नेपथ्य-कथा



जयदेव तनेजा

हम सभी जानते हैं कि मोहन राकेश के जीवन, साहित्य और पहाड़ों के बीच एक गहरा और अटूट रिश्ता है। ये महज संयोग नहीं है कि उनके नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन‘ और ‘पैर तले की ज़मीन‘ (अधूरा) तथा मिस पाल, भूखे, चैगान, पहचान, मन्दी, उलझते धागे, जानवर और जानवर जैसी अनेक कहानियों और ‘न आने वाला कल‘ एवं ‘कई एक अकेले‘ (अधूरा) जैसे उपन्यासों का परिवेश कुल्लू-मनाली, शिमला, मसूरी, जम्मू-कश्मीर, पठानकोट और पहलगाम जैसा कोई न कोई पहाडी प्रदेश या स्थान ही है। गर्मी से घबराकर या लिखने के लिए सुविधाजनक एकान्त की तलाश में भी राकेश अक्सर जीवन भर पहाड़ों की ओर ही भागते नज़र आते हैं।

वास्तव में मोहन राकेश का ये अतिशय पहाड़-प्रेम अकारण नहीं है। इसकी गहरी मनोवैज्ञानिक वजह है। यह एक सामान्य एवं सर्वविदित तथ्य है कि उनका जन्म पंजाब के एक तंग शहर अमृतसर की एक छोटी-सी जंडीवाली/चंडीवाली गली के बहुत अँधेरे घर में हुआ था। राकेश ने स्वयं भी निःसंकोच भाव से स्वीकार किया है कि उनके बचपन में कुछ भी श्लाघनीय नहीं था। इसलिए बालपन से ही ऐसे लोगों से स्पद्र्धा (ईष्र्या?) होने लगी थी जो देवदार से लदे उन पहाड़ी प्रदेशों में पैदा हुए, जहाँ गिरते और मचलते हुए पहाड़ी झरनों ने उनकी विस्मित शिशु आँखों को अपने सौन्दर्य से भर दिया था। इस मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में देखें तो पहाड़ों, जंगलों और समुद्र-तटों के प्रति राकेश का अदम्य आकर्षण या शायद सम्मोहन उनके बचपन की इस दबी हुई अतृप्त कामना अथवा कुंठा का स्वाभाविक परिणाम ही था। 

1995 में ‘राकेश और परिवेश: पत्रों में‘ के प्रकाशन के तुरन्त बाद ही मैं राकेश की बहुसंख्य अप्रकाशित, असंकलित रचनाओं को खोजने में लग गया। फिर उन्हें सम्पादित करके ‘एकत्र‘ नामक पुस्तक की तैयारी की, जो 1998 में प्रकाशित हुई।

उसी पुस्तक की तैयारी के दौरान मुझे राकेश के एक लगभग अल्पज्ञात एवं अचर्चित उपन्यास ‘काँपता हुआ दरिया‘ की जानकारी मिली, जो ‘अँधेरे बन्द कमरे’ और ‘न आनेवाला कल‘ के बीच ‘नई कहानियाँ‘ पत्रिका में मार्चख् 1964 से लेकर मार्च, 1965 के बीच ग्यारह किस्तों में धारावाहिक रूप से छपा था। उन दिनों कमलेश्वर उस पत्रिका के सम्पादक थे। इसलिए पत्रिका की पूरी जिल्द - बँधी व्यक्तिगत फाइल उनके पास थी, जो मुझे सहज ही मिल गई। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने बड़े उत्साह से उसे पढ़ना शुरू किया। परन्तु अन्तिम किस्त तक पहुँचते ही मेरे हर्षोल्लास पर घड़ों पानी पड़ गया, जब उसके साथ ही सम्पादक कमलेश्वर की सूचना पढ़ने को मिली कि, ‘‘इस अंक से इस उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन बन्द हो रहा है। पुरा उपन्यास शीघ्र ही पुस्तक रूप में प्रकाशित होगा।‘‘ परन्तु पता नहीं क्यों और किन कारणों से ऐसा नहीं हुआ। कमलेश्वर और श्रीमती अनीता राकेश से भी कोई जानकारी नहीं मिल पाई।

पत्रों की पुस्तक और ‘एकत्र‘ के सम्पादन के सिलसिले में राकेश की सभी डायरियाँ, फाइलें, आधी-अधूरी टंकित या हस्तलिखित कई तरह की रचनाएँ और कच्ची-पक्की सामग्री मेरे पास ही थी। हालाँकि कई कोशिशों के बाद पहले ही मैं इस निष्कर्ष पर पहँच चुका था कि राकेश की हस्तलिखित सामग्री को पढ़ पाना लगभग असम्भव ही है, फिर भी मैंने एक बार फिर से प्रयास करने का निश्चय किया। इस बार की कोशिश पूरी तरह निष्फल सिद्ध नहीं हुई। सन् 1953-54 की एक बेहद फटी-पुरानी-सी पीले-भूरे पन्नों वाली डायरी को एक बार फिर से ही उलट-पलट कर देखते हुए लगा जैसे उसमें बम्बई, कश्मीर इत्यादि के बारे में कई तरह की सामग्री है। सरसरी नजर से देखने पर वाक्य नहीं पढ़े गए। यहाँ-वहाँ कुछ लोगों और कई जगहों के नाम समझ में आए। सबसे बड़ी समस्या हस्तलिपि रही। फिर भी रुककर देखने और धैर्य से पढ़ने की कोशिश के बाद अनुमान से ऐसा लगा जैसे आरम्भ के 25-30 पृष्ठों में बम्बई की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित किसी उपन्यास के बहुत जल्दी में घसीटे गए कुछ नोट्स हैं। इसके बाद 1954 में कश्मीरी परिवेश और जीवन पर लिखी गई एक कहानी है-‘पहलगाम के घोड़े‘। उसमें चन्दनवाड़ी जाने के लिए घोड़ों के किराए को लेकर किसी लाला के मोलभाव करने के प्रसंग से ऐसा लगता है जैसे वह राकेश की प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित कहानी ‘सौदा‘ का आरम्भिक प्रारूप है। इसी डायरी के अगले पृष्ठों पर कश्मीरी भाषा के कुछ रूमानी। और रूहानी गीतों के अंश भी देवनागरी में लिखे मिले जो उच्चारण एवं वर्तनी की दृष्टि से जगह-जगह संशोधित भी किए गए हैं। आगे के एक पन्ने पर ‘इनसाइड कश्मीर‘ (पी.एन. बजाज) तथा ‘द हिस्ट्री ऑफ पोलिटिकल मूवमेंट इन कश्मीर’ नामक अंग्रेज़ी पुस्तकों के साथ उर्दू लिपि में गुलाम अहमद सादिक की किताब ‘कश्मीर छोड़ दो‘ का उल्लेख राकेश के किसी भावनात्मक उपन्यास के कश्मीरी परिवेश, जीवन तथा इतिहास-भूगोल की बौद्धिक तैयारी की तरफ इशारा करता है। इसके कुछ कोरे छोड़े गए पृष्ठों के बाद एक शीर्षक है-‘झेलम के माँझी‘। उसी के नीचे नूरा, अहमद, सिद्दीक, रमजान, बेगम और जेबन्निसा के नामोल्लेख के साथ क्रमशः घटनाचक्र और चरित्रों के बारे में सूत्रात्मक संकेत दिए गए हैं। इसके बाद फिर एक शीर्षक है-‘सौन्दर्य की खोज‘। इसे मोहन चोपड़ा के नाम जेहलम से 21.8.54, 28.8.54, 30.8.54, 1.9.54 तथा 3.9.54 को लिखे गए डायरीनमा पत्रों के रूपों में लिखा गया है। पैन और पेंसिल से बेहद जल्दी में घसीटकर लिखी गई इस रचना की लिखावट इतनी अस्पष्ट है कि कश्मीर, जेहलम, लिददर, नूरा, सिददीक, कादिर, अहमद जैसे कुछ नामों और ‘तुम क्या खोजते हो?‘‘खुदा जाने मैं क्या खोजता हूँ?‘ जैसे संवादों को छोड़कर पूरी तरह कुछ भी पढ़ा नहीं जाता। इसी सन्दर्भ में उल्लेखनीय है 16.9.56 को दिल्ली में मुंशी (श्री रामशरण शर्मा) द्वारा राकेश को कश्मीर के पते पर लिखा गया वह पत्र जिसमें वह लिखते हैं कि ‘‘सुना है कि माँझियों के जीवन पर तुम्हारा उपन्यास पूरा हो गया है।‘‘ स्पष्ट है कि ‘जेहलम के माँझी‘ और ‘सौन्दर्य की खोज‘ तथा ‘काँपता हुआ दरिया‘ एक ही उपन्यास के तीन अलग-अलग नाम/प्रारूप हैं जो 1954 से 1964 के बीच दस सालों में पता नहीं और भी कितने नामों और रूपों में लिखा जाता रहा होगा और फिर भी राकेश की मृत्यु तक शायद अन्तिम रूप से सम्पूर्ण नहीं हो पाया!

परन्तु कश्मीर के सौन्दर्य और रूमानी-प्रेम की काल्पनिक कहानियों से अलग दरिया में घर बनाकर रहनेवाले निम्नवर्गीय हाँजी परिवार के सुख-दुख तथा संवेदनाओं के टकराव एवं जीवन-संघर्ष के कठोर यथार्थ पर आधारित राकेश का यह उपन्यास अपने उस अधूरे रूप में भी अत्यन्त रोचक, मार्मिक और राकेश के शहरी मध्यवर्गीय रचना-संसार से भिन्न आस्वाद का महत्त्वपूर्ण उपन्यास लगा। इसलिए इसके अधूरेपन की ख़लिश और तक़लीफ़ के बावजूद मैंने इसे ‘एकत्र‘ में ज्यों-का-त्यों ही शामिल कर लिया। 

इस उपन्यास की कहानी, इसके चरित्रों की ज़िन्दगी और इसके परिवेश से राकेश आत्मीय, घनिष्ट एवं अन्तरंग रूप से जुड़ गए थे, फिर भी लम्बे समय तक क्यों इसे लिखने से बचते रहे और फिर वे कौन से रचनात्मक तथा मानवीय दबाव थे, जिनके कारण वह इसे लिखे बिना रह नहीं सके? इसकी रचना-प्रक्रिया और इसके विडम्बनापूर्ण सृजन-इतिहास का स्पष्ट उल्लेख राकेश ने उपन्यास की ‘पूर्वभूमि‘ में ईमानदारी से किया है! इसी के माध्यम से हम जान पाते हैं कि लगभग आठ वर्षों के दौरान राकेश पाँच बार कश्मीर गए। महीनों-महीनों तक असी परिवार के साथ हाउसबोट ही नहीं डूँंगों में भी रहकर कई-कई दिनों तक दरिया में सफर कर दूर-दराज़ के इलाकों तक भी गए। उन माँझियों के जीवन के हर रूपरंग को देखा, जाना और कुछ हद तक सहभोक्ता बन उसका अनुभव भी किया। 

राकेश कश्मीर गए बेशक एक ‘विज़िटर‘ की तरह, वहाँ के अनुपम सौन्दर्य आनन्द की खोज में। परन्तु कश्मीरियत के रंग में ऐसे रँगे कि वहाँ के इतिहास साहित्य, गीत-संगीत, प्राकृतिक सौन्दर्य और पाक-कला तक के मुरीद हो गए। वहाँ के मेहनतकश आम आदमी के संघर्ष और मुफ़लिसी की समस्याओं के बावजूद सहज-सरल मानव-मन की सादगी का जादू उन पर पूरी तरह छाया हुआ था। इस बीच वह हाँजी खालका, उसकी बीवी बेगम और उनके परिवार की हृदयस्पर्शी कहानी ‘जेहलम के माँझी‘ को कई बार लिखने की आधी-अधूरी कोशिश कर चके थे। परन्तु इस उपन्यास के लेखन को लेकर एक अजीब तरह की हिचक और दुविधा उनके मन में थी। पहला कारण तो सम्भवतः यही था कि वह एक गैर-कश्मीरी लेखक थे और ऐसे किसी भी प्रयास को प्रामाणिकता की दृष्टि से कश्मीरी लेखक और बुद्धिजीवी सन्देह की नज़र से देखते थे/हैं। दूसरे, वह ‘नई कहानी‘ के भोगे हुए यथार्थ का दौर था और उस दृष्टि से भी शायद वह स्वयं को ये कहानी लिखने के लिए अनधिकारी मानते रहे होंगे।

लगभग दस वर्षों तक अपनी इन्हीं सीमाओं के संकोच से जूझते रहने के बाद 1964-65 के बीच राकेश ने अन्ततः इसे ‘काँपता हुआ दरिया‘ के नाम से ये सोचकर लिख डाला कि, “न लिखता तो शायद खालका के साथ ही नहीं, अपने साथ भी मैं न्याय न करता।‘‘ अपनी तरह के इस अनूठे और बेहतरीन उपन्यास को ‘एकत्र‘ में अधूरा छापकर मन खिन्न तो बहुत हुआ, मगर नाउम्मीद नहीं हुआ था।

कहीं-न-कहीं मन में ये आशा थी कि सम्भव है किसी दिन राकेश की किसी फाइल, डायरी या टाइप किए गए कागजों के किसी बंच में इसके शेष पन्ने भी कहीं मिल जाएँ! इसी तरह की तलाश और उम्मीद तो मझे उनके उपन्यास ‘स्याह  और सफेद‘ के टाइप किए 200 पन्नों की भी थी और अन्तिम दिनों में लिखे जा रहे उनके नए नाटक ‘चाणक्य‘ के नोट्स और उसके आरम्भिक प्रारूप की भी।

इसलिए जब मुझे ‘मोहन राकेश रचनावली‘ को सम्पादित करने का सुअवसर मिला तो मैं एक बार फिर नई आशा और ऊर्जा के साथ अपने ‘खोज अभियान में जुट गया। इस बार रचनावली के लिए कई नई चीजें भी मिलीं। परन्तु जिनकी ख़ास तलाश थी उनमें से कुछ भी उपलब्ध नहीं हो पाया। 

रचनावली में भी ‘काँपता हुआ दरिया‘ अधूरा ही प्रकाशित हुआ। बात आईगई हो गई।

वक्त बीतता गया, परन्तु इस उपन्यास की संवेदना की थरथराहट, कहानी की कचोट, पात्रों के विडम्बनापूर्ण रिश्तों का दर्द, एक अजाने यथार्थ, अनूठे अनुभव का बहमुखी सच या पता नहीं इस रचना की वह कौन-सी चीज़ थी कि इसके अधूरेपन की कसक मुझे रह-रहकर सालती रहीं।

बहुत सोच-विचार के बाद एक विकल्प ये सूझा कि किसी अन्य समर्थ रचनाकार से इसे पूरा करवाया जाए। परन्तु ये विकल्प भी आसान नहीं था। पहली शर्त तो इसकी यही थी कि इसके प्रकाशक श्री अशोक महेश्वरी इस विचार से सहमत हों। और दूसरी समस्या, जो रचनात्मक होने के कारण पहली से भी अधिक मुश्किल और पेचीदा थी-वह ये कि ‘समर्थ रचनाकार‘ माने क्या? राकेश की किसी अधूरी रचना को पूरा करने की दृष्टि से उनके आत्मीय एवं घनिष्ठ मित्र ‘कमलेश्वर‘ से अधिक योग्य और समर्थ रचनाकार भला कौन हो सकता था? ये अलग बात है। कि कमलेश्वर आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन ‘एकत्र‘ के समय तो वह जीवित ही थे और मैंने उनसे पूछा भी था। कितनी विनम्रता और शालीनता के साथ उन्होंने असमर्थता प्रकट कर दी थी। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि ‘पैर तले की जमीन‘ को पूरा करने में कमलेश्वर भी कहाँ सफल हो पाए थे-जबकि कश्मीर में क्लब के बाढ़ में डूबने की उस मूल घटना और अनुभव के कमलेश्वर और राकेश दोनों सहभोक्ता भी थे।

यद्यपि ऐसे कुछेक उदाहरण हैं जहाँ दो लेखकों ने मिलकर किसी सफल रचना-विशेषतः नाटक को लिखा हो। परन्तु किसी लेखक की आधी-अधूरी रचना को किसी अन्य लेखक द्वारा सफलतापूर्वक पूरा करने का उदाहरण दुर्लभ ही है। फिर भी, इसे असम्भव मानकर प्रयास भी न करने की बात मेरा मन मानने को तैयार नहीं था। यह एक बड़ी रचनात्मक चुनौती थी, दुष्कर रचनाकर्म था-सच है। और लेखक यदि मोहन राकेश जैसा परफैक्शनिष्ट रचनाकार और जटिल व्यक्तित्व हो तो...? तो अपनी अधूरी रचना को परा करना स्वयं राकेश के लिए भी मुमकिन नहीं होता। ऐसी स्थिति में राकेश अपनी अधूरी लिखी रचना को रद्द करके उसे पुनः अथ से आरम्भ करके लगातार अन्त तक लिखकर ही पूरा करते थे। इसके बावजूद, मैं प्रयास किए बिना पराजय स्वीकर करने को तैयार नहीं था। लिहाजा मैंने किन्तु परन्तु को दुविधा छोड़कर पक्के इरादे और सकारात्मक दृष्टि से सोचना शुरू किया।

अब मुझे एक ऐसे लेखक की तलाश थी जो मोहन राकेश के साहित्य को समझता हो, उससे प्रभावित हो और उसका प्रशंसक भी हो। वह नाटककार भी हो और कथाकार भी। उसका हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं पर लगभग समान अधिकार हो। वह स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलता और उनके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं आािर्थक पहलुओं का अच्छा जानकार भी हो। और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण शर्त ये कि वह इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार भी हो। मैं इस सोच-विचार में डूबा था कि एक दिन अचानक इस उपन्यास के बारे में राकेश का लिखा और मेरे द्वारा सरसरी तौर पर यँू ही कई बार पढ़ा गया यह वाक्य बिजली की तरह कौंध गया कि ‘बेहतर होता यदि यह कहानी किसी कश्मीरी लेखक के द्वारा लिखी जाती....।’ इस एक वाक्य ने मानो बरसों की उलझन एक पल में सुलझा दी। मुझे लगा कि इस तरह हम उपन्यास के साथ-साथ राकेश की अधूरी इच्छा भी पूरी कर पाएंगे।

किसी और महत्त्वपूर्ण सूत्र की तलाश में मैंने तुरन्त ‘एकत्र‘ निकाली। ‘काँपता हआ दरिया’ की पूर्वभूमि पढ़ते हुए मैं ज्यों ही उसके चैथे पेज पर उद्धत किए गए वाक्य पर पहँचा, मैं यह देखकर चकित हो गया कि उसकी बाई ओर हाशिए पेंसिल से एक नाम लिखा हुआ था-मीरा कांत। 

मीरा कांत-यानी एक कश्मीरी कथाकार-नाटककार। बहुत सोचने पर भी मुझे याद नहीं आया कि मैंने यह नाम वहाँ कब और क्यों लिखा था? और लिखा था तो फिर भूल कैसे गया? बहरहाल, मुझे लगा कि जैसे अनायास ही एक कठिन समस्या का समाधान मुझे मिल गया है! सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात तो ये थी कि हम दोनों परस्पर परिचित थे। मुझे पता था कि मेरी तरह वह भी राकेश और उनके साहित्य की प्रशंसक हैं। मैंने उनके साहित्य को गम्भीरता से पढ़ा है और उससे मुतास्सिर होकर उस पर लिखा भी है। उनके नाटक ‘उत्तर प्रश्न‘ और ‘काली बर्फ‘ तथा उपन्यास ‘एक कोई था/कहीं नहीं-सा‘ पूरी तरह कश्मीर पर ही केन्द्रित हैं। पुरानी दिल्ली पर केन्द्रित उनके उपन्यास ‘हमआवाज़ दिल्लियाँ‘ में भी एक कश्मीरी परिवार की कथा समानान्तर चलती है। मूलतः कश्मीरी होने के नाते वहाँ की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि, जीवन-शैली, खानपान और रहन-सहन की उनकी स्वानुभूत संवेदनात्मक समझ के प्रति भी मैं एक हद तक आश्वस्त था। उनकी कई रचनाओं को पढ़कर मुझे ये विश्वास भी हो चला था कि ‘काँपता हुआ दरिया‘ की कहानी, चरित्रों और परिवेश को विश्वसनीयता के साथ। आगे बढ़ाने के लिए जिस भाषा-शैली और ख़ालिस कश्मीरी अन्दाज़ में जज़्ब उर्दू। मुहावरे की दरकार है-उसकी संवेदना, समझ और सलाहियत भी उनमें हैं। फिर भी अपने स्वभाव के कारण मैं इस बात को लेकर कहीं-न-कहीं संशयग्रस्त भी था कि क्या मीरा कांत के अपने जीवन एवं साहित्य के मध्यवर्गीय संस्कार ‘काँपता हुआ दरिया‘ के निम्नवर्गीय अभावग्रस्त कश्मीरी हॉजियों के सतत संघर्षरत जीवन के साथ पूरा न्याय कर पाएंगे! फिर मुझे अहसास हुआ कि ये विडम्बना और अन्तर्विरोध तो स्वयं मोहन राकेश के साथ भी थे। और सिर्फ राकेश ही क्यों ये समस्या तो कमोबेश हर लेखक के साथ होती है। इस समस्या का समाधान प्रत्येक रचनाकार अपने-अपने ढंग से परमानस-प्रवेश के माध्यम से करता है। सोच के इस बिन्दु पर पहुंचकर मुझे ये विश्वास हो गया कि इस काम के लिए, हिन्दी के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में सम्भवतः मीरा कांत ही सर्वाधिक उपयुक्त नाम है। जिसे यह कठिन रचनात्मक ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती है।

इन तमाम बातों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण और जरूरी बात ये थी कि मीरा कांत इस काम को करने के लिए तैयार हों। परन्तु उनसे बात करने से पहले पुस्तक के प्रकाशक राजकमल प्रकाशन समूह के स्वामी श्री अशोक महेश्वरी से बात कर लेना ज़्यादा ज़रूरी लगा। सिद्धान्ततः तो इस प्रोजेक्ट के बारे में उनकी सामान्य सहमति मैं पहले ही ले चुका था। अब एक व्यावहारिक ठोस प्रस्ताव सामने था। एक लेखक और प्रकाशक के नाते, दो-ढाई दशकों से भी अधिक के हमारे सम्बन्ध परस्पर विश्वास और समझ की मज़बूत बुनियाद पर टिके थे। इसलिए मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ जब उन्होंने तुरन्त इसकी स्वीकृति दे दी। परन्तु लेखक के चुनाव और अनुबन्ध की शर्तों के बारे में कोई भी ज़िम्मेदारी लेने से इन्कार करते हुए इसका पूरा दायित्व उन्होंने मेरे कन्धों पर ही डाल दिया। एक ओर अपने प्रिय लेखक की अधूरी रचना के पूरा होने का निमित्त बनने और इस चुनौती के योग्य समझे जाने की खुशी थी तो दूसरी ओर व्यावहारिक दृष्टि से अपनी झिझक एवं संशयग्रस्त मानसिकता के चलते कहीं भयाक्रान्त भी था। एक संवेदनशील एवं आत्मसम्मानी रचनाकार और एक प्रतिष्ठित एवं अत्यधिक सफल प्रकाशक के बीच सन्तुलन साधना आसान काम नहीं था।

लेकिन ओखली में तो मैं सिर दे ही चुका था, इसलिए एक दिन मैंने बड़े संकोच के साथ हिम्मत करके इस अधूरे उपन्यास को पूरा करने का प्रस्ताव मीरा जी के सामने रख दिया। उनकी पहली प्रतिक्रिया तो एकदम सकारात्मक ही लगी, किन्तु विस्तार से बातचीत करने के बाद वह थोड़ी असन्तुष्ट तथा दुविधाग्रस्त-सी प्रतीत हुईं। सोचकर उत्तर देने की बात कहकर वह चली गईं। दो दिन बीत गए। उनका कोई जवाब नहीं आया तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। मैं स्वयं फोन करके उनके स्वतंत्र निर्णय पर किसी तरह का दबाव नहीं बनाना चाहता था। अच्छा हुआ कि अगले दिन सुबह ही उन्होंने ड्राइवर को भेजकर ‘काँपता हुआ दरिया‘ पढ़ने के लिए ‘एकत्र‘ मँगवा ली। मेरे अनुमान के विपरीत उनका फोन उसी शाम आ गया। स्वीकृति देते वक़्त उनकी आवाज में दुविधा और अनिश्चय का स्थान उत्साह और संकल्प ने ले लिया था। उन्होंने बताया कि उपन्यास से वह अत्यधिक प्रभावित हुई हैं और कश्मीर के हाँजियों के जीवन को निकट से देखने-जानने और महसूस करके के इरादे से वह अगले हफ्ते दस दिनों के लिए श्रीनगर जा रही हैं।

वह श्रीनगर र्गइं और लौटकर बच्चों जैसे हर्षोल्लास और उत्साह के साथ बताया कि कैसे लगभग रोज ही हॉजियों, उनकी महिलाओं और नई-पुरानी पीढ़ी के वहाँ रह गए लड़के-लड़कियों से मिलती रहीं। घंटों उनके साथ रहीं, उनकी समस्याओं, तकलीफ़ों और बचे-खुचे सपनों के बारे में जाना। हिन्दुस्तान की आज़ादी से पहले, बाद के और आज के उनके रहन-सहन, खान-पान, सोचविचार सुख-दुख में आए बदलावों के बारे में काफ़ी उपयोगी जानकारियाँ इकट्ठी कीं। डूँगा-संस्कृति के बचे-खुचे अवशेषों और उनके अभावग्रस्त स्वामी-माँझियों की पीड़ा को भी महसूस किया। हमने उपन्यास की कहानी और चरित्रों के सम्भावित विकास की रूपरेखा पर भी विस्तार से चर्चा की।

लेखन-प्रक्रिया के दौरान भी ज़रूरी लगने पर कभी फोन से, कभी व्यक्तिगत रूप से मिलकर हम दोनों विविध पहलुओं पर गाहे-ब-गाहे विचार-विमर्श करते रहे। फिर भी, कुल मिलाकर इस उपन्यास का पूरक अंश मीरा कांत की सम्पर्ण रचनात्मक स्वतंत्रता एवं कल्पनाशीलता का ही परिणाम है।

‘काँपता हआ दरिया‘ के केन्द्रीय पुरुष पात्र खालका को इस रूप में परिकल्पित और विकसित किया गया है कि वह अपनी द्वन्द्वग्रस्त विभाजित मानसिकता. अनिश्चितता, निर्णयहीनता, चुनौती का सामना करने के बजाय उससे मुंह छिपाकर भाग जाने की प्रवृत्ति, किसी अनजाने गंतव्य की तलाश में यहाँ से वहाँ और वहाँ से कहीं और चल देने का सतत असन्तोष जैसी कई विशेषताओं के कारण स्वयं मोहन राकेश के अपने चरित्र अथवा उनके किसी अन्य पुरुष पात्र जैसा ही दिखाई देता है। उसमें अपने जीवन की लड़ाई हार चुके ‘आधे अधूरे‘ के महेन्द्रनाथ की छाया साफ तौर से झलकती है। यही नहीं, उसकी पत्नी बेगम को भी राकेश ने ख़ूबसूरत, ज़िन्दादिल, ख़ुशमिजाज, पुरमज़ाक़ और असन्तुष्ट होने के बावजूद घरपरिवार को सँभालने-चलाने वाली कर्मठ स्त्री के रूप में चित्रित किया है। अपनी उम्र से कम दिखाई देती बेगम भी आधे अधूरे‘ की सावित्री की तरह ही अपने पति को आधा-अधूरा आदमी मानकर जीवन को भरपूर जीने की लालसा लिये, पेशावर से आए ज़िन्दादिल, युवा और अमीर सैलानी खान के साथ नई ज़िन्दगी जीने के सुनहरे सपने देखती है। मीरा कांत ने उसके सम्बन्धों और कथानक को इसी दिशा में स्वाभाविक, रोचक और तर्कसंगत ढंग से विकसित किया है।

यूँ तो बेगम के शराबी, अक्खड़, जुआरी, ज़िद्दी और गप्पवाज़ बाप नबी नाग का चरित्र, कलकत्ता में सिफ़लिसग्रस्त एलिस और खालका के अवैध सम्बंध पेशावर के खान तथा उसके साथ घर बसाने के रोमानी ख्वाब देखनेवारती बेगम के रिश्ते, नजमा और अब्दुल कादिर के विसंगत वैवाहिक सम्बन्ध जैसे प्रसंग एवं घटनाक्रम भी ख़ासे दिलचस्प, पेचीदा और नाटकीय हैं, परन्तु मुर्खों की तरह हर बात पर वजह-बेवजह हंसनेवाले, खाने-पीने के लिए झगड़ालू, कामचोर किन्तु शातिर और विश्वासघाती मामदा तथा उसके झूठे प्रेम एवं शादी के झाँसे में फंस गई मासूम, कमसिन और नादान नूरा के अतिरिक्त उसी की तरह असफल प्रेम की पीड़ा से आहत, दुखी और अकेले सिद्दीक जैसे चरित्र एवं प्रसंग गौण होने के बावजूद पाठक के मन में कहीं अटके रह जाते हैं।

खालका-बेगम के इस परिवार की सबसे छोटी और भोली सदस्य है-नूरा। उपन्यास में एक हल्का-सा अस्पष्ट संकेत ये भी है कि मानो बेगम खान को पाने के लिए नूरा का भी इस्तेमाल करती है। खालका बेगम पर ये आरोप लगता भी है। इसके अलावा अब्दुल कादिर अपने श्वसुर खालका और अपनी बीवी नजमा को धमकाकर तथा मारपीट कर बेगम पर ये दबाव बनाने की कोशिश में लगा हुआ है कि किसी तरह वह उसके जुआरी भाई कासिम से नूरा की शादी के लिए हाँ कर दे। इन दोहरे दबावों से त्रस्त नूरा मामदा के धोखे, झूठ और फ़रेब से बुरी तरह बिखर गई है। जन्म से लेकर आज तक उसका एकमात्र सुरक्षित आश्रय रहे उसके अत्यन्त प्रिय हाउसबोट के बिकने की ख़बर जैसे अन्तिम निर्णायक वार करके उसे पूरी तरह तोड़ देती है। ख़ाली हाउसबोट के फ़र्श पर भूखी-प्यासी पड़ी नूरा सुबह होने से पहले सब कुछ छोड़कर वहाँ से अकेली चले जाने का निर्णय कर लेती है।

नूरा की तरह सिद्दीक भी इस उपन्यास का एक मार्मिक चरित्र है। वह नजमा से अपने असफल प्रेम की पीडा सहते हुए पिछले पन्द्रह सालों से इस परिवार की सेवा करता रहा है। तीस की उम्र में चालीस-पैंतालीस साल का बूढ़ा-सा दिखाई देता सिद्दीक अब अभिभावक की तरह सबकी देखभाल करता है। वह अक्सर सोचता है। कि जीवन भर की ख़िदमत के बदले में उसे मिला क्या है? मुट्ठी भर साग-भात, एक फटी-पुरानी लोई, सूखा हुआ शरीर, आँखों का सूनापन तथा आशाविहीन, अकेली, उदास जिन्दगी की वीरानगी। हालात की एक ऐसी ही त्रासद ज़मीन पर खड़े नूरा आर सिद्दीक मिलते हैं तथा अत्यन्त आकस्मिक एवं अप्रत्याशित ढंग से पल भर वहाँ से साथ-साथ चुपचाप भाग जाने का फैसला कर लेते हैं। इस करुण-कोमल आर नाज़्ाुक प्रसंग को मीरा कांत ने बेहद आत्मीयता एवं संवेदनशीलता के साथ रचा है। सिद्दीक के ठेठ हाँजी व्यक्तित्व को उसकी पूरी सदाशयता और मूल्य-व्यवस्था के साथ विकसित किया गया है। 

अन्त में अकेली, भीतर से बुरी तरह क्षत-विक्षत बेसहारा और मासूम नूरा का साथ देने के लिए जब वह भविष्य की ज़रा भी चिन्ता किए बिना वह भयावह मन्दी के दौर में अपनी पन्द्रह सालों की पगार और अपने जीवन की सर्वाधिक प्रिय तथा मूल्यवान पूँजी-नौ बीघा पुश्तैनी ज़मीन के पैसों की भी परवाह किए बग़ैर, नूरा के साथ चल देता है, तो पाठक को ज़रा भी आश्चर्य नहीं होता। सबसे उल्लेखनीय बात ये है कि नूरा और सिद्दीक के इस मानवीय रिश्ते को पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं कानूनी परम्पराओं पर तथा मूल्यों की परिभाषाओं से मुक्त अव्याख्येय ही रहने दिया गया।

इसी प्रकार उपन्यास के अन्त में नूरा के सिद्दीक के साथ घर से भाग जाने की अविश्वसनीय किन्तु सच्ची ख़बर से आहत और हत्प्रभ बेगम के लिए जन्नत से भी अधिक प्रिय उसके ‘गुले यास्मीन‘ नामक हाउसबोट पर पड़ते हथौड़ों और चलती आरी की आवाजें जब असह्य हो जाती हैं तो वह भागकर पहले घाट और फिर बंड (बाँध) की ओर निकल जाती है। ताजा हवा में मन कुछ सुस्थिर होता है तो बेगम को ये सोचकर सन्तोष होता है कि नूरा कम-से-कम झूठे. मक्कार और दग़ाबाज़ मामदा और लफंगे जुआरी कासिम के चंगुल से तो बच गई। वह पराने शिकवे-गिले भुलकर नूरा और सिद्दीक के निरापद और सुखी भावी जीवन के लिए सच्चे दिल से दुआ माँगती है। उसे अब हाँजी की बेटी के दरिया तो क्या ‘सिरीनगर‘ भी छोड़ जाने का दुख नहीं है, क्योंकि वह जानती है कि यहाँ बेकारी गरीबी, भुखमरी और साल-दर-साल सैलानियों के इन्तज़ार के सिवाय अब रखा क्या है...? 

उसे समझ में नहीं आता कि वह अपनी और पूरे कश्मीर की इस दयनीय हालत के लिए किसे ज़िम्मेदार माने और किसे लानत दे? ‘‘ख़ुद को...कबाइलियों को, जिन्होंने उसके घर, उसके वतन में तलातुम1 मचाकर मुफ़लिसी, तंगहाली से उसे और उस जैसे जाने कितनों को अब सड़क पर पहुंचा दिया? या उस अवामी राज को, राजशाही की ज़्यादतियों के बाद जिससे ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें वाबस्ता थीं, पर जो अब तक शायद कुछ भी सँभाल नहीं पा रहा? कहाँ है ‘नया कश्मीर‘? कहाँ ढूँढें?‘‘ ये सवाल बेगम सन् 1954-55 में पूछती हैं, लेकिन ये कैसी विडम्बना है कि बेगम का वह सवाल आज लगभग 65-66 वर्ष बाद भी जवाब की उम्मीद में ज्यों का-त्यों वहीं खड़ा बार-बार पूछ रहा है, ‘‘कहाँ है नया कश्मीर?‘‘ और इस मुक़ाम पर पहुँचकर हम ‘तब‘ और ‘अब‘ के कश्मीर को हमकदम-सा महसूस करने लगते है। टकड़े-टुकड़े होकर बिक चुके अपने हाउस बोट ‘गुले यास्मीन‘ को खोकर टूटते हुए हाउसबोट जैसे मरणासन्न खालका के साथ अपने डूँगे में नितान्त बेबस और बिल्कुल अकेली रह गई बेगम को दूर से दरिया को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे ‘‘खामोश आहें भरती पूरी घाटी काँप रही है। काँपते दरिया पर काँपता आसमान और थरथराते आस-पास के पहाड़! साथ ही वो बचे हए हाउस बोट जो उस दरिया में देख रहे थे अपनी सहमी-सहमी-सी परछाइयाँ...!‘‘ 

उपन्यास के कथा-रस को बरकरार रखते हए इसके कथानक और चरित्रों को मीरा कांत ने जिस सूझ-बूझ, कल्पनाशीलता एवं कुशलता के साथ इस बहुअर्थगर्भी अन्तिम बिम्ब तक पहुँचाया है, वहाँ सम्पूर्ण कश्मीर काँपते हुए दरिया में प्रतिबिम्बित होने लगता है और काँपता हुआ दरिया बेगम के चरित्र में थरथराता-सा लगता है। मोहन राकेश की अन्य अनेक रचनाओं की तरह इसके अन्त को अनिश्चित और खुला रखा गया है।

इस कथा-प्रयोग की सफलता-असफलता के बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता- वह तो सुधी पाठकों एवं समीक्षकों के अधिकार-क्षेत्र का मामला है। इतना विश्वास ज़रूर है कि राकेश के अधूरे उपन्यास को पूरा करने वाला यह कथा-प्रयोग पाठकों को एक नया आस्वाद एवं अनूठा अनुभव प्रदान करेगा। रोचक तथा रुचिकर होने के साथ-साथ ये अतीत के माध्यम से आज फिर एक बिलकुल नए और अप्रत्याशित मोड़ पर खड़े कश्मीर को जानने-समझने में एक सार्थक भूमिका का निर्वाह भी करेगा। ये जानते हुए भी कि कई प्रबुद्ध पाठक भाषा-शैली और अन्दाज़-ए-बयाँ के आधार पर इसके पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध के भेद को आसानी से जान जाएँगे, इसके बावजूद व्यापक सामान्य पाठक वर्ग की दृष्टि से पुराने और नए हिस्सों को एक निरन्तरता में प्रकाशित किया गया है। इसके कथा-प्रवाह को अविरल बनाए रखने के लिए मूल उपन्यास एवं उसके पूरक विस्तार वाले हिस्से को निरन्तरता में छापने के बावजूद इनकी पृथकता का उल्लेख प्रासंगिक पृष्ठ की पाद-टिप्पणी में कर दिया गया है। 

व्यक्तिगत रूप से मैं डॉ. मीरा कांत के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने मेरे प्रस्ताव/अनुरोध को न केवल सहर्ष स्वीकार किया बल्कि अपने सजक मन से राकेश की अधूरी रह गई सृजन-यात्रा को बड़े मनोयोग, निष्ठा और रचनात्मकता के साथ गंतव्य तक पहुँचाया। इस सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण एवं विशेष रूप से उल्लेखनीय बात ये है कि उन्होंने ये सारा काम अपने प्रिय रचनाकार मोहन राकेश और उनकी उत्कृष्ट रचनाशीलता के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने की भावना से किया है। सम्भवतः इसीलिए उन्होंने इस काम के लिए किसी रूप में भी इसका कोई पारिश्रमिक लेना भी स्वीकार नहीं किया।

मैं श्री अशोक महेश्वरी का भी हृदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे इस प्रयोग और निर्णय पर न केवल विश्वास किया बल्कि बिना किसी हस्तक्षेप के उसे बराबर बनाए भी रखा।

आज मैं अपने निर्णय, चयन और प्रयास को लेकर सन्तुष्ट हूँ और ये सोचकर प्रसन्न भी हूँ कि आखिरकार मैं अपने प्रिय लेखक मोहन राकेश की इस उपन्यास को लेकर की गई अन्तिम इच्छा को पूरा करने का निमित्त बन सका।

-जयदेव तनेजा, नई दिल्ली, मो.9899547647

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