डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)

 


जिनको मैंने जाना (2019)

युगीन चेतना एवं मृत्युबोध के चितेरे:  राजकमल चौधरी


रामकमल चौधरी अपने युगीन साहित्य में एक उल्का के समान अभ्युदित हुए। वे साहित्याकाश से उड़ते पिंड सा जीवन के अंतरिक्ष की यात्रा करते हुए धुंधकाली बन कर साहित्याकाश को प्रज्जवलित कर उससे नई रोशनी निकाल कर साहित्य समय को सहला बहला गए। अररिया जिला मधुबनी बिहार में इनका जन्म सन 1929 में हुआ। आप मूलतः मैथिल ब्राह्मण परिवार के कुल दीपक थे।

भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त हो चुकी थी। मानसिक गुलामी, गरीबी एवं अभाव का महासागर लहरा रहा था। विश्व दो-दो विश्व युद्ध की भयावह स्थिति से दो-चार होते हुए मूकता का शिकार बना हुआ था। जीवन पद्धति एवं दर्शन शून्यता के हवाले होने लगा था। ऐसे में कई साहित्यकार के समान ही भारतीय साहित्य पटल पर राजकमल चैधरी एवं इनके जैसे कई नई सोच के साहित्यकारों का आविर्भाव हुआ। स्वातंत्रोत्तर युग के छठवें दशक में राजनीतिक दृष्टि से भारत की जितनी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ रहीं, साहित्यिक दृष्टि से उतनी ही महत्वपूर्ण काव्यान्दोलनों की धाराएँ भी प्रवाहित हुई। अकविता न-कविता, अस्वीकृति की कविता, युयुत्सावादी कविता आदि-आदि ऐतिहासिक आंदोलनों ने साठोत्तरी काव्य की पृष्ठभूमि प्रशस्त की। तत्कालीन राजनीतिक विषमता और सामाजिक रूढिग्रस्तता एक ही स्तर पर उक्त आंदोलनों की प्रेरणा एवं कारण बने। असंतोष और अतृप्ति, कुंठा और त्रास, क्षोम और ग्लानि, उत्तेजना एवं विद्रोह आदि ऐसी मानसिक स्थितियाँ थी जो तत्कालीन काव्य के आंदोलनों की ऐतिहासिक संदर्भ बन गई। किन्तु इन आंदोलनों के शिल्पी गुट एवं दलों में बिखर गए। इन्हीं आंदोलनों के आक्रोश और अस्वीकार के समवेत स्वर वास्तव में साठोत्तरी काव्य में उभरे। 

आधुनिक युग में द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका ने मानव की समस्त आस्थाओं एवं स्थापनाओं को समूल हिलाकर रख दिया। युगानुकूल परिस्थितियों से आक्रान्त, समस्याओं से त्रस्त और यथार्थता से चमकृत होकर साहित्यकारों ने पूर्ववर्ती मान्यताओं से सर्वथा पृथक दृष्टिकोण अपनाया। नवीनता के परिप्रेक्ष्य में उनका स्वर उग्र से उग्रतर होता गया। सी.के.गार्द, काफ्का, सात्र, कामू, हिडेजार आदि कई पाश्चात्य साहित्यकारों की विद्रोही शीलता विश्वव्यापी बन गई एवं इसके साथ ही साहित्य की समस्त विधाएँ मानव की अर्थहीनता, विघटन, विसंगति, कुंठा-संत्रास, निर्वासन, असंपृकता आदि मौलिक किन्तु युगव्यापी ज्वलंत प्रश्नों की व्यंजना में लीन हो गई।

किसी भी साहित्यिक विधा के लिए एक दशक की अवधि का अधिक महत्व नहीं होता है। परंतु द्वितीय महायुद्ध के पश्चात जितनी तीव्रगति से संपूर्ण विश्व के समाज एवं साहित्य के स्वरूप बदलें। इसका समुचित अनुशीलन दशकों में ही संभव है। 19वीं सदी का सातवाँ दशक हिन्दी साहित्य का महत्वपूर्ण कालखंड रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात प्रगतिशीलता के पथ पर अनेक साहित्यिक क्रांतियाँ हुई। प्रगतिशील काव्य, भूखी पीढ़ी, अकविता और फिर साठोत्तरी साहित्य। भूखी पीढ़ी के, अकविता के और साठोत्तरी साहित्य एवं साहित्यकार प्रायः समकालीन ही रहे। किन्तु उनमें विधागत मौलिक अंतर है। उनके पार्थक्य हेतु निश्चित सीमांकन किया जा सकता है।

राजकमल हिन्दी एवं मैथिली दोनों भाषा के दैदीप्यमान साठोत्तरी साहित्यकार हुए। वास्तव में वे विक्षुब्ध पीढ़ी के साहित्यिक प्रतिनिधि थे। इनमें यथार्थबोध की तीव्रता और निषेधों का आग्रह था। पाश्चात्य शिक्षा, विदेशी संस्कृति एवं युद्धों के प्रभावों से भारतीय समाज में जो परिणतियाँ हुई वे नवीन समस्याओं को प्रमाणित करती है। भारतीय उच्च वर्ग ने कितने औदार्य के साथ संपूर्ण नवीनता को स्वीकार किया। मध्य एवं निम्न वर्गों के लिए वही क्रांति, विघटन एवं अर्थहीनता का पर्याय बन गया। साठोत्तर साहित्यकारों ने उसी धरातल पर अपनी समस्त चेतना के साथ अपना आक्रोश उद्घाटित किया। व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व, एक जटिल किन्तु जीवन्त सी समस्या है। उसी के जीवन परिवेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रश्न पक्षों को उद्घाटित करना, यथार्थ की भयावह स्थितियों को अनावृत्त करना और अनुभूत जीवन खंडों को अहं की पराकाष्ठा पर व्यक्त करना राजकमल की विशेषता थी। गद्य एवं पद्य दोनों विधा में इन्होंने इसका खुलकर विवरण दिया है।

साहित्य आकाश में राजकमल का उद्भव एक धूमकेतु के समान था। साहित्य की धारा को परिवर्तित करने में साहित्यकार की स्वतंत्र भूमिका होती है। युगानुकूल परिव्याप्त तनाव एवं विघटन पूर्ववर्ती परंपराओं का निषेध एवं प्रतिष्ठित स्थापनाओं के प्रति घोर आक्रोश की प्रक्रिया का राजकमल चैधरी स्वयं प्रवक्ता बने। नई प्रवृत्ति का प्रमुख स्वर होने के कारण वे भूखी पीढ़ी एवं अकविता के निकट होने पर भी स्वतंत्र एवं पृथक कोटि में रहे। राजकमल के अस्वीकार में विद्रोह है तथा इसमें दृढ़ता एवं निर्भीकता है। राजकमल के अस्वीकार में सृजनशीलता की कला दृष्टव्य है। निषेध की प्रक्रिया में टुटने एवं जुड़ने की क्रिया समानांतर चलती है। अस्वीकार के दर्शन में नवमूल्य बोध है, परिवर्तन की गति है और इसमें अर्थवान मूल्यों की तलाश भी। राजकमल के निषेधों और अस्वीकारों को कोरी कल्पना मानकर छोड़ देना एक भूल होगी। इनके प्रयोग-परंपरा की गति कुछ विकृत अवश्य है किन्तु उसके चित्र खंडों और अर्थछवियों में सार्थकता है, संतुलन है और सशक्त संवेदना है। राजकमल जितने तार्किक एवं बौद्धिक रहे हैं उतने ही चेतन एवं संवेदनशील प्राणी भी रहे हैं।

राष्ट्र के विघटन एवं विनाश, समाज की विगलित स्थितियों एवं मानव के अस्तित्व संकट से राजकमल का क्षोभगत आक्रोश उनके अहं के स्पर्श से ज्वालामुखी के सदृश्य प्रस्फुटित हुआ। अभाव एवं असहाय परिस्थितियों से जुझते हुए राजकमल आस्था एवं स्थापना को अस्वीकार करते हुए आगे बढ़े थे। कुंठा, पराजय, निराशा एवं खीझ ने राजकमल को अति उग्र बनाया। ठीक वैसे ही उनकी अपनी बीमारी एवं रोग ने उन्हें मृत्युबोध की भयावह स्थिति दिखाकर यंत्रणा की स्थिति एवं अनुभूति में स्वत्व को पहचाने की छटपटाहट एवं चेतना की मुक्ति हेतु उसे उतना ही शिथिल किया। वे इससे क्षुद्र बने एवं अपनी लघु सीमाओं का बोध उन्हें होने लगा।

राजकमल द्वारा अपने मित्र शंभुनाथ मिश्र को लिखे एक पत्र का अंश उदाहरणार्थ हम देख सकते हैं - मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ। छोटी-छोटी चीजों के लिए मेरे मन में भयानक कमजोरियां हैं। मैंने स्वयं वक्त आने पर किसी दूसरे की कोई सहायता नहीं की। सिर्फ अपना स्वार्थ ही हमेशा देखा है। शायद औरत, पैसा, ऐशोआराम, यश सारी बातों के लिए मैं अपने आप को और अपने आंतरिक समाज को ठगता रहा हूँ। सच कभी नहीं मैंने सिर्फ झूठ की जिंदगी बसर की है।.... इन्हीं के शब्दों में आगे... अपनी सीमाओं को समझना चाहिए। जो आदमी अपनी शारीरिक सीमा और मानसिक सीमा समझ नहीं पाता वही झूठ की जिंदगी बिताता है। इतना अकल्पनीय विराट ब्रह्माण्ड है जिसके भीतर हमारा यह सौर मंडल मेरे टेबुल पर पड़े, इस पेपर वेट से भी छोटा है और तब यह पृथ्वी कितनी छोटी है और उस पृथ्वी पर रहने वाले हम लोग कितने छोटे हैं। यह छोटापन हमारी सीमा है। हमें अपने शरीर में बड़े होने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। आकांक्षा मैंने की थी और यह आकांक्षा ही मेरी झूठी जिंदगी थी।

राजकमल के कथा साहित्य का प्रतिपाद्य है मानव संबंधों की जटिलता और विडंबना का चित्रण। मूल्यगत विघटित स्थितियों की भयावहता और उसके अनुभव खंड...संत्रास, कुंठा एवं अभाव और मनोविश्लेषण एवं फ्रायड के सिद्धांतों की स्वीकृति उसका अभिप्रेत रही। राजकमल चौधरी इन पर स्वच्छंदता से कलम चलाते एवं शब्द उगलते रहे।

औपन्यासिक क्षेत्र में राजकमल मात्र प्रयोगशीलता के आग्रह के कारण विकास नहीं कर पाए। प्रत्येक उपन्यास में नवीन प्रयोग हेतु प्रतिबद्ध प्रतीत होते हैं। नगरबोध का मोह इनके औपन्यासिक पृष्ठभूमि से स्पष्ट है। कलकत्ता, पटना, शिमला, बंबई आदि महानगरों का यथार्थ स्थितियों और विषम मानवीय संबंधों की अर्थहीन अभिव्यक्ति किसी भी दृष्टिकोण से सफल नहीं प्रतीत होते हैं। राजकमल शहरीपन की व्यर्थ स्थितियों एवं विसंगतियों से इतने पराभूत हैं कि औपचारिक मर्यादा का उल्लंघन कर वैयक्तिगत दैनंदिनी लिखने लगते हैं। वे अपने स्व से ही आक्रांत दिखाई देते हैं। यौन संबंधों का अमर्यादित वर्णन, विवरण उनके असंस्कारी और अघोरी प्रवृत्ति का परिचायक है।

राजकमल की काव्य कृतियों में एक मौलिक सा स्वर है। हिन्दी कविता जब भूखी-नंगी पीढ़ी के श्मशान में जा खड़ी हुई थी वहाँ से इसे उठाकर राजकमल ने काम के नन्दन वन में प्रतिस्थापित कर दिया। चमत्कारपूर्ण भाषा, अनगढ़ भावचित्र और अपभाषिक अकृत्रिम यौन शब्दावालियों के कारण उनकी कविता विशिष्ट कोटि की बन पड़ी।

राजकमल के साहित्य के अनुशीलन से इनके विकास का आभास नहीं होता। निरंतर अभाव और संत्रास के कारण समय≤ पर अपनी प्रयोगशीलता में प्रतिबद्ध राजकमल ने साहित्यिक प्रतिष्ठा हेतु अन्यान्य उपायों को अपनाया। अनेक जाने-अनजाने लोगों के साथ जीवन यापन, आत्मप्रचार के लिए प्रबुद्ध साहित्यकारों से पत्रव्यवहार अपने प्रति सबको आकर्षित करने हेतु अनेक ढोंगों की रचना की मिथ्या एवं तीव्र प्रचार ने प्रबुद्ध आलोचकों को चमकृत तो किया पर वे इससे यशस्वी नहीं बन पाए। ये साहित्याकाश में धूमकेतु बन चमकते हुए अल्पाविधि में विलीन भी हो गए।

अपनी दैनंदिनी में स्वयं राजकमल ने लिखा है कि मुक्ति प्रसंग के बाद जैसे मैं बेहद खाली हो गया हूँ। वह लंबी कविता मेरे अस्वस्थ्य व्यक्तित्व का प्रमाण है और एक दस्तावेज है उन लोगों के लिए जो मुझसे सिर्फ इसलिए घृणा करते हैं कि मैं घृणा एवं प्रेम दोनों को अपनी 

असंपूर्णता और असमर्थताओं की प्रतिक्रिया मानता हूँ क्योंकि मैं प्रतिक्रियावादी नहीं हूँ। मैं पत्थर की वह दीवार नहीं हूँ जिसके पास प्रतिनिधियों के सिवाय अपनी कोई आवाज नहीं होती है। शब्द नहीं, सही ध्वनियाँ मुझे प्रिय है, इन्हें मैं जन्म देता हूँ, जबकि मैं उस मूलध्वनि, मूलनाद की तलाश में हूँ। मैं प्रकृति की सहस्त्रधारा ध्वनियों को एक-एक तार एक-एक रेशे में अलग-अलग करके तय करना चाहता हूँ कि बाहर कहीं किसी काली गुफा में ध्यानावस्थित बुद्ध की तरह किस श्रीचक्र पर शब्द की पार्थिव प्रतिमा स्थापित हुई है।

राजकमल ने नवीन प्रतीकों की सृष्टि की। कामसूत्रों को नवीन संदर्भो में विज्ञानोन्मुख बिंबों के साथ अर्थ-वैषम्य जन्य घटनाओं में अकल्पनीय उपमानों, अश्लील व्यंग्यों में, असंस्कृत कथा प्रसंगों में, छंदहीन काव्याभिव्यक्ति में इनकी अस्वीकृति व्यंजित हुई। अतः इनमें भावुकता अपेक्षाकृत यथार्थपरक बौद्धिकता, सुरूचि और संतुलन की अपेक्षा साहस एवं सच्चाई, सुंदर एवं कोमल की अपेक्षाकृत यथार्थ और अनगढ़ की स्वीकृति संतोष और समझौते की अपेक्षाकृत संघर्ष और अस्वीकृति, आस्था और श्रद्धा की अपेक्षाकृत विद्रोह एवं आक्रोश अधिक प्रबल प्रखर एवं मुखर स्वर में वर्णित है। इसके अतिरिक्त अपनी प्रयोगशीलता के आवेश में राजकमल अस्वीकार तथा आक्रोश तक सीमित न रहते हुए ये उच्छृखंल और आक्रामक भी हो गए हैं। ये साठोत्तरी -युग के औघड़ तांत्रिक बन गए, जिसने अति नाटकीय ढंग से पंचमकारों को स्वीकृति दी और वर्तमान अर्थनीति एवं समाज व्यवस्था को आमूल रूप से विनष्ट करने का संकल्प भी लिया।

राजकमल के गद्य साहित्य में सामाजिक यथार्थ के पाश्र्व में दौड़ रही मनोवृतियों के नितांत आदर्शवादी रूप के प्रति उत्पन्न घोर कटुता और तनाव की अभिव्यक्ति है। वर्तमान मनुष्य अपने आदर्शों और आस्थाओं को खोकर जहाँ एक ओर जिस अहं और मूल्य को जी रहा है, वहीं दूसरी ओर उसके अस्तित्व संकट की संभावना है। राजकमल का यह अस्तित्व संकट बोध अत्यंत विषम अर्थनीति, संकीर्ण राजनीति और भयंकर यौन रुग्णता में प्रकट हुआ है। उन्होंने स्वीकृतियों और स्थापनाओं को अस्वीकार किया किन्तु अनास्था एवं अस्वीकृति को स्वीकृति प्रदान की। ये कोई विडंबना नहीं बल्कि राजकमल की विवशता थी। 

कमलेश्वर ने लिखा है, राजकमल ने जिस भयावह, दयनीय, ओजस्वी कलुषपूर्ण और तमस से भरी देह की धधकती भट्ठियों की तेजस्वी दुनिया का निर्माण किया है, वह दुनिया, राजकमल के अनुभवों की अग्निदीक्षा का कारखाना है... राजकमल के अनुभवों, एकान्त धधकती भट्टियों के बिना साहित्य का एक आयाम सूना और अधूरा रह जाएगा...जुगुप्सा, उठकर सामने आता एक चेहरा सामने नहीं आ पाएगा।

अपनी सच्चाइयों और कमजोरियों से जो साहित्य घबराता है वह कभी प्रौढ़ नहीं हो सकता। राजकमल का साहित्य उस दौर की देन है जिसने अपने समय के इंसान को कीड़ों-मकोड़ों में बदल दिया था। उस व्यवस्था तंत्र को मनुष्य के निविड़ की तहों में पहुँचा दिया था। यदि हम अपने विकास के इतिहास के उस दौर को नहीं निकाल सकते तो राजकमल को भी नहीं हटा सकते। राजकमल खुद नंगा नहीं हुआ था, उस दूषित दौर ने उसे नंगा किया था और उसमें इतना साहस था कि वह कह सके कि ‘हाँ मैं नंगा हूँ।‘

दरअसल राजकमल चैधरी ने वे सारी बातें ईमानदारी से कहीं जिन्हें बोलते हुए लोग शरमाते हैं। यद्यपि राजकमल के कथा साहित्य पर कुंठा, निराशा और निषेधवाद हावी है। उन पर एलेन गिंसबर्ग का प्रभाव है जो काफी दिनों तक भारत के बनारस शहर में प्रवास करते रहे। पर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वस्तुनिष्ठ दृष्टि से आकलन करने पर हम पाते हैं कि वे पूंजीवादी लोकतंत्र का व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्यंग्यात्मक लहजे में पर्दाफाश करते हैं। फलस्वरूप कथा-रचना का पारंपरिक ढाचा खंडित हुआ है, जो यथास्थितिवादियों के लिए निश्चय ही सुखद नहीं है। राजकमल ने व्यवस्था के चेहरे का अनावरण कर व्यवस्था के अमूर्त आतंक को विवेचित-विश्लेषित करने का दुस्साहस किया। राजकमल ने लिखा है- मैं साहित्य को अपने जीवन से अलग नहीं मानता। मैं अपने साहित्य में ही नहीं अपने परिवार के राशन कार्ड में, वोट देने के अधिकार में, वियतनाम के युद्ध में और अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक डिक्टेटर की स्थिति और चिंताओं में अभिव्यक्त होता हूँ, क्योंकि मैं अपने समाज और जीवन से टूटा नहीं हूँ। टूट जाना जंगल में या शमशान में गए बगैर संभव नहीं है। मेरा लेखन मेरे समाज का प्रतिबिंब है।

सच्चाई यह है कि राजकमल के जीवन और भाषा पर अमेरिकी बीट पीढ़ी के चर्चित लेखक कवि एवेन गिंसबर्ग का प्रभाव देखा जा सकता है। इसी समय हिंदुस्तान में युवावर्ग का आजादी से मोहभंग का आक्रोश अभिव्यक्ति पाने लगा था। अमेरिका में बीट पीढ़ी, इंग्लैंड में एंग्री यंग मैन पीढ़ी, फ्रांस में आउट साइडर, जापान में हिबा-कुंशा पीढ़ी आदि का जन्म हुआ। यह छठे दशक का समय था। राजकमल अपने निजी जीवन और लेखन दोनों में ईमानदार और विद्रोही रहे हैं। कई आलोचक अमेरिकी बीट पीढ़ी और उससे प्रभावित भारतीय रचनाकारों को दिशाहीन और विकृत मानते हैं। राजकमल आत्मप्रवंचनाओं के समय के सच को सही कोण अपने पात्रों के माध्यम से देते।

राजकमल ने साहित्य और समाज दोनों क्षेत्रों में वर्गीय अंतर्विरोधों पर डाले गए पर्दे को हटाने का जोखिम उठाया। इन्होंने कथा परिदृश्य, परिवेश, प्रसंग और पात्र सब को नए सिरे से पुनर्मुजित किया। सन् 1961 में पहला उपन्यास ‘नदी बहती थी दूसरा उपन्यास ‘ताश के पत्तों का शहर 1986 में प्रकाशित हुआ, यह बाजार केंद्रीत मुनाफा धर्मी पूंजीवादी जबड़े में फंसे लाचार आदमी की मनोव्यथा का उद्घाटन एवं शोषित नारी के अंतःसंघर्ष एवं मानसिक पीड़ा का मार्मिक चित्रण से अटा पड़ा है। ‘शहर का शहर नहीं था‘ का लेखन काल 1963 है। यह उपन्यास धर्म के बाजारीकरण पूंजी की स्वच्छंद सत्ता की अमानवीय महत्वाकांक्षा और अंतहीन भोग-लिप्सा के जटिल यथार्थ कथा से निर्मित है। ‘अग्निस्नान‘ उपन्यास में आपने कोलकत्ता महानगर के स्त्रियों को बाजार तंत्र के तथ्यों की कठपुतली बनने की आत्मविभाजित प्रक्रिया के जटिल सामाजिक यथार्थों का आलेखन किया है। इसकी पूरी प्रक्रिया को दर्शाया है। अपने अगले उपन्यास ‘एक अनार: एक बीमार‘ में भी कथा नायक ईश्वर और उसकी पत्नी सीला के बहाने स्लम जीवन की भूख, गरीबी, बीमारी, गंदगी, नशाखोरी की नाटकीय दुनियां को उद्घाटित किया है। अगला उपन्यास ‘देहगाथा‘ पति-पत्नी और वह के टकराव के विषयवस्तु पर आधारित है। पुनः एक और उपन्यास ‘मछली मरी हुई‘ 1966 में आई। इसमें दो कथाएँ समान्तर चलती है। एक कथा भारत में विकसित पूंजीवादी अर्थतंत्र की मानवता विरोधी षडयंत्र की है तो दूसरी लेस्वियन संबंधों की है। इसमें एक जगह राजकमल ने लिखा है- प्यार मरता है। वासनाएँ भी मर जाती हैं । करूणा नहीं । एक केवल करुणा नहीं मरती है।

राजकमल चौधरी के उपन्यासों की यह विशेषता है कि उनकी कथाकृतियों में पाठक की उत्सुकता बनी रहती है कि कथा का मर्म क्या है? इन्हीं विषयों पर आधृत उपन्यास में एक अनुभव परोसा है तो दूसरे में दूसरा अनुभव। वे जहाँ-जहाँ जीवन का वस्तुनिष्ठ कथा विधान करते हैं वहाँ-वहाँ रचना मूल्यवान बन जाती है। छोटे-छोटे प्रसंगों एवं घटनाओं के द्वारा आपने एक बड़ा कैनवास तैयार किया है। जिसके पात्र के द्वारा वे अपने परिवेश का बोध भी कराते हैं और पात्रों के चरित्र का उद्घाटन भी करते चलते हैं। किन्तु पात्रों की परिस्थितियों के निर्माण हेतु अपनी ओर से आपका कार्य-कारणपरक विश्लेषण बौद्धिक आतंक उपस्थित करता है।

अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि राजकमल के उपन्यासों में लेखक की मूल चिंता आम आदमी के जीवन की उन परिस्थितियों को उद्घाटित करना है जो समाज तंत्र द्वारा निर्मित है।

इस प्रकार राजकमल ने अपनी सीमाओं को अपने अनुभूत समय खंडों को अपने अभाव त्रासद कुंठा को अपनी विशालता और संकीर्णता को समग्र कृतित्व में अभिव्यक्त किया है।

समाज के अस्तित्व खंडों को और अपने मृत्युबोध को जिन धन कोणात्मक चित्रखंडों में अभिव्यंजित किया वहीं राजकमल की विशिष्ट उपलब्धि सिद्ध हुई।

उनके जैसे औघड़ तांत्रिक का चिंतन दर्शनीय है। वे शहर में जंगल, जंगल में स्त्री, स्त्री में मृत्यु और मृत्यु में मुक्ति ढूंढ़ते हैं। मुक्ति प्रसंग में यही व्यंजना है। उनकी स्त्री है आद्याशक्ति उग्रतारा।

कविता से पहले और मृत्यु से पहले 

तुम मेरी पृथ्वी हो और मैं तुम्हारा इष्ट देवता हूँ 

और कवि हूँ, तुम मुझे 

जन्म देती हो और मेरे साथ रमण करती हो 

तुम मुझे मुक्त करती हो 

और मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, अपने चरण में 

अपनी कविता में ...

काव्य के क्षेत्र में राजकमल निरंतर नितांत प्रखर एवं उग्र रहे। वे भीड़ या सिद्धांत से मुक्त कवि हुए हैं। वे किसी भी वाद या नारों से आबद्ध नहीं हुए। उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है एवं अनुभूतियाँ हैं, चिंतन हैं, दर्शन हैं, अपनी अभिव्यक्ति है, अपना शिल्प है। राजकमल अपने काव्य में अभिव्यक्ति की अपेक्षा अपनी विचारधारा की संप्रेषणीयता पर विश्वास रखते थे।

राजकमल का कवि व्यक्तित्व अंतर्राष्ट्रीय होने के बावजूद अपने राष्ट्र के अस्तित्व को स्वीकारता है। उनकी चेतना सामाजिक एवं मानव के अनाचार, अत्याचार, अव्यवस्था और असंतुलन के प्रति विद्रोह करती है तथा उनकी भावना से ओतप्रोत रहती है। ये केवल कपोल कल्पना या शब्दजाल का कवि नहीं है। वे प्रयोगशीलता के नाम पर कृतसंकल्प है। इनकी कविताओं में यौन विचार एवं यौन विकृतियाँ मात्र कामासक्त रोग जर्जर कवि की व्यंजना नहीं है बल्कि उपेक्षा और दमन, असंतोष और अपमान, कुंठा और त्रास, ग्लानि और क्षोभ की प्रतिक्रिया है, ज्वालामुखी सदृश आत्मविस्फोट है, आन्तरिक भूकंप है और चेतनागत प्रलय है। राजकमल का कवि व्यक्तित्व मैं और राजकमल का यथार्थ दोनों पर्याय हैं। राजकमल का अहं वैयक्तिक नहीं है, वे सामाजिक एवं समष्टिगत है। राजकमल का संघर्ष और विद्रोह, समादृत स्थापित आस्थाओं के प्रति उग्र हो उठा था। किन्तु वे खंडित मूल्यों को भी आश्रय देते हैं, अपमानित आत्माओं को स्वीकारते हैं और नए मूल्य प्रतिमानों को मानते हैं। राजकमल ने विज्ञान व मानवीय दुर्बलताओं के समन्वय में आस्था प्रकट की। राजकमल की कविता यद्यपि अंतर्मुखी न होकर बहिर्मुखी हो गई तथापि वैयक्तिक होकर भी सामाजिक बन गई। राजकमल ने अपने व्यक्तित्व और अपने लेखक को स्वयं एक लंबे लेख में स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है मैं व्यक्ति राजकमल चैधरी और मैं लेखक राजकमल चौधरी इन दोनों में कोई अलगाव या विच्छेद नहीं है। मेरा लेखक और मेरा व्यक्ति दोनों एक ही स्तर पर एक शरीर से एक ही कारणों से एक जीवन जीते हैं। दोहरी जिंदगी की सुविधा से मुझे प्रेम नहीं है। वैसे मनुष्य होना मेरी नियति थी और लेखक मैं स्वेच्छा से अर्जित प्रतिभा और अर्जित संस्कारों से हुआ हूँ। फिर भी मेरी नियति और मेरी इच्छाओं में कोई द्वैत और कोई दुविधा नहीं है। जो मैं हूँ वही एकदम मेरा लेखक है। जिस प्रकार जीवित रहना मेरी प्रतिश्रुति या मेरा कवित्व नहीं उसी तरह लिखते रहना भी मेरी व्यक्तिगत या सामाजिक या राष्ट्रीय विवशता नहीं है। आत्महत्या में मैं मुक्ति की प्रार्थना करता हूँ। इसे अपराध या किसी तरह का पलायन नहीं मानता।‘‘

दूसरा उदाहरण ‘‘इस तरह गुजर जाना ही मेरा शिकवा है और मेरी नियति है। एक लेखक के रूप में और एक साधारण नगरवासी के रूप में।‘‘

राजकमल ने अपने व्यक्तित्व अपने लेखन अपनी सामाजिक व्यवस्था, अपनी पारिवारिक स्थिति अपनी नियति अपने चिंतन दर्शन अपनी मृत्यु और मुक्ति आदि पर प्रकाश डाला है। इसी आलोक में इनका कृतित्व स्पष्ट हो जाता है।

मृत्युबोध का यह तांत्रिक मृत्यु में मुक्ति और साठोत्तरी का यह उग्र साधक शब्दशक्ति की तलाश में अपनी इच्छा के अनुरूप अपनी संपूर्ण सफलता की उपलब्धि के पूर्व ही समाधिस्थ होने की तैयारी कर लेते हैं। अस्वीकृति के नवोन्मेष का घोर तांत्रिक, उग्रतारा का उग्रभक्त, साहित्यकारों का घृणित मित्र मैथिल कवि राजकमल शब्द तंत्र की खोज में विलीन हो गया।

राजकमल चौधरी के संबंध में पहले तो मैं मिथिला के मनीषियों एवं विद्वतजनों की घृणा एवं अवहेलना को देखती रही। इससे मेरे मन में इनको पढ़ने-जानने की इच्छा पनपी। इनके उपन्यास पढ़े जिसमें मेरी कोई रूचि नहीं जगी। कविताएँ भी पढ़कर देखी। उस समय अध्ययन-मनन हेतु मैं इतनी परिपक्व नहीं थी। अतः इन पर लिखी कई आलोचनाएँ पढ़ गई। जितनी तीखी आलोचनाएँ पढ़ती, इनके साहित्य को देखने जानने की उत्कंठा बढ़ती रही। इसी क्रम में राजकमल के साहित्य की मैं अध्येता बनी और इस लेख को अपने विचारानुसार प्रस्तुत कर पायी। वास्तव में इस उग्र शब्द साधक औघड़ राजकमल को मिथिलावासी द्वारा मिली अवहेलना के साथ एवं लेखन के आलोक में जानने-समझने का यत्न मात्र है। वैसे बचपन से युवा होने तक मिथिलावासी की साहित्यिक चर्चा में कवि राजकमल चैधरी के संबंध में शब्दों के गुम्फन गूंजते रहे। इसी आधार पर इस लेख को लिखने का मन बना। इस शोध लेख के माध्यम से उन्हें जानने-समझने की चेष्टा मात्र की गई है।


संप्रेषण और विषय वैविध्य के कवि: अरूण कमल

अरुण कमल जी का काव्य अपनी अलग अस्मिता एवं पहचान हेतु जाना जाता है। वैसे तो कविता मनुष्य की अनुभूति को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करने का माध्यम है। मनुष्य जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों के प्रस्फुटन का मार्ग कविता है। कविता का लक्ष्य मात्र मनोरंजन एवं उपभोग ही नहीं वरन विद्रोह और बदलाव के पक्ष में भी वह खड़ी हो जाती है। समय में कविता का परमधर्म मनुष्यता का संरक्षण एवं संबर्द्धन कर इसे आगे बढाने का ही बना रहा है। सन् 1960 के बाद हिन्दी में लिखी में लिखी जाने वाली कविता को हम समकालीन कविता के नाम से जानते हैं। जिसमें वर्तमान कालीन भारत वर्ष का यथार्थ एवं दर्दनाक चित्रण विवृत हो जाता है। अपनी पूर्ववर्ती कविता की तुलना में समकालीन कविता मनुष्य की अनुभूति एवं जिंदगी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कविता है। पहले के जीवन से से आज का जीवन कहीं अधिक कठिन, दुष्कर एवं संकीर्ण हो गया है। मानव का जीवन जितनी तेजी से संकीर्णता की ओर बढ़ने लगा है उतनी ही उसके जीवन को व्याख्यायित करने वाली कविता भी भाव एवं अभिव्यक्ति के स्तरों पर संकीर्णता का पोषक बनने लगी है। इनमें दिनानुदिन बढ़ाव होने लगा है। अतः कविता भी उसी ओर बढ़ती जाएगी।

निश्चित ही आज हिन्दी की समकालीन काव्यधारा आम आदमी के जीवन की संकीर्णताओं तथा विषमताओं से युक्त संवेदनाओं को अपनाती हुई अग्रसर हो रही है। अतः हिन्दी की समकालीन कविता का कैनवास अपने परिवेश में लड़ते-जूझते, मरते-तड़पते, गरजते, बिखरते चेहरे एवं भाव विहीन आदमी को ही चित्रित करता है। अपनी रचनात्मक ऊर्जा, मानवीय संवेदना, युगबोध, विषय विस्तार आदि के फलस्वरूप समकालीन हिन्दी कविता अपनी पूर्ववर्ती काव्यधाराओं से अलग थलग दिखाई पड़ती है। व्यक्ति मन के आन्तरिक संघर्षों के साथ ही साथ सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण भी समकालीन कविता में खूब खुलकर हुआ है। वर्तमानकालीन समाज में जितनी विसंगतियाँ, विकृतियाँ एवं जटिलताएँ उभर कर आयी हैं जिसके कारण आज का जीवन स्वयं में नकली एवं असहाय बन गया है। समकालीन कविता में इसी आज के जीवन की विषमताओं एवं विसंगतियों के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर उठाया गया है। समकालीन हिन्दी कविता को नई दिशा एवं नूतन दृष्टि प्रदान करने वाले कवियों में अरुण कमल का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। आप समकालीन कविता के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।

अरुण कमल का जन्म 15 फरवरी 1954 ई. में बिहार प्रदेश के रोहतास जिले स्थित नासरीगंज गाँव में हुआ। अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण करने के पश्चात वे पटना विश्वविद्यालय में अंगे्रजी भाषा के प्रोफेसर रहे। पारिवारिक सामाजिक जीवन के साथ समकालीन साहित्य में बिहार के पुरोधाओं में इनका नाम मुखर रहा है। अपने गद्य-पद्य दोनों में लेखन किया है। आप अपनी समकालीन कविता लेखन हेतु अधिक चर्चित एवं प्रख्यात हुए हैं। आपके 4 कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, आपकी केवलधार, सबूत, नए इलाके में और पुतली में संसार। गद्य के क्षेत्र में भी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं- कविता और समय एवं गोल मेज चर्चित गद्य रचनाएँ हैं। कथोपकथन आपके साक्षात्कारों का संकलन है। कविता के लिए आपको भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार 1980, सोवियत भूति नेहरू पुरस्कार 1989, श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार 1990, रघुवीर सहाय पुरस्कार 1996, शमशेर सम्मान 1997 तथा नए इलाके में कविता संग्रह हेतु सन् 1998 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है। ब्राजील (कांगों) में आयोजित आफ्रो एशियाई युवा लेखक सम्मेलन में आप भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इन्होंने रूस, चीन तथा इंगलैंड की साहित्यिक यात्राएँ भी की हैं। उर्दू तथा पंजाबी के अतिरिक्त अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कविताओं की अनुवाद भी किया है।

इस समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर से पहली बार मुझे हैदराबाद विश्वविद्यालय के द्वारा आयोजित सेमीनार में मिलने का संयोग बना। यह नमस्कार एवं औपचारिक परिचय मात्र रहा। यह मुलाकात लघुकालिक हुई। वैसे पूर्व से ही कुछ तो पढ़कर इनके बारे में जानती थी। कुछ इन्हें सुनकर इनकी विद्वता का परिचय मिला। समकालीन कविता पर हैदराबाद में आयोजित एक और सेमिनार में इनसे पुनः मुलाकात हुई। चेहरे पर परिचय रेखा उभरे, नमस्कार के अलावा अधिक बातचीत नहीं कर पायी क्योंकि ये शोधार्थियों से घिरे खड़े थे। उधर आयोजित कार्यक्रम भी आरंभ होने वाला था। मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय से विद्यापति की काव्य भाषा पर एम.फिल की डिग्री प्राप्त कर चुकी थी। अतः समय समय पर आयोजित संगोष्ठियों एवं सेमिनारों की सूचना की प्राप्ति होने से वहाँ पहुँचना अपना धर्म मानती रही हूँ। इस सिलसिले में डॉ. नगेन्द्र, डॉ. निर्मला जैन, अरूण कमल आदि के साथ अन्य कई विद्वानों, मनीषियों से मिलना होता रहा है।

सन 2008 में संस्कृत निदेशालय, पटना, बिहार द्वारा आयोजित द्वि-दिवसीय संगोष्ठी के अवसर पर विशेष अतिथि के रूप में पटना पहुँचने पर कई उद्म विद्वानों के साथ डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र एवं अरूण कमल जी से मुलाकात का सुयोग बन पड़ा। इस अवसर पर मुलाकात एवं बातचीत का अच्छा सुअवसर मिला। इसमें समकालीन कविता पूर्ववर्ती कविता आदि विषयों पर उनके विचार सने। पुनः सन 2013 में नूतन भाषा भारती एवं हिन्दी साहित्य सम्मेलन पटना के संयुक्त तत्वाधान में दक्षिण भारत में हिन्दी की स्थिति पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में व्याख्यान हेतु वहाँ के छोटे से प्रवास में इनसे मिलने और विस्तृत बातचीत का अवसर मिला। इस समय मुझे अरुण जी से साहित्यिक विधा के विभिन्न रूपों से विचार-विमर्श करने का अमूल्य क्षण प्राप्त हुआ।

समकालीन कविता के अराधक अरूण कमल स्वतंत्र भारत के ऐसे साहित्य चेता हैं जिन्होंने भारत के नाराज एवं आक्रोशित युवा वर्ग या नवयुवकों की कविता लिखी है या लिखते रहे हैं जिसमें व्यवस्था के विरुद्ध तीव्र विरोध के साथ-साथ सामाजिक विषमता पर भी तीखा प्रहार किया है। ठेठ स्थानीयता का बोध उनके काव्य का विषय ही नहीं काव्य भाषा की सबसे बड़ी खूबी है। यह ठेठ स्थानीयता न केवल उनकी काव्य-भाषा को समृद्ध बनाती है बल्कि जिंदगी की हकीकत को काव्यात्मक संवेदना में ढालने में समर्थ भी होती है। मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय जीवन की बारीक पकड़ अरुण कमल जी की कविताओं की उल्लेखनीय विशेषता है। जीवन में अभावग्रस्तता, बेबसी, लाचारी एवं शोषण प्रक्रिया से कवि पूर्णतया परिचित है। कवि की छटपटाहट और आकुलता युग की कड़वाहट का प्रमाण है। अपनी कविताओं के द्वारा कवि ने हमारी नपुंसकता और संवेदनहीनता पर कई-कई प्रश्न चिन्ह लगाया है एवं अनसुलझे प्रश्नों का अंबार लगाकर इसके उत्तर ढूंढने की दिशा में हमें अग्रसर करते हैं। आइए अरुण कमल की कुछ रचनाओं से हम परिचित होते हैं -

अपना क्या है इस जीवन में सब तो लिया उधार 

सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार। 

(धार अपनी केवल धार, पृ. 88)

सन 1997 के पश्चात समकालीन कवियों में अरूण कमल जनपक्ष धारा के कवि हैं। दो जून की रोटी के लिए अहर्निश संघर्षरतों की अभिव्यक्ति हेतु उनके जीवन की अनुभूतियों के कवि हैं। अंधेरे युक्त आज के समय के समाज के आवरण चीर कर कवि अपनी व्यापक एवं विस्तृत पुतली में भर लेता है। कवि अपने चारों ओर, सभी कुछ देखने का पक्षधर है।

चारों ओर अंधेरा छाया 

मैं भी उठूँ जला लूँ बत्ती 

जितनी भी है दीप्ति भुवन में 

सब मेरी पुतली में कसती। 

(जितनी भी है दीप्ति नए इलाके में पृ. 93)

अरूण कमल ने अपनी कविताओं में जीवन के सभी क्षेत्रों के अनुभवों को अभिव्यक्ति दी है। समाज की चिंता कवि को बेचैन कर देती है। क्या स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात समाज की विषमताएँ समाप्त हो गई हैं? क्या लोकतांत्रिक सत्ता के नाम पर राजनैतिक भ्रष्टाचार नहीं हो रहा है? इन प्रश्नों को अरुण कमल ने अपनी कविता में वाणी प्रदान किया है। उनकी अपनी केवल धार में (1980) से मैं वो शंख, महाशंख (2012) तक 5 काव्य-संग्रह की काव्य यात्रा में इन प्रश्नों को देखा जा सकता है। इन्होंने सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों को अपनी कविता के माध्यम से सवालों के कटघरे में खड़ा किया है। विकास के नाम पर सरकार लोगों को गुमराह कर रही है। जन साधारण की आवश्यक जरूरतों की ओर उनका ध्यान बिल्कूल नहीं है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय‘ कविता में सरकार आदिवासियों के भौतिक अंधकार को दूर करने के लिए बिजली तो लगवाती है किन्तु पहले उनके मानसिक अंधकार को दूर करने हेतु शिक्षा का प्रबंध नहीं करती है, जो कि अधिक आवश्यक है। जिससे वे भौतिक सुविधाओं का सही उपयोग कर सकेंगे। उन्हें रोशनी नहीं चाहिए

एक अंधेरा जो सब अंधेरे से 

बड़ा और घना है 

जहाँ रात ही रात है, हजारों साल से 

... छोटे दिमाग का अंधेरा,

(तमसो मा ज्योतिर्गमय, अपनी केवल धार, पृ. 25) 

कवि इस संकुचित सोच अर्थात अज्ञान के अंधेरे को दूर कर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने की बात करता है। सरकार के इस दोगलेपन की पोल घोषणा नामक कविता में खोलता है। इसमें रात्रि और सरकार के संबंधों को उजागर किया गया है। मंत्री मंडल की बैठक, जरूरी फैसला फौज की तैनाती के हुक्म से लेकर विदेश यात्रा तक की उड़ान सरकार रात में ही करती है। अतः राष्ट्र प्रमुख के जीवन में नींद नहीं है। कविता के अंत में कवि व्यंग्य कसता है- सौगंध- मैं भारत का एक नागरिक एतद् द्वारा घोषणा करता हूँ। नींद। मुझे राष्ट्र के सर्वोच्च पद से ज्यादा प्यारी है। (घोषणा नए इलाके में, पृ. 67)

इस घोषणा से व्यवस्था की सर्वोच्चता की व्यर्थता स्पष्ट हो जाती है। इसी प्रकार दमनकारी व्यवस्था की बिडंबना का चित्रण डायरी मार्च 1978 की ‘रावण के माथे‘ कविता में किया गया है। अलग-अलग सिरों वाली सभी पार्टियों का धड़ एक ही है, बाहर से अलग दिखाई देने वाले अंदर से एक हैं लेकिन अंदर-अंदर रावण के। ये दस-दस माथे। रहे सोचते एक ही बात। एक ढंग से एक ही बात। रावण की ये दस-दस माथे (डायरी मार्च 78, रावण के माथे, अपनी केवल धार, पृ. 44)

राजनीति से जुड़े लोगों पर व्यंग्य एवं बिछावन में शासक वर्ग की तानाशाही को चित्रित किया है- तुमसे कहीं ज्यादा कीमती, कहीं ज्यादा गुदगुद है। अपने मंत्री जी का बेड। अब हम गुलाम नहीं। (बिछावन, सबूत पृ. 33) देश के स्वतंत्र होने के बाद भी आज के शासक वर्ग में आर्थिक सम्पन्नता एवं तानाशाही पहले से अधिक दिखाई देता है। सत्ता में बैठे भ्रष्ट मंत्रियों के कारण दिवालिया हो रहे बैंक, बढ़ती बेरोजगारी, बाढ़ आदि समस्याओं से आधे पेट संघर्ष कर रही है तो दूसरी ओर देश के वित्तमंत्री की नाश्ते की मेज भोजन से भरी है- पूरी मेज भोजन से भरी है। इतनी भरी कि मेरी भूख ही मर गई। अभी-अभी दिवालिया हुए थे बैंक। करोड़ों-करोड़ों बेरोजगार मधेपुरा में बाद दिल्ली में दशहर। सड़कें भूक्खड़ों से पार्टी चारों ओर... (वित्त मंत्री के साथ नाश्ते की मेज पर /मैं वो शंक महाशंख पृ. 54) जहाँ सामान्य जन की जीवन खतरे में पड़ा हुआ है। ऐसे समाज में दोषी लोगों के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलता है जबकि निर्दोष लोगों पर शक की सोच बनाती है और इन दोगले शासन-तंत्र में उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है। उनके खिलाफ कुछ भी सबूत नहीं। जो निर्दोष हैं वे दंग है हैरत से चुप हैं। शक है उन पर जो निर्दोष है क्योंकि वे चुप हैं। (सबूत, सबूत पृ. 65)

कवि निर्दोष लोगों की चुप्पी से चिंतित होकर पूछता है कि तुम चुप क्यों हो? कवि जानता है कि इस चुप्पी के कारण ही बिडंबनाओं को समाज में प्रश्रय मिला है। कवि लोगों में प्रतिरोध की क्षमता पैदा होते देखना चाहता है, जहाँ कहीं दुख में है आदमी/जहाँ कहीं मुक्ति के लिए लड़ता है आदमी। वहाँ कुछ भी नहीं है निजी। कुछ भी नहीं है गुप्त। फिर भी तुम चुप क्यों हो? (तुम चुप क्यों हो, सबूत पृ. 60) सारे संसार के महाभारत के प्रसंग को कवि ने 

आधुनिक संदर्भ दिया है। आज अर्जुन की तरह शासन व्यवस्था में एक मात्र लक्ष्य मछली की सिर्फ पुतली अर्थात अपना हित चिंतन ही दिखता है। किन्तु कवि की संवेदना इतनी विस्तृत है कि उन्हें समग्र संसार दिखाई देता है। जिसमें व्याप्त दुख देखकर वे हतप्रभ हो जाते हैं। इतने घट्टों, इतने ठेलों भरी देह में यह कैसा कंपन। मैं सारे तंत्र भूल रहा हूँ।... मुझे तो देखना था बस आँख का गोला। और मैं इतना अधिक सब कुछ क्यों देख रहा हूँ देव। (पुतली में संसार, पृ. 13-14) उनकी कविताओं में खुशबू रचने वाले हाथ है, कष्ट झेलती कुबड़ी बुढ़िया है, जनगणना से वंचित और भूख से 

असंवैधानिक मौत के मुँह में उतरता मनुष्य भी है। स्वयं गंदगी में रहकर दूसरों को सुगंधित करने वाले इन निम्नवर्गीय लोगों की जीवन और स्थिति का मार्मिक चित्रण खुशबू रचते हाथ में किया है। दुनिया की सारी गंदगी के बीच। दुनियां की सारी खुशबू /रचते कहते हैं हाथ। (अपनी केवल धार, पृ. 8)

इनकी कविताओं में हाशिए पर बैठे उस आखिरी इंसान की चिंता है जिसकी गिनती किसी जनगणना तक में भी नहीं है। किसी योजना, किसी सोच, किसी आँकड़े में जिस कमजोर आदमी की कोई फिक्र नहीं होती, इनकी कविता में उन सभी की चिंता की गई है। मैं वो हूँ जिसकी गिनती होने से रह गई। पूरी आबादी में जो एक कम होगा वो मैं हूँ। जिसके वास्ते किसी अदहन में डाला नहीं जाएगा चावल। जिसके नाम की नहीं पकेगी रोटी वो मैं हूँ (जनगणना वो शंख महाशंख, पृ. 11) सत्ता और मीडिया की सामाजिक भूमिका को उजागर करने वाली खबर कविता में कवि ने आ.प्र. के किश्ता गौड़ और भूमैया नामक दो नक्सलवादियों को आपातकाल में हुई फाँसी को ख़बर नहीं बनाए जाने को लेकर चिंता जताई है। कविता की शुरूआत अखबारों में छपी महत्वहीन खबरों से होती है जो कि कड़वी सच्चाई है, मगर एक खबर जो कहीं नहीं थी। किश्ता गौड़ को फांसी हो गई। एक खबर जो कहीं नहीं थी। भूमैया को फाँसी हो गई। (खबर, अपनी केवल धार पृ. 15) अरुण कमल ने ऐसे ही मजदूरों की स्थिति की चिंता खुशबू रचते हाथ, एक यात्रा, महात्मा गांधी सेतु और मजदूर, डेली पेसेंजर, महाशक्ति और खुली मुट्ठी आदि कविताओं में व्यक्त की है। इनकी अनेक कविताओं में बिखरे हुए मानवीय मूल्यों, भय, आशंका आदि का चित्रण मिलता है। आज सामने बैठे यात्री से लौंग लेने से हाथ हिचकिचाता है। (वृत्तांत) जो जवान बेटे को फूंक कर आया है उसके पास कोई बैठने को तैयार नहीं (स्थिति) खतरा उससे है जो बिल्कुल ख़तरनाक नहीं है (खतरा) आज कोई भलाई भी करे तो सोचना पड़ता है कि क्यों कर रहा है, कोई स्वार्थ तो नहीं उसका (उल्टा जमाना) श्राद्ध का अन्न खा कर लौट रहे गाँव के मनुष्य संवेदनशून्यता और हृदयहीनता को दर्शानेवाली एक सशक्त कविता है- लोककथा। अपनी कविताओं में कवि ने हमारे समय की हृदयहीनता के साथ चरित्र को भी प्रस्तुत किया है।

अरुण कमल के यहाँ पुरुष-वर्चस्व की समाज व्यवस्था में अन्याय और अत्याचार को सहती स्त्री की व्यथा को कारूणिक कथा को अभिव्यक्ति मिली है- एक बार भी बोलती नहीं चुपचाप पुरुष अत्याचार को सहती रहती स्त्री, दरजिन स्त्री का नए फैशनपरस्तों के बीच फीका पड़ता हुनर ‘कल्याणी‘ नामक युवती की दबती-मरती आकांक्षाएँ डेली पैसेंजर की थकी स्त्री मजदूर, लौ की खाली पाँव और दवा की खाली शीशी की ढिबरी वाली गरीब स्त्री, धरती और भार की, जामुन की डाल सी कमजोर प्रसवासन्न भौजी, दाना की गेहूँ का दाना रूपी स्त्री रो-धोकर वापस चूल्हे के पास लौटती स्त्री, स्वप्न मार खाती, मृत्यु से जीवन के लिए भागती स्त्री और बेचारी कुबड़ी, अपने अंतिम समय तक कष्ट उठाने वाली स्त्री आदि के रूपों का चित्रण कवि ने किया है। समाज में स्त्रियों को हीन भाव से देखा जाता है। स्त्री अर्थात् समस्या है। गरीब घर में जन्म लेने वाली बच्ची से कोई खुश नहीं रहता है। इसका प्रमुख कारण है समाज में प्रचलित दहेज का क्रूर व्यापार। साथ ही स्त्रियों पर सदियों से होता आ रहा अत्याचार भी है। एक नवजात बच्ची को प्यार कविता में कवि स्त्रियों के जीवन की बदलाव की आशा करते हैं।

कवि की काव्यदृष्टि झरनों, पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों को समावेशित करती है। इस प्रकृति को नष्ट कर मनुष्य किसी प्रकार सुखी नहीं रह सकता है, उसे सुख कविता में बताई है- कोई वृक्ष था जामुन का। नींव पड़ने से पहले छोटी गुठली वाले काले जामुनों का वृक्ष। वही वृक्ष तुम्हें हिला रहा है। एक पक्षी अभी भी ढूंढ़ती है अपना नीड़। के चीटियाँ खोजती है अपना वाल्मीक। इस ब्रह्मांड में सबका अधिकार है देवी (सुख, नए इलाके में, पृ. 20) इस प्रकार अरुण कमल सभी अव्यवस्थाओं पर कलमें चलाते हैं। 

अरुण कमल जी की कविताओं में विचार के साथ ही अनुभूति का सामंजस्य बना हुआ है। उनकी कविताओं का मुख्य स्वर राजनीतिक चेतना का विस्फोट नहीं है बल्कि इस कठिन समय में व्याप्त क्रूर अमानवीयता से उपजी करुण मानव गाथा है। देखा जाए तो अरुण कमल जी सच्चे अर्थों में एक प्रतिबद्ध जीवनधर्मी कवि हैं। इनकी कविताओं में स्वयं को तथा अपने समय एवं समाज को लगातार खोजने और व्याख्यायित करने का यत्न किया गया है। उनकी कविताओं की एक अलग खासियत यह भी है कि उनमें पूरी दुनिया के प्रति इंसानी सरोकारों तथा मानवीय संशक्ति मौजूद है। इस अर्थ में यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि कबीर से आरंभ होकर निराला और मुक्तिबोध एवं धूमिल तक पहुँची एक गरिमामयी काव्य परंपरा को आगे बढ़ाने का महत्ती श्रेय अरुण कमल जी को ही है। इनकी कविताओं पर समय≤ पर कहीं-कहीं आलोचना टिप्पणी लिखी जाती रही है। मेरे विचार से इनकी कविता पर अभी तक जितना लिखा गया है वह पर्याप्त नहीं है। यद्यपि अरुण कमल जी की कविता पर काफी लिखा गया है, परंतु उनके काव्य का पर्याप्त विश्लेषण नहीं हुआ है। इसमें मानव की अदम्य जीजिविषा तथा संघर्ष आदि का चित्रण हुआ है। अरुण कमल जी का दूसरा काव्य संग्रह सबूत वास्तव में वर्तमानकालीन भारतीय समाज की स्पष्ट मिसाल ही है। उनके तीसरे काव्य संकलन ‘नए इलाके में की कविताएँ भाव तथा अभिव्यक्ति की दृष्टि से अन्य संग्रहों से भिन्न नजर आती है। चैथे काव्य-संग्रह ‘पुतली में संसार‘ की कविताओं में मानव मन के अंतद्र्वद्व, वर्तमान युग की भयानकता, शहरों की भीड़ तथा तनावपूर्ण जिंदगी, गाँव के निरीह लोगों की गरीबी प्रकृति एवं लोक चेतना, माओ-त्से तुंग जैसे विदेशी नेताओं के प्रति झुकाव, दोस्ती की पवित्रता, स्वतंत्रता के बाद के नेताओं का मनमानी व्यवहार आदि का खुला चित्रण किया गया है।

अरुण कमल की कविता मनुष्यता के लिए संघर्ष करने वाली कविताओं में शामिल हैं। भूमंडलीकरण के दौर में छायी अपसंस्कृति के खिलाफ विरुद्ध लोक चेतनावाली रचनाओं के माध्यम से कवि ने प्रतिरोध की एक सशक्त दीवार खड़ी कर दी है। यानी अरूण कमल अपनी कविता के केन्द्र में मुक्ति के लिए लड़ने वाले आदमी को खड़ा कर देते हैं। प्रगल्भता, वाचालता, चीख, पुकार, भद्देपन आदि समकालीन कविता पर लगाए सामान्य आरोपों से अरुण कमल जी की कविता सर्वथा मुक्त है। बातचीत एवं विचार विमर्श के माध्यम से उनके व्यक्तित्व को जितना समझ पायी या उनके कृतित्व को पढ़कर जितना मैं ग्रहण कर सकी उस के आधार पर मैं उपरोक्त विवेचन के साथ निष्कर्षतः यह कह सकती हूँ कि निर्बल जन की वाणी को अपने में समाहित करके अरुण कमल की कविता अपने लिए एक पूरे मनुष्य की खोज करना चाहती है। इनकी कविता को सही ढंग से जानने-समझने और समकालीन कविताओं में उच्च स्थान सुरक्षित करने हेतु कवि की रचनाओं के विस्तृत एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता है। इनका कवि कर्म विविधता युक्त है। इस विविधता की अभिव्यक्ति के केन्द्र में मानवीयता है। कवि अपने कवि कर्म से देश के संपूर्ण यथार्थ को हमारे सामने उपस्थित करता है। समस्याओं से भरे इनके काव्य संसार में फिर भी उम्मीद की किरण जगी हुई है। परमानंद श्रीवास्तव के शब्दों में 

उम्मीद उनके लिए शोषण और अन्याय के प्रतिरोध का पर्याय है। 

कवि ने इन पंक्तियों में भविष्यवाणी की है-

ख़त्म नहीं होगा स्वतंत्रता समानता का स्वप्न 

जो उतना ही झूठ है उतना सच 

जितना की शून्य जितना अनंत 

तब खड़े होंगे करोड़ों एक साथ 

ओर चलेंगे सब प्रकाश की ओर

(हमारे युग का नायक, नए इलाके में, पृ.88) 

कवि की शब्दाभिव्यक्ति अन्याय के अंधकार को काटने का शस्त्र है। कवि अरुण कमल जितने बड़े साहित्य में मानवीय गुणों के चेता है, दबे कुचलों के दर्दवेता हैं, उतने ही ऊँचे, उत्तम मनुष्य हंै। यह मैंने उनसे मिलकर बात कर विचार का आदान-प्रदान कर जाना। अपनी बात पूरी ईमानदारी से आपके समक्ष प्रस्तुत किया है। जैसा उन्हें पढ़ने के बाद जाना समझा वैसा ही आपके समक्ष उसे मैंने प्रस्तुत किया है।

भूदान यज्ञ बोर्ड के अध्यक्ष सी.बी चारी न. हि. व एवं अ. संघ 
की ओर से दीर्घ कालीन हिंदी सेवा हेतु सम्मान करते हुए

पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी के साथ जानीपुर ग्राम के एक कार्यक्रम में डाॅ. अहिल्या मिश्र

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