जिन्होंने हिंदी के लिए बहुत काम किया है। खंड-ख में अमेरिका, इंग्लैंड व अन्य, इटली, उज्बेकिस्तान, कनाडा, केन्या, जर्मनी, जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, रूस आदि देशों के हिंदी विद्वानों के विषय में लिखा है। हिंदी के विदेशी विद्वानों की बात चलेगी तो माॅरीशस, ट्रिनीडाड, टोबैगो और फिजी तो आएंगे ही। यद्यपि अंत में अनेक विद्वानों के विषय में सूचनाएं संक्षिप्त ही रह गई हैं, फिर भी कहा जाएगा कि उन्हें अंधेरे से निकालकर दीए की रोशनी में रखा गया, यह कम प्रशंसनीय नहीं है। पुस्तक के अंत में कुछ विद्वानों के श्वेत-श्याम चित्र भी दिए गए हैं।

हिंदी भाषा से प्रेम रखने वालों, जिज्ञासुओं एवं शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी होगी। निःसंदेह, ऐसे श्रमसाध्य उपयोगी कार्य के लिए लेखक साधुवाद का अधिकारी तो है ही।

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