डॉ. अहिल्या मिश्र का साहित्यिक अवदान

मंतव्य

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, संयुक्त संपादक ‘शोधादर्श’, असिस्टेंट प्रोफेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरतबाद, हैदराबाद- 500004, मोबाइल: 9849986346, ईमेल: neerajagkonda@gmail.com

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डॉ. अहिल्या मिश्र। यह नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनका नाम लेते ही आँखों के सामने एक ऐसी आकृति उपस्थित हो जाती है जो निरंतर महिलाओं के लिए काम करती है और उनके उत्थान हेतु प्रयास करती है। बड़ी-बड़ी बातें कहकर चुपचाप बैठने वालों में से नहीं है अहिल्या मिश्र। स्त्रियों को प्रोत्साहित करने के लिए तथा उनके अंदर छिपे हुए कलाकार को बाहर निकालने के लिए उन्होंने ‘साहित्य गरिमा पुरस्कार’ की स्थापना की। कादंबिनी क्लब (हैदराबाद), ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (हैदराबाद चैप्टर), साहित्य गरिमा वार्षिक पुरस्कार (स्त्री लेखन हेतु) और साहित्यिक पत्रिका ‘पुष्पक’ की संयोजक-संस्थापक के रूप में वे निरंतर स्त्रियों को आगे बढ़ने के लिए एक मंच प्रदान कर रही हैं। वे बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी हैं।

16 सितंबर, 1948 को सागरपुर सकरी मधुबनी (मिथिला), बिहार में जन्मी अहिल्या मिश्र की मातृभाषा मैथिली/बज्जिका है। उन्होंने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से ‘विद्यापति की काव्यभाषा’ पर अपना एम. फिल. लघुशोध प्रबंध प्रस्तुत किया तो उस्मानिया विश्वविद्यालय से डॉ. विष्णु स्वरूप के निर्देशन में ‘विद्यापति की पदावली का शैलीतात्विक अध्ययन’ पर पीएच. डी. शोध प्रबंध। 

अहिल्या मिश्र ने स्त्रियों के उत्थान के लिए काफी कार्य किया है और आज भी निरंतर कर रही हैं। वे दृढ़ निश्चयी हैं। डॉ. कविता वाचक्नवी से बात करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट कहा कि वह कुछ करना चाहती है, विशेष रूप से लड़कियों और स्त्रियों के उत्थान हेतु- “यह मेरी पसंद थी कि मैं अपनी जाति के लिए कुछ करूँ। मेरे चारों ओर लड़कियों के लिए जो वातावरण था- यह मत करो, वह मत करो, यहाँ मत जाओ, वहाँ मत जाओ- मुझे बहुत खलता था और बचपन में ही मैंने सोचा था कि मैं जरूर कुछ करूँगी। मन में था कि बच्चियों में वह चीज भर दो, जो तुम चाहती हो। उसमें जो फल मिलेंगे वे फल तुम्हारे मनपसंद फल होंगे। ‘नवजीवन’ आने के बाद मेरी मुलाकात रत्नमाला साबू से हुई। इस क्षेत्र की अन्य महिलाओं से भी हुई... उनसे मैं जुड़ी। फिर सरोज बजाज के साथ भेंट हुई। इन लोगों ने मुझे कमजोर वर्ग की महिलओं के लिए काम करने का अवसर उपलब्ध कराया। आज भी पीछे मुड़कर देखने का अवसर नहीं आया।” (शर्मा 2004: 308)। अपने स्वप्न को साकार करने के लिए उन्होंने अपना कदम आगे बढ़ाया। वे अक्सर कहा करती हैं कि झूठ और फरेब के सामने कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए क्योंकि एक बार झुकने से आजीवन झुकते ही रहना पड़ेगा। उनका विश्वास है कि यदि मन में दृढ़ संकल्प हो तो सफलता प्राप्त करना कठिन कार्य नहीं है।  

भले ही हम कह लें कि यह स्त्री सशक्तीकरण का युग है लेकिन इस सच को भी नकारा नहीं जा सकता कि जब-जब स्त्री ने अपना कदम आगे बढ़ाया, तब-तब इस समाज ने उसे दुत्कारा और अनेक ‘विशेषणों’ से नवाजा। अहिल्या मिश्र के सामने भी कई प्रकार की चुनौतियाँ उपस्थित हुईं। उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा, तरह-तरह के उलाहने सहने पड़े। फिर भी वे अडिग रही और अपनी राह को सुनिश्चित करती गई। वे अक्सर कहती हैं कि अपने सपनों को साकार करना है तो बीच रस्ते में निराश होकर अस्त्र नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि लड़ना चाहिए, संघर्ष जारी रखना चाहिए। यदि कहें कि अहिल्या मिश्र नेतृत्व प्रदान करने वाली सशक्त महिला है।  

डॉ. कविता वाचक्नवी ने अहिल्या मिश्र के व्यक्तित्व का रेखाचित्र बखूबी खींचा है। उनका कहना है कि “एक अच्छी कद-काठी की महिला जिन्हें देखकर स्त्री को कोमलांगी होने से संतुष्ट न रहने का विचार कौंधे, जो ऊँची आवाज में बात करती हों, कई-कई पहचानों, मुलाकातों, बातचीतों के बाद भी आप तय न कर पाएँ परिचय की गहराई, निकटाई को, सबसे उड़ती-उड़ती लहजे में बात करती लगें, तैश-ताव आने पर दाहिना हाथ उठाकर बात में जोर पैदा करती हों...। बड़े-बड़ों को पटकनी देने का उनका अपना अंदाज है और वे इसमें कतई कोताही नहीं करतीं, यदि ठान लें तो.... और यह तभी यदि दूसरों में किसी मतांतर और चातुर्य का भावबोध उन्हें जगता जान पड़े। ऊपर से रुक्ष-शुष्क, तीखी, कठोर, कटु, तथाकथित स्त्री-ध्वनि से भिन्न, स्वयं को सही ठहराती हुई भले ही अचकचाने को बाध्य कर दें।” (वही: 301)। किसी का व्यक्तित्व एक दिन में निर्मित नहीं होता। इस समाज में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए सतत संघर्ष करना पड़ता है और अहिल्या मिश्र ने समाज के साथ-साथ साहित्य एवं पत्रकारिता जगत में अपना एक सुनिश्चित स्थान बना लिया है।  

अहिल्या मिश्र का बचपन राजनैतिक चहल-पहल भरे वातावरण के बीच गुजरा। उनके पिताजी श्री रामानंद मिश्र जी लोहियावादी थे। अतः उनका प्रभाव अहिल्या मिश्र पर पड़ना स्वाभाविक है। अपने बचपन को याद करते हुए वे कहती हैं कि “पिताजी सक्रिय राजनीति में थे... लोहियावादी। तो उसका प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा और क्रांति की उपज वहीं से मेरे मन में आ गई। पिताजी काफी शिक्षित थे। शिक्षा दिलाने की विचारधारा का वातावरण घर में तैयार करना उन्हीं का काम था। सदा यह समझाते कि बहुत ऊँचाई की ओर मत देखो, अपनी सीमारेखा निर्धारित करो, नहीं तो ठोकर लग कर गिरोगी।” (वही: 303)। बचपन में पिताजी से सीखी हुई बातों को अहिल्या मिश्र ने अपने जीवन में क्रियान्वित किया। वे लड़कियों की शिक्षा पर विशेष बल देती हैं चूँकि वे मानती हैं कि यदि स्त्री शिक्षित होगी तो उसमें आत्मविश्वास का संचार होगा और वह अपनी शक्ति को पहचानने लगेगी तथा सशक्त बनेगी। वे कहती हैं कि “शारीरिक बनावट से भले ही स्त्री कोमल है, लेकिन सहनशक्ति के मामले में स्त्री बहुत सशक्त है। जिस तरह हमारे एक देवता हैं... शायद हनुमान जी... उन्हें उनकी शक्ति याद दिलाने के बाद वे विश्व के सबसे महान शक्तिमान हो जाते हैं, वैसे ही स्त्री भी है।” (वही: 315)। उनकी मान्यता है कि यदि स्त्री को सशक्त होना हो तो उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना जरूरी है। इसे हेतु उसे पहले शिक्षित होना चाहिए। 

अहिल्या मिश्र अपने विचारों को समाज सेवा के माध्यम से अभिव्यक्त करती ही हैं साथ ही साहित्य के माध्यम से सैकड़ों पाठकों के मन-मस्तिष्क में भी भर देती हैं। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, अनुवाद, समीक्षा और संपादकीयों के माध्यम से स्त्री मानस की व्यथा के साथ-साथ स्त्री सशक्तीकरण के प्रश्न और समाज में व्याप्त अनेकानेक विसंगतियों को उजागर किया है। कोरना महामारी के इस दौर में वे निष्क्रिय होकर कमरे में न बैठकर ऑनलाइन वेबिनार और कवि गोष्ठियों के माध्यम से अपनी सामाजिक एवं साहित्यिक गतिविधियों को निरंतरता प्रदान कर रही हैं। इतना ही नहीं उन्होंने इसी दौरान अपनी आत्मकथा पर आधारित पुस्तक को भी पूरा किया है। इसका खुलासा करते हुए उन्होंने स्वयं कहा है कि “करोना महामारी के बीच मैंने अपनी आत्मकथा पर आधारित पुस्तक ‘दरकती दीवारों से झाँकती जिंदगी’ को पूरा किया और कई कविताएँ भी लिखीं।”     

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साहित्य और नारी उत्थान के क्षेत्र में अहिल्या जी की सेवाओं के सम्मान स्वरूप उनके मित्रों एवं प्रशंसकों ने 2004 में ‘स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम’ शीर्षक अभिनंदन ग्रंथ प्राकशित किया जो स्त्री विमर्श के शोधार्थियों एवं शोध निर्देशकों के लिए दिशासूचक है। 

अहिल्या मिश्र का साहित्यिक अवदान इस प्रकार है। पत्थर, पत्थर, पत्थर (1988), कैक्टस पर गुलाब (1992), आखर अंतःदीप के (2000), श्वास से शब्द तक (2015), इस शहर के लोगों से (प्रकाशनाधीन) आदि कविता संग्रह हैं तो फाँस की काई (2002), मेरी इक्यावन कहानियाँ (2009), धुंधलका छाया रहा कहानी संग्रह। उल्कापात (उपन्यास) प्रकाशनाधीन है। नारी: दंश दलन दायित्व (2002), हिंदी: समस्याएँ और समाधान, आधुनिकता के आईने में स्त्री संघर्ष (2013), साँची कहूँ (2018) आदि निबंध संग्रह हैं। विद्यापति की पदावली का शैलीतात्विक अध्ययन शोध समीक्षा है तो भारतीय नारी तेरी जय हो (2004) नाटक संग्रह। उन्होंने महिला दर्पण, महिलासुधा, पुष्पक एवं नवजीवन स्मृति आदि 30 पत्र-पत्रिकाओं एवं स्मारिकाओं का सफल संपादन किया है और 2011 से 2017 तक विवरण पत्रिका (हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) की सहयोगी संपादक रहीं। संकल्पों के साए (कहानी संग्रह, आंध्रप्रदेश की महिला कथाकारों का संग्रह) का संपादन किया है। कथा सागर भाग 1, भाग 2, कक्षा 3 की सामाजिक अध्ययन की पाठ्य पुस्तक में पाठ लेखन के साथ-साथ संपादन भी किया है। 

अहिल्या मिश्र हिंदी साहित्य एवं समाज सेवा के लिए अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। महादेवी वर्मा सम्मान, रत्नाकर सम्मान, आचार्य सम्मान, उत्तम हिंदी सेवा सम्मान, साहित्य शिरोमणि पुरस्कार 2004, विद्यामार्तंड 2004, उत्तम शिक्षिका पुरस्कार (आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा), जयशंकर प्रसाद पुरस्कार (नाटक हेतु), काव्य पाठ एवं संचालन के लिए भारत के राष्ट्रपति स्व. शंकर दयाल शर्मा द्वारा दो बार सम्मानित, स्व. सुमन चतुर्वेदी पुरस्कार, भारत भाषा भूषण सम्मान, विशिष्ट महिला सम्मान, महिला रत्न सम्मान, संपादक शिरोमणि श्रीनाथद्वारा 2013, श्री आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार 2013, संस्कृत शिक्षा बोर्ड बिहार एवं सौहार्द सम्मान, चाणक्य वार्ता सम्मान 2018, स्वयंसिद्धा शिखर सम्मान 2019, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन शताब्दी सम्मान 2019, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा सौहार्द सम्मान 2019 आदि से वे विभूषित हैं। दक्षिण में दीर्घकालीन हिंदी प्रचार-प्रसार एवं हिंदी भाषा और साहित्य की उल्लेखनीय सेवा हेतु नागरी प्रचारिणी सभा, आगर की ओर से डॉ. अहिल्या मिश्र को ‘श्री ब्रजमोहन रावत पुरस्कार’ से जनवरी 30, 2020 को सम्मानित किया गया है।        

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अहिल्या मिश्र के साहित्य पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि उनके साहित्य में स्त्री सशक्तीकरण प्रबल रूप से मुखरित है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे अन्य विषयों को नजर अंदाज करती हैं। ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर भी वे खुलकर प्रहार करती हैं। लेकिन मुख्य रूप से वे स्त्री अस्मिता एवं अस्तित्व के प्रति सजग रचनाकार हैं। उनकी मान्यता है कि स्त्री को मनुष्य का दर्जा देना अनिवार्य है। स्त्री विमर्श के नारे लगाने वालों से वे अपील करती हैं कि “समाज का ऐसा रूप बनना है जहाँ स्त्री-पुरुष में प्रतिद्वंद्वता नहीं, सहयोग हो। स्त्रियों के लिए सम्मान एवं आदर हो।” (मिश्र 2013: 77)।      

भारतीय समाज में सदियों से लिंग भेद विद्यमान है। बेटे के जन्म पर खुशियाँ बाँटने वाला समाज बेटी के जन्म पर अफसोस करता है। भले ही समय बदल रहा हो और लैंगिक भेदभाव मिटाने के लिए कानून ने अनेक प्रवाधान बनाए हो फिर भी इस उत्तरआधुनिक समाज में कहीं-न-कहीं लिंग भेद की समस्या विद्यमान है। इसीलिए अहिल्या मिश्र ‘आज की बालिका’ शीर्षक कविता में यह प्रश्न करती हैं कि -

''पुत्र रत्न प्राप्ति हर्ष नाद व बरसाते फूल सभी

दुहिता पाते ही कुम्हलाये आनन लिखता भूल हुई“

न्याय और इंसानियत के तुला में भी यह मौन क्यों?'' (मिश्र 2000: 43) 

आज समाज जागरूक हो चुका है फिर भी कन्याभ्रूण की स्थिति दयनीय ही है। अपनी प्रकृति प्रदत्त अधिकार से भी कन्याभ्रूण वंचित है। एक गर्भस्थ अथवा नवजात कन्याभ्रूण का जीवन इसलिए मिटा देना कि वह एक लड़की है, निकृष्ट एवं जघन्य अपराध नहीं है तो और क्या है? यदि लैंगिक भेदभाव को जड़ से मिटाना हो तो लोगों की मानसिकता में बदलाव आना जरूरी है। इसीलिए अहिल्या मिश्र कहती हैं कि-

“समाज जब विद्रूपताओं, विषमताओं, विसंगतियों के अंधेरे से एवं कुरीतियों के घटाटोप से जूझता है तो साहित्य दीपक के समान ज्ञान की रोशनी फैलाकर इन पर नियंत्रण हेतु समाधान की खोज का मार्ग प्रशस्त करता है।” 

(मिश्र 2012: पुष्पक 20: 6)।   

स्त्री सशक्तीकरण के इस युग में भले ही स्त्री हर क्षेत्र में अपनी अस्मिता कायम कर चुकी है फिर भी पुरुषसत्तात्मक समाज उसे हेय दृष्टि से ही आँकता है। सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ भी स्त्रियों की अवहेलना करने में पीछे नहीं हटतीं। इसीलिए स्त्री सशक्तीकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए अहिल्या मिश्र कहती हैं- “सशक्तीकरण के लिए दुर्गा से बढ़िया और कोई उदाहरण नहीं होगा कि चाहे उसे खप्पर धारण करना पड़े या खड्ग चलाना पड़े, पर सारे वरदान और अभिशाप को सोख जाने की ताकत उसमें है। लेकिन आज के युग में स्थितियाँ बदल गईं हैं। युगों के द्वार पर निरंतर स्त्री-शक्ति के क्षरित होने के कारण सशक्तीकरण जैसे शब्दों का उपयोग आवश्यक हो गया है।” (शर्मा 2004: 317)। 

स्त्री को सशक्त बनना हो तो उसे सबसे पहले अपने आत्मविश्वास को जगाना होगा। अहिल्या मिश्र की मान्यता है कि जब तक स्त्री “अपने भोग्या रूप को साँप की केंचुली के सामन छोड़ आगे बढ़ने की मानसिकता बना लेगी तो कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जो इसे अपंग व असहाय बना सके। अपनी अस्मिता को पहचानने की मानसिकता ज्ञान के प्रकाश में ही संभव हो सकती है। अन्य कोई निरापद मार्ग नहीं।” (मिश्र 2002: 16)। इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्री घर-परिवार और अपने स्त्रीत्व को तजकर आक्रामक तथा विद्वेषपूर्ण बने। सशक्तीकरण का सही अर्थ है, खोई हुई स्वतंत्रता एवं निर्णय क्षमता को प्राप्त करना, अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करना तथा अपने स्त्रीत्व को बचाकर रखना।    

बरसों से भारतीय समाज में संस्कारों की दुहाई देकर स्त्री को बंधनों में जकड़कर रखा गया है। उसके इर्द-गिर्द लक्ष्मणरेखा खींचकर उसे बेबस बना दिया गया है। लेकिन आज स्त्री जागरूक हुई। अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगी। सफलता भी हासिल करने लगी। फिर भी इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि जब-जब स्त्री के उन बंधनों को तोड़ने की कोशिश की, लक्ष्मणरेखा को लाँघने की कोशिश की तब-तब उसे समाज की अवहेलना झेलनी पड़ी। लेकिन शिक्षित स्त्री आत्मनिर्भर बनी। अहिल्या मिश्र संपूर्ण स्त्री समाज की प्रतिनिधि बनकर कहती हैं- 

"समता के दम से गाड़ दिए हमने शिक्षा के झंडे

मर्दों को पसीना छूट गया स्वाभिमान हुए सब ठंडे

नारी के भाग्य बदलने का हाथ में हमने जो काम लिया

पंडित को पड़ने लगे दौरे मुल्ला ने कलेजा थाम लिया

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आओ हम अब मिलकर साथ चलें दिन रात

मानवता के राही बनें हाथों में हो हाथ

शिक्षा हो नारी धन दे बहनों को ज्ञान

दहेज वेदी पर न हो पायें कोई कुर्बान।"  (मिश्र 2000: 52-53)।   


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अहिल्या मिश्र मानवीय संबंधों एवं मूल्यों को महत्व देती हैं। वे बार-बार प्रेम, सत्य, दया, करुणा, ममता, कर्तव्य आदि पर बल देती हैं। उनके लिए तो “जीवन की बजरी में गीतों का पतवार है/अभी तो मझधार हैं, जाना उस पार है।” (मिश्र 2000: 87)। उन्हें यह चिंता सालती है कि आज मनुष्य स्वार्थ के कारण संकीर्ण मानसिकता, जड़ता और सांस्कृतिक संकट से ग्रस्त है। मानवता लुप्त होता जा रहा है। अहिल्या जी के अनुसार भारतीय दर्शन एवं संस्कृति को भूलने का अर्थ है जीवन को संकट में डालना तथा अनेक समस्याएँ को उत्पन्न करना। (मिश्र 2013: पुष्पक 22: 6)। 

बाजारीकरण के दौर में सब कुछ बिकाऊ बनता जा रहा है। यहाँ तक कि मानवीय मूल्य, रिश्ते-नाते और संवेदनाएँ भी। जहाँ देखें वहाँ हर क्षेत्र में उच्छृंखलता दिखाई पड़ रहा है। एक जमाना वह था जब अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई और यहाँ के लोगों को ‘साँप पकड़ने वाले’ तथा ‘बंदरों को नचाने वाले’ कहकर अवहेलना की थी। लेकिन आज स्वयं भारतीय जनता पाश्चत्य मोह में पड़कर अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का मजाक उड़ा रही है। ऐसे में संवेदनशील व्यक्ति का चिंतित होना स्वाभाविक है। इसीलिए अहिल्या मिश्र कहती हैं - “इस वैश्वीकरण की दौड़ में हमारी सभ्यता एवं संस्कृति महज एक मजाक बन कर रह गई है। भौतिक सुखों का बोलबाला इस कदर बढ़ा है कि लोग आज अपने सुख एवं स्वार्थ हितार्थ अंधत्व की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं। बाजारीकरण एवं विश्व व्यवसायीकरण के इस छद्म आघात में सत्य विलीन होकर झूठ का कवच धारण कर चुकी है।”( मिश्र 2010: पुष्पक 16: 5)।         

मानवीय संबंधों के बीच यदि प्रेम लुप्त हो जाए तो कसैलापन ही बचेगा। इसीलिए अहिल्या मिश्र एक दार्शनिक की भाँति कहती हैं - “प्रेम एक स्वर्गीय आनंद का भंडार है। मानव जीवन में जीने की अंतःप्रेरणा की सद्पूर्ति प्रेम के अनुभव का स्वाद चखने से ही संभव होती है। प्रथमतः प्रेम विशुद्ध ईश्वरीय उपादान है। भौतिकता के मार्ग से आगे बढ़ते हुए यह विभिन्न आकर्षण के अवयवों द्वारा ईश्वरीय या आध्यात्मिक मनोभावों से परिपूर्ण हो जाता है। अगर मनुष्य के अंतस से प्रेम या स्नेह समाप्त हो जाय तो वह मृतप्राय हो जाएगा। प्रेम जीवन का संचार है। प्रेम पृथ्वी का तरल धर्म है। प्रेम स्व में सृष्टि है। वैराग्य प्रेम का अंत है।” (मिश्र 2009: 26)। 

अहिल्या मिश्र की रचनाओं में चित्रित प्रेम में मांसलता नहीं है। लौकिक प्रेम के स्थान पर आध्यात्मिक प्रेम का पुट दिखाई देता है। राधा-कृष्ण का प्रेम उदात्त है। इसीलिए कवयित्री ‘प्रेम गीत’ शीर्षक कविता के माध्यम से यह कहती है कि-

‘‘प्रेम भाव सिक्त हैं मुखर लिए है

संसार बीच होके भी इनके मन अलिप्त है

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ममता स्नेह गेह बीच बाँध रही डोर है

प्रीत पगा अमृत है अतुलित आनंद व्याप्त है

प्रेम भाव सिक्त है मुखार विंद लिप्त है।” (मिश्र 2000: 86)।         

अहिल्या मिश्र ने इसी उदात्त प्रेम का संदेश ‘प्रेम का उपहार’ शीर्षक नृत्य नाटिका के माध्यम से भी उकेरा है। इस कथा में रानी महाराज को अपना कर्तव्य याद दिलाती है जो विवाह के पश्चात उनके प्रेमपाश में बंधकर राज्य के प्रति अपने कर्तव्य से विमुक्त हो गए। रानी महाराज के मोह को तोड़कर उन्हें अपना कर्तव्य याद दिलाने के लिए अपना सिर काटकर उपहार स्वरूप राजा को समर्पित कर देती है जो हमेशा उसके चंद्रमुख का दर्शन करना चाहते थे। रानी के बलिदान को देखकर राजा हतप्रभ हो जाता है और प्रण लेता है कि वह अपना कर्तव्य का पालन करेगा। (मिश्र 2004:168)। इसमें अंतःपाठ का तकनीक भी है। बिहारी का प्रसिद्ध दोहा - ‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल/अली कली ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल’ याद आता है। 

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अहिल्या मिश्र ने जहाँ अपने साहित्य के माध्यम से प्रेम के उदात्त रूप एवं स्त्री प्रश्नों को उकेरा है वहीं उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों के प्रति भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि वे मानवीय मूल्यों के पक्षधर हैं। इस उत्तर आधुनिक समाज में व्याप्त मूल्यह्रास को देखकर चिंतित होकर कहती हैं, “हमारे जीवन में नैतिक मूल्यों का बहुत अधिक महत्व है। सर्वप्रथम तो हमें अपने नैतिक मूल्यों को देखना, समझना एवं जानना होगा। इसे गहनता से समझना होगा।” (मिश्र 2013: 5)। वे यह भी चिंता व्यक्त करती हैं कि आज यह जान पाना भी बहुत कठिन है कि कौन कितना समझ रहा है क्योंकि “आज के अर्थ युग में समझने समझाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। आज लाभ का गणित चलता है। इसे लेकर बढ़ने वाला समझने समझाने से हटकर अपनी स्वार्थी अर्थार्थी इच्छा के वशीकरण मंत्र के वशीभूत गर्हित एवं परादर्दसृजक बनने की क्रिया विधि में संलग्न हो उठता है।” (वही)।       

आज के बाजारीकरण के दौर में पारिवारिक विघटन को भी भलीभाँति देखा जा सकता है। संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार ने ले लिया है। पहले कम-से-कम ‘हम दो हमारे दो’ कहते थे लेकिन अर्थ नीति तथा कॉरपोरेट कल्चर ने लोगों को इतना प्रभावित कर दिया कि परिवार तथा रिश्ते-नाते के स्थान पर ‘अर्थ’ को ही महत्व दिया जा रहा है। आजकल लोग ‘डबल इनकम नो किड्स’ को सूत्र रूप में अपनाकर जीवन यापन कर रहे हैं। “वास्तव में समाज और जीवन को सुव्यवस्थित और स्थिरता देने वाली परिवार नामक संस्था पूर्ण विघटन के किनारे स्थित है। इससे भी बढ़कर इस देश की नैतिकता प्रधान सभ्यता एवं संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ मूल्यों को निगलने हेतु अर्थ पिशाच हर क्षण जीभ लपलपाता सड़ रहा हो, ऐसे में तेज ओज संवेदना का धनी सामाजिक इकाई व्यक्ति बिना उद्वेग के अजगर जैसे पड़ा निरीक्षण परीक्षण में लगा हो तो क्या होगा?”
(मिश्र 2010: पुष्पक 14: 5)। 

भारत लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया का मुख्य उद्देश्य लोक हित होना चाहिए। लेकिन ये चारों स्तंभ भी आज बाजार के चपेट में आ चुके हैं। अहिल्या मिश्र स्वयं पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। इसीलिए वे हर पत्रकार से यह अपील करती हैं कि उनका दृष्टिकोण रचनात्मक हो। पत्रकारों के दायित्वों को समझाते हुए कहती हैं, “हमें पत्रकारिता के क्षेत्र को स्वच्छ एवं स्वार्थ विहीन बनाना होगा ताकि एक स्वस्थ एवं जागरूक समाज के विकास में हम सहयोगी हो सकें। यह हमारा धर्म और कर्तव्य दोनों हैं। आज मीडिया के प्रसार के साथ ही हमारा दायित्व अत्यधिक बढ़ गया है। वैसे तो आरंभ से ही समाज में अन्य विकृतियों के साथ पीली पत्रकारिता भी चलती रही है। किंतु इसे प्रोत्साहन करने वालों की संख्या नगण्य ही रही। कुछ लोग मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हैं और वे वही परोसना चाहते हैं जो उन्हें भाता है। किंतु हम स्वस्थ एवं स्वच्छ सोच वाले एकजुट होकर समाज की बुराइयों को समाप्त कर एक आदर्श समाज निर्माण की भूमिका इस सशक्त माध्यम से निभाएँ यह आवश्यक है। हम सनसनीखेज खबरों के बजाय विकासात्मक कार्यों को प्रोत्साहित करते हुए समाज को जोड़ने एवं आगे बढ़ाने का कार्य करें। शांति व भाईचारे को बढ़ाने की कोशिश ही सच्ची पत्रकारिता होगी। हमें अपनी सीमा रेखा तय करनी होगी।” (मिश्र 2010: पुष्पक 15: 6)। 

अहिल्या मिश्र पत्रकारों के साथ-साथ साहित्यकारों को भी अपना दायित्व निभाने हेतु आह्वान करती है। वे उन साहित्यकारों को अपनी अंदाज में पटकनी देती हैं जो स्वयं अनैतिकता के चंगुल में फँसे हैं और समाज को उपदेश दे रहे हैं क्योंकि वे यही चाहती हैं कि ऐसे साहित्य का सृजन हो जिसके माध्यम से सांस्कृतिक धरोहर अक्षुण्ण रहे। उनकी मान्यता है कि “साहित्य केवल अक्षरबद्ध आलेख मात्र न होकर अखिल समाज के उन्नयन का हथियार बन जाते हैं। समय चक्र पर घूमती काल की धुरी के अनुरूप पाठक उस साहित्य को अपने वर्तमान से जोड़ते हैं।”
(मिश्र 2007: पुष्पक 7: 7)। 

लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए जनता अपनी प्रतिनिधि के रूप में नेता को चुनती है। वोट माँगते समय तो याचक बनकर नेता घर-घर घूमकर याचना करते हैं, बड़े बड़े वादे करते हैं लेकिन चुनाव जीतने के बाद जब वादों को निभाने की बारी आती है तो मुखर जाते हैं। ‘किस्सा-ए-कुर्सी’ शीर्षक कविता में ऐसे नेताओं के टांग खींचते हुए कहती हैं -

"पांच बरस बाद ही वायदे तोड़ने का

हिसाब करना होगा।

कभी दंगों की गंगा बहा कर

कभी धर्म के अस्तूरे से जाति का सफाया कर।

***

उन्नती का सपना दिखाकर

कभी बेरोजगारी हटाने तथा

नई दुनिया बसाने की बात कर

फिर अपना वही पुराना रोने का

राग आलाप कर

***

भाषा के प्रश्न का

नया बहाना बनाकर चल पड़ते हैं

पक्ष-विपक्ष की खींचातानी को

प्रश्न देकर भ्रष्टाचार के छींटे उड़ाकर

कुर्सियाँव का होम करने बैठ जाते हैं।" (मिश्र 1991: 4)    



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भाषा संप्रेषण का साधन नहीं, अपितु वह व्यक्ति का अस्तित्व है। संस्कृति की संवाहिका है। भाषा जहाँ एक व्यक्ति को बना सकती है वहीं वह बिगाड़ भी सकती है। ऐसी भाषा के संबंध में अहिल्या मिश्र की मान्यता है कि “भाषा के सूत्र हमारे व्यक्तित्व के निर्माण से जुड़े होते हैं। व्यक्तित्व की बनावट एवं बुनावट में मूल रेशे एवं तंतु भाषा के ही होते हैं। भाषा के माध्यम से हमारे आवेग-संवेग हमारी स्मृतियाँ हमारा जातीय अभियान के एक रिश्ता समाज से बनता है।” (मिश्र 2011: पुष्पक 18, 5)। भाषा को औजार बनाकर आज देश को बाँटा जा रहा है। लोगों में द्वेष और घृणा फैल रहा है। लोगों की एकता को तोड़कर देश को फिर से गुलाम बनाने का यह षड्यंत्र नहीं है तो और क्या है? अहिल्या मिश्र की रचनाओं में उनकी मातृभाषा मैथिली-हिंदी का भाषा मिश्रण पाया जाता है। ‘मेरी इक्यावन कहानियाँ’ में संकलित कहानियों में मैथिली भाषा प्रयोग के कुछ उदहारण देखें- 

  1. बताऊँगी, बताऊँगी। कनि धीरज राखू। एतेक बेचैनी नीक नै होइत अछि। पहिले अहाँ बताऊँ कि ओझा कि ओझा जी कोना कअ अहाँ के राइत भरिक लेल छोडी देलन्हि। आना कानि नैइ कैलन्हि कि? (टेमी पावैइन, पृ. सं. 57)
  2. प्रमोद आब बड भगेलैथ। अछि। हुनका राति में अगले सुतक व्यवस्था कैयल जाए त नीक हेतैक। आहाँक कि विचार अछि। येहि में कोनो टा परेशानी नई होमक चाहि। (नवकी माय, पृ.सं. 137) 
  3. हे बहिन! कोन सोच मैं अहाँ पड़ल छी। अहाँ नै जनैइ छियई की जीतेंद्र भाई जी दुसधवा तथा चमरवा के देवता सलहेस के पूजा करैई में रूचि रखै छथिन। हुनका ओकरे सभक भाषा बोलअ अबैत छनि। वेहे सब हिनकर दोस महिम छनि। ताहि साँ वो एहि कटहरक गाछ के जमीन पर गहबर बनाक सलहेस बाबा के पूजा करथिन। (झगडौआ कटहर, पृ. सं. 290)  

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अंततः यह कहा जा सकता है कि अहिल्या मिश्र समाज सेवा, साहित्य एवं पत्रकारिता के माध्यम से सभ्यता, संस्कृति एवं नैतिक मूल्यों के संरक्षण की ही बात करती हैं, स्त्री अस्मिता के प्रश्नों से जूझती हैं और मानवाधिकारों की सुरक्षा पर बल देती हैं। 

नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्यों के साथ

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