अहिल्या जी की कहानी

 मंतव्य


प्रो. ऋषभदेव शर्मा, पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा। आवास - 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद 500013 (तेलंगाना) भारत।
मोबाइलः 80 7474 252, ईमेल: rishabhadeosharma@yahoo.com


वर्ष 2004 में हमने साहित्य सृजन और समाज सेवा में सतत संलग्न हैदराबाद की वरिष्ठ लेखिका डॉ. अहिल्या मिश्र (16 सितंबर, 1948) को समर्पित ग्रंथ ‘‘स्त्री सशक्तीकरण के लिए आयाम‘‘ की भूमिका में जो कुछ लिखा था, इस आलेख के आरंभ में उसे दोहराना अनुचित न होगा, ‘‘डॉ. अहिल्या मिश्र अध्यापिका, समाजसेविका, कवयित्री, कथाकार नाटककार और हिंदी सेवी विदुषी तथा कार्यकर्ता हैं। साथ ही, नवजीवन महिला मंडल (हैदराबाद) आदि संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने पिछड़े तथा मध्य वर्ग की स्त्रियों के सशक्तीकरण के लिए अथक परिश्रमपूर्वक काम किया है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने पहले तो अपने भीतर की सशक्त स्त्री को पहचाना और फिर शिक्षा तथा स्वावलंबन द्वारा समाज में स्त्री सशक्तीकरण को गति प्रदान की।‘‘ (स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम, 2004ः 10-11)। उसी ग्रंथ में सम्मिलित डॉ. अहिल्या मिश्र के साक्षात्कार के आरंभ में डॉ. कविता वाचक्नवी (संप्रतिः ह्यूस्टन, अमेरिका) ने अहिल्या जी का रेखाचित्र कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया था, ‘‘एक अच्छी कद-काठी की महिला, जिन्हें देखकर स्त्री को कोमलांगी होने से संतुष्ट न रहने का विचार कौंधे, जो ऊँची आवाज में बात करती हों,  कई-कई पहचानों, मुलाकातों, बातचीतों के बाद भी आप तय न कर पाएँ परिचय की गहराई-निकटाई को सबसे उड़ते-उड़ते लहजे में बात करती लगें, तैश-ताव आने पर दाहिना हाथ उठाकर बात में जोर पैदा करती हों!...आगे बढ़ने से पहले बता दूँ कि हम श्रीमती अहिल्या मिश्र से दो-चार होने जा रहे हैं। कभी बिना माँड़ की सूती, देहाती रंगों की गहरी लाल-पीली साड़ी में भी नवजीवन पहुँच जाएँगी और कभी हल्की मोहक रंग की रेशमी साड़ी में... उस दिन बहुत उजली-उजली लगती हैं। चेहरे का रंग खिलता-सा है। साइड में काढ़ी माँग, कसकर बाँधे  धौले हो चुके बाल। ऐसे में कई बार उन्हें पारंपरिक किंतु अपने प्रति लापरवाह नहीं रहने वाली महिला के रूप में पढ़ा है मैंने। इतना ही नहीं, बड़े बड़ों को पटकनी देने का उनका अपना अंदाज है और वे इसमें कतई कोताही नहीं करतीं- यदि ठान लें तो। और यह तभी यदि दूसरों में किसी मतांतर और चातुर्य का भावबोध उन्हें जगता जान पड़े। ऊपर से रुक्ष-शुष्क, तीखी-कठोर, कटु, तथाकथित स्त्री-ध्वनि से भिन्न, स्वयं को सही ठहराती हुई भले ही अचकचाने को बाध्य कर दें, पर मैं साक्षी हूँ, उन अस्फुट, रुँधे, पगे, भीगे क्षणों की जिनसे विरले ही परिचित होंगे। लौह-पुरुष की तर्ज पर लौह-स्त्री का निर्माण होता नहीं है। जिस मीमांसा की आवश्यकता लौह-स्त्री का परिचय सुलभ करा सकती है, वह आवश्यकता जान, क्षमता रखने वाले लोग शेष परिचय (उनकी) कही-अनकही में पा ही लेंगे।‘‘ (वहीः 301-302)। मुझे नहीं लगता कि डॉ. अहिल्या मिश्र के विराट अंतर्बाह्य  व्यक्तित्व को इतने कम शब्दों में इससे बेहतर ढंग से व्यक्त किया जा सकता है। वे आज भी वैसी ही हैं। वज्रादपि  कठोर, किंतु कुसुमादपि कोमल! प्रस्तुत आलेख में हम उनके दो कथा-संग्रहों पर विशेष चर्चा करेंगे।

[1]

‘फाँस की काई’ (2007) में डॉ. अहिल्या मिश्र की 17 कहानियाँ संकलित हैं। इन कहानियों के बारे में स्वयं लेखिका का कहना है कि इनमें आम लोगों की समस्याओं को उकेरा गया है। कहानी की सोद्देश्यता और संदेशपरकता पर भी बल दिया गया है। यदि यह कहा जाए कि अनेक स्थलों पर यह विशेषता अध्यापकीय और नेतायी उपदेश में भी बदल गई है, तो गलत न होगा। लेकिन साथ ही ‘फाँस की काई’ की प्रयोगधर्मिता, प्रतीकात्मकता और भाषिक ताजगी भी कई स्थलों पर आकर्षित करती है। 

संकलन की पहली कहानी ‘सच्चाई की सीख’ में शिक्षक का एक भाषण छात्र का हृदयपरिवर्तन कर देता है। ‘संगत का उपहार’ बोध कथा जैसी है, जिसमें एक सड़ा टमाटर सारे टमाटरों को खराब कर देता है। ‘आदत की कोई दवा नहीं’ में साधु महाराज दूध का तालाब देकर शिवचरण को बुरी आदत से बाज आने की नसीहत देते हैं। ‘आजादी का अनुभव’ का आरंभ ही लोक कथाओं की तरह होता है। यह कुत्ते और भेड़िया का हितोपदेश है। अथ भेड़िया उवाच- ‘मेरी आजादी की कीमत कोई सुख या भोजन नहीं हो सकता। तुम्हारा यह बंधन तुम्हें मुबारक। मैं अपनी आजादी के साथ भूखा मर जाना अधिक पसंद करूँगा। सचमुच आजादी से बढ़कर कोई चीज नहीं हो सकती।’ लेकिन क्या करें, सुविधाभोगी कुत्ते तलवे चाटने के अलावा कुछ और सीख ही नहीं पाते। व्यंजना के कारण यह कहानी अच्छी बन पड़ी है। ‘समकोण का कोण’ में भी माता-पिता के प्रति उपेक्षा के पाप की चर्चा है। ‘अपराजिता’ में देह व्यापार के पीछे छिपी विवशता को दर्शाया गया है। ‘विष-पिपरी’ में स्त्री का आत्मविश्वास और पुरुष का लिजलिजा चरित्र एक साथ जब आमने-सामने आते हैं, तो पाठक भी तिलमिला उठता है, सुधा के साथ-साथ। इसी क्रम में ‘विदेशी बहू’ आधुनिकताओं के संबंध में प्रचलित मिथ को तोड़ने वाली मनोरंजक कहानी है। ‘रंगों में डूबी यादें’ सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है। ‘मोहभंग’ में आधुनिक परिवारों में वृद्धों की असहाय स्थिति का अच्छा अंकन है। बूढ़ी माँ जब अपने अस्तित्व की सार्थकता वृद्धाश्रम में खोजती है, तो एक ओर जहाँ स्त्री-विमर्श की ध्वनि सुनाई पड़ती है, वहीं दूसरी ओर पारिवारिकता के टूटने की प्रतिध्वनि भी देर तक पीछा करती है। लेखिका ने समाधान की तरह इसे प्रस्तुत किया है, लेकिन क्या यही समाधान है: “मैं वृद्धाश्रम जाना चाहती हूँ, जहाँ मैं अपने लिए जीना सीख सकूँ। मैं जिंदगी भर कभी पिता, कभी पति, कभी पुत्र पर निर्भर होकर जीती रही हूँ। अब और नहीं।” कहानी सोचने को बाध्य करती है, इसमें संदेह नहीं। ‘परिवर्तन के पल’ में भी विस्तार से पारिवारिक संबंधों के खो जाने और संपत्ति के कारण उनमें आने वाले बदलावों का चित्रण करते हुए लेखिका ने पिता के दृढ़ निश्चय के रूप में समाधान देकर लालची पुत्र और पुत्रवधू को दंडित किया है। अपनी संपत्ति के बारे में अंतिम निर्णय का अधिकार यदि पिता बचाकर रखे, तो संतान को सीख मिलती रहेगी। शायद यही संदेश लेखिका यहाँ देना चाहती हैं। ‘मोहभंग’ और ‘परिवर्तन के पल’ के अभिधा और पंडितजी आत्मनिर्णय का साहस दिखाते हैं और वृद्धावस्था में संतान पर निर्भर रहने की उस रूढ़ि को तोड़ते हैं, जो हमारे पुरखों को उनके मानव होने के अधिकार तक से वंचित करती है। लेकिन इन कहानियों में जो सामाजिक संकेत छिपा है, वह बड़ा भयावह है। यदि संतानें इसी तरह क्रूर और नृशंस होती रहें और माता-पिता के समक्ष घर छोड़ने तथा संपत्ति बेचने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग न रहे, तो यह भारतीयता के धागों के टूटने की सूचना है! 

‘फाँस की काई’ वस्तु और कला दोनों दृष्टियों से लेखिका की प्रतिनिधि कहानी है। यह कहानी सब कुछ बर्दाश्त कर सहिष्णुता की सीमा पार कर गई स्त्री के विस्फोट की कहानी है। विस्फोट जो सब कुछ को ध्वस्त कर देता है, यहाँ फिर से कहना होगा कि यह सच्चाई भारतीयता के भविष्य के बारे में एक भयावह सामाजिक संकेत है। यदि यह समाज अपने आपको बदलेगा नहीं, स्त्री को उसके सारे मानवाधिकार नहीं देगा, तो इसे ध्वस्त होना पड़ेगा। 

[2]

‘मेरी इक्यावन कहानियाँ’ (2009) में डॉ. अहिल्या मिश्र की विविधरंगी अनुभवों पर आधारित 51 कहानियाँ सम्मिलित हैं। एक कहानीकार के रूप में अहिल्या मिश्र समकालीन कहानी की अनेक प्रवृत्तियों से असंतुष्ट और क्षुब्ध दिखाई देती हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि समकालीनता के नाम पर आजकल साहित्य में सामाजिक संघटन को विघटित करने, राष्ट्रीयता को ध्वस्त करने तथा देश के छोटे-से-छोटे गाँव से लेकर राजधानी तक को वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर लगभग गृहयुद्ध जैसी स्थिति में झोंकने का षड्यंत्र चल रहा है। इससे साहित्य के मूल धर्म की क्षति उन्हें चिंतनीय प्रतीत होती है। कलमकारों का संस्कृति की रक्षा के स्थान पर उसके क्षरण में प्रवृत्त होना भी उन्होंने लक्षित किया है और यह चाहा है कि साहित्य लोकमंगल का पक्ष लेते हुए मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु समर्पित हो। इन मानवीय मूल्यों में सत्य, प्रेम, क्षमा, दया, करुणा, स्नेह, अनुराग, वात्सल्य, धीरता, वीरता, अहिंसा, औदार्य, मैत्री, सहयोग, संयम, कर्तव्यपालन, व्यवहार माधुर्य और सर्वभूत हितौषिता जैसे लोक हितकारी मनोभाव लक्षित किए जा सकते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ यथार्थ के धरातल पर स्थापित होने के बावजूद मनुष्य के विद्रूप स्वरूप के स्थान पर उसके आदर्श सौंदर्य को उकेरती हुई प्रतीत होती हैं।

अहिल्या मिश्र की कहानियों में गाँव और शहर का द्वंद्व परिवेश और मानसिकता दोनों ही स्तरों पर दिखाई देता है। उनका लेखकीय मन हैदराबाद जैसे महानगर में रहने के बाद भी मिथिलांचल के लिए तड़पता है। शहरी जीवन की आपाधापी, प्रदर्शनप्रियता और औपचारिकता पर उन्होंने अनेक स्थलों पर व्यंग्य किया है तथा सहज मानवीय संबंधों की सर्वोपरिता को बार-बार प्रतिपादित किया है। दांपत्य जीवन में पति-पत्नी के व्यक्तिगत अहं के कारण पड़नेवाली दरार उनकी कई कहानियों में दिखाई देती है लेकिन अनेक स्वनामधन्य स्त्रीवादी लेखिकाओं से अहिल्या मिश्र इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे इस अहं के विस्फोट में रिश्तों और घर को चकनाचूर नहीं करती बल्कि किसी-न-किसी संवेदन बिंदु से स्नेह की डोर को अटका देती हैं और स्त्री-पुरुष के मध्य संतुलन खोज लेती हैं।

अहिल्या मिश्र की कहानियाँ कल और आज में बहुत सहजता से आवाजाही करती प्रतीत होती हैं। स्मृतियों का उनके पास अकूत खजाना है। ये स्मृतियाँ उनके पात्रों के जीवन में रह-रहकर आती हैं और उनके मानस को कुरेदती हैं। यही कारण है कि अनेक पात्र अपने जीवन का पुनर्वलोकन और मूल्यांकन करते प्रतीत होते हैं। ये स्मृतियाँ पात्रों के आत्मसाक्षात्कार का आधार भी बनी हैं और किसी प्रस्थानबिंदु पर निर्णय की प्रेरणा भी। जीवनानुभव के मंथन से ऐसे अवसरों पर उन्होंने महत्वपूर्ण निष्कर्ष भी निकाले है। उदाहरण के लिए, पारिवारिक और सामाजिक मर्यादा के नाम पर निश्छल प्रेम की बलि देकर प्रेमहीन गृहस्थ जीवन अपनाने को उन्होंने फाँसी का फंदा पहनने जैसी मूर्खता माना है। इससे यह भी पता चलता है कि परिवार व्यवस्था की समर्थक होते हुए भी वे उसके दोषों से आँख नहीं फेरतीं और ऐसे विवाह को अवैध मानती है जिसमें लड़की को जानवरों सा बाँध-छाँदकर सात फेरों में कैद कर दिया जाता है। इसके व्यक्तिगत, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों और परिणामों की चर्चा उनकी कई सारी कहानियों में मिलती है।

‘मेरी इक्यावन कहानियाँ’ पर यदि इस दृष्टि से विचार किया जाए कि किस कहानी के लिए लेखिका ने अपने आस-पास की किस स्त्री या किस घटना से प्रेरणा प्राप्त की है, तो काफी रोचक जानकारियाँ सामने आ सकती हैं। ऐसा कहने का आधार यह है कि इन कहानियों को पढ़ते समय कई परिचित चेहरे और जीवन स्मृतियों में चक्कर मारने लगते हैं। स्मृतियों के साथ अहिल्या जी ने विस्मृति के दलदल को भी बखूबी समेटा है। हैदराबाद की एक व्यस्त सड़क पर गाउन पहने, गले में दुपट्टा डाले तेजी से चली जा रही प्रो. मति को कहानी का पात्र होते हुए भी सहज ही पहचाना जा सकता है। यह पहचान तब और भी गहरी हो जाती है जब जया सत्या को बताती है कि ‘‘अगर तुम इनकी आवाज सुन लोगी तो मंत्रमुग्ध हो जाओगी। 

मधुरवाणी इनके व्यक्तित्व का मुख्य अंग है। मीठी आवाज इनकी पहचान है। हँसमुख चेहरा लिए सभी से प्यार से मिलना इनकी आदत है।’’ प्रो. मति के मित्र और छात्र इतने से परिचय से उन्हें साफ पहचान लेंगे। उनका दोहन करनेवाले साहित्य जगत के ठेकेदार मति की गतिविधियाँ भी हैदराबाद के हिंदी जगत की रोज की देखी-भाली गतिविधियाँ हैं। प्रो. मति अब इस स्वार्थी संसार में नहीं हैं। पता नहीं, उन्हें पता भी है कि नहीं कि किसी ने उन्हें कहानी बना दिया! 

डॉ. अहिल्या मिश्र की इन कहानियों की विषयवस्तु जिस तरह दैनंदिन जीवन से उठाई गई है, परिवेश और भाषा भी बड़ी सीमा तक वहीं से गृहीत है। एक और बात, मिथिलांचल लेखिका का पीछा नहीं छोड़ता- पीहर ने कभी किसी स्त्री का पीछा छोड़ा है! यही कारण है कि वे अनेक स्थलों पर अपनी कहानियों में मैथिल परंपरा और मान्यताओं पर विस्तार से प्रकाश डालती हैं और मैथिली भाषा के संवाद रचती हैं। इससे इन कहानियों को वास्तव में वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है। निस्संदेह लोकसंस्कृति और जनभाषा के प्रयोग ने अहिल्या मिश्र की कहानियों को मौलिक व्यक्तित्व प्रदान किया है। 

उत्तर प्रदेश हिंदी, उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड कमेटी के कार्यक्रम में गर्वनर श्री कृष्णकांत शास्त्री के द्वारा साहित्य शिरोमणी सम्मान प्राप्त करते हुए डाॅ. अहिल्या मिश्र और साथ में कुँवर बेचैन, गोपाल दास नीरज, पुप्पलता तनेजा के. हि. नि. निदेशक एवं अन्य

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